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Showing posts from August, 2008

कण-कण में भगवान नहीं, कण-कण में संघर्ष है

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सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पाणी। दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करो क्योंकि सृष्टि के कण-कण में राम हैं, भगवान हैं। अच्छा है। परीक्षा में प्रश्नपत्र खोलने से पहले बच्चे आंख मूंदकर गुरु या भगवान का नाम लेते हैं। अच्छा है। नए काम का श्रीगणेश करने से पहले माता भगवती के आगे धूप-बत्ती जला लेते हैं। अच्छा है। क्या बुराई है। हम किसी का कुछ बिगाड़ तो नहीं रहे। एक बार गांव में एक गरीब बेसहारा बुजुर्ग ने कहा था – भइया, आपन दुख या तौ हम जानी या भगवान। इस बूढ़े से आप भगवान की लाठी छीन लेंगे तो वह जी कैसे पाएगा। कोई नई लाठी दिए बगैर उससे पुरानी लाठी छीनिएगा भी मत। बड़ा पाप लगेगा। लेकिन यही भगवान जब हमारी आंखों पर आस्था की अपारदर्शी पट्टी बांधकर हमें बापुओं, स्वामियों, प्रचारकों की सत्ता-लोलुपता का शिकार बना देता है तब वह खतरनाक हो जाता है। हमारी निर्दोष आस्था तब हमें ताकत नहीं देती। वह एक ऐसा काला कम्बल बन जाती है जिससे ढंककर ठग हमसे सारा कुछ लूट ले जाते हैं। किसी शिव की आस्था अगर हमें आत्मशक्तियों को जगाने में मददगार लग रही है तो ठीक है। किसी पेड़ के सामने शीश नवाना अगर हमें अनिश्चितता

जो शांति ला सकते हैं, वे ही लूप के बाहर!!!

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वो डंके की चोट पर कहते हैं कि कंधमाल के जंगलों में बसे आश्रम में जन्माष्टमी के दिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या माओवादियों ने की है। लेकिन स्वामीजी के बाद आश्रम की बागडोर संभालनेवाले ब्रह्मचारी शंकर चैतन्य का कहना है कि माओवादी कभी ऐसा कर ही नहीं सकते। किसको सही माना जाए? कुछ पूर्व पुलिस अधिकारी भी मानते हैं कि हमले के अंदाज़ से नहीं लगता कि माओवादी ने लक्ष्मणानंद को मारा है। फिर जिन पांच हमलावरों को आश्रमवालों ने उस दिन पकड़ा है, उनमें से कोई भी माओवादी नहीं है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि उड़ीसा की बीजेपी-बीजेडी सरकार माओवादी हिंसा से नहीं निपट पाई है और वह स्वामी की हत्या में माओवादियों का हाथ बताकर चुनावी लाभ बटोरना चाहती है। ब्रह्मचारी चैतन्य भी राज्य सरकार पर निशाना साध रहे हैं। उनका कहना है, “हमने राज्य सरकार को 30 बार लिखा था कि स्वामीजी और हमारा जीवन खतरे में है, कि ईसाई नेता हमें धमकी दे रहे हैं। हादसे से पहले हमें स्वामीजी को मारने का धमकी भरा पत्र मिला था। हमने औपचारिक तौर पर पुलिस और ज़िला प्रशासन से शिकायत की। लेकिन उन्होंने चार लाठीधारी कांस्टेबल भेजकर इतिश्

कल जो कह गए वो भगवान थे क्या?

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किसी आदमी को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है कि उसके आत्मविश्वास को खत्म कर दो। और, पूरी की पूरी पीढ़ी को खत्म करने का भी यही फॉर्मूला है। कई बार सोचता हूं कि हम अपनी बातों की पुष्टि के लिए पुराने लोगों का सहारा क्यों लेते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा था, महात्मा बुद्ध ने ज्ञान दिया था, तुलसीदास रामचरित मानस में कहते हैं, कबीर कहते थे, रहीम बोले थे, गांधी का कहना था, लोहिया बोलते थे, रजनीश ने कहा था, नीत्शे के मुताबिक, मार्क्स ने अपनी संकलित रचनाओं के खंड 20 में लिखा है, राष्ट्रीयता के सवाल पर लेनिन कहते थे... अरे भाई! ये सब क्या है? और तो और हमने देखा है, देख रहे हैं और देखेंगे की ता-ता-थैया करनेवाले राजीव गांधी को भी ऐसे उद्धृत किया जा रहा है जैसे वे भारतीय राजनीति के धुरंधर रहे हों। क्या यह मरे हुए इंसान को भगवान बना देने की हमारी राष्ट्रीय आदत का नतीजा है या कुछ और? अक्सर मैं खुद से यह सवाल पूछा करता हूं। एक बात तो तय है कि गुजरा ज़माना जानकारियों के मामले में तो आज से कमतर ही रहा है, इसलिए जब हम सर्वज्ञ नहीं हो पा रहे तो उस दौर के लोग कैसे सर्वज्ञ हो सकते हैं, उनकी कही बातें क

