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Showing posts from May, 2007

मनमोहन का कृषि-दर्शन

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मनमोहन सिंह को कोई कुछ भला-बुरा कहता है तो अच्छा नहीं लगता। असल में मनमोहन सिंह बहुत कुछ अपने से लगते हैं। एक ईमानदार आदमी, जिसका राजनीतिक छल-छद्म और दिखावे से कोई लेना-देना नहीं। सामान्य मध्य-वर्गीय इंसान, जो संवेदनशील है, गरीबी से उठा है, कूपमंडूक नहीं है, किसी अंध विचारधारा के चंगुल में नहीं फंसा है, पढ़ा-लिखा है, बेहद अनुभवी है। बड़ी उम्मीद थी कि रिजर्व बैंक के गवर्नर से लेकर अंकटाड, आईएमएफ, विश्व बैंक और साउथ कमीशन तक के अनुभव के साथ वो देश की कृषि अर्थव्यवस्था पर एक जनोन्मुखी सोच पेश करेंगे। उम्मीद थी कि नियति ने इस गरीब के होनहार बेटे को जो ऐतिहासिक मौका दिया है, उसका फायदा उठाते हुए ऐसा कार्यक्रम पेश करेंगे जिससे खेती पर निर्भर देश की दो तिहाई आबादी का उद्धार हो सकेगा। लेकिन अफसोस, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने ऐतिहासिक मौके को बेकार जाने दिया। उम्मीदों पर बर्फ फेर दी। दिखा दिया कि वे महज एक काबिल नौकरशाह हैं, उनके अंदर का राष्ट्रभक्त, संवेदनशील हिंदुस्तानी न जाने कब का दफ्न चुका है। उनसे नया कुछ करने की आस बेमानी है। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मनमोहन सिंह ने इस सोच को प

एक विलंबित सांस

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वह 18 मई का दिन था। मैंने मोहल्ले पर अविनाश जी के एक मार्मिक संस्मरण पर टिप्पणी क्या कर दी, वो ही नहीं उनकी प्रशस्ति करनेवाले भी विचलित हो गए। 19 मई से लेकर आज 24 मई तक बुखार में तप रहा था तो कुछ देख ही नहीं पाया कि कहां क्या चल रहा है, खासकर हिंदी ब्लॉग की सिमटी हुई दुनिया में। अब थोड़ा ठीक हो गया हूं तो सोचा, गलतफहमियों पर सफाई दे दी जाए। मैं साफ कर दूं कि बहस करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, न ही मैं अपने प्रतिबद्ध होने या न होने की डुगडुगी बजाने जा रहा हूं क्योंकि मुझे अच्छी तरह पता है कि मै क्या हूं और मुझे खुद से, अपने देश से, समाज से क्या पाना और देना है। इसके लिए मुझे किसी वामपंथी-पोगापंथी बुद्धिजीवी की सीख की दरकार नहीं है। ये सच है कि मैं अविनाश जी की केवल प्रोफेशनल पहचान से वाकिफ हूं। उनके आगे-पीछे के बारे में ज्यादा नहीं जानता। लेकिन शायद वो भी मेरे बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते, नहीं तो ऐसा नहीं लिखते कि, 'हम मानें कि हममें इतनी हिम्‍मत नहीं थी कि हम समाज बदलने की लड़ाई लड़ सकें। अगर ये हिम्‍मत होती, तो जो लड़ाई हमें अधूरी लग रही थी, उसे छोड़ कर लड़ाई का ही कोई दूसरा

खैरात या हिस्सेदारी, क्या देंगी बहनजी?

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कहा जा रहा है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम मतदाता को एक साथ लाकर कांग्रेस जैसा आधार हासिल कर लिया है। लेकिन दोनों में बुनियादी अंतर ये है कि कांग्रेस से लोग रहमोकरम की उम्मीद रखते थे, जबकि मायावती के साथ वो सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत से आए हैं। ये उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले दो दशकों में आया बहुत बड़ा परिवर्तन है। अब बहन मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वे दबे-कुचले, असुरक्षित और परेशान लोगों की सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत को आगे बढ़ाती हैं या उनके साथ रहमोकरम की राजनीति करती है। सत्ता में हिस्सेदारी का कोई मॉडल अभी तक अपने देश में है नहीं। हां, रहमोकरम की राजनीति में तमिलनाडु के एम करुणानिधि ने एक शानदार मॉडल पेश कर रखा है। जैसे आज ही डीएमके सरकार के एक साल पूरा करने पर करुणानिधि ने इस रहमोकरम का पूरा ब्यौरा अखबारों में छपवाया है। उनके कुछ रहमों पर गौर कीजिए : दो रुपये किलो के भाव चावल, हफ्ते में बच्चों को तीन अंडे, सभी जरूरतमंद परिवारों को मुफ्त कलर टीवी, गरीब लड़कियों को शादी के लिए 15,000 रुपए का अनुदान, गैस कनेक्शन के साथ गैस स्टोव मुफ्त.

जिसकी जितनी संख्या भारी...

