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Showing posts from November, 2007

एक भ्रम जिसे पीएम ने चूर-चूर कर दिया

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लोग यह नहीं समझते कि प्रति व्यक्ति आधार पर हम (भारत) प्राकृतिक संसाधनों के मामले में अच्छी स्थिति में नहीं हैं। और अगर हमें इस कमी को दूर करना है तो हमें दुनिया का एक प्रमुख व्यापारिक देश बनना होगा, जिसके लिए हमें विश्व का एक प्रमुख मैन्यूफैक्चरिंग देश भी बनना होगा। देश में प्राकृतिक संसाधनों का यह आकलन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। उन्होंने कल वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की किताब - India’s century: The Age of Entrepreneurship in the world’s biggest democracy के विमोचन के मौके पर यह आकलन पेश किया। आज सुबह इस खबर को पढ़ने के बाद ही मैं बड़ा कन्फ्यूज़ हो गया हूं क्योंकि अभी तक मैं तो यही मान रहा था कि प्रकृति हमारे देश पर बड़ी मेहरबान रही है। उपजाऊ ज़मीन से लेकर खनिज़ों और जलवायु की विविधता के बारे में हम पूरी दुनिया में काफी बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन जब मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री ने यह बात कही है तो यकीनन इसे सच ही होना चाहिए। मैं अभी तक की अपनी जानकारी पर पछता रहा हूं। आपकी क्या हालत है? मनमोहन सिंह की काट के लिए आपके पास तथ्य हों तो ज़रूर पेश करें। मैं भी खोज में लगा हूं।

तुष्टीकरण मुस्लिम अल्पमत का या बहुमत का?

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तसलीमा नसरीन का नंदीग्राम से कोई लेनादेना नहीं है, लेकिन कुछ बेतुकी वजहों से उन्हें कई महीनों से नंदीग्राम में चल रहे विरोध की काट के लिए कोलकाता से बाहर भेज दिया गया। आज़ादी के बाद से ही भारत में चल रही तुष्टीकरण की राजनीति का यह एक ताज़ा उदाहरण है। तसलीमा को बाहर भेजकर पश्चिम बंगाल की सरकार ने लगता है कि मुसलमानों की मांगों के आगे ‘घुटने टेक’ दिए, लेकिन उसने एक ऐसे मसले पर कार्रवाई करने का फैसला किया जिसकी कोई सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता मुसलमानों के बहुमत के लिए नहीं है। उसका यह कदम औसत मुसलमान से कहीं ज्यादा मुस्लिम-विरोधी पार्टियों को खुश करता है। यह उन मुसलमान नेताओं और संगठनों को भी खुश कर सकता है, जो अपने निहित राजनीतिक मकसद के लिए तसलीमा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। ये मुस्लिम नेता अब अपनी जीत का दावा कर सकते हैं और हो सकता है कि वे अब इसी तरह के किसी और सांकेतिक मु्द्दे की तलाश में जुट गए हों। कोलकाता में जो हिंसा तसलीमा नसरीन को निकाले जाने का सबब बन गई, वह हुई थी बुधवार 21 नवंबर को अखिल भारतीय अल्पसंख्यक फोरम (एआईएमएफ) नाम के छोटे से संगठन के विरोध प्रदर्शन के दौरान। इसके ना

राम बोलने से बन क्या जाएगा?

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लगता है इनका ब्लॉग हथियाना मेरा धर्म बन गया है. लिखना तो इन्हें ही था पर मैं आ गई हूँ मेहमान ब्लॉगर बनकर. इसलिए कि मुझे इस विषय पर ज़ोर-शोर से लिखना है. ' ट्रेन पर सवा र धा र्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे' में जो लिखा गया वह इसलिए कि एक सार्थक बहस हो सके. कि धर्म आज भी कर्म-कांड और नाम-जाप ही है आम आदमी के लिए, यह समझा जा सके. कि ‘ऐसा ही होता आया है’ के इतिहास से निकलकर धर्म आज के सवालों और सही-गलत के संदर्भों में परिभाषित है? कि हम लकीर ही पीटते रहेंगे. परिवार के एक बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा खाने से पहले थाली के चारों ओर पानी छिड़कना (मेरे हिसाब से गोल लकीर खींचना) और खाते वक्त खाने की भरपूर कमियां निकालना- यह आम बात होगी- मेरा निजी अनुभव है. इसलिए कहना चाहती हूं कि इनकी तरह ज्यादातर लोगों को लकीर ही याद रहती है. लकीर खींचना ही इनका धर्म है. लकीर से जुडी कोई प्रार्थना, कोई भावना इन्हें याद नहीं रहती. कृतज्ञता, संतुष्टि और धन्यवाद ज्ञापन कहाँ खो जाते हैं पता नहीं. आज हिन्दू धर्म की मूल भावना को, इसके लचीलेपन को याद करना चाहती हूं. कि धर्म जड़ न बना रहे. 2-3 साल पहले मेरी दीदी को ल

