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Showing posts from February, 2008

घोषणाएं लुभाती हैं, सच रुलाता है

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जो जानते हैं, वो रो रहे हैं और जो अनजान हैं, वो तालियां बजा रहे हैं। चिदंबरम के बजट में घोषित किसानों की कर्ज़माफी पर शहरी लोग वाह-वाह कर रहे हैं, लेकिन विदर्भ के जिन किसानों के नाम पर यह कदम उठाया गया है, वो आज भी आह-आह कर रहे हैं। कैसी विडंबना है!! लालू तो विदूषक हैं, इसलिए उन पर हंसी नहीं आती तो गुस्सा भी नहीं आता। गुस्सा तो शरद पवार पर आता है जो हकीकत जानते हुए भी 60,000 करोड़ रुपए की कर्ज़माफी को ऐतिहासिक कदम बता रहे हैं। शरद पवार को सब इसीलिए नहीं पता है कि वे कृषि मंत्री हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे खुद महाराष्ट्र के हैं। चिंदबरम ने ऐलान किया है कि 5 एकड़ तक की जोत वाले सभी किसानों के किसी भी तरह के बैंक से लिए 31 दिसंबर 2007 तक के कर्ज ब्याज समेत माफ किए जा रहे हैं, जबकि 5 एकड़ से ज्यादा जोत वाले किसानों के लिए 75 फीसदी कर्ज चुकाने देने पर बाकी 25 फीसदी कर्ज माफ कर दिया जाएगा। इस योजना से 5 एकड तक के लाभ पाने वाले किसानों की संख्या तीन करोड़ है, जबकि एक चौथाई कर्जमाफी का लाभ एक करोड़ किसानों को मिलेगा। सच यह है कि विदर्भ के खुदकुशी कर रहे किसानों के नाम पर उठाए गए इस कदम का ल

दिल खोलकर दिया टैक्स, अब दिखाओ दरियादिली

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वित्त मंत्री पी चिदंबरम कल इस वक्त तक साल 2008-09 का आम बजट पेश कर चुके होंगे। अगर पिछले कुछ दिनों से उठे गुबार को सच मानें तो वो कृषि के लिए बड़े पैकेज का ऐलान कर सकते हैं जिसमें छोटे किसानों की कर्जमाफी एक बड़ा कदम होगा। साथ ही मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आयकर छूट की सीमा 1.10 लाख रुपए के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 1.25 लाख या 1.50 लाख रुपए कर सकते हैं। सब्सिडी में कमी नहीं करेंगे, कृषि आय पर टैक्स नहीं लगाएंगे। खास बात ये है कि इस साल का बंपर कर राजस्व उन्हे ऐसी दरियादिली दिखाने का पूरा मौका भी दे रहा है। चिदंबरम ने कुछ दिनों पहले खुद ही माना है कि इस बार अप्रत्यक्ष कर संग्रह 2,79,190 करोड़ रुपए के लक्ष्य से ज्यादा रहेगा। और, अगर केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के अधिकारियों की मानें तो इस बार प्रत्यक्ष कर संग्रह तीन लाख करोड़ रुपए के ऊपर पहुंच जाएगा, जबकि लक्ष्य 2,68,932 करोड़ रुपए का था। अगर ऐसा होता है तो यह एक ऐतिहासिक बात होगी क्योंकि देश में पहली बार प्रत्यक्ष कर संग्रह अप्रत्यक्ष कर संग्रह से ज्यादा रहेगा। साल 2007-08 के बजट अनुमान के मुताबिक अप्रत्यक्ष कर संग्रह कुल कर राज

नौ सदियों से शून्य क्यों छाया है हमारे दर्शन में?

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भारतीय जनमानस में आत्मा व शरीर के रिश्तों को लेकर जमी हुई जड़ सोच को मैंने कल कुरेदने की कोशिश की तो चंदू ने कह दिया कि, “यह बहस दो हजार साल पुरानी लग रही है। आत्मन् सुदूर उपनिषदों से निकला शब्द है, जिसे तार्किक तीक्ष्णता योगवाशिष्ठ में और दार्शनिक पूर्णता आचार्य शंकर के काम में प्राप्त होती है।” एकदम सही बात है और आश्चर्य इस बात का है कि भारत में सन् 820 में शंकराचार्य के बाद कोई कायदे का दार्शनिक नहीं हुआ है। गिनाने को उदयनाचार्य, रत्नकीर्ति, जयंत भट्ट, गंगेश और शाक्य श्रीभद्र के नाम गिनाए जा सकते हैं। लेकिन शाक्य श्रीभद्र भी साल 1225 में ही निपट गए थे। उसके बाद भक्ति आंदोलन के संतों का जिक्र किया जा सकता है। राजाराम मोहन राय (1774-1833), दयानंद सरस्वती (1824-83) और विवेकानंद (1863-1902) का नाम लिया जा सकता है। लेकिन ये सभी चिंतक, विचारक, समाज सुधारक या पुराने दर्शन के नए व्याख्याकार थे। खुद इन्होंने किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं किया। जबकि इसी दौरान यूरोप में राजर हैकन, रेमोंद लिली, बेकन, हॉब्स, दे-कार्त, स्पिनोज़ा, बर्कले, रूसो, हेलवेशियस, कांट, हेगेल, शोपेनहार, फायरबाख, मार्क्स, स्प

एतना कमाए हैं तो हाथ क्यों फैलाते हैं जी!

