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Showing posts from June, 2010

व्योम भाई, आप हिंदुवादी मानव-विरोधी क्यों हो?

वाकई यह मेरे गले नहीं उतरता कि जितने भी ‘हिंदुवादी’ हैं वे दबे-कुचले गरीब लोगों के साथ खड़े होने से इतने बिदकते क्यों हैं? एक गरीब महिला जो शायद माओवादी न रही हो, उसकी लाश को अर्ध-सैनिक बल के दो जवान किसी ढोर-डांगर की तरह लटका कर ले जा रहे हैं। कहां तो घुघुती जी और शायदा की तरह इसके मानवीय पक्ष को महसूस करना चाहिए था और कहां हमारे ये तथाकथित ‘हिंदू’ लोग इसे देखकर फुंकारने लगे। नहीं समझ में आता कि इसे देखकर सुरेश चिपलूनकर को क्यो कहना पड़ता है कि भारत के वीर सैनिकों को एक बार बांग्लादेश की सेना ने भी ऐसे ही लटकाकर भेजा था। संजय बेंगाणी अपना बेगानापन तोड़कर क्यों पूछ बैठते हैं कि माओवादी हमारे सैनिकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? कोई इसी बहाने मानवतावादियों को गद्दार बता बैठता है। एक व्योम जी हैं। मुझ पर उनका स्नेह रहा है। लेकिन कल लगाई दो तस्वीरों से ऐसे विचलित हुए कि अपनी स्थिति साफ़ करने लगे कि “हम तो भारत की ही तरफ थे, हैं और रहेंगे। आप इस देश का नमक खाकर जारी रखें गद्दारी। आपकी मर्जी। हां ब्लॉग का नाम ‘एक नक्सलवादी की डायरी’ रखें तो ज्यादा सार्थक रहेगा। डर-डर कर क्या समर्थन करना।” ब

माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!

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मुझे अलग से कुछ नहीं कहना है। बस दो तस्वीरें लगा रहा हूं। पहली तस्वीर बुधवार की है जिसमें हमारे सिपाही पश्चिम बंगाल में इनकाउंटर के दौरान मारी गई एक महिला माओवादी को ढोकर ले जा रहे हैं। दूसरी तस्वीर देश की नहीं, विदेश की है जिसमें एक मरे हुए सुअर को दो लोग ढोकर ले जा रहे हैं।