नहीं पता था कि ईसाई इतने फटेहाल भी होते हैं

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धारणाएं कब आपको गुलाम बना लेती हैं, पता ही नहीं चलता। अभी तक ईसाई से मन में गोवा या केरल की किसी मैडम या मिस्टर डी-कोस्टा की छवि बनती रही है जिसने कुछ अंग्रेज़ी किस्म के कपड़े पहन रखे हों। शायद फिल्मों ने यह धारणा बनाई हो या आसपास के ईसाई परिवारों ने। इसलिए आज सुबह जब मैंने इंडियन एक्सप्रेस में यह तस्वीर देखी तो एकबारगी झटका-सा लगा। मन में पहली प्रतिक्रिया यही उठी कि अरे, ये तो गरीब आदिवासी हैं, ईसाई कैसे हो सकते हैं। लेकिन हकीकत तो यही है कि इनकी आदिवासी पहचान को गौण कर इन्हें महज नफरत का निशाना बनाया जा रहा है जिसके लिए ज़रूरी है कि इन भूखे-नंगे फटेहाल लोगों को ईसाई माना जाए। तो यह तस्वीर है उड़ीसा के ईसाइयों की जिनके घर विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने जला दिए हैं और वे फुलबानी की पहाड़ियों में शरण लेने के लिए भागे जा रहे हैं। फोटो पार्थ पॉल की, सौजन्य इंडियन एक्सप्रेस का

बहुत सारी मुसीबतों की जड़ है ये मुआ सेकुलरवाद

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भारतीय राजनीति से सेकुलरवाद के छद्म को खत्म कर देना चाहिए। अगर ऐसा हो गया तो हिंदू आतंकवाद के तरफदार कम से कम ये नहीं कह पाएंगे कि, “हम मध्यमार्गी हिन्दू, सेक्युलरिस्ट, साम्यवादी एवं नास्तिकों की दोगली/दोमुंही नीतियों के कारण हिन्दू युवाओं में भी कट्टरवादी पनप रहे हैं जो सही को सही और गलत को गलत कहने से न केवल बचता रहता है वरन्‌ सच को भी पूरी तरह गैंग अप होकर दबाने का काम करता है।” वैसे, अपनी पिछली पोस्ट पर किन्हीं madgao महोदय की यह टिप्पणी मुझे हजम नहीं हुई। फिर भी उनकी बात का आधार इतना बड़ा है कि इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। पहला तथ्य। साल 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान के आमुख में जब सेकुलर/पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया तब देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा रखी थी। लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। इसलिए इसका मकसद लोकतांत्रिक राजनीति को मजबूत करना हो ही नहीं सकता। मेरा मानना है कि किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य में सेकुलरवाद जैसे ढोंग की कोई ज़रूरत नहीं होती। आज हमारी सरकारी मशीनरी से लेकर निजी संस्थाओं तक में शीर्ष पर बैठे लोग आम लोगों को प्रजा समझते हैं।

किससे घात की तैयारी में हैं ये बजरंगी

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वे खुलकर नहीं, छिपकर वार करते हैं। सीने पर नहीं, कमर के नीचे प्रहार करते हैं। वे रामभक्त हनुमान के नाम को बदनाम करते हैं। वे बजरंगी हैं। बम बनाने में उस्ताद हैं। बमों में टाइमर लगाने का अभ्यास कर रहे हैं। वे माओवादियों और मुस्लिम आतंकवादियों के बाद हिंदुस्तान के नए उभरते आतंकवादी हैं। वे आम मुसलमानों ही नहीं, आम ईसाइयों और कम्युनिस्टों से भी नफरत करते हैं। हिंदुस्तान को हिंदुस्थान बनाने का सब्जबाग दिखाते हैं। दुनिया का एकमात्र हिंदू राष्ट्र नेपाल लोकतांत्रिक गणराज्य बना तो वे अवाम के खिलाफ राजा को बचाने में जुट गए। वे जनता की नहीं, शासकों की सोच के वाहक हैं। बीते रविवार को जन्माष्टमी के दिन उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में दो ऐसे बजरंगी हॉस्टल के अपने ही कमरे में रखे बम के सामानों के फटने से मारे गए। पुलिस कहती है कि वे बम बनाने की कोशिश में मारे गए। एक का नाम राजीव मिश्रा था और दूसरे का भूपिंदर सिंह। उनके दूसरे कमरे से बड़ी मात्रा में हैंड ग्रेनेड का सामान, लेड ऑक्साइड, पोटैशियम नाइट्रेट, बम के पिन, टाइमर और बैटरियां बरामद की गईं। साथ रहनेवालों को ज़रा-सा भी अंदेशा नहीं था कि उनके बगल म

एक पोस्ट पर इत्ते टैग! दहाड़ कम, गूंज ज्यादा!!

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काफी दिनों से देख रहा हूं कि कुछ ब्लॉगर छटांक भर की पोस्ट पर किलो भर के टैग लगा देते हैं। इधर पोस्ट का आकार तो बड़ा हो गया है, लेकिन टैग का वजन अब भी उस पर भारी पड़ता है। हो सकता है, ऐसे ब्लॉगरों की तादाद ज्यादा हो, लेकिन दो खास ब्लॉगरों पर मेरी नज़र गई हैं। ये हैं – सुरेश चिपलूनकर और दीपक भारतदीप। सुरेश जी श्रेष्ठ ब्लॉगर हैं। झन्नाटेदार अंदाज़ में लिखते हैं, जैसे अभी कोई धमाका कर देंगे। उनकी राष्ट्रभक्ति पर उंगली उठाना पूर्णमासी के चांद में दाग खोजने जैसा है। सेकुलर बुद्धिजीवियों पर तो ऐसे उबलते हैं कि वश चलता तो सबको सूली पर लटका देते या बंगाल की खाड़ी में फेंकवा देते। कल उनकी पोस्ट थी – खबरदार, यदि नरेंद्र मोदी का नाम लिया तो ... शीर्षक और उपसंहार में प्रत्यक्ष रूप से नमो-नम: किया है। लेकिन बाकी सब कुछ परोक्ष है। वो कहते हैं कि देश को ज़रूरत है, “एक सही युवा नेता की, जिसमें काम करने का अनुभव हो, दृष्टि खुली हुई हो, ‘भारत का हित’ उसके लिए सर्वोपरि हो, जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो, परिवारवाद से मुक्त हो, जो देश के गद्दारों को ठिकाने लगा सके, जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ‘नये भारत की नई दह