ट्रेन पर सवार धार्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे

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ट्रेन मुंबई से दिल्ली की ओर सरपट भागी जा रही थी। किनारे की आमने-सामने वाली सीट पर 35-40 साल के दो मित्र बैठे थे। शायद किसी एक ही कंपनी के एक्ज़ीक्यूटिव थे। दोनों के पास लैपटॉप थे। करीब छह बजे एक ने सूटकेस से आधी बांह का गाढ़े मरून रंग का कुर्ता निकाला, जिस पर गायत्री मंत्र लाइन-दर-लाइन छपा हुआ था। मुझे लगा कि यकीनन ये महोदय काफी आस्तिक किस्म के होंगे। सात बजे अटेंडेंड पूछने आया कि किसी को रोस्टेड चिकन अलग से चाहिए तो गायत्री मंत्र कुर्ता-धारी महोदय ही इकलौते शख्स थे, जिन्होंने ऑर्डर किया। मैं थोड़ा चौंका। लेकिन मुझे झट एहसास हो गया कि हिंदू धर्म में कितना लचीलापन है और वह किसी के सिर पर चढ़कर नहीं बैठा। मतलब साफ हो गया कि मांसाहारी होने और धार्मिक आस्तिक होने में कोई टकराव नहीं है। धर्म का वास्ता जहां आस्था है, वहीं मांसाहारी होना या न होना आपके संस्कार और संस्कृति से तय होता है। इसी ट्रेन में उसी रात एक मुस्लिम परिवार भी सफर कर रहा था। दो भाई थे या पार्टनर। उनकी बीवियां और बेटियां थीं। शायद इनका मार्बल का धंधा था क्योंकि मोबाइल पर इसी तरह के ऑर्डर और माल सप्लाई की बातें कर रहे थे। बात

जीवन में घाघ और विचारों में आग! कैसे संभव है?

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वाकई मुझे नहीं समझ में आता कि कोई ज़िंदगी में घनघोर अवसरवादी होते हुए विचारों में क्रांतिकारी कैसे रह सकता है? क्या जीवन और विचार एक दूसरे से इतने स्वतंत्र हैं? जहां तक मुझे पता है कि आप जैसा जीवन जी रहे होते हैं, ज़िंदगी में जिस-जिस तरह के समझौते कर रहे होते हैं, आपकी सोच और विचार उसी से तय होते हैं। आपकी जीवन स्थितियां आपके विचारों के सत्व का निर्धारण करती हैं। अपने यहां तो यहां तक कहा गया है कि आपके भोजन का भी असर आपके विचारों पर पड़ता है। धूमिल ने भी कहा था कि कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे, दोनों चीज़ें एक साथ नहीं हो सकतीं। व्यक्तिगत स्तर पर बहुतेरे लोग जीवन में आगे बढ़ने के लिए मौकापरस्ती का सहारा लेते हैं। झूठ-फरेब और बड़बोलापन इनके खून में होता है। हमारी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश नेताओं के लिए तो मुंह में राम, बगल में छूरी ही असली उसूल है। लेकिन ऐसे सारे लोग समाज के सामने बेनकाब हैं। उनकी असलियत से सभी वाकिफ हैं। वो औरों का इस्तेमाल करते हैं तो दूसरे अपनी काबिलियत भर उनका इस्तेमाल करते हैं। मगर मैं सार्वजनिक जीवन में सक्रिय ऐसे बहुत से नेताओं और पत्रकार

एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ

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ये तुम्हारी आंखें हैं या तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर, इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए। ये पंक्तियां हैं बच्चों जैसी निष्छल आंखों वाले उस अति संवेदनशील क्रातिकारी कवि गोरख पांडे की, जिन्होंने करीब दस साल पहले जेएनयू के एक हॉस्टल में पंखे से लटककर खुदकुशी कर ली थी। एक कवि जो दार्शनिक भी था और क्रांतिकारी आंदोलनों से भी जुड़ा था, इस तरह जिसने ज्ञान और व्यवहार का फासला काफी हद तक मिटा लिया था, वह आत्मघाती अलगाव का शिकार कैसे हो गया? यह सवाल मुझे मथता रहा है। मैं देवरिया ज़िले के एक गांव में पैदा हुए गोरख पांडे की पूरी यात्रा को समझना चाहता हूं। इसी सिलसिले में उनकी एक कविता पेश कर रहा हूं, जो उन्होंने तब लिखी थी जब वे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ा करते थे। कई महीनों से हाथ-पैर मारने के बाद मुझे यह कविता दिल्ली में एक मित्र से मिली है। एक झीना-सा परदा था, परदा उठा सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां झील में चांद कश्ती चलाता हुआ और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी हम बहकने लग

