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Showing posts from March, 2007

कोंपलों का कातिल, नसों का हत्यारा

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वो कौन है जो मेरे दिमाग में कहर बरपाए हुए है। मेरे विचारों का, अनुभूतियों का निर्ममता से संहार कर रहा है। जैसे ही किसी सोई हुई नस में स्फुरण शुरू होता है, नए अहसास की कोंपल फूटती है, कोई झपट कर झपाक से उसे काट देता है। जैसे ही पूरा दम लगाकर हाथ पैर मारता हूं, आंखों के आगे का कुहासा हटाता हूं, वैसे ही आंखों के आगे सात-सात परदे गिरा देता है। दिमाग कुरुक्षेत्र बना हुआ है। महाभारत छिड़ी है जो सालों बाद भी खत्म नहीं हो रही। अर्जुन बार-बार भ्रमों का शिकार हो रहा है। कोई सारथी नहीं है जो अपना विराट आकार दिखाकर बता सके कि जिनको तुम जिंदा समझ रहे हो, वो तो कब के मुर्दा हो चुके हैं। चक्रव्यूह के सात द्वार बन जाते हैं। मैं पहला द्वार ही नहीं भेद पाता, सातवें की बात कौन करे। चक्रव्यूह के पहले ही द्वार पर सीखी हुई विद्या भागकर दिमाग की किसी खोह में छिप जाती है। विचारों की धार और तलवार के बिना मैं निहत्था हो जाता हूं। युद्ध के बीच में कोई आंखों में धूल फेंक देता हैं। किरकिरी असहनीय हो जाती है, दिखना बंद हो जाता है। याद आ जाता है बावड़ी में खुद से अनवरत लड़ता (मुक्तिबोध का) वो ब्रह्मराक्षस, जो घिस रह

हम क्यों दें सर्विस टैक्स?

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1994-95 में देश में सर्विस टैक्स की शुरुआत तीन सेवाओं से हुई। आज इसे करीब सौ सेवाओं पर लगा दिया गया है। इसे लागू करते समय तर्क दिया गया था कि बहुत सारे लोग अलग-अलग धंधों से अच्छी-खासी कमाई करते हैं, लेकिन सरकारी खजाने में कुछ नहीं देते। इसलिए उन पर टैक्स लगाना जरूरी है। आम लोगों ने इसका स्वागत किया। लेकिन असल में जब ये टैक्स लगाया गया तो सर्विस देनेवालों पर नहीं, सर्विस लेनेवालों पर लगाया गया। यानी, आम आदमी पर बोझ और बढ़ गया। कमानेवालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वो तो ग्राहक के बिल में सर्विस टैक्स ऊपर से जोड़ देते हैं। होटल में आप 100 रुपए का खाना खाते हैं तो आपको देने पड़ते हैं 110 रुपए। यही हाल वैल्यू ऐडेड टैक्स, वैट का भी है। फर्नीचर आप खरीदते हैं 1000 रुपए का, लेकिन आपकी जेब से ढीले होते हैं 1125 रुपए। वैसे, आज भी धुआंधार कमाई करनेवाले डॉक्टर और वकील सर्विस टैक्स के नेट से बाहर हैं। लेकिन इन पर सर्विस टैक्स लगाने की मांग करने से भी डर लगता है क्योंकि यह टैक्स लग गया तो ये अपनी फीस उसी हिसाब से बढ़ा देंगे। आज का सवाल इसी से जुड़ा है : क्या सर्विस टैक्स सर्विस देनेवालों पर लगाया

