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Showing posts from September, 2008

जन्मदिन एक है तो क्या भगत सिंह बन जाओगे?

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सरकार को भले ही न पता हो कि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का जन्मदिन 27 सितंबर है या 28 सितंबर, लेकिन मेरे बाबूजी को यकीन है 28 सितंबर ही भगत सिंह का असली जन्मदिन है। मुझे इसका पता तब चला जब वे सालों तक बार-बार मुझे यही उलाहना देते रहे कि जन्मदिन एक है तो क्या भगत सिंह बन जाओगे। जी हां, संयोग से मेरा भी जन्म आज के दिन यानी 28 सितंबर को हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी करने के दौरान देश-दुनिया की हवा लगी तो मन में धुन सवार हो गई कि कुछ ऐसा करना है जिससे पर्वत-सी बढ़ गई पीर पिघल सके। संगी-साथियों ने ज्ञान कराया कि गोरे अंग्रेज़ चले गए, मगर उनकी जगह आ गए हैं काले अंग्रेज़। भगत सिंह का सपना अब भी अधूरा है। फिर तो इरादा कर लिया कि सिस्टम का पुरजा नहीं बनना है, कुछ अलग करना है। अम्मा को बताया, समझाया। अम्मा मान गईं। लेकिन जो बाबूजी हमेशा कहावत सुनाते थे कि लीक-लीक कायर चलैं, लीकहि चलैं कपूत, अव, लीक छोड़ि तीनों चलैं शायर सिंह सपूत... जो बाबूजी मुझे ऐसा ही सपूत बनाना चाहते थे, वही बाबूजी मेरे इरादों का पता चलते ही भड़क गए। बोले तो करना क्या है? मैंने कहा – फकीरी कर लूंगा। बोले तो घर-परिवार क

मियां, तुम होते कौन हो!!!

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यह कहानी हमारे जैसे एक आम हिंदुस्तानी की है जो अपनी पहचान को लेकर परेशान है। इतना कि धर्म तक बदल लेता है। कहानी लिखी तो गई थी करीब सवा साल पहले। लेकिन आज हमारे मुखर समाज में जिस तरह का धुव्रीकरण हो रहा है, उसमें धूमिल के शब्दों में कहूं तो जिसकी पूंछ उठाओ, मादा निकलता है, प्यारे-से तेवरों वाला अच्छा-खासा आदमी चौदह सौ सालों की गुलामी की बात करने लगता है, उसका आत्मसम्मान, उसकी ऊर्जा, उसकी राष्ट्रभक्ति उसे उठाकर किसी खेमे में बैठा देती है, तब मुझे बड़ी सांघातिक पीड़ा होती है। इसीलिए आज यह कहानी फिर से पेश कर रहा हूं। इसे मैने हंस में राजेंद्र यादव नाम के कथाकार-साहित्यकार संपादक के पास भी भेजा था। लेकिन पारखी-जौहरी बड़े लोग हैं, ठेका चलाते हैं तो परवाह ही नहीं की। हां, मैं शारजाह में रहनेवाली पूर्णिमा वर्मन जी का ज़रूर शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिन्होंने बिना किसी जान-पहचान या सिफारिश के मेरी यह कहानी अभिव्यक्ति में छाप दी। आप इसे अभिव्यक्ति की साइट पर पूरा पढ़ सकते हैं। साथ ही अपने ब्लॉग में इसे मैंने सात पोस्टों में लिखा था। उनके लिंक क्रमबद्ध रूप से दे रहा हूं। हर लिंक क्लिक करने प

हिंदू कट्टरपंथ देश को जोड़ता नहीं, तोड़ता है: लोहिया

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बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कहना है कि कश्मीर घाटी में जो भी पाकिस्तान का झंडा फहराए, उसे गोली मार दो। सुनने में यह ठकुरई अंदाज़ बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन राजनाथ की इस ललकार में अलगाव का ऐसा बीज छिपा है जो अलगाववादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक है। प्रसिद्ध विचारक और राजनेता राम मनोहर लोहिया ने जुलाई 1950 में हिंदू धर्म में कट्टरपंथ और उदारपंथ के संघर्ष पर एक लेख लिखा था, जिसे अफलातून भाई ने करीब डेढ़ साल पहले अपने ब्लॉग पर हिंदू बनाम हिंदू शीर्षक से छापा था। हाल ही में उन्होंने इसे अपनी आवाज़ में भी पेश किया है। उसी लेख के संपादित अंश पेश कर रहा हूं। आमतौर पर माना जाता है कि सहिष्णुता हिन्दुओं का विशेष गुण है। यह गलत है सिवाय इसके कि खुला उत्पात अभी तक उसे पसन्द नहीं रहा। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन करके एकरूपता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली। हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें भी अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग सिद्धान्त