कौए न खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद

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पहले फ्लू, फिर दस दिनों की ज़रूरी यात्रा। लगता है इस बार मेरी ब्लॉग सक्रियता को कोई ग्रहण लग गया है। लौटते समय ट्रेन में रिजर्वेशन कनफर्म नहीं हुआ तो किसी तरह बैठकर या जमीन पर लुंगी बिछाकर रात काटनी पड़ी। कल दोपहर घर पहुंचते ही ब्लॉग पर लिखने की इच्छा थी, लेकिन थकान इतनी थी कि सोए तो बार-बार सोते ही रहे। आज ब्लॉग की हालत देखी तो बरबस बाबा नागार्जुन की वह कविता याद आ गई कि कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास। अकाल पर लिखी इसी कविता की आखिरी पंक्ति है : कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद। तो मित्रों, आज से लिखना फिर से शुरू। ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियां देखीं तो खुशी भी हुई और अफसोस भी। खुशी इस बात की कि आप लोगों को मेरा लिखा अच्छा लगता है और अफसोस इस बात का कि पूरे दस दिन तक मैं कुछ भी आपको नहीं दे सका। हालांकि यात्रा के दौरान इतनी सारी नई अनुभूतियों से टकराता रहा कि हर दिन दो-दो पोस्ट लिख सकता था। लेकिन एक तो निजी काम के लिए भागमभाग, ऊपर से लैपटॉप का न होना। इसके अलावा तीसरी बात यह है कि अभी तक ज्यादातर साइबर कैफे में विंडोज़ एक्सपी होने के बावजूद रीजनल लैंग्वेज में हिंदी को एक्टीवेट

कुंडलिनी जगाने से कम नहीं है लिखना-पढ़ना

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हम आखिर चाहते क्यों है कि हमारा लिखा हुआ हर कोई पढ़े? क्या हमारे पास चकमक की ऐसी चिनगारियां हैं जिनको पाकर दूसरे के ज्ञान-चक्षु खुल जाएंगे? तो क्या खुद हमारे ज्ञान-चक्षु खुले हुए हैं? हम में से ज्यादातर को शायद ऐसा ही लगता है। लेकिन ऐसा है भी और नहीं भी है क्योंकि हम में से हर किसी के पास ऐसा कुछ होता है जो दूसरों के पास या तो होता नहीं, या आपसी संवाद न होने के चलते किसी और के पास उसके होने का पता नहीं चलता। दोनों ही स्थितियों में अपनी बात कहना न तो कोई शेखी बघारना है और न ही आत्म-प्रदर्शन। असल में हमारे पास एक ही सत्य के बड़े नहीं, तो चिंदी-चिंदी अंश ज़रूर हैं। अगर हमें इन्हें दिखाने की बेचैनी है तो इससे यही साबित होता है कि हमारे समाज में संवादहीनता की स्थिति कितनी विकट हो गई है। यकीनन, हम में से हर कोई एक हद तक आत्ममोह या सम्मोहन का शिकार होता है। हम कभी-कभी घरवालों और मित्रों से वही बात कहने लग जाते हैं जो पहले भी कई बार कह चुके होते हैं। लेकिन इससे भी संवादहीनता की ही स्थिति की पुष्टि होती है। ब्लॉग पर लिखना आज आपसी संवाद कायम करने का एक ज़रिया बन गया है। यह लिखना जितना ज्यादा बढ़

घरवाली को ही नहीं मिलता घर आधी ज़िंदगी

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राजा जनक के दरबार में कोई विद्वान पहुंचे, योगी की जीवन-दृष्टि का ज्ञान पाने। जनक ने भरपूर स्वागत करके उन्हें अपने अतिथिगृह में ठहरा दिया और कहा कि रात्रि-भोज आप मेरे साथ ही करेंगे। भोज में नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए, लेकिन विद्वान महोदय के ठीक सिर पर बेहद पतले धागे से लटकती एक धारदार तलवार लटका दी गई, जिसके गिरने से उनकी मृत्यु सुनिश्चित थी। जनक ने भोजन लेकर डकार भरी तो विद्वान महोदय भी उठ खड़े हुए। राजा जनक ने पूछा – कैसा था व्यंजनों का स्वाद। विद्वान हाथ जोड़कर बोले – राजन, क्षमा कीजिएगा। जब लगातार मृत्यु आपके सिर पर लटकी हो तो किसी को व्यंजनों का स्वाद कैसे मालूम पड़ सकता है? महायोगी जनक ने कहा – यही है योगी की जीवन-दृष्टि। आज भारत में ज्यादातर लड़कियां अपने घर को लेकर ‘योगी की यही जीवन-दृष्टि’ जीने को अभिशप्त हैं। जन्म से ही तय रहता है कि मां-बाप का घर उनका अपना नहीं है। शादी के बाद जहां उनकी डोली जाएगी, वही उनका घर होगा। लड़की सयानी होने पर घर सजाने लगती है तो मां प्यार से ही सही, ताना देती है कि पराया घर क्या सजा रही हो, पति के घर जाना तो अपना घर सजाना। बेटी मायूस हो जाती है