ये ले! दिन के 4 रुपए 81 पैसे

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सरकार का खजाना संभालना वाकई हमारे-आपके वश की बात नहीं, क्योंकि उसके खर्चों का तो बहुत-सा फंडा हमारे सिर के ऊपर से गुजर जाएगा। बानगी के लिए नए साल के बजट के कुछ आंकड़े। इस बार कुल खर्च रखा गया है 6,80,521 करोड़ रुपए, जिसमें से 1,50,948 करोड़ रुपए यानी 22.18 फीसदी का इंतजाम उधार से किया गया है, जिसे आर्थिक शब्दावली में राजकोषीय घाटा या फिस्कल डेफिसिट कहते हैं। इस घाटे को घटा दें तो सरकार की आमदनी इस साल रहेगी 5,29,573 करोड़ रुपए। उधार घटाने के बाद बची इस आमदनी में से 1,58,995 करोड़ रुपए यानी 30.02 फीसदी हिस्सा पुराने उधार की ब्याज अदायगी में चला जाएगा। इस तरह नए कर्ज समेत केंद्र सरकार की कुल आमदनी का 45.54 फीसदी हिस्सा नए पुराने पाप बढ़ाने और काटने में चला जाएगा। बाकी बचे 3,70,578 करोड़ में से सेना पर खर्च होंगे 96,000 करोड़, जबकि पुलिस से लेकर आईबी, विदेश मामलात, कर संग्रह, चुनाव, कर्मचारियों की तनख्वाह और पेंशन जैसे सरकारी कामों पर खर्च होंगे 47,946 करोड़ रुपए। सरकार और सेना का ये खर्च कुल मिलाकर हुआ 1,43,946 करोड़। इसे घटा दें तो बजट में जनता के लिए बचते हैं 2,26,632 करोड़ रुपए। गौर क

एक विचार, एक सवाल

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आज का सवाल : भविष्य पर दांव लगाना जोखिम उठाने की ऐसी मानसिकता है जिससे उद्यमशीलता की बुनियाद बनती है। शेयर बाजार में फ्यूचर्स और ऑप्शंस का खेल या जिंस बाजार के वायदा सौदे एक तरह की सट्टेबाजी ही हैं। ऐसे में क्या देश में क्रिकेट मैचों पर सट्टा खेलने को वैध नहीं बना देना चाहिए? दुनिया के कई देशों में इसे वैध माना जाता है। मैच फिक्सिंग यकीनन एक अपराध है, जिसके खिलाफ सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए।

शाश्वत सवालों के जवाब

अभय बाबू ने करीब बीस दिन पहले पूछे थे पांच सवाल , तो जवाब पेश है। देरी के लिए माफी चाहता हूं। लेकिन ये जिंदगी के शाश्वत सवाल है, इसलिए हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। 1. आप आस्तिक हैं या नास्तिक और क्यों? मैं मूलत: नास्तिक हूं। लेकिन हालात के सामने बेबसी की हालत में आंखें मुंद जाती हैं, हाथ खुद-ब-खुद ऊपर उठ जाते हैं, उसी अंदाज में जैसे एक भूमिहीन बूढ़े गरीब किसान ने किसी दिन कहा था - बच्चा आपन दुख या तौ हम जानी या भगवान जानै। मेरे लिए जिंदगी में जीतना या कम से कम जीत जाने की उम्मीद पाले रखना जरूरी है। भगवान का होना या न होना, मेरे लिए शास्त्रीय बहस और शुद्ध बकवास है। मैं तो भगवान से भी यही दुआ मांगता हूं कि मुझे मन और बुद्धि की इतनी ताकत दे दे कि मेरे लिए तेरा विलोप हो जाए। मैं मानता रहा हूं कि इंसान के ताकतवर होने के साथ भगवान का विलोप होता जाएगा। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है जब इनफोसिस के चेयरमैन नारायणमूर्ति और बॉलीवुड के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन कहते हैं कि वे भारतीय टीम का क्रिकेट मैच इसलिए नहीं देखते क्योंकि उन्हें लगता है कि वो अगर मैच देखते हैं तो भारत हार जाता है। मुझे लगता है कि या तो ये