अब विदेशी दबदबे से कैसे बच पाएगा हमारा मीडिया

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कोलकाता के जेबकतरों के बारे में सुना है कि उनकी खास स्टाइल होती है। वो हमेशा ग्रुप में चलते हैं। जेबकतरे ट्रॉम में खड़े मुसाफिर के दोनों हाथों को अपने हाथों में ऐसा फंसाते हैं कि वो हाथ नीचे नहीं कर सकता। इस बीच उनका साथी मुसाफिर की जेब से बटुआ उड़ा लेता है। दिल्ली की प्राइवेट बसों में भी दो बार जेबकतरों को ऐसा करते देखा है। अखबारों और टेलिविजन न्यूज़ में सेंध लगाने के लिए विदेशी पूंजी ने भी यही तरीका अख्तियार किया है। और, हमारी सरकार न-न करते हुए भी उसका पूरा साथ दे रही है। आपको पता ही होगा कि अभी न्यूज़ चैनलों और अखबारों में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) की सीमा 26 फीसदी है। एफएम रेडियो में यह सीमा 20 फीसदी ही है। विदेशी कंपनियां इसे पहले चरण में 49 फीसदी करवाने के अभियान में लगी हुई हैं। उनकी लॉबीइंग का ही नतीजा है कि हमारी टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी, टीआरएआई समाचार चैनलों और अखबारों में एफडीआई की सीमा 49 फीसदी और एफएम रेडियो के मामले में न्यूज़ व करेंट अफेयर्स के लिए 26 फीसदी और नॉन-न्यूज़ के लिए 49 फीसदी करने की सिफारिश कर चुकी है। सरकार ने यह सिफारिश अभी तक मानी नहीं है। व

महज मृदा और मुर्दा ताकतों से नहीं घिरे हैं हम

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मैं सर्वे भवंतु सुखिन: कहता रहूं, निरंतर इसका जाप करता रहूं तो क्या सभी लोग सुखी हो जाएंगे? मैं व्यवस्था की नुक्ताचीनी करता रहूं, उसे बदलने की बात करता रहूं तो क्या वो बदल जाएगी? करीब चौदह महीने अफलातून भाई ने कुछ ऐसी ही बात उठाई थी कि चिट्ठे इंकलाब नहीं लाया करते। मैं उसकी बात से पूरी तरह सहमत होते हुए भी असहमत हूं। इसलिए कि आप कहें कि हाथ से खाना नहीं चबाया जाता तो मैं क्या कह ही क्या सकता हूं!! हाथ से हाथ का काम होगा और मुंह से मुंह का। दिन में पचास रुपए कमानेवाले परिवार की बेटी से आप उम्मीद करें कि वो भरतनाट्यम की श्रेष्ठ नर्तकी बन जाए तो ये मुमकिन नहीं है। उसी तरह बचपन से लेकर बड़े होने तक एयरकंडीशन कमरों में ज़िंदगी बितानेवाला इंसान कोयलरी का कुशल मलकट्टा नहीं बन सकता। हां, वो अंदर की आंखों से, ज्ञान से, विवेक से, अध्ययन से, विश्लेषण से, लेखन से बता सकता है कि पानी कहां ठहरा हुआ है कि देश में सब कुछ होते हुए भी बहुतों के पास कुछ भी क्यों नहीं है और सामाजिक शक्तियों का कौन-सा कॉम्बिनेशन बदलाव का वाहक बन सकता है। साइंटिस्ट को उसका काम करने दीजिए। काहे उससे मैकेनिक बनने की उम्मीद कर

देखते चलो, बहुत बड़ा है हमारे भीतर का भारत

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एक नया भारत सतह तोड़कर निकल रहा है। यह भारत उस भारत से अलग है जिसके बारे में कभी विद्वान कांग्रेसी नेता देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ का नारा दिया था। यह भारत उस भारत से भी अलग है जिसमें सरकार को ही भारत माना जाता है और सरकार के खिलाफ बगावत को राष्ट्रद्रोह करार दिया जाता है। यह भारत हमारे भीतर का भारत है जो किस्मत से सरकार की नज़रों से बचा रह गया है। दस-बीस साल पहले उद्योग जगत में इस भारत का परचम फहराया इंफोसिस जैसी कंपनियों और सॉफ्टवेयर जैसे उद्योग ने। और, अब खेल जगत में इसी भारत का झंडा बुलंद कर रहे हैं अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेन्दर। अमीर-गरीब सब इस भारत में शामिल हैं। यह जीतनेवाला भारत है, विश्व-विजय इसका ध्येय हैं। और, सरकार भी इसे इस ध्येय को हासिल करने से नहीं रोक सकती। अभिनव बिंद्रा ने जो कुछ भी हासिल किया, सब अपने संसाधनों और हौसले के दम पर। साल भर तक पीठ के दर्द से परेशान बिंद्रा सर्जरी और फिजियो थिरैपिस्ट की मदद से खुद को फिट करते रहे, तब जाकर गोल्ड मेडल हासिल किया। न तो सरकार और न ही किसी कॉरपोरेट हाउस ने उसकी मदद की। भिवानी के विजेन्दर और जितेन्दर अपने बॉक्स