काया में चक्कर काटता क्रिस्टल का बालक

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मैं सो गया, मैं पत्ते खेल रहा हूं, मैं दाऊ पीकर बैठा हूं, मैं डांस क्लब जा रहा हूं... तब आप मुझे दोष दीजिए – कई साल पहले नौकरी से निकाले जाते वक्त मानस ने अपने बॉस से यही कहा था। बॉस ने उसकी एक न सुनी। फिर, नौकरी गई तो तब से लेकर अब तक मिली ही नहीं। नौकरी थी तो पिता की आकस्मिक मौत के बाद मां भी साथ रहने आ गई। उन दिनों मानस गुड़गांव दिल्ली के बीच मेहरौली के नजदीक बनी किसी डीएलएफ नाम की सिटी के किसी तीन कमरे के बड़े अपार्टमेंट में रहा करता था। मां आई, उसी बीच मकान-मालिक के ला सलामोस में रह रहे वैज्ञानिक बेटे के निधन की खबर आ गई। बेटे ने यूएस में अच्छी-खासी प्रॉपर्टी बना ली थी तो मकान-मालिक सपरिवार ला सलामोस चले गए। मानस की मां की रोती-बिलखती हालत देखकर बोले – ये अपार्टमेंट अब आपका हो गया। हम तो हमेशा-हमेशा के लिए विदेश जा रहे हैं। आप लोग अपना ख्याल रखिएगा। उसके बाद तीन कमरों का वो अपार्टमेंट मां-बेटे का घर बन गया। मां 76 साल की, बेटा 46 साल का। मानस की नौकरी 1999 में छूटी थी। मां महीनों-महीनों तक लगातार घर में ही रहती थी। मानस ज़रूर बराबर आसपास के पार्क और बाज़ार में एकाध दिन में चक्कर ल

आओ, आतंकवाद-आतंकवाद खेलें!!

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अयोध्या में विवादित राम मंदिर से सटे सरयू कुंज मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने मांग की है कि बीजेपी के पूर्व सांसद राम विलास वेदांती को फौरन गिरफ्तार किया जाए। वेदांती विश्व हिंदू परिषद के जानेमाने नेता हैं और बीजेपी ने अगले लोकसभा चुनावों के लिए उन्हें गोंडा से अपना उम्मीदवार घोषित किया है। हुआ यह कि 30 अगस्त को वेदांती ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई कि अलकायदा और सिमी के आतंकवादी उन्हें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं। ज़िला प्रशासन ने इस शिकायत को पूरा भाव देते हुए फौरन वेदांती का सुरक्षा घेरा मजबूत कर दिया और उनकी एक्स-श्रेणी की सुरक्षा में और ज्यादा पुलिसकर्मी तैनात कर दिए। साथ ही पुलिस ने वेदांती का मोबाइल फोन इलेक्ट्रॉनिक सर्विलिएंस पर डाल दिया ताकि उन्हें धमकी देनेवालों की पहचान की जा सके। पुलिस धमकी देनेवाले नंबरों का पता लगने के बाद सकते में आ गई क्योंकि दोनों फोन गोंडा ज़िले के कटरा कस्बे से किए गए थे और इन्हें करनेवाले दोनों ही लोग संघ परिवार से जुड़े संगठनों से ताल्लुक रखते थे। इनमें से एक थे पवन पांडे जो बजरंग दल के नगर अध्यक्ष हैं, जबकि दूसरे सज्जन हैं रमेश तिवार