नोटों की नीति : जेब कटी हमारी, मौज हुई उनकी

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महंगाई के लिए दोषी है सरकार, सरकार और सिर्फ सरकार। सीधा-सा गुणा-भाग है कि सिस्टम में नोट ज्यादा हों जाएंगे और चीजें उतनी ही रहेंगी तो हर चीज के लिए नियत नोट बढ़ जाएंगे। जैसे, जब सिस्टम में 100 रुपए थे और 10 चीजें थीं तो औसतन हर चीज के लिए थे 10 रुपए। लेकिन जब सिस्टम में 150 रुपए आ गए और चीजें 10 ही रहीं तो औसतन हर चीज के लिए 15 रुपए हो गए। हम आपको बता दें कि हमारे रिजर्व बैंक ने अप्रैल 2006 से जनवरी 2007 के बीच सिस्टम में 56,543 करोड़ रुपए डाले हैं और उसने ऐसा किया है देश में आए 1260 करोड़ अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए। अगर वो ये डॉलर नहीं खरीदता तो देश में जो डॉलर अभी लगभग 44 रुपए का मिल रहा है, वह शायद 40 रुपए में मिलने लगता यानी डॉलर के सापेक्ष रुपया महंगा हो जाता, उसका अधिमूल्यन हो जाता। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ऐसा नहीं चाहता। क्यों नहीं चाहता? ...क्योंकि इससे भारत से निर्यात किया गया माल डॉलर में खरीद करनेवालों के लिए महंगा हो जाएगा। मसलन, भारत की जिस शर्ट की कीमत अमेरिका में 440 रुपए है, उसके लिए अभी अमेरिकी ग्राहक को 10 डॉलर देने होंगे। लेकिन अगर रुपया महंगा हो गया होता तो इसी शर्

एक विचार, एक सवाल

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आज का सवाल पेश है : क्या भारत और यहां के बाशिंदों के समग्र विकास के लिए जरूरी नहीं है कि रक्षा, मुद्रा, विदेश नीति, डाक और रेलवे को छोड़कर बाकी काम राज्यों के हवाले कर दिए जाएं? केंद्र की भूमिका उसी तरह की हो, जैसे यूरोपीय संघ की है? यूरोपीय संघ के अनुभव को पचास साल हो गए हैं, क्या हमें उसके अनुभव पर गौर नहीं करना चाहिए? वैसे, अपने यहां आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के रूप में ऐसा विचार पहले भी आ चुका है।

एक विचार, एक सवाल

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एक सिलसिला आज से शुरू कर रहा हूं। कोशिश करूंगा कि हर दिन एक सवाल पेश करूं। इसका जवाब दें या न दें, ये आप पर है, लेकिन इस पर सोचें जरूर, ऐसा मैं चाहता हूं। पहला सवाल, जिसे राजनीतिक मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी ने शनिवार, 24 मार्च 2007 के टाइम्स ऑफ इंडिया में उठाया है : एक अरब की आबादी वाला कोई देश अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान का जिम्मा बीस से तीस साल के 11 खिलाड़ियों पर कैसे छोड़ सकता है? जो काम राजनीतिक नेताओं, प्रशासकों, औद्योगिक हस्तियों, सेना और कानून-व्यवस्था की मशीनरी को करना है, उसके लिए क्रिकेट टीम की तरफ देखना कहां तक वाजिब है?

प्यार के दो प्यारे गाने

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1. मैं हर सूरत में तुम्हें चाहता हूं। चाहे खुशी हो, गुस्सा हो, झगड़ा हो। शांति में, अशांति में, विक्षोभ में, विभ्रांति में, भीषण असंभव हालात तक में भी तुम्हें चाहता हूं। इस बांग्ला गाने की लाइनें तो खूबसूरत हैं ही, सुमन चटर्जी ने गाया भी बहुत अच्छा है। सुनने के लिए लिंक के पहले गाने पर क्लिक करें। प्रथोमोतो आमी तोमाके चाइ द्वितीयोतो आमी तोमाके चाइ तृतीयोतो आमी तोमाके चाइ शेष पर्यन्तो तोमाके चाई तोमाके चाइ, तोमाके चाइ, तोमाके चाइ, तोमाके चाइ... निझुम अंधकारे तोमाके चाइ रात भोर होले आमी तोमाके चाइ सकालेर कोयशोरे तोमाके चाई संधेर अवकाशे तोमाके चाइ बैशाखी झोर-ए आमी तोमाके चाइ आषाढ़ेर मेघे आमी तोमाके चाइ श्राबणे-श्राबणे आमी तोमाके चाई अकाल बोधोने आमी तोमाके चाइ तोमाके चाइ, तोमाके चाइ, तोमाके चाइ, तोमाके चाइ... कोबेकार कोलकाता शहरे पथे पुरोनो नोतून मुख घरेइ मारादे अगन्ति मानुषेर क्लांतो मिछिरे ओ चेना छुटीर छोंवा तुमी एने दिले नागरिक क्लांतिते तोमाके चाइ एक फुटा शांतिते तोमाके चाइ बोहू दूर हेटे एशे तोमाके चाई ए जीवन भालोबेशे तोमाके चाइ चौरास्तार मोड़े पार्के दोकाने शहरे गंजे ग्रामे एखाने-ओखा