तुम हो जाओ ग्लोबल, अपन तो ‘कूपमंडूक’ ही भले

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किसी को कूपमंडूक कहने का सीधा मतलब होता है कि उसने खुद को बहुत छोटे दायरे में समेट रखा है, असली दुनिया से उसने आंखें मूंद रखी हैं। लेकिन कन्नड़ के मशहूर कवि गोपालकृष्ण अडिगा की कूपमंडूक कविता इस शब्द का एक नया अर्थ खोलती है। कविता का नायक स्वप्नदर्शी और आदर्शवादी है जो समूचे ब्रह्माण्ड को अपने पहलू में समेट लेना चाहता है। वह सारे विश्व पर उड़ता है। लेकिन सफर के अंत में उसके पास रह जाते हैं चंद शब्द, कुछ जुमले। वह हर मौके पर वही जुमले बोलता रहता है। उसकी रचनात्मकता खत्म हो जाती है। आखिर में वह कुएं का मेढक बन जाता है और वहां जमा कीचड़ ही उसका संसार बन जाता है। आप सोच रहे होंगे कि उसने ऐसा क्यों किया? माना जाता है कि जब किसी मेढक की खाल सूख जाती है तो वह अपनी पीली चमक को फिर से हासिल करने के लिए कीचड़ में चला जाता है। शायद, ग्लोबीकरण की तमाम चकाचौंध के बीच कुएं के मेढक के रूप में लौटने की अनिवार्यता होती है ताकि आपने अपनी सीमाओं को लांघने की चाहत में जो कुछ खोया है, उसे फिर से हासिल कर सकें। ऐसा कहना बेवजह नहीं है। कर्णाटक के दक्षिण और उत्तर कनारा ज़िले में बमुश्किल कुछ मील के अंतर पर आप

अवाम के बीच से आना ही पर्याप्त है क्या?

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मैं कोई ऊंचे खानदान का नहीं हूं। मैं कहीं आसमान से ज़मीन पर नहीं आया। मैं एक मिडिल क्लास का आदमी हूं। मैं इस अवाम में से हूं। इसलिए इनका दुख-दर्द हमेशा मेरे पास रहता है। और, मुझे ज़िंदगी की मुश्किलात, जिंदगी की तकलीफात का पूरा अहसास है। मेरी मां की दुआएं, मेरी बेगम और बच्चों का सपोर्ट हमेशा मेरे साथ रहा है। और, ये मेरी ताकत है। अल्ला-ताला इस मुल्क को साज़िशों से महफूज़ रखे। अल्लाताला अवाम की मुश्किलें आसान करे। मेरी जान इस मुल्क, इस कौम के लिए हमेशा हाज़िर रहेगी। ये हैं परवेज़ मुशर्रफ के आखिरी अल्फाज़ जो उन्होंने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देते वक्त पाकिस्तान के अवाम से कहे। उन्होंने कहा – पाकिस्तान मेरा इश्क है। उन्होंने अपनी साफ नीयत का हवाला दिया। कहा - गरीब अवाम पिसा जा रहा है जिसका उन्हें दिली रंज है। लेकिन क्या राजनीति में अवाम के बीच से आना और नीयत का साफ होना ही पर्याप्त है? मां की दुआएं और बीवी-बच्चों का सपोर्ट तो हर नेता के साथ रहता है। हमारे लालूजी से लेकर नीतीश कुमार इसका दावा कर सकते हैं। मायावती तो देश के सबसे दलित तबके से आती हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक आम आदमी के बीच

मानस ने डूबकर पूछा, दीदी तूने ऐसा क्यों किया?

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मानस एक ऐसा शख्स था जो होश संभालने के बाद हमेशा लीक से हटकर चला। जब होश नहीं था, तब भी नियति ने उसे आम लोगों के बीच से उठाकर खास स्थान पर रख दिया था। मां-बाप, भाई-बहन तंग हालात से गुजरते रहे लेकिन उसके इर्दगिर्द हमेशा एक कवच बना रहा, उसी तरह जैसे भयंकर बारिश में उफनती यमुना से गुजरते कान्हा के ऊपर शेषनाग छतरी बनकर तन गया था। लेकिन 25-26 साल का होते ही अचानक सुरक्षा की ये छतरी मानस के ऊपर से गायब हो गई। उसे इसका एहसास तब हुआ तब उसने शादी की। न देखा न भाला। सोचा सब अच्छा ही होगा। फिर बड़ी दीदी ने तो लड़की देख ही ली थी। लेकिन शादी के पहले ही दिन मानस को झटका लगा। उसने सोचा, चलता है। हर लड़की गीली मिट्टी की तरह होती है, जिसे वह थोड़ा अपने हिसाब से ढाल लेगा और थोड़ा खुद भी उसके हिसाब से ढल जाएगा। लेकिन शादी के तीन साल बाद मानस इस रिश्ते को लेकर पूरी तरह निराश हो गया। उसने बड़ी दीदी को एक खत लिखा। इसमें लिखा था कि... आदरणीय दीदी, प्रणाम। अरसे बाद आपको पत्र लिख रहा हूं। अकेला हूं। नलिनी अम्मा-बाबू जी के पास गई है। होटल से अभी-अभी खाना खाकर रात 11.30 बजे कमरे पर आया हूं। शादी के बाद से ही बार-

79 सालों बाद भगत सिंह फिर संसद के गलियारे में

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वो 8 अप्रैल 1929 का दिन था जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश भारत के असेम्बली हॉल में बम फेंककर अवाम की आवाज़ बहरे हुक्मरानों को सुनाने की कोशिश की थी। इसी ‘गुनाह’ के चलते भगत सिंह को फांसी दे दी गई। अब भगत सिंह दोबारा पहुंच गए हैं इसी भव्य इमारत में जो अब भारतीय संसद भवन बन गई है। आज भगत सिंह की 18 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा संसद भवन के परिसर में लगाई गई। सोचिए, 61 साल लग गए आज़ाद भारत की सरकार को भगत सिंह का सम्मान करने में। वैसे इसका श्रेय लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को भी दिया जाना चाहिए क्योंकि यह प्रतिभा लोकसभा सचिवालय ने ही दान दी है। इस मौके पर उस पर्चे का एक अंश पेश है, जिसे भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में फेंका था... हम हर मनुष्य के जीवन को पवित्र मानते हैं। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें हर इंसान को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का ख़ून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। लेकिन क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।

क्या करेंगे 15 अगस्त की पैदाइशी विकलांगता का?

