गुमराह करो, सुनो मत और बोलें तो गोली मार दो

विकास के नाम पर कैसा छल चल रहा है!! कौन नहीं चाहता कि उसके इलाके में विकास हो, चमचमाती सड़कें बनें, फैक्टरियां लगें। बहुत से इलाकों के बहुत-बहुत से लोग रोना रोते रहते हैं कि उनके एमएलए, एमपी ने इलाके के लिए कुछ नहीं किया। काश, कोई मंत्री, मुख्यमंत्री या वीआईपी उनके इलाके का प्रतिनिधि होता तो इलाके की सूरत बदल गई होती। किसान खुशी-खुशी अपनी ज़मीनें विकास के लिए दे देते। विकास की कचोट को भुनाने के लिए आज हर राजनीति दल, हर नेता विकास की बात करता है। मैं भी विकास का समर्थक हूं। यकीनन आप भी होंगे। लेकिन ऊपर से लटकाया गया विकास कैसे गंवई इलाके के लोगों के गले में फांसी का फंदा बन जाता है, इसका सबूत दिया है विस्फोट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट ने।

सोचिए, राजस्थान के उस बाडमेर इलाके में सरकार ने जिंदल स्टील वर्क्स के सज्जन जिंदल को कोयले और लिग्नाइट से बिजली बनाने की इजाज़त दे दी है, जहां साल भर आंधियां चलती हैं। किसानों की समझ कहती है कि इन आंधियों से पवन बिजली बनाई जा सकती है, जिससे पर्यावरण भी बचा रहेगा और उनका और उनके पशुओं का भरण-पोषण करनेवाली ज़मीन भी बच जाएगी। जबकि सज्जन जिंदल की ताप विद्युत परियोजना से इलाके में भयंकर प्रदूषण फैलेगा। आपको बता दूं कि ये वही सज्जन जिंदल हैं जिनके पिता ओ पी जिंदल राज्यसभा के सांसद थे और जिनका भाई नवीन जिंदल इस समय कांग्रेस का लोकसभा सांसद है।

रेगिस्तानी इलाके में बिजली परियोजना लगेगी तो सबका भला होगा। लेकिन सरकार अगर सज्जन जिंदल के बजाय इस परियोजना के लिए इलाके के किसानों की राय ले लेती तो उसका क्या घट जाता। बल्कि इससे देश को बिजली भी मिल जाती और किसान भी अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हुए चहकने लगते। लेकिन विकास की डुगडुगी बजानेवाली केंद्र और राज्य सरकारों को एकतरफा विकास चाहिए। उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। उन्हें अपनों का हित देखना है। अपनों की सुननी है। गैरों की नहीं। कितने अफसोस की बात है कि इस देश के 60-70 करोड़ गंवई बाशिंदे हमारी सरकारों के लिए गैर हो गए हैं।

ये अगर गैर नहीं होते तो खाद की पर्याप्त आपूर्ति की मांग करनेवाले किसानों पर कर्नाटक में गोलियां नहीं चलाई जातीं। मुझे तो यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि केंद्र सरकार राज्यों के लिए आज भी खाद का कोटा तय करती है। अगर देश की आधी से ज्यादा आबादी गैर नहीं होती तो विकास की दौड़ में बराबरी का हक मांगनेवाले गूर्जरों की इस तरह जान नहीं ली जाती। सीधे बात न करके आर्ट ऑफ लिविंग के दलाल गुरु को मध्यस्थ नहीं बनाया जाता।

सीधी-सी बात है कि सरकार की नीति यही है कि हम-आप जैसे पढ़ने-लिखनेवाले शहरी लोगों तक आधी-अधूरी सूचनाएं पहुंचाई जाएं ताकि हम विकास के सुनहरे ख्वाबों में खोए रहें, भ्रमित रहें, गुमराह रहें। जो लोग जायज हक की बात करते हैं या तो उनकी बात देश के सामने नहीं आने दी जाती या आंदोलनों के जरिए उठी उनकी आवाज़ को गोलियां से चुप करा दिया जाता है। विकास से किसी का इनकार नहीं, किसी को ऐतराज नहीं। लेकिन जिस विकास में लोगों की भागीदारी न हो, उससे देशी-विदेशी कंपनियों का भला हो सकता है, देश का नहीं। विस्फोट ने अपनी रिपोर्ट के जरिए ऐसा सच उजागर किया है, जिस पर हम सभी को सोचने की ज़रूरत है। आखिर में मेरी यही कामना है कि झूठ या आधा सच पेश करते मीडिया के समानांतर विस्फोट जैसे मंच वैकल्पिक मीडिया बनकर उभरें, जो आधा-अधूरा सच नहीं, पूरा सच हमारे सामने रखें।

Comments

Udan Tashtari said…
विस्फोट लगातार पढ़ता हूँ, बस टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. बहुत अच्छे मुद्दे उठाते हैं.
Ashok Pandey said…
अनिल भाई,
किसानों से राय लेने में सरकार का तो घट ही जाता न। जिंदल का घाटा मतलब सरकार का घाटा। आखिर सांसदों-विधायकों से ही तो सरकार बनती है।

सही शीर्षक लगाया है- गुमराह करो, सुनो मत और बोलें तो गोली मार दो।
सर, मैं पूरी तरह सहमत हूँ आपसे.
Abhishek Ojha said…
सहमति आपसे.
सरकार चाहे प्रदेश की हो अथवा केन्द्र की, ऐसे निर्णय लेते वक़्त कतई पारदर्शिता नहीं बरतती,यही लोकतंत्र की बिडम्बना है.

विकास के नाम पर लिये गये इस प्रकार के फैसलों से किसका कितना विकास होता है, यह अब किसी से छिपा नही है.

आम आदमी की मज़बूरी है कि उसकी लाठी में आवाज़ नहीं है.

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