तुम जीते क्यों नहीं यारा!

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ऑफिस की आज की चाकरी पूरी हो गई, जिसकी बदौलत मेरा पूरा कुटुंब चलता है, उसका हक अदा करके खाली हो गया तो सोचा कि थोड़ा रुककर अब अपने मन की बात कह ली जाए। कल भगत सिंह की विरासत पर तिर्यक विचार पढ़े तो सोचा कि इसी बहाने हमारी रगों में बहते उस खून को याद कर लिया जाए, जिसकी तीन बूंदों का गला आज से ठीक 76 साल पहले घोंट दिया गया था। अफसोस! भगत सिंह और उनके दो साथियों की शहादत वो मुकाम हासिल नहीं कर सकी, वो सपना पूरा नहीं कर सकी जिसका ख्वाब इन बंदों ने देखा था। इतिहास में यकीनन, ये हुआ होता तो क्या होता, की बातें नहीं चलतीं। लेकिन हमें सोचने से तो कोई नहीं रोक सकता कि अगर 23 मार्च 1931 की तारीख में हिंदुस्तानी जनमानस पर मोहनदास कर्मचंद गांधी जितना ही असर रखनेवाले भगत सिंह की अगुआई में देश ने आजादी हासिल की होती तो आज देश की हालत क्या होती? तब, शायद दलाली की राजनीति का जो दलदल आज गंध मार रहा है, वह नहीं होता। देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो चुका होता। हम दुनिया की अर्थव्यवस्था में चीन से पीछे नहीं, आगे होते। अब तिर्यक विचार की बात। इस प्रेक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आज के अच्छा-खासा खाते-

आह-हा! गाओ खुशी के गीत...

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तालियां बजाओ, नाचो-गाओ। देश में गरीब घट गए हैं। आबादी में उनका अनुपात घट गया है। योजना आयोग ने मुनादी कर दी है कि साल 1993-94 में जहां देश के 36 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे थे, वहीं साल 2003-04 में इनकी तादाद 27.5 फीसदी रह गई, यानी दस सालों के दरम्यान 8.5 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे से निकल कर ऊपर आ गए। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) ने आम हिंदुस्तानियों के तीस दिन के उपभोग का आंकड़ा जुटाने की खास पद्धति, यूनिफॉर्म रिकॉल पीरियड (यूआरपी) के आधार पर यह नतीजा निकाला है। अगर इस पद्धति को यूआरपी से बदल कर एमआरपी यानी मिक्स्ड रिकॉल पीरियड कर दिया जाए और ये पता लगाया जाए कि तीस दिन के बजाय साल भर में लोगों ने कितने जूते-चप्पल, कपड़े और साइकिलें वगैरह खरीदीं, तब तो आबादी में गरीबों का प्रतिशत 21.8 ही रह गया है यानी दस सालों में 14.2 फीसदी की शानदार कमी। ये तो वाकई कमाल हो गया ताऊ! एनडीए से लेकर यूपीए की सरकारें अब अपनी पीठ थपथपा सकती हैं कि आर्थिक सुधार कार्यक्रम रिस-रिस कर नीचे तक पहुंच रहा है और ग्लोबलाइजेशन हिंदुस्तान के आम आदमी का भला कर रहा है, रिफॉर्म विद ए ह्यूमन फेस