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ठीक आधी रात को, जब सारी दुनिया सो रही होगी, तब भारत जागेगा जीवन और स्‍वतंत्रता के संचार के साथ। ... आज हम अपनी बदकिस्मती का दौर खत्म करते हैं, और भारत दोबारा अपनी पहचान हासिल करेगा। नेहरू के ऐतिहासिक भाषण की इन लाइनों से करोड़ों भारतवासियों का रोम-रोम सिहर उठा था। लेकिन इस शब्दों में छिपा था एक छद्म... क्योंकि ठीक जिस वक्त वे यह लफ्फाज़ी कर रहे थे, उन्हें अच्छी तरह पता था कि भारतीय अवाम की बदकिस्मती का दौर खत्म नहीं होनेवाला। इस विद्वान प्रधानमंत्री को निश्चित रूप से पता रहा होगा कि जिस तंत्र ने ब्रिटिश राज की सेवा की है, उससे भारत में नए जीवन और स्वतंत्रता का संचार नहीं हो सकता। एक तरफ यह ‘युग-पुरुष’ पुराने तंत्र को जारी रखने की गारंटी कर रहा था, दूसरी तरफ अवाम को मुक्ति का संदेश दे रहा था। वाकई, नेताओं की कथनी और करनी में अंतर का, उनके दोमुंहेपन की कर्मनाशा का स्रोत रहे हैं हमारे पंडितजी। 15 अगस्त 1947 के बाद अंग्रेज़ों का बनाया प्रशासनिक ढांचा जस का तस कायम रहा। आईसीएस के औपनिवेशिक प्रशासन तंत्र ने आईएएस का आभिजात्य बाना पहन लिया। होना तो यह चाहिए था कि प्रशासनिक अधिकारियों को आर्थि

जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहां हैं...

प्यासा... गुरुदत्त की ये फिल्म अब भी बार-बार याद आती है। 1957 में बनी इस फिल्म का गाना, जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहां हैं ... इस बात का गवाह है कि आज़ादी के दस साल बाद ही अवाम का मोहभंग शुरू हो गया था। इस गाने को देखना-सुनना इतिहास की एक अनुभूति से गुजरना है...

बंटवारे का दंश झेला, फिर भी बंटवारे की राजनीति!!

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आडवाणी अपनी किताब – My Country, My Life में लिखते हैं कि उनके सिंध में हिंदू-मुसलमान सांस्कृतिक रूप से इतने जुड़े हुए थे कि उन्हें एक दूसरे से अलग किया ही नहीं जा सकता था। फिर भी दो राष्ट्रों के सिद्धांत ने हिंदुस्तान को बांट दिया। लेकिन उन्हीं आडवाणी की राजनीति आज देश में हिंदू-मुस्लिम नफरत और बंटवारे पर टिकी हुई है। होना तो यह चाहिए था कि बंटवारे का दंश झेल चुके आडवाणी दोनों समुदायों को जोड़ने का काम करते। लेकिन वो कर रहे हैं इसका उल्टा। राजनीति की मजबूरी इंसान से क्या-क्या नहीं करवाती। आप पढ़िए कि आडवाणी ने अपनी किताब में लिखा क्या है... 14 अगस्त 1947...यही वो दिन था, जब संयुक्त भारत से काटकर एक अलग मुस्लिम देश के रूप में पाकिस्तान का गठन हुआ। कई सालों से मैं दो राष्ट्र के सिद्धांत का जुमला सुनता आ रहा था। मेरा युवामन इसे कतई पचा नहीं पा रहा था। हिंदू और मुसलमान कैसे दो अलग राष्ट्रों के वासी हो सकते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके धर्म अलग हैं, आस्थाएं अलग हैं? इसका कोई मतलब नहीं था जब मैं सिंध की सांस्कृतिक बुनावट और सामाजिक तानेबाने को देखता था जिसमें न तो हिंदू को मुसलमान से और न ही मुस

आइए उखाड़ते हैं 61 साल पुराने कुछ गड़े मुर्दे

डॉक्टर के पास जाइए तो वह आपसे आपकी बीमारी का पूरा इतिहास पूछता है। इसी तरह अगर भारत की वर्तमान समस्याओं को समझना है तो हमें इसके इतिहास में जाना पड़ेगा, खासकर ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लम्हे को समझना पड़ेगा। इसी संदर्भ में कुछ तथ्य पेश हैं। 15 अगस्त 1947 को आज़ादी के औपचारिक मौके पर पहले God Save the King की धुन बजी, उसके बाद जनगण मन अधिनायक जय हे का गान हुआ। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ब्रिटिश के राजा के स्वास्थ्य की कामना की और वायसरॉय माउंटबेटन ने ब्रिटेन के राजा को ही प्रमुख माननेवाली भारत सरकार के स्वास्थ्य की। यह महज संयोग नहीं था कि जिस वक्त भारतीय ध्वज तिरंगा फहराया गया, उस वक्त अंग्रेज़ों के झंडे यूनियन जैक को झुकाया नहीं गया। ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना इस बात के लिए राजी हो गए थे कि भारत और पाकिस्तान यूनियन जैक को साल में बारह दिन फहराएंगे, लेकिन इसे प्रचारित नहीं किया जाना चाहिए। माउंटबेटन ने लिखा है कि “दरअसल, वे इस बात से चिंतित हैं कि ब्रिटिश रिश्तों पर ज्यादा ज़ोर दिया गया तो अतिवादी बवाल मचा सकते हैं, हालांकि वो इसके लिए (माउंटबेटन की डिज