समय जब सचमुच ठहर जाता है

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बहुत पुरानी बात है। राजा कुकुद्मी की एक बेइंतिहा खूबसूरत कन्या थी, जिसका नाम था रेवती। रेवती से शादी करनेवालों की लाइन लगी हुई थी। लेकिन राजा की चिंता यह थी कि रेवती के लिए उपयुक्त वर कैसे चुना जाए। राजा अपनी यह चिंता लेकर रेवती के साथ ब्रह्मलोक में सृष्टि-रचयिता ब्रह्मा तक जा पहुंचे। ब्रह्मा उस वक्त किसी काम में फंसे हुए थे। उन्होंने राजा से ‘एक पल’ इंतज़ार करने को कहा। ब्रह्मा जब काम खत्म करके आए तो राजा कुकुद्मी ने अपनी समस्या बयां की। इस पर ब्रह्मा हंसकर बोले – इंतज़ार के इन चंद पलों में तो धरती पर कई युग बीत चुके होंगे और इस दरम्यान रेवती के उपयुक्त वर मरखप चुके होंगे। उन्होंने राजा कुकुद्मी को सलाह दी कि वे धरती पर वापस जाएं और रेवती का विवाह कृष्ण के बड़े भाई बलराम से कर दें। इस पौराणिक कथा और ब्लैक-होल की अवधारणा में गज़ब की समानता है। कैसे, इसे समझने के लिए पहले जानते हैं कि ब्लैक-होल कहते किसे हैं। ब्लैक-होल ऐसा सघन ठोस पिंड है, जिसका गुरुत्वाकर्षण बल प्रकाश को भी अपनी सतह से पार नहीं होने देता। किसी पिंड का गुरुत्व बल इससे नापा जाता है कि किसी वस्तु को उसकी सतह से ऊपर फेंकना

रुकावट के लिए खेद है

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दोस्तों, दीपावली की रात से ही वाइरल फीवर से जकड़ा हुआ हूं। सोता हूं तो अनगिनत विचार दिमाग में बुलबुले की तरह फूटते हैं। रोज़ लिखने की आदत पड़ गई है तो सोते में भी लिखता रहता हूं। लेकिन शारीरिक स्थिति यह है कि कंप्यूटर पर बैठने की हिम्मत नहीं पड़ती। इसलिए पिछले कई दिनों से नया कुछ न दे पाने के लिए माफी चाहता हूं। ठीक होते ही फिर से खिटपिट शुरू हो जाएगी। धन्यवाद...

पटाखा फोड़ा तो देख लेना...

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लगता है राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल जी यही कह रही हैं। आज दिल्ली में दीपावली के मौके पर आम सभा के दौरान उनकी यह फोटो उतारी पीटीआई के फोटोग्राफर सुभाव शुक्ला ने।

जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं तो और क्या है?

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सांप के केंचुल बदलने और आत्मा के शरीर बदलने को आप पुनर्जन्म कह सकते हैं। लेकिन मानस के लिए एक ही शरीर में आत्माओं का बदल जाना ही पुनर्जन्म है। इस समय वह तीसरे पुनर्जन्म से गुज़र रहा है। बाद के दो जन्मों की कथा कभी बाद में, अभी तो हम उसके पहले पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं। वैसे, ज्ञानदत्त जी ने ठीक ही बताया कि मानस के साथ जो हुआ, वह किसी खास विचारधारा से जुड़े रहने पर ही नहीं, आस्था और विश्वास के किसी भी रूप से जुड़े रहने पर हो सकता है। आस्था या भरोसे के टूटने पर जो शून्य उपजता है, इंसान उसमें डूब जाता है। हफ्ते-दस दिन में ही मानस के पैर ज़मीन पर सीधे पड़ने लगे। जीवन फिर ढर्रे पर चल निकला। इस बीच वह चिंतन-मनन से दो नतीजों पर पहुंचा। पहला, जीवन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है। इसमें किसी को भी छेड़छाड़ करने की इज़ाजत नहीं दी जा सकती। यह शरीर जब तक और जिस हालत में जिंदा रहे, उसे ज़िंदा रहने देना चाहिए। और दूसरा, इंसान एक सामाजिक प्राणी है। उसके इर्दगिर्द के सामाजिक बंधन जैसे ही ढीले होते हैं, वह भयानक रिक्तता का एहसास करने लगता है। इसे मिटाने के लिए ज़रूरी है कि सामाजिक बंधनों को कसकर पुनर्स्थापित

ज़िद्दी ज़िंदगी को मंजूर नहीं थी मानस की मौत

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मेरी दिल्ली, मेरी शान। दिल्ली दिलवालों की। ऐसे ही कुछ नारे और ख्याल लेकर मानस दिल्ली पहुंचा था। दोस्तों ने आने से पहले चेताया था कि संभल कर आना, कहीं गोरख पांडे जैसा हाल न हो जाए। जवाब में उसने कहा था कि न तो वह इतना इमोशनल है और न ही इतना बच्चा। दिल्ली पहुंचने पर सदानंद का सहारा मिला। घनश्याम की घनिष्ठता मिली। काम भी जल्दी-जल्दी मिलता गया। कुछ महीनों में ही इन दो मित्रों की छत्रछाया में वह सेटल हो गया। उनके साथ ही उनके कमरे पर रहता था। सुबह 10 बजे काम पर निकलकर रात नौ बजे तक कमरे पर पहुंच जाता। दिल्ली में मुनीरका गांव के गंवई माहौल में ज़िंदगी चैन से कटने लगी। लेकिन इस चैन में अक्सर उसे एक बेचैनी परेशान करती रहती। उसे लगता कि वह समय से आगे चलने की कोशिश में समय से काफी पीछे छूट गया है। अब उसे समय के साथ बहना है। समय और अपने बीच बन गए फासले को कवर करना है। इस जद्दोजहद में उसके अंदर धीरे-धीरे प्रतिकूलताओं से लड़ने का बुनियादी इंसानी जुनून वापस आ रहा था। लेकिन कभी-कभी उसे यह भी लगता कि उसने जनता के साथ गद्दारी की है। एक दिन वह छत पर सो रहा था तो सपना आया कि कुरुक्षेत्र जैसा कोई मैदान है।