रिक्तता के राज-कुंवर

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दर्द का रिश्तों से गहरा नाता है। आप रिश्ते संभालिए, हम दर्द संभालते हैं। ये स्लोगन है हर तरह के दर्द की निवारक एक आयुर्वेदिक दवा के विज्ञापन का, जो मुंबई की लाइफलाइन लोकल ट्रेनों के तमाम डिब्बों में इन दिनों चस्पा हुआ पड़ा है। लेकिन लगता है ज्यादातर हिंदुस्तानी अवाम ने भी राजनीति से यही रिश्ता बना रखा है। वो अपने रिश्तों के उलझाव को सुलझाने में लगा रहता है और दर्द के निवारण का काम उसने राजनीति पर छोड़ रखा है। कोउ नृप होय, हमैं का हानी की सोच अब भी हावी है। इसी का फायदा उठाकर नेता अपना ढोल बजाकर राजनीति का मजमा लगाए हुए हैं। खानदानी राजनीति के चलते चले जाने की एक बड़ी वजह यही है। ठाकरे से लेकर शरद पवार और गांधी परिवार तक के लोग इसी सोच के चलते राजनीति का खानदानी सफाखाना चला रहे हैं, विज्ञापनी भाषा में सफेद झूठ बोलकर अपनी दुकान सजाए हुए हैं। ताजा नमूना हैं राहुल गांधी, जिन्होंने कह डाला कि अगर कोई गांधी होता तो बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती। बवाल उठा तो राहुल ने कह दिया कि उन्होंने तो अपने पिता की वही बात दोहराई है जो उन्होंने इनसे कही थी। राहुल बाबा, क्या राजीव गांधी ने सचमुच आपसे ऐसी बात

न उदास हो मेरे हमसफर

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मानस की उदासी बढ़ती जा रही है। सच कहें तो वह आत्मदया का शिकार हो गया है, जबकि एक जमाने में वह खुद के गरिमामंडन की आभा में जीता था। पहले वह किस तरह सोचता था, इसका एक उदाहरण। 1983-84 की बात है। तब चालीस साल के हो चुके राजीव गांधी को देश के युवा नेता के बतौर पेश किया जा रहा था। इन पर मानस भड़क कर कहता, 'मेरा बाप चालीस साल की उम्र में बूढ़ा हो गया और चालीस साल के राजीव गांधी को युवा नेता बताया जा रहा है।' आईएएस अफसर बनने की बात आई तो उसने कहा - कोई राज करे और किसान का बेटा मशीनरी का पुर्जा भर बनकर रह जाए, ऐसा कैसे हो सकता है। उस दौरान उसका दर्प उसके माथे पर दिप-दिप करता था। एक बार नौकरी करते हुए बॉस ने कुछ खरी-खोटी सुना दी, कहा कि तुम्हारी औकात क्या है, तुम जो कुछ हो, मेरी बदौलत हो। मानस गुस्से को पी गया, लेकिन खुद से बोला - मैं सूर्य पुत्र, सरस्वती का बेटा, मैं ऐसी टुच्ची बातों से अपना मन क्यों छोटा करूं! उसका गुरूर इतना था कि कि बड़ी से बड़ी हस्ती को किसी न किसी मायने में अपने से छोटा समझता था। इसे उसके अवचेतन से भी समझा जा सकता है। आडवाणी से लेकर लालू और शाहरुख खान तक उसके सपने