ब्रह्मराक्षस का हश्र नहीं होनेवाला है हमारा

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महीनों हो गए। दिल्ली के एक राजनीतिक मित्र का फोन आया था कि यार, तुम ये सब लिख क्यों रहे हो। वरिष्ठ हैं, इसलिए उनका जवाब नहीं दे पाया। लेकिन सोचता ज़रूर रहा। अगर मदन कश्यप कोई पत्रिका निकालें तो ठीक है, कोई राय साहब या पांडेजी बंद कमरों में बैठकर बोझिल विमर्शों और आत्म-प्रशस्ति से भरी प्रतिरोध की सामाजिक सांस्कृतिक पत्रिका निकालें तो ठीक है। तमाम लोग माथे पर लाल पट्टी बांधकर ब्लॉग लिखते रहें, दुकानें खोल लें, जूतम-पैजार करते रहें तो ठीक है। लेकिन मुझसे पूछा जाता है कि ये सब क्यों लिख रहे हो? ‘क्रांति के ठेकेदारों’ की बिरादरी मुझे अछूत समझकर थू-थू करती है और जमात में शामिल ब्लॉगिए अपने ब्लॉग पर मेरी छाया तक नहीं पड़ने देते हैं। इसीलिए कि मैं अपनी पीठ पर कोई मुलम्मा लगाने की ज़रूरत नहीं समझता!! तकलीफ होती है, इंसान हूं, सामाजिक प्राणी हूं। जिनके साथ कभी काम किया हो, देश-दुनिया बदलने के सपने देखे हों, उनकी दुत्कार से दिल को बहुत चोट लगती है, न जाने कितने खंडों में टूटकर सिसकने लगता है दिल। अरे, पूरी ज़िंदगी के ऊर्जावान दिनों को झोंककर यही तो पूंजी जुटाई थी हमने और ‘वही सूत तोड़े लिए जा रहे

आईना सच दिखाता है लेकिन पूरा नहीं

15 अगस्त में अब चंद दिन ही बचे हैं। देश 61वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। इस बीच देश की पूरी तस्वीर मन में उतारने की कोशिश कर रहा हूं। एक तरफ उभरता भारत है जो दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बढ़ रहा है। दूसरी तरफ वो भारत है जो शहरों की गलियों में, गांवों के खेत-खलिहानों में हलकान हुआ पड़ा है। इन दो तस्वीरों का कॉन्ट्रास्ट मैंने देखने की कोशिश की। आप भी देखिए। अलग-अलग नहीं, साथ-साथ देखिएगा। देखिए कि दोनों में कोई सेतु है, एक का होना दूसरे के होने से जुड़ा है या दोनों एकदम disjoint हैं? मैं आज़ाद भारत हूं... तो आखिर ये कौन है...

जीत के राष्ट्रीय प्रतीकों का इतना भयंकर अकाल!!

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हर जगह से हारे हुए भारतीयों को कहीं तो जीत लेने दो – ये विमल की उस बड़ी चुभती हुई टिप्पणी का एक अंश है, जो उन्होंने मेरी एक शुरुआती पोस्ट पर की थी। लेकिन विमल की बात एक नया एहसास दे गई और वो एहसास आज भी कायम है। अभिनव बिंद्रा की जीत पर मचा हल्ला विमल की बात की तस्दीक करता है। वाकई जीत के राष्ट्रीय प्रतीकों का कितना भयंकर अकाल है अपने देश में? कभी हम कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स में अपनी पहचान खोजते हैं, कभी बीसीसीआई की क्रिकेट टीम में तो कभी लक्ष्मी मित्तल और बॉबी जिंदल में। पहले राजनीति में हमारे जननायक हुआ करते थे। क्रांतिकारी हमारी प्रेरणा हुआ करते थे। लेकिन राजनीति करता है, जानते ही हम मान लेते हैं कि वो भ्रष्ट होगा। और आज के सारे क्रांतिकारी सरकार की ही नहीं, हमारी नज़रों में भी आतंकवादी हो गए हैं। देश में प्रेरक राष्ट्रीय नेताओं की धारा जयप्रकाश नारायण के बाद सूख गई। वी पी सिंह जब से मंडल के नेता बने, अपनी सारी ‘ठकुराई’ खो बैठे। सब के नहीं, कुछ के नेता बन गए। वैसे भी, अवसरवाद मांडा नरेश की जन्मजात खासियत है तो इनसे कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। इस शून्य में जैसे ही कोई प