असली गुनहगारों को बचाने के लिए पोटा ज़रूरी है

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गुजरात के बीजेपी नेता हरेन पंड्या की हत्या का केस बंद किया जा चुका है, लेकिन असली कातिल अभी भी कहीं ठहाके लगा रहे हैं तो इसलिए कि पोटा ने कानून के हाथ उनकी गरदन तक पहुंचने ही नहीं दिए। वैसे, अहमदाबाद में पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी 25 जून 2007 को ही इस मामले में नौ ‘गुनहगारों’ को उम्रकैद, दो को सात साल और एक को पांच साल कैद की सज़ा सुना चुकी हैं। हरेन पंड्या की हत्या तकरीबन साढ़े पांच साल पहले तब कर दी गई थी, जब वे मॉर्निग वॉक के बाद घर लौट रहे थे। हत्या के कुछ घंटे बाद ही मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान आ गया था कि यह हत्या पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और कराची में बैठे अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम ने करवाई है। गिरफ्तारियां हुईं। पकड़े गए बारह नौजवानों ने पुलिस के सामने अपना गुनाह कबूल भी कर लिया (जिसे पोटा के तहत साक्ष्य माना जाता है) और इन सभी को सज़ा हो गई है। फिर भी मैं कह रहा हूं कि असली कातिल अब भी नहीं पकड़े गए हैं तो इसलिए कि ज़रा-सा भी दिमाग से काम लेनेवाला कोई भी शख्स ऐसा ही कहेगा। क्यों और कैसे? बुधवार 26 मार्च 2003 को हरेन पंड्या का शव उनके घर से करीब दो किलोमीटर

यह अछूतोद्धार तो धंधे का फंडा है, नीच!

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बड़ी बात है। 34 सालों से न्यूक्लियर तकनीक और धंधे की दुनिया में अछूत बने भारत का उद्धार होनेवाला है। भारत-अमेरिका परमाणु संधि को 45 देशों का न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) स्वीकार कर चुका है। इसी महीने की 28 तारीख से पहले अमेरिकी संसद भी इस पर मुहर लगा ही देगी। मीडिया से लेकर कॉरपोरेट सेक्टर और यूपीए सरकार में शामिल पार्टियां ताली पीट रही हैं कि भारत का ‘अछूतोद्धार’ अब महज औपचारिकता भर रह गया है। कुछ दिन पहले वॉशिंग्टन पोस्ट ने खुलासा किया कि बुश के मुताबिक, भारत के परमाणु परीक्षण करने की सूरत में अमेरिका यह संधि खत्म कर देगा और परमाणु ईंधन से लेकर परमाणु तकनीक देना बंद कर देगा। सारा देश इस गुप्त पत्र के लीक होने से सन्न रह गया। विपक्ष कहने लगा कि सरकार और खासकर प्रधानमंत्री ने झूठ बोलकर देश को गुमराह किया है। लेकिन मंत्री से लेकर कांग्रेसी प्रवक्ता और मीडिया के स्थापित स्तंभकार कह रहे हैं कि भारत तो 1998 में दूसरे परमाणु परीक्षण के बाद ही कह चुका है कि वह आगे परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। और, बुश के कहने से क्या होता है। वाकई किसी लॉबी का हिस्सा बन जाने के बाद बड़े-ब़ड़े विद्वान कित

सारी सुविधाओं के ऊपर तनख्वाह हुई तीन गुना

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राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और राज्यपाल भारतीय जनता के सबसे बड़े सेवक हैं। यह सेवा करने के लिए उन्हें जो सुविधाएं मिलती हैं, उसमें उन्हें अगर एक धेला भी तनख्वाह न मिले तो उनकी ही नहीं, उनके खानदान की सेहत पर भी कोई असर नहीं पड़नेवाला। लेकिन हमारी सरकार ने इन सबकी तनख्वाह तीन गुनी कर दी है। राष्ट्रपति को पहले महीने के 50,000 रुपए मिलते थे, अब 1.50 लाख रुपए मिलेंगे। उप-राष्ट्रपति को जहां 40,000 रुपए मिलते थे, अब 1.25 लाख मिलेंगे और राज्यपालों को 36,000 रुपए के बदले महीने के 1.10 लाख रुपए मिलेंगे। आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने आज इस फैसले पर अंतिम मुहर लगा दी। देश और राज्यों के शीर्ष संवैधानिक प्रमुखों को यह बढ़ा हुआ वेतन जनवरी 2007 से मिलेगा। यानी, 20 महीने का लाखों रुपए का एरियर ऊपर से मिलेगा। सरकार इससे पहले छठें वेतन आयोग की सिफारिशों को मानते हुए करीब 65 लाख सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहें पहले से बढ़ा चुकी है। इसके तहत कैबिनेट सचिव का मूल वेतन 30,000 रुपए से बढ़ाकर 90,000 रुपए किया जा चुका है। बाकी कर्मचारियों की भी तनख्वाहें अच्छी-खासी बढ़ाई गई हैं। संदर्भवश बता दूं कि सरकार ने ल

