
अब देश के चार राज्यों – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और उड़ीसा के तकरीबन 25,000 भूमिहीन किसान और आदिवासी एकता परिषद के बैनर तले ग्वालियर से दिल्ली तक करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर की जनादेश यात्रा कर रहे हैं। यात्रा 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर ग्वालियर से शुरू हुई और मोरैना, धौलपुर, आगरा और मथुरा होते हुए आगे बढ़ रही है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग से बल्लभगढ़ और फरीदाबाद होते हुए 28 अक्टूबर को दिल्ली पहुंचेगी। रास्ते भर ये लोग जगह-जगह जनसभाएं करते हुए अपनी बात लोगों तक पहुंचा रहे हैं। दिल्ली में ये जत्था दो दिन तक रहेगा। 29 और 30 अक्टूबर को जंतर-मंतर और राजघाट पर जनसभाएं की जाएंगी।
देश में भूमि सुधारों की ज़रूरत को चिह्नित करते हुए मैंने भी चार महीने पहले कल का कर्ज के तहत कई लेख लिखे थे और इस यात्रा से अपनी उम्मीदों का भी इज़हार किया था। लेकिन जब से मुझे एकता परिषद की सॉलिड नेटवर्किंग का पता चला है, तब से ये उम्मीदें कुछ और बढ़ गई हैं। इस संगठन का ताल्लुक पीएसीएस (Poorest Areas Civil Society) नाम के बड़े एनजीओ से है जो साल 2001 से ही छह राज्यों में फैले 93 ज़िलों के लगभग 20,000 गांवों में सक्रिय है। एकता परिषद के अध्यक्ष पी वी राजगोपाल हैं, जिन्होंने सत्तर के दशक में चंबल के नामी डकैतों के आत्मसमर्पण में अहम भूमिका निभाई थी।
इनकी पहुंच का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दो दिन पहले ही राजगोपाल जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरुणा रॉय के साथ सोनिया गांधी से मिले हैं, जिन्होंने भूमि सुधार के मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बात करने का आश्वासन दिया है। बताते हैं कि खुद ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद एकता परिषद की मांगों के पक्ष में हैं। अचंभे की बात को यह है कि ग्वालियर राजघराने के कांग्रेसी सांसद ज्योरादित्य सिंधिया और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक ने इनकी सभाओं में हिस्सा लिया है और इनकी मांगों का समर्थन किया है।
यही बात मेरे गले नहीं उतरती। जिन लोगों की ‘विकास’ नीतियों के चलते देश में अब तक दो करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं, आदिवासी जीवन के अधिकार से महरूम हो गए हैं, मुसहर और दुसाध से लेकर तमाम दलित भयंकर उत्पीड़न का शिकार हैं, वही लोग कैसे इनका परचम उठानेवाले संगठन का समर्थन कर रहे हैं? इस तरफ राजगोपाल ने एक इशारा जरूर किया है कि, “हमें हिंसा या चुप्पी के बीच चुनाव करना है। प्रशासन को समझना पड़ेगा कि जनादेश यात्रा में बहुत से लोग ऐसे हैं जो भविष्य में नक्सली बन सकते हैं।”
खैर जो भी हो, हमें तो इस बात से उत्साहित होना चाहिए कि इस बहाने ही सही, भूमि सुधारों का जो मसला महात्मा गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के साथ उठाया था, उस मसले पर देश में एक बार फिर चर्चा शुरू हो सकती है।
4 comments:
..बिल्कुल चर्चा शुरू ही होनी चाहिए...सुधार की तमाम लटकी हुई योजनाओं तमाम देश वासियों को उल्टा लटका दिया है...वयवस्था को समझना ही चाहिये कि ये छूटे हुए लोग वयवस्था को उल्टा लटकाने पर आ गये तो क्या होगा..
एकदम सही है। लेकिन, ये बात तो आम लोगों को तय करनी होगी कि इन खास को कैसे पटरी पर लाए जाए। मुश्किल ये होती है कि आम सिर्फ खासमखास बनने में ही सारी जिंदगी गुजार देता है।
1996-97 वर्ष में, मै गौंदिया (जिल्ला-भंडारा, महाराष्ट्र)जो छ्तीस गढ के पास है, मै पढता था और तब मैने वहां की परिस्थिती देखी थी, वहां तब मजदूरी रुपिया सिर्फ 10 दी जाती थी याने निर्धन आदिवासीयो का रक्त चूसा जाता था और तभी मुझे लगता था एक दिन ये आदिवासी लोग अपना हक के लिये हथियार उठायेंगे और आज वही हो रहा है.
खास की बपौती है और आम लोगों के मोर्चे की राजनीति है।
आम का मोर्चा भी खास ही बनाते हैं और उसे मैनीप्यूलेट करते हैं। इसलिये इन मोर्चों से भी कुछ विशेष हासिल नहीं हो पा रहा।
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