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Showing posts from June, 2008

पीआर में माहिर हमारे संपादक एचआर नहीं जानते

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चौदह नौकरियों और तेरह इस्तीफों के बाद मुझे अब तक अलविदा मेल लिखने की कला में माहिर हो जाना चाहिए था। लेकिन इस मामले में मैं अब भी वैसा ही कच्चा हूं जैसा 23 साल पहले अपना पहला विदाई संदेश लिखते वक्त था। सोचता हूं कि बार-बार मुझे अपनी नौकरी को अलविदा क्यों करना पड़ता है। हालांकि पिछले साल भर से टीवी न्यूज़ का जो हाल हुआ है, उसे देखते हुए मुझे बाहर जाना इस बार उतना बुरा नहीं लग रहा। हाल ही में अपने एक वरिष्ठ सहयोगी का ये अलविदा-मेल पढ़कर मुझे पत्रकारिता में अपने शुरुआती दिनों की याद आ गई जब दो सालों के दरम्यान मैंने नौ नौकरियां बदली थीं। लेकिन तब वजह यह थी कि मैंने काफी देर से शुरुआत की थी और मुझे जल्दी से जल्दी सम्मानजनक जगह हासिल करनी थी। आज जिस तरह से मीडिया में पत्रकार फटाफट नौकरियां बदल रहे हैं या एक जगह टिके भी हैं तो भीतर ही भीतर कुढ़ रहे हैं, उसकी वजह सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना और बेहतर पोजीशन हासिल करना ही नहीं है। खासकर हिंदी पत्रकारिता में जो लोग आते हैं, उनके लिए इस तरह का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। यह सच है कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, एक पेशा बन गई है और न्यूज़ एक

फुटपाथ तो बना नहीं पाते, शहर क्या बनाएंगे?

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क्या खेती-किसानी का घाटे का सौदा बन जाना एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है? क्या छोटी जोतों का किसी एसईजेड में समा जाना या किसी बड़े कॉरपोरेट घराने की जागीर बन जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है? क्या खेतों से किसानों का उजड़ जाना ऐतिहासिक नियति है? हमारे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम शायद ऐसा ही मानते हैं। 31 मई 2008 के तहलका में छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है, “My vision of a poverty-free India will be an India where a vast majority, something like 85 percent, will eventually live in cities.” चिदंबरम ने इसके अगले ही वाक्य में साफ किया कि वो महानगरों की नहीं, शहरों की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि 6 लाख गांवों की बनिस्बत शहरी माहौल में लोगों को पानी, बिजली, शिक्षा, सड़के, मनोरंजन और सुरक्षा मुहैया कराना ज्यादा आसान होता है। चिदंबरम साहब, अभी तो आप मौजूदा शहरों की ही व्यवस्था दुरुस्त कर लीजिए, फिर 85 फीसदी अवाम को शहरों में पहुंचाने की बात कीजिएगा। सड़क, पानी और बिजली जैसी जिन सुविधाओं की बात आपने की है, उनकी हकीकत जानने के लिए आप बिना किसी लाव-लश्कर के दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद या मुंबई के उपनगरों क

गुमराह करो, सुनो मत और बोलें तो गोली मार दो

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विकास के नाम पर कैसा छल चल रहा है!! कौन नहीं चाहता कि उसके इलाके में विकास हो, चमचमाती सड़कें बनें, फैक्टरियां लगें। बहुत से इलाकों के बहुत-बहुत से लोग रोना रोते रहते हैं कि उनके एमएलए, एमपी ने इलाके के लिए कुछ नहीं किया। काश, कोई मंत्री, मुख्यमंत्री या वीआईपी उनके इलाके का प्रतिनिधि होता तो इलाके की सूरत बदल गई होती। किसान खुशी-खुशी अपनी ज़मीनें विकास के लिए दे देते। विकास की कचोट को भुनाने के लिए आज हर राजनीति दल, हर नेता विकास की बात करता है। मैं भी विकास का समर्थक हूं। यकीनन आप भी होंगे। लेकिन ऊपर से लटकाया गया विकास कैसे गंवई इलाके के लोगों के गले में फांसी का फंदा बन जाता है, इसका सबूत दिया है विस्फोट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट ने। सोचिए, राजस्थान के उस बाडमेर इलाके में सरकार ने जिंदल स्टील वर्क्स के सज्जन जिंदल को कोयले और लिग्नाइट से बिजली बनाने की इजाज़त दे दी है, जहां साल भर आंधियां चलती हैं। किसानों की समझ कहती है कि इन आंधियों से पवन बिजली बनाई जा सकती है, जिससे पर्यावरण भी बचा रहेगा और उनका और उनके पशुओं का भरण-पोषण करनेवाली ज़मीन भी बच जाएगी। जबकि सज्जन जिंदल की ताप विद्युत प