हो गया बगैर ओज़ोन परत की धरती जैसा हाल

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ट्रेन मुकाम पर पहुंचते-पहुंचते करीब दो घंटे लेट हो गई। सूरज एकदम सिर के ऊपर आ चुका था। रेलवे स्टेशन से मुख्य सड़क और फिर बाज़ार तक की दूरी मानस ने मस्ती से टहलते हुए काटी। देखा तो सामने ही सुबराती चचा का इक्का उसके कस्बे को जाने के लिए खड़ा था। चचा ने साल भर पहले की मरियल घोड़ी को हटाकर अब नई सफेद रंग की हट्टी-कट्टी घोड़ी खरीद ली थी। मानस उनके इक्के में तब से सवारी करता रहा है, जब वो नौ साल का था। बाहर बोर्डिंग में पढता था, तब भी पिताजी ट्रेन पकड़वाने के लिए सुबराती के इक्के से ही आते थे। सुबराती चचा ने मानस को देखते ही बुलाकर इक्के पर बैठा लिया। जल्दी ही आठ सवारियां पूरी हो गईं और सफेद घोड़ी अपनी मस्त दुलकी चाल से इक्के को मंजिल की तरफ ले चली। रास्ते भर सुबराती किस्से सुनाते रहे कि कैसे फलाने के लड़के पर जिन्नात सवार हो गए थे और लड़का घर से भाग गया। फिर गाज़ी मियां के यहां मन्नत मांगी, उनका करम हुआ तो वही लड़का दस साल बाद जवान होकर भागा-भागा घर आ गया। मानस को लग गया कि सुबराती चाचा उसके बारे में भी यही सोच रहे हैं। खैर, वह बस हां-हूं करता रहा। इक्का ठीक उसके घर के आगे रुका। मानस ने उन

ऊल-जलूल कहानी, फ्रस्टेशन और खिन्न होते लोग

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कुछ लोग मेरे मानस की कहानी से बहुत खिन्न हैं। एक तो जनमत ही है जिसने अभी तक बायीं तरफ के साइड बार में किन्हीं विनीत नाम के सज्जन की ललकार चस्पा कर रखी है, “वो कहां गया बाल विवाह का प्रेमी उसे ये वक्तव्य नहीं दिखता कौशल्या देवी का...उसका ब्लॉग देखा उसमें अब वो कथा चित्रण कर रहा है। पूरी तरह फ्रस्टेट हो चुका है...कुंठा में कहानी ही याद आती है वो भी ऊल-जलूल।” इसके अलावा हमारे चंदू भाई भी काफी खिन्न हैं। उन्होंने कल की कड़ी और उस पर आई टिप्पणियों पर यह बेबाक टिप्पणी की है .... प्यारे भाई, ये लोग अपने जीवन की सबसे लंबी मुहिम पर निकले एक आदमी के पराजित होने, टूट-बिखर जाने का किस्सा सुनकर इतने खुश क्यों हो रहे हैं? क्या जो बंदे अच्छे बच्चों की तरह पढ़ाई करके ऊंची-ऊंची पगार वाली नौकरियां करने चले जाते हैं, वे ही अब से लेकर सृष्टि की अंतिम घड़ी तक संसार की युवा पीढ़ी का आदर्श होने जा रहे हैं? उनके जैसे तो आप कभी भी हो सकते थे और कुछ साल इधर-उधर गुजार चुकने के बाद आज भी हो गए हैं। फिर क्या अफसोस, कैसा दुख, किस बात का पछतावा? क्या भंडाफोड़, किस पोल का खोल? सीपीआई – एमएल (लिबरेशन) किस देश या प्रद

रिश्ता पब्लिक टॉयलेट और कोला की बिक्री का

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नगरों-महानगरों में पब्लिक टॉयलेट और मर्दाना कमज़ोरी की दवाओं का रिश्ता तो मेरा देखा-पढ़ा है। पब्लिक टॉयलेट्स के ‘भित्ति-चित्र’ भी मैंने सालों से देखे-परखे हैं। लेकिन इस सार्वजनिक सुविधा और कोला की बिक्री में कोई सीधा रिश्ता है, इसका पता मुझे कल रमा बीजापुरकर के एक इंटरव्यू से चला। रमा बीजापुरकर बाज़ार की रणनीतिकार हैं। तमाम देशी-विदेशी कंपनियां अपने माल और सेवाओं के बारे में उनसे सलाह लेती हैं। सोमवार को ही उनकी नई किताब – We are like that only : Understanding the logic of consumer India बाज़ार में आई है, मुंबई में जिसका विमोचन खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने किया। बीजापुरकर भारत के बाज़ार की खासियत बताते हुए कहती हैं : कोला कंपनी का कोई मॉडल मेक्सिको में चल गया, पोलैंड में चल गया तो मान लिया जाता है कि वह भारत में भी कारगर होगा। लेकिन वह यहां नहीं चलेगा क्योंकि यहां पर्याप्त आउटडोर टॉयलेट नहीं हैं और लोग ज्यादा कोला नहीं पिएंगे। देश का जीडीपी बढ़ सकता है, लेकिन शायद आउटडोर टॉयलेट्स की संख्या नहीं। मतलब साफ है कि भारतीय लोग ज्यादा कोला इसलिए नहीं पिएंगे क्योंकि इसके बाद उन्हें बार-बार