सारी गड़बड़ लोकल है, बाकी सब ठीक है

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विदेश गए बबुआ को बाबूजी का खत... बेटा दपिन्दर, तुमको आदत है घर-परिवार से अलग हटकर देश-समाज की चिंता करने की, इसलिए ये खत लिख रहा हूं। नहीं तो आठ साल से लगातार तुमसे फोन पर बातचीत तो होती रहती है। हर हफ्ते तू ही फोन करके सारा हाल ले लेता है। हमको कहां कुछ करना पड़ता है। तू इधर-उधर की बात सुनकर भागकर आने की हड़बड़ी मत करना, इसलिए सारी बात साफ-साफ बता रहा हूं। मुझे पता है कि तुझे कोसी की बाढ़ से ज्यादा तकलीफ इस बात से हुई होगी कि बाहुबली सब राहत खा जा रहे हैं। मदद करने गए पुलिस वाले ने ही महिला से बलात्कार किया। इलाके के अधिकारी भ्रष्ट हैं। लेकिन बेटा, ये सारी गड़बड़ लोकल है, बाकी सब ठीक है। अमरनाथ में मंदिर को ज़मीन दी। घाटी उबल पड़ी। ज़मीन छीन ली। जम्मू सड़कों पर आ गया। चुनाव नजदीक हैं। बलवा हुआ, बवाल हुआ। फायरिंग में बहुत से लोग मारे गए। मामला तप गया तो समझौता हो गया। ये सच है कि अमरनाथ यात्रा में बराबर की मदद करनेवाले हिंदुओ-मुसलमानों में तनाव है, तल्खी है। लेकिन बेटा, ये पूरी गड़बड़ लोकल है, बाकी सब ठीक है। हरियाणा में मास्टर स्थाई नियुक्ति की मांग कर रहे थे। पुलिस क्या करती। पहले ला

तोड़े गए सारे पुल एक दिन लौटकर पुकारेंगे तुम्हें

पुश्किन की किसी कविता का जिक्र कहीं पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा है कि पुराने पुलों को इस कदर तोड़ देना चाहिए कि लौटना चाहो तब भी न लौट सको। फिर ट्रैसी चैपमैन का एक गाना सुना कि जिन-जिन पुलों को तुमने तोड़ा है, वो एक दिन लौटकर आएंगे और तुम्हें कचोटेंगे। चाक-चाक कर देंगे। जब भी मन उदास होता है, यह गाना दिमाग में बजने लगता है। बोल भी पेश हैं और वीडियो भी। All the bridges that you burn Come back one day to haunt you One day you'll find you're walking Lonely Baby I Never meant to hurt you Sometimes the best intentions Still don't make things right But all my ghosts they find me Like my past they think they own me In dreams and dark corners they surround me Till I cry I cry Let me take this time to set the record straight Let me take this time to take it all back Let me take this time to tell you how I felt Let me take this time to try and make it right But you can Walk away Be all alone Spend all your time Thinking about the way things used to be If love feels right You work it

अच्छी-अच्छी बातों को पटरा कर देती है ज़िंदगी

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किताबें आलमारी में पड़ी रह जाती हैं। उपन्यास और कहानियों को छोड़ दें तो बाकी किताबों को साल-दो साल बाद ही दोबारा पढ़ने पर लगता है कि अरे, इसमें ऐसी भी बात लिखी गई है! जैन मुनि को सुना। कैसे दया, करुणा, वात्सल्य के बखान के अलावा बता रहे थे कि क्यों दुश्मनों की उपेक्षा की जानी चाहिए। भागवत कथा सुनी। अहंविहीन, निस्वार्थ प्रेम की महत्ता समझी। भक्ति योग और ज्ञान योग का अंतर अच्छी तरह समझा। किसी बापू का प्रवचन सुना, किसी ओझा ने सुनाई रामकथा। अच्छी-अच्छी बातें सुनीं भी, गुनीं भी। नया जीवन-दर्शन समझा। इतना कि कई बार सबके सामने भावुक हो गए। नाचने लग गए। लेकिन असल ज़िंदगी में आते ही सब कुछ हो गया पटरा। क्यों होता है ऐसा? क्या हम इतने कुपात्र हैं कि अच्छी बातें हमारे अंदर टिक ही नहीं सकतीं? या, यह कि हमने दहेज लिया ही कहां है! वो तो लड़की के पिता ने खुद अपनी लाडली के प्रेम में इतना सारा दे डाला। अब, हम कैसे किसी की भावना को ठुकरा सकते थे? एक अजीब किस्म का दोगलापन हमारे आसपास बिखरा हुआ है। कथनी-करनी में भयानक खाईं। बातें सुनिए तो लगेगा कि इनसे महान कोई हो ही नहीं सकता। लेकिन काम देखिए तो पता चलत

लिया दोनों हाथ से, देना हुआ तो बोल दिया टाटा!