जीडीपी मतलब!! अरे, वही अपने गजा-धर पंडित

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हमारे गांव में एक गजा-धर पंडित (जीडीपी) थे। थे इसलिए कि अब नहीं हैं। गांव के उत्तर में बांस के घने झुरमुट के पीछे बना उनका कच्चा घर अब ढहकर डीह बन चुका है। तीन में से दो बेटे गांव छोड़कर मुंबई में बस गए हैं और एक कोलकाता में। वहीं पंडिताई करते हैं। शुरू में जजमान अपने ही इलाके के प्रवासी थे। लेकिन धीरे-धीरे जजमानी काफी बढ़ गई। गजाधर पंडित बाभन थे या महाबाभन, नहीं पता। लेकिन अब वो मर चुके हैं। बताते हैं कि किसी शाम दिशा-मैदान होने गए थे, तभी किसी बुडुवा प्रेत ने उन्हें धर दबोचा। जनेऊ कान पर ही धरी रह गई। लोटा कहीं दूर फिंक गया और गजाधर वहीं फेंचकुर फेंककर मर गए। जब तक ज़िदा थे, आसपास के कई गांवों में उन्हीं की जजमानी चलती थी। शादी-ब्याह हो, हारी-बीमारी हो या जन्म-मरण, उन्हें हर मौके पर काफी सीधा-पानी, दान-दक्षिणा मिल जाती थी। जजमान को बरक्कत का आशीर्वाद देते थे, लेकिन बराबर होती रहती थी उनकी अपनी बरक्कत। यही हाल किसी भी देश के जीडीपी यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (सकल घरेलू उत्पाद) का है। जीडीपी किसी देश की राष्ट्रीय ताकत का पैमाना माना जाता है। यही बताता है अर्थव्यवस्था की सेहत। अगर जी

एक नई उम्मीद के साथ

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इस कविता में मुक्तिबोध जैसे बिम्ब हैं, धूमिल जैसी निहंगई है और है पाश की पैनी धार। इसे मैंने दखल की दुनिया ब्लॉग पर पढ़ा, जिसका शीर्षक है हर बार आसमान में कुछ नया देखने को होता है । लेकिन वहां इसे जिस तरह घिचपिच अंदाज़ में गद्य के रूप में पेश किया गया था, मुझे नहीं लगता कि ज्यादा लोगों ने इस पर गौर किया होगा। कविता चंद्रिका की है या उन्होंने इसे पोस्ट भर किया है, मुझे नहीं मालूम। चंद्रिका जी, अगर आपने यह कविता खुद लिखी है तो मैं आपकी प्रतिभा की दाद देता हूं और आपने इसे केवल पोस्ट किया है तो इसे उपलब्ध कराने के लिए मैं आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूं। न रायपुर रायपुर है न मैं, मैं हूं देश में कई रायपुर हैं और कई मैं 'मैं' दूसरा बिनायक सेन है तीसरा अजय टीजी या कोई और आदमी जो रायपुर की सड़कों पर घूमते हुए भूल जाता है आदमीयत की तमीज़ घर से निकल कर वापस न लौटने का खौफ़ लिए देश की सुरक्षा से असुरक्षित, चलते-चलते अक्सर बदल देता है अपने रास्ते कई बार सड़क के किनारे खडे़ पेड़ उसे देखते हैं हिकारत की नजर से और वह भर उठता है भय और संदेह से पूरा शहर 'मैं' के लिए वर्जित प्रांत है

अखरता है किसी ज़िंदादिल इंसान का यूं चले जाना

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करीब ढाई हज़ार साल पहले गौतम बुद्ध ने कहा था – अज्ञान ही दुख का मूल कारण है। लेकिन यह ज्ञान मुसीबत में हमारा साथ छोड़कर चला जाता है। अज्ञान से उपजी निराशा में आज भी करोड़ों लोग तिल-तिलकर मरते हैं और जो लोग इस धीमी मौत को बरदाश्त नहीं कर पाते वो खुदकुशी कर लेते हैं। मुंबई में मंगलवार की रात 39 साल के बाबू ईश्वर तेयर के साथ यही तो हुआ। दो साल पहले मेडिकल जांच में पता चला था कि वो और उसकी पत्नी दोनों ही एआईवी पॉजिटिव हैं। इलाज चलता रहा। खास फायदा नहीं दिखा। इधर पता चला कि उनकी छह साल की बेटी भी एचआईवी पॉजिटिव है। यह इतना बड़ा झटका था कि दक्षिण भारतीय फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूशन और केबल टीवी का बिजनेस करनेवाले बाबू ईश्वर और उनकी पत्नी ने मरने-मारने का फैसला कर लिया। बाबू का छोटा भाई अरमूखम तेयर उनके साथ रहता था। उसे भाई-भाभी की हालत पता थी। मंगलवार शाम को छोटे भाई को बड़े भाई का फोन आया कि तुम थोड़ी देर से आना क्योंकि वो परिवार के साथ कहीं बाहर जा रहे हैं। छोटे भाई को बड़े भाई के इरादों की भनक तक नहीं लगी। घर पर तीनों बच्चों को भी इनकी भनक नहीं लगी। उन्होंने आठ-नौ बजे तक अपने स्कूल के बैग पै

कैसा लगेगा जब तीन की बिजली तीस में मिलेगी!!!

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आपको धुंधली-सी याद ज़रूर होगी। एनरॉन की दाभोल परियोजना से मिलने वाली बिजली की कीमत जब सात-आठ रुपए प्रति यूनिट निकली थी तो कितना हंगामा मचा था। आज महानगरों में हमें तीन से चार रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली मिलती है। लेकिन परमाणु बिजली की दर आज की लागत पर 30 रुपए प्रति यूनिट से ज्यादा रहेगी। यह मेरा नहीं, बल्कि परमाणु ऊर्जा विशेषज्ञ भरत करनाड का कहना है। करनाड ने भारत की परमाणु नीति पर एक किताब लिखी है जो इसी अक्टूबर में अमेरिका से छपने वाली है। इस समय दुनिया भर में कुल बिजली उत्पादन में करीब 16 फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली का है। बड़े देशों में फ्रांस अपनी बिजली ज़रूरत का 78 फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली से पूरा करता है, जबकि दक्षिण कोरिया 40 फीसदी, जर्मनी 28 फीसदी, जापान 26 फीसदी, ब्रिटेन 24 फीसदी, अमेरिका 20 फीसदी और रूस 18 फीसदी बिजली परमाणु संयंत्रों से हासिल करते हैं। भारत, ब्राजील, पाकिस्तान और चीन अपनी बिजली ज़रूरतों का एक से तीन फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली से पूरा करते हैं। लेकिन केवल बिजली से इन देशों की ऊर्जा या ईंधन ज़रूरतें पूरी नहीं होती। मसलन, फ्रांस में 78 फीसदी परमाणु बिजली परम

मायावती इतना टैक्स देती हैं तो भ्रष्ट हैं और बाकी?