दुखवा मैं कासे कहूं री मोरी सजनी

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ऊपर से भले ही अलग-अलग दिखें, लेकिन साहित्यकार और धर्मगुरु एक ही श्रेणी के लोग होते हैं। ऐसी-ऐसी बातें कहकर चले जाते हैं जिन पर अमल करना मुमकिन ही नहीं होता। उनको तो बस प्रवचन देना होता है! मानस पुश्किन की लिखी बात याद करके मन ही मन यही सब बड़बड़ कर रहा था। वह अपनी समझ से पीछे लौटने के सारे पुलों को तोड़ कर निकला था। लेकिन आज उसे वहीं लौटना पड़ रहा है, जहां उसने इस जन्म में दोबारा लौटने की गुंजाइश खत्म कर दी थी। उसे एहसास हो गया है कि सफर हमेशा आगे ही नहीं बढ़ता। कभी-कभी आगे बढ़ने के लिए पीछे भी लौटना पड़ सकता है। इसलिए दुनियादारी का तकाज़ा यही है कि सारे पुलों को कभी नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि कभी-कभी लौटने की जरूरत भी पड़ सकती है। दीपिका जब मानस से टकराकर खास औरताना अंदाज में बांहें झुलाती निकल गई, तब दोपहर के दो ही बजे थे। मानस के कस्बे के सबसे पास के स्टेशन चौरेबाज़ार के लिए अगली ट्रेन रात के करीब दस बजे जाती थी। लेकिन वह इससे नहीं, सुबह सवा चार बजे वाली ट्रेन से जाना चाहता था क्योंकि कम से कम 40 बार इस ट्रैक से गुजरे सफर को वो आखिरी बार सांस भरकर देखना और जीना चाहता था। खाना-वाना खा

इस ब्लॉग से बुढ़ापे की पेंशन तो मिलने से रही

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शनिवार शाम को जब से अभय के यहां से लौटा हूं, मन बूड़ा-बूड़ा जा रहा है। अभी तक दसियों लोगों से ढिंढोरा पीट डाला था कि आप लोग बचत में लगे रहो, मैंने तो ब्लॉग बनाकर अपने बुढ़ापे की पेंशन का इंतज़ाम कर लिया है। दस साल बाद जब रिटायर हूंगा तब तक ब्लॉग से कम से कम 1000 डॉलर कमाने लगूंगा, यानी हर महीने करीब 40,000 रुपए बैंक खाते में आ जाएंगे। बुढ़ऊ को अपने लिए और कितना चाहिए होगा? बेटियां शादी करके अपने घर जा चुकी होंगी। मकान तब तक अपना हो चुका होगा। मेडिकल इंश्योरेंस अभी से कराकर रखेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी नियम-धरम से स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखेंगे। शायद तब तक इंटरनेट भी मुफ्त हो चुका होगा। बुढ़ऊ मज़े से ब्लॉग पर डायरी लिखेंगे, अपना ‘ज्ञान’ और संस्मरण बांटेंगे। टाइम-पास का टाइम-पास और कमाई ऊपर से। लेकिन अभय ने सारा भ्रम मिट्टी में मिलाय दिया। बोले – कम से कम दस हज़ार विजिटर रोज़ आने लगेंगे, तभी कमाई की बात सोची भी जा सकती है। मैंने इधर दो-दो पोस्ट लिखकर विजिटरों की संख्या बढ़ाकर 140-150 के औसत तक पहुंचा दी थी। लेकिन शनिवार के सत्य ने ऐसी मिट्टी पलीद की कि रविवार को मानस की कथा लिखने का मन ही नहीं ह

क्या आप नचिकेत मोर को जानते हैं?

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दो दिन पहले तक मैं भी 43 साल के इस नौजवान को नहीं जानता था। लेकिन जब से जाना है, तभी से सोच रहा हूं कि कैसे-कैसे अनोखे लोग इस दुनिया में भरे पड़े हैं। ज़रा सोचिए कि 20 साल तक दिन-रात एक कर आप करियर के उस मुकाम पर पहुंचे हैं जब कंपनी की सबसे बड़ी कुर्सी आपको मिलने ही वाली है, तब क्या आप कह पाएंगे कि नहीं, मुझे यह ओहदा नहीं चाहिए। मैं तो समाज सेवा करूंगा, बाकी ज़िंदगी विकास के कामों में लगाऊंगा। कम से कम अपने लिए तो मैं कह सकता हूं कि समाज की सेवा की इतनी ही चाह थी तो पहले तो मैं 20 साल नौकरी नहीं करता और अगर इतने लंबे समय तक नौकरी कर ही ली तो सबसे ऊपर की कुर्सी तक पहुंचकर उसे छोड़ता नहीं। लेकिन नचिकेत मोर जब देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एमडी और सीईओ के. वामन कामथ के स्पष्ट उत्तराधिकारी मान लिए गए थे, तभी उन्होंने इस दौड़ से खुद को पीछे खींच लिया। बैंक के चेयरमैन एन वाघुल ने अपने इस चहेते डिप्टी एमडी को समझाने की कोशिश की। लेकिन नचिकेत मोर ने उन्हें भी अपने फैसले का यकीन दिला दिया। फिर तय हुआ कि नचिकेत को अब आईसीआईसीआई ग्रुप के नए फाउंडेशन का प्रमुख बना दिया जाएगा, जहां से व