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माया वती की जीत लोकतंत्र की जीत है। इस राय से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस जीत ने हमारे लंगड़े लोकतंत्र के कुछ ऐसे पहलुओं को उजागर किया है, जिन पर गौर करना और सच्चे लोकतंत्र के लिए उन पर अमल करने का मन बनाना जरूरी है। मैंने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात इसलिए भी की क्योंकि खुद बीएसपी का नारा रहा है - जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी । जाहिर है कि किसी एक राज्य की सत्ता पर कब्जा करके मायावती चाहकर भी इस नारे पर अमल नहीं कर सकतीं। लेकिन पूरे देश में अभियान चलाकर देश में ऐसा लोकतंत्र लाने की कोशिश जरूर की जा सकती है क्योंकि ये कोई हवाई अवधारणा नहीं है, बल्कि जर्मनी समेत यूरोप के कई देशों में यह व्यवस्था सालोंसाल से लागू है। जर्मनी की चुनाव व्यवस्था* पर सरसरी नजर डालते हैं। वहां के निचले सदन बुंडेसटाग के चुनावों में मतदाता को दो वोट डालने होते हैं। एक अपने क्षेत्र के व्यक्तिगत उम्मीदवार को और एक अपनी पसंदीदा पार्टी को। इस तरह 328 चुनाव क्षेत्रों में बंटे जर्मनी में सीधे-सीधे 328 उम्मीदवार चुने जाते हैं। मतदाता के दूसरे वोट से तय होता है कि किस पार्टी के साथ कितने फीसदी लोग ह

काहे का बहुजन, कैसा सर्वजन!

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बहनजी की हाथी सत्ता संभालते ही गर्द उड़ाने लगी है। वाचाल लोगों ने भी ऐसा गुबार उड़ाया जैसे क्रांति हो गई हो। कहा गया कि मायावती ने पंद्रह सालों बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर कुशल रणनीतिकार होने का प्रमाण दे दिया। लेकिन बहुमत के नाम पर अल्पमत का शासन बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। सोचिए, उत्तर प्रदेश में कुल मतदाता हैं 11.28 करोड़। इनमें से 5.20 करोड़ यानी 46.1% मतदाताओं ने इस बार के चुनाव में वोट डाले। इनमें से बहनजी की पार्टी को मिले 30.28% वोट। यानी, 206 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत हासिल करनेवाली बीएसपी के साथ खड़े हैं राज्य के 1.57 करोड़ मतदाता, जो होते हैं राज्य के कुल मतदाता आबादी के महज 13.92%.... आप ही बताइए, करीब 14 फीसदी मतदाताओं को साथ लाकर बहनजी ने कौन-सा राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया है। किसी समय 85-15 का आंकड़ा देकर बीएसपी कहा करती थी कि वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा। फिर 15 फीसदी से भी कम मतदाताओं के दम पर बहनजी किसका राज चलाने जा रही हैं? बहुजन का, सर्वजन का या अल्पजन का? एक बात और है जो लोग बहनजी की इस सापेक्ष जीत को, हाथी नहीं गणेश

बहन जी ने जगा दी उम्मीदें

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हरिशंकर तिवारी, केशरीनाथ त्रिपाठी और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे दिग्गजों की हार और बसपा को पूर्ण बहुमत। यकीनन उत्तर प्रदेश की राजनीति बदल रही है। ये भी तय है कि बीजेपी और कांग्रेस की वापसी अब उत्तर प्रदेश में कभी संभव नहीं है। राहुल बाबा उत्तर प्रदेश में डेरा जमा लें, तब भी कांग्रेस को सत्ता नहीं दिला सकते। अब तो यहां दो ही दल, सपा और बसपा, बदल-बदल कर पक्ष-विपक्ष में आते रहेंगे। ये भी तय है कि मायावती से दलित-ब्राह्मण-मुसलमान का जो समीकरण बांधा है, वह लगभग एक अजेय समीकरण है। लेकिन मुलायम सिंह सही-सलामत रहे और उनके ऊपर से अमर सिंह की वक्र दृष्टि हट गई तो पांच साल बाद मायावती को पटखनी दे भी सकते हैं। वैसे, फिलहाल मायावती सही कह रही हैं कि मरे हुए को क्या मारना। सचमुच, मुलायम नब्बे से ज्यादा विधायकों के बावजूद फिलहाल एक मरी हुई शक्ति हैं। मायावती उत्तर प्रदेश में यकीनन विकास का काम करेंगी। सड़कें बनवाएंगी, पुल बनवाएंगी। इसलिए नहीं कि वो दिली तौर पर विकास की पैरोकार हैं, बल्कि आज की राजनीति में खाने-खिलाने के लिए विकास के पैसों का खर्च होना जरूरी है। मायावती से ये उम्मीद कतई नहीं है कि वो दलित

शानदार भविष्य, फिर भी खुदकुशी!

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आज के दौड़ते-भागते भारत में आईआईटी और आईआईएम से बढ़िया और सुरक्षित करियर क्या हो सकता है! फिर भी क्यों यहां के छात्र खुदकुशी कर रहे हैं? कुछ दिन पहले ही एक और आईआईटी छात्र की खुदकुशी की खबर पढ़कर ये सवाल फिर दिमाग में नाचने लगा। मैं सोचने लगा। नए-पुराने अनुभवों को टटोलने लगा। तीन-चार बातें याद आ गईं। एक तो यह कि जानवर या जानवर की तरह जिंदगी को भोगने वाले इंसान कभी आत्महत्या नहीं करते। जिन्हें जगत-गति नहीं व्यापती, ऐसे मूढ़ भी आत्महत्या नहीं करते। दूसरी बात जो कभी चंदू भाई ने मुझे बताई थी अपने एक बेहद निजी और कटु अनुभव की याद करते हुए कि इंसान जब संघर्ष कर रहा होता है, प्रतिकूलताओं से जूझ रहा होता है, तब नहीं, बल्कि तब खुदकुशी करता है जब वह जीत के करीब होता है, आशा की किरण उसे नजर आने लगती है। उसी तरह जैसे कड़ी मेहनत करते वक्त नहीं, बल्कि थोड़े आराम के बाद आपका पोर-पोर टपकता है। तीसरी बात कि जब जिंदगी के सफर में कोई डेड-एंड आ जाता है, राह तंग गली में खत्म हो जाती है, सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं, तब कोई अपनी जान लेने पर उतारू हो जाता है। शायद लाखों के कर्ज में डूबने के बाद या शेयर बाजार