ऑफ का इंतजार

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उफ! ये कैसी थकान है जो मिटाए नहीं मिटती। नींद छह घंटे के बाद पहली बार टूटती है, लेकिन दो घंटे और सोता रहता हूं ताकि आज पूरी तरह तरोताजा होकर उठूं। लेकिन उठने के एकाध घंटे बाद ही थकान भांग के नशे की तरह फिर से बढ़ने लगती है। मानस आज फिर इसी उलझन में गुंथा हुआ था। गाड़ी लोकल स्टेशनों पर रुकती हुई भागती जा रही थी, लेकिन मानस इसी सोच पर अटका हुआ था। माथे पर परेशानी की लटें थीं, आंखों में गहराती थकान का उनींदापन। वह इस बात से खीझ रहा था कि उसके साथ ये सिलसिला अभी से नहीं, पिछले बीस सालों से अनवरत चल रहा है जब उसकी उम्र पच्चीस साल की थी। अब तो वह इससे इतना आजिज आ गया है कि मन ही मन सोचता है कि अब पूरा ऑफ ही ले लिया जाए। जिस तरह हफ्ते में छह दिन के काम के बाद बड़ी शिद्दत से ऑफ के दिन का इंतजार रहता है, उसी तरह उसे अब अपनी जिंदगी के ऑफ का इंतजार है। मौत शायद उसके लिए ऐसी तसल्ली और सुकून ले आए, जिसमें डूबकर वह चैन की नींद सो जाएगा और उठेगा तो ओस से नहाए फूल की तरह एकदम ताजा होकर। वैसे, सालोंसाल से थकान की हालत में जीते-जीते अब उसकी स्मृति का लोप भी होने लगा है। फिर भी दिमाग के किसी गहरे कोने से

इस बार के लिए बस इतना ही!

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वह अजीब बातें कहता और सोचता था। जैसे, नदी के साथ बहते हुए समुंदर तक पहुंचा जाए तो कैसा रहेगा। एक दिन क्यारी में टमाटर के पौधे को देखकर बोला कि इस तरह टमाटर खाने का क्या मजा है, अरे! बीज के साथ मिट्टी में घुसकर पौधे से होते हुए टमाटर का स्वाद लिया जाए, तब कोई बात है। अभी कल ही की तो बात है। उसने कहा था, ''मैं कल्पना करता हूं उस दिन की, जब मेरे देश की सारी सांस्कृतिक ऊर्जा, सारी सृजनात्मक शक्तियां एक ही दिशा में चलेंगी। मैं उनके अनुनाद से उपजने वाली ऊर्जा की कल्पना करके ही पुलकित हो जाता हूं।'' वह हर चीज की संगति देखता, उसका तालमेल देखता। उसके कमरे की हर चीज करीने से लगी रहती। अगर वह अपने कपड़े फेंकता या कागज और किताबें बिखेरता तो उस अव्यवस्था में भी एक क्रमबद्धता फिट कर देता। फेंकी हुई एक चीज को जरा-सा इधर किया, दूसरी चीज को उठाकर हल्का-सा बगल में कर दिया...और बन गया एक क्रम, एक नई आकृति। क्रमबद्धता, संगति, अनुनाद। वह कहता, हर चीज जब एक क्रम में आ जाती है, एक लय में ढल जाती है तो उसकी दृश्यता, श्रव्यता में एक अनुनाद उत्पन्न हो जाता है। इस अनुनाद को देखा नहीं, महसूस किया

किशोर की डायरी का एक पन्ना

कुछ ब्लॉग मित्रों ने शिकायत की है कि मैं हिंदुस्तानी की डायरी से हटकर कुछ और लिखने लगा हूं। शिकायत जायज है। लेकिन इसमें मेरी एक मजबूरी भी है। किशोर की पैंतालीस सालों की जिंदगी पर लिखना उन पैंतालीस सालों को दोबारा जीने जैसा है। और इसमें nostalgia का कोई आनंद नहीं, बल्कि गहरी पीड़ा है। इसलिए मैं इसे धीरे-धीरे ही लिख पाऊंगा। आज पेश है किशोर की डायरी का एक पन्ना, जिससे उसकी मानसिक बुनावट के बारे में थोड़ा अंदाजा लग सकता है। मुझे बड़ा दुख होता है कि जब लोगों की बाहर दुनिया दूसरी होती है और अंदर की दूसरी। बाहर से बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले लोग अंदर से दूसरे क्यों होते हैं और वे ही कामयाब होते हैं, ये बात मेरी समझ में नहीं आती। मुझे तो लगता है कि ब्रह्ममाण्ड में अंदर और बाहर की गतियों में उसी तरह का मेल होना चाहिए जैसे सौरमंडल में चक्कर काटते ग्रहों में होता है। पृथ्वी सूरज के चारों ओर तभी चक्कर काटती रह सकती है, जब उसकी अपनी धुरी पर भी उसी के अनुरूप गति होती रहे। अगर अपनी धुरी पर गति गड़बड़ हुई तो सौरमंडल में पृथ्वी का वजूद ही मिट जाएगा। फिर, हमारे समाज में लोग कैसे स्वांग कर चलते ही नहीं रहते