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राजनीति में व्यक्ति की बस इतनी अहमियत होती है कि अवाम के कौन-से तबके उसमें अपनी चाहतों का अक्श देखते हैं। लोगों की चाहतें जिस नेता या पार्टी से कट जाती हैं, वो नेता या पार्टी जड़विहीन पेड़ की तरह सूख जाती है। अब इनके ऊपर नेताओं के भी नेता होते हैं, जैसे सोनिया गांधी और अमर सिंह या अरुण जेटली आदि-इत्यादि। फिर नेताओं के मनोनीत नेता होते हैं जैसे मनमोहन सिंह, राहुल गांधी या अखिलेश सिंह यादव आदि-इत्यादि। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज वामपंथियों और संघ के ज्यादातर कार्यकर्ताओं को छोड़ दें तो जो भी राजनीति में हैं, उनका मकसद सत्ता की rental value का दोहन करना है। उनकी कमाई करोड़ की घात दस की रफ्तार से बढ़ती है। करोड़ से शुरू होकर वह साल-दर-साल दस करोड़, सौ करोड़ और हज़ार करोड़ का आंकड़ा पार करती जाती है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी इसका अपवाद नहीं हैं। लेकिन दो मायनों में वो देश के बाकी नेताओं से भिन्न हैं। पहला यह कि मायावती आज देश की इकलौती ऐसी नेता हैं जिनमें उत्तर भारत का दलित और अति-पिछड़ा समुदाय अपनी ख्वाहिशों, अपने मान-सम्मान का अक्श देखता है और इसी वजह से वो सबसे बड़े जनाधार

कुत्ते के बगैर राहुल को रास नहीं आती अमेठी

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मनेका गांधी का पशु-प्रेम जगजाहिर है। लेकिन उनकी जेठानी सोनिया गांधी का परिवार भी जानवरों से बेहद प्रेम करता है। नहीं तो क्या वजह है कि जब राहुल गांधी पिछले दिनों अपने लोकसभा क्षेत्र अमेठी में थे तो वे अपने कुत्ते की जुदाई बरदाश्त नहीं कर सके। खबर है कि पिछले हफ्ते दस जनपथ से रेल मंत्रालय के पास खास अनुरोध भेजा गया कि राहुल गांधी के कुत्ते को गोमती एक्सप्रेस से लखनऊ भेजने का इंतज़ाम किया जाए। मैंने अभी तक भारतीय रेल में कुत्तों को सफर करते हुए नहीं देखा है। पता नहीं रेल से कुत्तों को ले जाने की इजाज़त है भी कि नहीं। लेकिन बताते हैं कि गोमती एक्सप्रेस में जगह न होने के बावजूद रेल मंत्रालय ने राहुल गांधी के कुत्ते को लखनऊ तक पहुंचाने की खास व्यवस्था की। उसके बाद ज़ाहिर है, गांधी परिवार के आगे दुम हिलाते कांग्रेसियों ने विशेष कार से इस वीवीआईपी कुत्ते को राहुल गांधी के पास अमेठी भेजा होगा। राहुल गांधी के इस प्रिय कुत्ते की कोई तस्वीर नेट पर होती तो ज़रूर मैं इस पोस्ट के साथ लगाता। फिर भी सजावट के लिए कुत्ते की एक सांकेतिक फोटो लगा रहा हूं। लेकिन मेरे दिमाग में सहज सवाल उठता है कि जनता के ब

शनिवार हो या इतवार, रोज़ पढ़ो अखबार

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ज्ञान भी हमारे समाज में मुक्ति का नहीं, बस दिखाने की चीज़ बन गया है। अभी कुछ दिनों पहले मेरे गांव के पास का एक युवक, मसूद खान मुझसे मिलने आया। बताया कि असगर भाई मुझे जानते हैं और मेजर काका ने उसे मेरा नंबर मिला है। खैर, मैं दफ्तर में उनसे मिला। अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली में बात हुई। खेती की समस्या से लेकर बेरोजगारी, राजनीति और दंगों की समस्या तक पर बात हुई। मसूद ने बातचीत में बराबर शिरकत की थी। और, मैं तो एक जोड़ी कान देखते ही प्रवचन की मुद्रा में आ जाता हूं। करीब आधे घंटे बाद मुलाकात के खत्म होने पर मसूद ने कहा – भैया, हम भले ही गांव के हों, लेकिन इधर-उधर से इतना ज़रूर पढ़ लेते हैं कि सभ्य समाज में किसी से भी आधा-एक घंटे बात कर सकें। मैं चौंक गया। तो क्या यह लड़का बिना किसी बात में इनवॉल्व हुए मुझसे बस बात करने के लिए बात किए जा रहा था ताकि एक इम्प्रेशन जमा सके? मुझे अफसोस हुआ। यह यादकर भी दुख हुआ कि 25-30 साल पहले हमारे ज़माने में भी जनरल नॉलेज़ बस कंपिटीशन क्लियर करने का ज़रिया था। उसका बाहरी संसार को जानने-समझने से कोई खास वास्ता नहीं था। साथ के ज्यादातर छात्रों की यही धारणा थी कि