हत्या बिजनेस का तार्किक विस्तार है

चार्ली चैपलिन की एक फिल्म है Monsieur Verdoux (A Comedy of Murders) जो उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने पर 1947 में बनाई थी। फिल्म में एक ईमानदार क्लर्क की कहानी है जो 1929 की महामंदी के असर के बाद सीरियल किलर बन जाता है। उसे अपने परिवार की देखभाल की फिक्र है, लेकिन पैसे कमाने के लिए वो अमीर विधवाओं से शादी करता है और फिर मौका पाते ही उनकी हत्या कर देता है। फिल्म के अंत में उसे मौत की सज़ा सुनाई जाती है तो वह अपने गुनाह को पश्चिमी सभ्यता के गुनाहों के आगे बेहद मामूली बताता है। उसका डायलॉग है - As a mass killer, I’m an amateur by comparison... इस चरित्र के बारे में चैपलिन का कहना था कि जिस तरह युद्ध कूटनीति का तार्किक विस्तार है, उसी तरह फिल्म का नायक मानता है कि हत्या बिजनेस का तार्किक विस्तार है। इस फिल्म को लेकर चैपलिन की खूब खिंचाई हुई थी। अब भी हो रही है। ताज़ा स्थिति आप न्यूयॉर्क टाइम्स की इस रिपोर्ट से जान सकते हैं। फिलहाल इस पोस्ट के ज़रिए मैं पहली बार अपने ब्लॉग पर वीडियो लगाने का अभ्यास कर रहा हूं। YouTube से लिया गया इस फिल्म का ट्रेलर पेश है। देखिए और पूरी फिल्म को सम

गाय और सूअर खाने से उपजा है खाद्यान्न संकट

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दुनिया खाद्य संकट की गिरफ्त में है। अमर्त्य सेन इसकी वजहें गिना चुके हैं। जॉर्ज बुश इसके लिए भारत और चीन की बढ़ती समृद्धि को दोषी ठहरा चुके हैं। लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि अमेरिका में पैदा होनेवाला 70 फीसदी अनाज गायों और सूअरों को खिला दिया जाता है ताकि अमेरिकी उनका मांस खा सकें। भारत के प्रमुख औद्योगिक समूह काइनेटिक के चेयरमैन अरुण फिरोदिया ने आज इकोनॉमिक्स टाइम्स में छपे अपने लेख में कुछ ऐसे ही तथ्य पेश किए हैं। लेख के चुनिंदा अंश... दुनिया भर में छाए खाद्यान्न संकट का गुनहगार कौन है? उंगलियां पेट्रोल की जगह इथेनॉल के इस्तेमाल पर उठाई जा रही हैं। कहा जा रहा है कि अमेरिका के किसान मक्के का इस्तेमाल इथेनॉल बनाने में कर रहे हैं जिसके चलते दुनिया भर में खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ गई हैं। गंभीर बहस हो रही है कि क्या कृषि भूमि का उपयोग इथेनॉल के उत्पादन के लिए किया जाना चाहिए। ज़ोर देकर कहा जा रहा है कि कृषि भूमि खाद्यान्नों के उत्पादन में काम आनी चाहिए, न कि इथेनॉल के लिए। अच्छी बात है। लेकिन खाद्यान्न जा किसके पेट में रहे हैं? आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका में पैदा होनेवाला 7