अनुभूति उन्मत्त प्यार की

1. उसके सीने में हल्की-सी सिहरन पैदा करता, लेकिन साथ ही कुछ अजीब किस्म की दुस्साहसी भावनाओं का बहाव अनचाही उम्मीदें लेकर हिलोरे मार रहा था। इसके साथ ही ये आशंका भी कि कहीं ये सब ऐसा सपना न हो जो कभी सच न हो सके। इधर-उधर करवटें लेता उसके अंदर का बहाव एक विराट धारा का रूप ले रहा था, एक ऐसा अहसास जैसे उसके भीतर कुछ खुल जाना चाहता हो, सांस लेना चाहता हो...एक सिसकी, एक गीत, एक चीख या एक जोरों की हंसी... (नोबेल पुरस्कार विजेता जर्मन लेखक हेरमान हेस्से के उपन्यास Unterm Rad की लाइनें) 2. समय जब अल्हड़ होता है, शरीर की एक-एक कोशिका ज्वालामुखी जिंदगी जब काटे नहीं कटती नींद के पहले और बाद, किसी का ख्याल जब हटाए नहीं हटता बातें जब कभी खत्म नहीं होतीं जेहन में जब मीठा-मीठा डर होता है अपना वजूद ही जब किसी के अंग-अंग में घुल जाता है किसी के प्रभामंडल की आंच में मन जब शीतल-शीतल हो जाता है दिल जब किसी की आहट, किसी की आवाज़, किसी की पलकों के उठने से अज्ञात, अव्यक्त, अकल्पनीय धड़कन बन जाता है, तब... तब, अल डोरोडो में भी कांदीद को चैन नहीं मिलता कुनेगुन ही सबसे बड़ा सच होती है तब फलसफे भी सुकून नहीं देते

भारत खड़ा बाजार में

टीम इंडिया के वर्ल्ड कप टूर पर रवाना होने से पहले विज्ञापन की दुनिया के मोस्ट क्रिएटिव ऑल राउंडर प्रसून जोशी ने एक एक्सक्लूसिव कविता लिखी, जो कुछ इस तरह है.... जब तुम चलोगे, ये धरती चलेगी, फिज़ाएं चलेंगी तूफान बनकर तुम्हारे वतन से हवाएं चलेंगी। तुम्हें खेलना तो अकेले ही होगा, मगर याद रखना पुकारोगे जब भी, करोड़ों दिलों की दुआएं चलेंगी।। प्रसून जी पढ़े-लिखे इंडियन हैं । रंग दे बसंती के संवाद और गानों से उन्होंने साबित कर दिया है कि वे बदलते समाज की सकारात्मक ऊर्जा को पहचानते हैं। ठंडा मतलब कोकाकोला लिखकर उन्होंने बेहद सहज बातों को पकड़ने की समझ भी दिखाई है। लेकिन... एक नया कल चाहते हैं हम, इसलिए सच दिखाते हैं हम ...लिखनेवाले प्रसून जोशी ने टीम इंडिया के टूर पर करोड़ों दिलों की दुआएं न्यौछावर करके साफ दिखा दिया कि वे शुद्ध प्रोफेशनल हैं और कभी भी अपने क्लाएंट के लिए निष्काम भाव से लिख सकते हैं कि जुबां पे सच, दिल में इंडिया। प्रसून जी की व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं हम बखूबी समझते हैं और धंधे से इतर उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन प्रसून जी, आप इंडियन हैं तो हम भी ठसके से भारती