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अगर टाटा नानो कार की फैक्टरी सिंगूर से हटाकर कहीं और ले गए तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की राजनीति पर ताला लग सकता है। वैसे कल 5 सितंबर को राजभवन में राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी की सदारत में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों, टाटा समूह और ममता बनर्जी की एक बैठक होने जा रही है और खुद ममता बनर्जी ने उम्मीद जताई है कि मामले का कोई न कोई हल निकल आएगा। इस बीच एक ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक पश्चिम बंगाल के 85 फीसदी लोग इस परियोजना के पक्ष में हैं। लेकिन इसमें से 50 फीसदी लोग मानते हैं कि अधिग्रहण की गई कृषि भूमि की उर्वरता को देखते हुए किसानों को ज्यादा आकर्षक मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। उद्योग संगठन एसोचैम की तरफ से कराए इस सर्वेक्षण में पश्चिम बंगाल के 12 ज़िलों में करीब 2000 लोगों से बात की गई। साफ है कि पश्चिम बंगाल का भद्रलोक इस परियोजना के पक्ष में है। लेकिन साथ ही वो चाहता है कि प्रभावित किसानों को वाज़िब मुआवज़ा मिले। वाममोर्चा सरकार का दावा है कि वह सिंगूर के किसानों को बाज़ार कीमत का तीन गुना मुआवज़ा दे चुकी है। लेकिन वह यह नहीं बताती कि जिस भूमि को उसने एक-फसली करार दिया है, वो असल में बहु

रवीश, कुछ ज्यादा ही नहीं हो गई तारीफ!!

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कल के हिंदुस्तान में संपादकीय पेज़ पर रवीश कुमार ने अपने कॉलम में मेरे ब्लॉग की चर्चा की। लिखा है, “ डायरी के कई ऐसे पन्ने खुलते हैं जो पढ़ने के बाद बेचैन करते हैं, आशंकाओं के सामने खड़े कर देते हैं। जीडीपी के बहाने तरक्की की कहानी को वो अपने गांव के गजा-धर पंडित (जीडीपी) की कहानी से उल्टा टांग देते हैं। जीडीपी हमारे खर्च के अनुपात में बढ़ता है। इसे ट्रैफिक जाम में फंसे लोगों की मुसीबत से कोई मतलब नहीं होता। इसे मतलब होता है ट्रैफिक जाम के चलते हमने कितने का डीजल या पेट्रोल जला डाला। कैंसर का कोई मरीज बिना इलाज के मर जाए तो जीडीपी नहीं बढ़ेगा। तब बढ़ेगा जब मरीज महंगा इलाज करवाएगा। एक हिंदुस्तानी की डायरी ऐसे ही सवाल खड़े करती है। जो असहज हैं और जिन पर हंसी आती है क्योंकि लोग ऐसे सवालों पर हंसना सीख गए हैं। वो जानते हैं कि अगर गंभीर हुए तो एक हिंदुस्तानी की तरह वे भी बेचैन हो जाएंगे।” रवीश कहते हैं कि यह एक गंभीर ब्लॉग है। सोच-समझ कर लिखा जा रहा है। उन मुद्दों के साथ खड़े होने के लिए लिखा जा रहा है जिनके बारे में कोई बात नहीं करता। इस ब्लॉग पर मुझे रेल बजट पर लालू प्रसाद के भाषण का विश्लेषण क

