
मुझे समझ में आ गया कि यह संघर्षशील व्यक्ति भागकर आत्महत्या जैसी बात नहीं कर रहा, बल्कि उस ऊर्जा स्रोत की तलाश में है जो उसे हर प्रतिकूलता से जूझने में समर्थ बना दे, उस ज्ञानवान विवेक की तलाश में है जो उसे जटिल से जटिल निजी व सामाजिक उलझन को सुलझाने में सक्षम बना दे।
अब मैं अपनी तरफ मुड़ा तो अचंभे से भर गया। दस साल पहले मेरी भी तो यही अवस्था थी। फुरसत मिलते ही सोता था तो सोता ही रहता था। हद से ज्यादा सोने के बावजूद उठता था तो एकाध घंटे बाद ही फिर नींद की ढलवा स्लाइड पर सरक जाता था। फिर भी कभी वह ताजगी नहीं मिली थी जिसकी शिद्दत से तलाश थी। हां, इतना ज़रूर हुआ कि शरीर का पित्त निकलकर चेहरे पर आ गया। कोई देखता तो बोलता – जनाब, चुपके-छिपके गोवा गए थे, सन-बर्न सारा भेद खोले दे रहा है। उनको क्या बताता कि कौन-सा सन-बर्न झेल रहा हूं। मुस्कराकर उनकी बात मान लेता। कई बार मरने की इच्छा हुई तो उसे भी आजमा के देख लिया।
लेकिन आज स्थिति भिन्न है। आज तो ज़िंदगी को गन्ने की तरह चीरने और चूसने की इच्छा होती है। अनसुलझे को सुलझाने के कुछ सूत्रों की पूंछ भर पकड़ में आई तो बाहर की प्रकृति ने अंदर की प्रकृति को अदम्य जिजीविषा से भर दिया। लगता है पूरे सूत्र तक पहुंचने के लिए तो सौ साल की उम्र भी कम है। भौतिक रूप से कुछ खास पाने की इच्छा नहीं है। बस, यही चिंता सताती है कि कहीं मैं अपने समय के सबसे उन्नत विचारों से दूर न रह जाऊं। जिस तरह गौतम बुद्ध ने अपने समय को नांथा था, जिस तरह कबीर ने अपने समय पर सवारी गांठी थी, उसी परंपरा से जुड़ने की ख्वाहिश है।
मुझे लगता है कि हर युग की समस्याओं का स्तर पहले युग से ज्यादा उन्नत, ज्यादा जटिल होता है। हम बुद्ध, कबीर या गांधी से प्रेरणा ले सकते हैं। लेकिन उनकी कही बातों को सूक्तियों की तरह नहीं इस्तेमाल कर सकते। हां, सुलझाने की जो खुशी कबीर को मिलती थी, वह खुशी उतनी ही सघनता से हमें भी मिल सकती है। हम भी अनुभूति के उस स्तर पर पहुंच कर कह सकते हैं – संतो आई ज्ञान की आंधी, भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रहै न बांधी रे। या, साधो देखो जग बौराना। मजे की बात यह है कि इधर मुझे कबीर की उलटबांसियों के अर्थ का भी थोड़ा-थोड़ा आभास होने लगा है। बस, चाहत यही है कि सभी आभास और अनुभूतियां किसी तर्कसंगत नतीजे तक पहुंच जाएं और मैं अनंत आह्लाद की उस अवस्था में जा पहुंचूं जिसकी कल्पना हमारे मनीषियों ने कुंडलिनी जागरण के रूप में की है। इसके अलावा न तो मुझे धन चाहिए, न सत्ता चाहिए, न स्वर्ग चाहिए और न ही पुनर्जन्म। खैर, इसमें नया कुछ नहीं है। पहले भी तो यह बात कही जा चुकी है कि ...
न त्वहं कामये राज्यम्, न स्वर्ग, नापुनर्भवम्।
कामये दु:ख-ताप्तानाम् प्राणिनाम् आर्ति-नाशनम्।।