लगता है इनका ब्लॉग हथियाना मेरा धर्म बन गया है. लिखना तो इन्हें ही था पर मैं आ गई हूँ मेहमान ब्लॉगर बनकर. इसलिए कि मुझे इस विषय पर ज़ोर-शोर से लिखना है.
'ट्रेन पर सवार धार्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे' में जो लिखा गया वह इसलिए कि एक सार्थक बहस हो सके. कि धर्म आज भी कर्म-कांड और नाम-जाप ही है आम आदमी के लिए, यह समझा जा सके. कि ‘ऐसा ही होता आया है’ के इतिहास से निकलकर धर्म आज के सवालों और सही-गलत के संदर्भों में परिभाषित है? कि हम लकीर ही पीटते रहेंगे.
परिवार के एक बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा खाने से पहले थाली के चारों ओर पानी छिड़कना (मेरे हिसाब से गोल लकीर खींचना) और खाते वक्त खाने की भरपूर कमियां निकालना- यह आम बात होगी- मेरा निजी अनुभव है. इसलिए कहना चाहती हूं कि इनकी तरह ज्यादातर लोगों को लकीर ही याद रहती है. लकीर खींचना ही इनका धर्म है. लकीर से जुडी कोई प्रार्थना, कोई भावना इन्हें याद नहीं रहती. कृतज्ञता, संतुष्टि और धन्यवाद ज्ञापन कहाँ खो जाते हैं पता नहीं.
आज हिन्दू धर्म की मूल भावना को, इसके लचीलेपन को याद करना चाहती हूं. कि धर्म जड़ न बना रहे.
2-3 साल पहले मेरी दीदी को लत लग गई थी जिससे भी बात करे अंत में समाप्ति करे ‘जय श्री कृष्ण’ कहकर. उसने मुझे भी कहा तो मैंने पलटकर पूछा कि क्या तुम्हें पता है कृष्ण थे भी और वह सचमुच के भगवान थे. तुम्हें पता है कि अमिताभ बच्चन, खुशबू, रजनीकांत वगैरह के मन्दिर बन चुके हैं. लोग उन्हें अभी से पूज रहे हैं. कालान्तर में सब पूजने लगेंगे क्योंकि मन्दिर बन चुके हैं. (वैसे इंटरनेट, सीडी के युग में पहचान गुम होने की संभावना कम ही है) और मन्दिर में अंदर रहने वाले का पता नहीं, हिन्दू मन्दिरों का वास्तु-शिल्प और कारीगरी अद्भुत होती है. हम फलां भगवान को क्यों पूजते हैं - यह क्यों भूल जाना हमें बेहद पसंद है. तो मैंने दीदी को ललकारा तुम्हारे पास क्या सबूत हैं कि कृष्ण उस ज़माने के बड़े कलाकार नहीं थे! दीदी उस समय खूब बिगड़ी पर बाद में उसने जय श्री कृष्ण कहना छोड़ दिया.
धर्म किसी को पूजने की, सामाजिक ज़रूरत थोड़ी न है. यह तो नितान्त निजी ज़रूरत है. मुझे जब ध्यान की ज़रूरत होती है तो ध्यान लगाने के लिए मैं नाम-जाप करती हूं.
आस्था और धर्म क्या है? धार्मिक कौन है?
मैं जब 6-7 साल की रही हूंगी तब हम श्रीनाथजी घूमने गए थे. जब मंदिर में चंद मिनटों के लिए दर्शन का समय हुआ तो सब दौड़ पड़े. (तब क्यू-सिस्टम नहीं था) टूट पड़ी भीड़ में मां के हाथों से मैं छूट गई और कुचलते-धक्के खाते पुरुषों वाले हिस्से में खदेड़ दी गई. प्रभु-भक्त दर्शनार्थियों के पैरों तले मैं दब गई होती यदि एक सज्जन ने मुझे उठाकर पुरुष-महिला हिस्से को अलग करने वाले डिवाइडर पर न बैठा दिया होता. मुझे पकड़े रखने के चक्कर में वे दर्शन भी न कर पाए. मेरे हिसाब से उन सज्जन जैसा धार्मिक व्यक्ति कोई नहीं.