ताकि हमेशा कायम रहे अपने पर अटूट आस्था

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आस्था में बड़ी ताकत होती है और संजय भाई ठीक कहते हैं कि बहुतेरे लोग आस्था की वजह से ही निराशा के दौर से उबरकर आत्महत्या से बच जाते हैं। लेकिन आस्था किस पर? किसी बाह्य सत्ता पर या अपनी संघर्ष क्षमता पर!!! ज्यादातर लोगों में ये दोनों ही आस्थाएं होती हैं। लेकिन कहते हैं कि भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद करता है। इस नीति वाक्य को आधार बनाएं तो इन दोनों में से अपनी संघर्ष क्षमता या अपने ऊपर आस्था ही प्राथमिक और निर्णायक है। जिसकी अपने पर आस्था खत्म हुई, समझो वह निपट लिया। इसी आस्था को मजबूत करने की कोशिश की थी मैंने यह लिखकर कि कण-कण में भगवान नहीं, कण-कण में संघर्ष है । यही संघर्ष आकर्षण-विकर्षण का भी सबब बनता है। जुड़ने-बिछुड़ने की अनंत क्रिया चलती रहती है। अनुनाद सही कहते हैं कि, “यदि देखना चाहें तो आपको कण-कण में आकर्षण देखने को मिल सकता है। ...हाइड्रोजन और आक्सीजन के परमाणु आकर्षित होकर एक साथ रहते हैं - इसी से पानी बनता है।” इसी लेख के संदर्भ में मैंने परमहंस सत्यानंद का एक लेख देखा जो विस्फोट पर काफी पहले छपा था और जिसका शीर्षक था – संघर्ष की अनिवार्यता। इसमें परमहंस सत्या

क्या बाढ़ राहत में कंपनियों का कोई दायित्व नहीं!

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बिहार की प्रलयंकारी बाढ़ राष्ट्रीय आपदा है। ये शर्म की बात है कि हमारा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन तंत्र बाढ़ की विभीषिका को कम करने में नाकाम रहा है। लेकिन इससे भी ज्यादा शर्म की बात है कि राहत में बंटनेवाली सारी सामग्री के खर्च से इन्हें बनानेवाली कंपनियों को पूरी तरह बरी रखा गया है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने व्यवस्था दी है कि कंपनियों को एक्साइज़ या उत्पाद शुल्क समेत राहत सामग्रियों की पूरी कीमत दी जाए। उन्होंने वित्त मंत्रालय से ऐसा पैकेज तैयार करने को कहा है जिससे भोजन सामग्रियों के पैकेट और पुनर्निमाण कामों में इस्तेमाल होनेवाले लोहे, इस्पात और सीमेंट की एक्साइज समेत पूरी कीमत इन्हें सप्लाई करनेवाली कंपनियों को मिले, जिसके बाद एक्साइज का हिस्सा इन्हें खरीदनेवाली एजेंसियों को लौटा दिया जाए। कहा जा सकता है कि टैक्स तो टैक्स है। कोई सरकार खुद इसे कैसे छोड़ सकती है। आखिर राजा हरिश्चंद्र तक ने अपने इकलौते बेटे के शवदाह की कीमत अपनी पत्नी से वसूल ली थी। लेकिन यहां मामला अलग है। सरकार इस हाथ ले, उस हाथ दे की नीति पर अमल कर रही है। वह एक तरफ कंपनियों को एक्साइज़-समेत पूरी कीमत मिलने की

गोवा के मैडगाव, आप तो वेद-पुराणों के ज्ञाता हैं!!!

Madgao जी, मैं नहीं जानता कि आपका असली नाम क्या हैं, आप कौन हैं और करते क्या हैं। लेकिन इतना पता चला है कि आप एक बुजुर्ग हैं, गोवा में रहते हैं और वेद-पुराणों के ज्ञाता हैं। आप जैसे ज्ञानी अगर अपना ब्लॉग बनाकर भारतीय परंपरा से वाकिफ कराते तो मेरा ही नहीं, सबका भला होता। लेकिन लगता है कि आप अपने एकाकीपन में आत्मरति का शिकार हो गए हैं। तभी तो जहां-तहां बेसिरपैर की टिप्पणी करते फिर रहे हैं। आपको पता नहीं है, फिर भी भारतीय संस्कृति और हमारे समय तक हिंदी माध्यम में शिक्षा देनेवाले मेरे आवासीय स्कूल को आप ‘सम्भवत: मिशनरी’ बता रहे हैं। अनुनाद, संजय बेंगाणी या सिद्धार्थ की तरह मेरी सोच में छूट गए पक्षों को उभारने के बजाय आप मेरा निजी छिद्रान्वेषण कर रहे हैं वो भी नितांत मनगढंत तरीके से। माखनलाल चतुर्वेदी के ज़रिए ‘श्वान के सिर हो चरण तो चाटता है, भौंक ले क्या सिंह को’ जैसे अपशब्द कह रहे हैं। आप जैसे ज्ञानी को यह छिछलापन शोभा नहीं देता। खैर, अभी तो मैं आपकी टिप्पणी नहीं हटा रहा हूं। अनुरोध है कि आप इसे खुद हटा लें। नहीं तो कल मैं इसे हटा दूंगा। आपका परिचय जानने के बाद आपकी टिप्पणी ने ज्यादा ही