पुराने रास्तों ने आवाज़ दी – अमां, बैठो तो सही

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मानस ने व्यवहार और सोच की समस्या को भावनाओं से हल किया। वह फौरन एक नए उत्साह से भर गया। लेकिन यह एक तात्कालिक समाधान था, इसकी पुष्टि तब हो गई जब वह बनारस होते हुए इलाहाबाद और फिर अपने घर जा रहा था। पहले बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के बॉटनी डिपार्टमेंट में रिसर्च कर रहे अपने बड़े भाई के कमरे पर गया। बड़े भाई को बहुत पहले से यकीन था कि वह जो कुछ अभी कर रहा है और आगे करेगा, अच्छा ही करेगा। इसलिए कई सालों बाद मिलने के बावजूद उससे ज्यादा सवाल नहीं किए। बस यूनिवर्सिटी गेट के सामने बसी लंका में ले गए और स्टुडियो में उसके कंधे पर हाथ रखकर एक फोटो खिंचवाई। सुबह नाश्ता करके वह शहर में निकला कि पार्टी साथियों से मिलता-जुलता चले। वहां उसे पता चला कि पार्टी के एक बुजुर्ग नेता कुछ दिन पहले ही आए थे और डंके की चोट पर ऐलान करके गए थे कि मानस एक सामंती तत्व है। वह गरीब मल्लाह की एक लड़की की ज़िंदगी बरबाद करना चाहता है, लेकिन पार्टी कभी भी उसे इसकी इज़ाजत नहीं दे सकती। अगर कल को वह शादी करने के बाद उस लड़की को छोड़कर चला गया तो उस बेचारी का क्या होगा? मानस को लगा कि उसके त्याग का इससे बड़ा अपमान नहीं हो सकत

गिरकर बिखर गए पंख, पर हारा नहीं बालक

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मानस के बारे में ज्ञानदत्त जी ने एकदम सही कहा कि वह एक आदर्शवादी चुगद था, an emotional fool… आजकल की नौजवान पीढ़ी में ऐसे चुगद ढूंढे नहीं मिलेंगे। खैर, ज़िंदगी है, चलती रहती है। तो... मानस ने पार्टी छोड़ी तो कोई पहाड़ टूटकर नहीं गिरा। दुनिया भी अपनी तरह चलती रही और पार्टी पर भी अंश के करोड़वें हिस्से के बराबर फर्क नहीं पड़ा। साथी यथावत अपने धंधे-पानी में लगे रहे। लेकिन विदा लेते वक्त उसे एक अद्भुत बात समझ में आई। वो यह कि औद्योगिक मजदूर एकदम निष्ठुर होते हैं, मध्यवर्ग के लोग हमेशा सामनेवाले को अपने से कमतर समझते हैं, उस पर फौरन दया करने के मूड में आ जाते हैं, जबकि किसान – चाहे वह भूमिवाला हो या भूमिहीन, बड़े ही भावुक होते हैं। मानस ने किसी को यह नहीं बताया कि वह किन्हीं सैद्धांतिक वजहों से पार्टी छोड़ रहा है; फिर, पार्टी से कोई नीतिगत विरोध था ही नहीं तो बताता क्या? उसने सभी से यही कहा कि उसे घर की बहुत याद आती है। इसलिए उसके लिए आगे काम करना संभव नहीं है। हामिद भाई और दूसरे रेल मजदूरों ने इस बात को सुना और बगैर कोई तवज्जो दिए अपने काम में लग गए। शहर के साथियों ने सुना तो कहा कि अगर क

हम बहस करेंगे जमकर, पर खूंटा आप वहीं गाड़ें

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“हम भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर संसद में बहस के लिए तैयार हैं। लेकिन सरकार संसद में बहस के दौरान पेश किए गए विचारों को मानने के लिए संवैधानिक तौर पर बाध्य नहीं है।” यह बयान किसका हो सकता है? आप कहेंगे कि सरकार के ही किसी नुमाइंदे का होगा। या तो खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का या विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी या बहुत हुआ तो संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी का। लेकिन आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि यह वक्तव्य विपक्ष के नेता और बीजेपी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी का है। संसद का शीतसत्र 15 नवंबर से शुरू हो रहा है। इसमें सरकार परमाणु करार पर बहस कराने को तैयार है। लेकिन वह नहीं चाहती कि इसकी शर्तों में कोई भी तबदीली हो। पहले बीजेपी और लेफ्ट पार्टियां इसके लिए तैयार नहीं थीं। दोनों ही मानती हैं कि यह भारत के संप्रभु हितों के खिलाफ है। वैसे, बीजेपी ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि वह संधि के खिलाफ ज़रूर है, पर अमेरिका के साथ सामरिक रिश्तों के पक्ष में है। इसी बीच अमेरिका की तरफ से जमकर लॉबीइंग हुई। 25 अक्टूबर को अमेरिका राजदूत डेविड मलफोर्ड आडवाणी से मिले और छह दिन बाद ही 31 अक्टूबर को विपक्ष