जब मेरी शादी हुई तो मुझसे सर पर पल्लू डालने के लिए कहा गया. मैंने पूछा कि क्यों हमारी कोई देवी सर पर पल्लू नहीं डालती. हमारे धर्म में यह प्रथा है ही नहीं. पल्लू डालना समय, काल और ज़रूरत की देन थे. फिर ‘संस्कार‘ में रूढ़ हो गए. पर अब इसका कोई मतलब नहीं.
बात मांसाहार या शाकाहार की नहीं, उसको धर्म से जोड़ दिए जाने की है. उसे वर्जित बना दिए जाने की है. हिन्दू धर्म हमेशा से way of life रहा है, लचीला रहा है. जिसे जो माफिक आए वह सही-गलत और सकारात्मकता की मूल शर्तों के साथ उसका धर्म है. धर्म के साथ जोड़ने से कैसी निरर्थकता आ जाती है, यह जैन-धर्मियों के बिना प्याज आमलेट खाने के उदाहरण से स्पष्ट है.
मोबाइल का रिंगटोन ज़िदाबाद. अल्ला के उसूल क़ुरान में बंद रहें. मंत्र वाले का रिंगटोन जब बजता है तो क्या वह हर बार तीनों सृष्टियों (ऊँ भूर्व, भुव:, स्व:) का वरण करता है?
राम का नाम लेना धर्म है. पर स्वस्थ रहना आज के धर्म में शामिल नहीं. जबकि एकादशी के उपवास के पीछे बहुत बड़ा विज्ञान था कि हर 15वें दिन आप थोड़ा कम खाकर पेट को आराम दो!
आज के संदर्भ में राम मुझे खालिश राजनीति की याद दिलाते हैं. राजनीति द्वारा भुनाए जाने से उनके मायने बदल चुके हैं. वैसे भी राम मर्यादा (पुरुषो में उत्तम) पुरुषोत्तम कहे गए हैं, भगवान नहीं. दिन के लाख राम नाम जपने वाले मुझे राम के रोज़-ब-रोज़ के जीवन के दस नीति-नियम ही गिना दें तो मान लूं. (और मैं उस राम को भगवान मान ही नहीं पाती जिसने सीता पर यूं अविश्वास किया था)
मैं अपनी मां की ऋणी हूं जिसने मुझे हर तरह की, शास्त्रों से लेकर नए युग की कहानियां और गीत लोरी के बतौर सुनाए. रास्ता खुला रखा. मुझे नहीं समझ में आता कि राम के नाम भर से मेरे बच्चों में कौन-सी अच्छी आदतें आ जाएंगी सिवाय लकीर पीटने के.
हिन्दू धर्म यदि अपने सबसे स्वस्थ रूप में होता तो मेरे हिसाब से प्रदूषण फैलाना आज सबसे बड़ा पाप होता.
(ये कुछ अनुभव और विचार ही हैं. एक शुरुआत है. इच्छा भर है आज धर्म को सही परिभाषित करने की. लकीरी तोड़ने की. अभी आप सबकी तरफ से बहुत कुछ आना बाक़ी है.
'ट्रेन पर सवार...' पर आप सबकी टिप्पणियां, अनुभव, विचार बहुत सही लगे क्योंकि बिना किसी निजी हमले के, एक को छोड़कर, आपने अपनी बातें रखीं. एक अच्छी बहस की शुरुआत हुई यह ब्लोगिंग की शक्ति है.) आप सबसे निवेदन है कि आपके हिसाब से धर्म क्या है, आस्था क्या है ज़रूर बताएं. यहां टिप्पणी करें या अपने ब्लॉग पर लिखें. अपने ब्लॉग पर लिखें तो यहां टिप्पणी में लिंक ज़रूर छोड़ें. (यदि सारे ब्लॉगर लिख डालें तो कितनी बढ़िया सामग्री, शोध के लिए उपलब्ध हो जाएगी)