जिनको बनना था तारणहार, वही कन्नी काट गए

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क्या कीजिएगा जो नौजवान वर्गीय प्रतिबद्धता के बिना केवल आदर्शवाद के तहत क्रांतिकारी राजनीति में आते हैं, उनका हश्र शायद वही होता है, जैसा मानस का हो रहा था। इलाहाबाद की मीटिंग से ‘झटका’ खाने के कुछ महीनों बाद उसके ही गांव से लगभग बीस किलोमीटर दूर के एक गांव में फिर साथियों का जमावड़ा हुआ। मानस वहां पहुंचा तो अचानक मां-बाप और परिवार की याद कुछ ज्यादा ही सताने लगी। आखिर छह साल हो चुके थे उसको घर छोड़े हुए। इस बीच अम्मा-बाबूजी इलाहाबाद में उसके हॉस्टल तक जाकर पता लगा आए थे। कमरे में बक्सा, अटैची, सारी किताब-कॉपियां और दूसरे सामानों को जस का तस पाने पर उन्हें लगा कि किसी ने मानस ने मार-वार कर कहीं फेंक दिया होगा। खैर, किसी तरह दिल को तसल्ली देकर उसका सारा सामान लेकर वे वापस लौट गए थे। बड़ी अजीब रात थी वह। मूसलाधार बारिश हो रही थी। मां-बाप जिस कस्बे में रहते थे, वहां के लिए कोई सवारी नहीं मिली तो मानस करीब 12 किलोमीटर पैदल चलकर भीगते हुए रात के करीब दो बजे अपने घर के दरवाजे पर खड़ा था। पूरे रास्ते में बार-बार रोया, लेकिन बारिश के पानी ने हमेशा आंसुओं के निशान बनने से पहले ही मिटा दिए। घर की

मोदी क्या सचमुच गुजरातियों के सिरमौर हैं?

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आज नरेंद्र मोदी खुद को गुजराती अस्मिता, गुजराती गौरव और गुजराती सम्मान से जोड़कर पेश करते हैं। दंगों पर उनकी सरकार की आलोचना होती है तो कहते हैं – देखो, ये लोग सारे गुजरातियों को बदनाम कर रहे हैं। मोदी दावा कर रहे हैं कि वे सभी पांच करोड़ गुजरातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि बीजेपी के ही असंतुष्ट अब कहने लगे हैं कि मोदी पांच करोड़ गुजरातियों का नहीं, पांच करोड़पतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आइए, समझने की कोशिश करते हैं कि क्या नरेंद्र मोदी को सचमुच गुजरातियों का गौरव माना जा सकता है। पांच साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 182 में से 127 सीटें मिलीं तो साबित किया गया कि गुजरात में जो भी सांप्रदायिक हिंसा हुई, उसे गुजरातियों के बहुमत का समर्थन हासिल था। लेकिन हमारे लोकतंत्र का जो सिस्टम है, उसमें सीटों से जनता के असली मूड का पता नहीं चलता। जैसे, चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2002 में गुजरात में कुल 61.5 फीसदी मतदान हुआ था, जिसमें से 49.9 फीसदी वोट बीजेपी को मिले थे। यानी, 30 फीसदी गुजराती ही नरेंद्र मोदी के साथ थे। क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 70 फीसद

ये तो क्रांति की नहीं, भिखारी माफिया की सोच है!

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मानस हाथ-पैर मारता रहा कि किसी तरह वह ऐसी दृष्टि हासिल कर ले जिससे वर्तमान को समझने के साथ ही उसके भीतर जन्म लेते भविष्य को भी देख सके। वैसे, उसे अब तक इस बात का यकीन हो चला था कि जिन लोगों को उसके सिर पर बैठा रखा गया है, वे उसे यह दृष्टि नहीं दे सकते। लेकिन मानस को तब रोशनी की एक किरण दिखाई देने लगी, जब पार्टी ने उसी दौरान बेहद संजीदगी से एक अभियान शुरू किया, जिसका नाम था सुदृढ़ीकरण अभियान या कंसोलिडेशन कैम्पेन। यह कुछ उसी तरह की कोशिश थी, जैसे कोई तैराक दोनों बाहें फैलाने के बाद उन्हें समेटता है, जैसे लंबे सफर पर निकला कोई पथिक थोड़ा थमकर सुस्ताता है, जैसे कोई ज़िंदगी में अब तक क्या खोया, क्या पाया का लेखाजोखा कर आगे के लक्ष्य तय करता है। मानस इस अभियान से बेहद उत्साहित हो गया। उसे लगा जैसे मनमांगी मुराद मिल गई हो और जड़-सूत्रवादियों के दिन अब लदनेवाले हैं। यह अभियान पूरे देश में चला, अच्छा चला। छोटे-छोटे ग्रुप बनाकर मार्क्सवाद के मूलाधार का अध्ययन किया गया, संगठन के बुनियादी नियम समझे गए। लक्ष्य था, पार्टी के अब तक के सफर में सोच से लेकर व्यवहार के स्तर पर जमा हुए कूड़ा-करकट की सफाई