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मुझ जैसा आम आदमी लालू से यह पूछे तो उसका कोई खास मतलब नहीं होगा। लेकिन जब पूर्व रेलमंत्री नीतीश कुमार लालू से यही बात पूछते हैं तो उसको कोरी राजनीतिक बयानबाजी कहकर नहीं टाला जा सकता। नीतीश ने लालू के 25,000 करोड कैश सरप्लस के दावे को आंकड़ों की पैतरेबाज़ी करार दिया है। वो पूछते हैं कि अगर ऐसा ही है तो भारतीय रेल अब भी सरकारी खज़ाने से पैसा क्यों ले रही है? नए वित्त वर्ष 2008-09 में लालू ने भारतीय रेल की 37,500 करोड़ रुपए की सालाना योजना में से 7874 करोड़ रुपए (योजना खर्च का 21 फीसदी) बजट समर्थन से जुटाने का प्रावधान रखा है। इससे पहले साल 2007-08 में 31,000 करोड़ के योजना खर्च का 24.55 फीसदी हिस्सा (7611 करोड़ रुपए) बजट समर्थन से जुटाया गया था। लालू ने अपने पहले 2004-05 के के रेल बजट में सालाना योजना व्यय का 55 फीसदी हिस्सा बजटीय समर्थन से जुटाया था। साल 2005-06 में यह हिस्सा 47 फीसदी और साल 2006-07 में 32 फीसदी था। बड़ा वाजिब-सा सवाल है कि जिस रेल ने चार सालों में 68,778 करोड़ रुपए का लाभांश पूर्व कैश सरप्लस कमाया है, वह अपने सालाना खर्च का पूरा इंतज़ाम खुद क्यों नहीं कर ले रही? जानकार

गुरुजी आशीष दें, आप से जिरह ही मेरी दक्षिणा है

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गुरुजी! मैं आपके ज्ञान, साधना और अनुभव के आगे कहीं नहीं टिकता। लेकिन मैं क्या हूं इस सवाल का जवाब खोजने के क्रम में कुछ बातें दिमाग में आई हैं, जिन्हें मैं कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। आप कहते हैं कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है, लेकिन वह इससे भिन्न है। वह आत्मा है। नहीं तो क्या वजह है कि प्राण निकलने के बाद शरीर ज्यों का त्यों रहता है, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह सड़ने लगता है। सच है और इस अनुभव व प्रेक्षण की रोशनी में आत्मा की अवधारणा को मानने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन अगर हम अपने प्रेक्षण का दायरा बढ़ा दें तो आत्मा की अवधारणा खंडित हो जाती है, उसी तरह जैसे सूरज के धरती का चक्कर काटने की मान्यता आज पूरी तरह गलत साबित हो चुकी है। आप खुद ही कहा करते थे कि हर दिन को नए जन्म के रूप में देखो। आप हर दिन मरते हैं और हर दिन नया जीवन प्राप्त करते हैं। आप सही कहते थे। विज्ञान तो यहां तक कहता है कि हम जन्म लेने के साथ ही हमारे मरने का क्रम शुरू हो जाता है। हमारा शरीर खरबों कोशिकाओं से मिलकर बना है। इनमें से हर एक कोशिका उतनी ही जीवित होती है जितने कि हम। क्रोमोजोम, डीएनए, आरएन

लालू का इंद्रजाल, हिंदी को अंग्रेज़ी का झटका

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वैसे तो बिहारी लोग हिंदी बोलते हुए भी अंग्रेज़ी में नर्भसाने के लिए मशहूर हैं, लेकिन इस बार रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में अंग्रेज़ी शब्दों का इतने धड़ल्ले से इस्तेमाल किया है कि आश्चर्य होता है कि इतना तगड़ा आमान-परिवर्तन कैसे हो गया। उनका पूरा हिंदी भाषण पढ़कर आप इसका लुत्फ ले सकते हैं। यहां मैं कुछ शब्दों और वाक्यों की बानगी पेश कर रहा हूं। तो, अर्ज़ कर रहा हूं, आप इरशाद बोलिए। लाभांश पूर्व कैश सरप्लस, यात्रा समय को घटाकर थ्रूपुट बढ़ाना, थ्रूपुट संवर्धन, आइरन ओर मूवमेंट के नए डेडीकेटेट रूट, पीक सीजन में सरचार्ज और लीन सीजन में डिस्काउंट, यात्री गाड़ियों में ऑनबोर्ड सफाई की व्यवस्था, ऑटोमेटिक टिकट वेंडिंग मशीन, ऑपरेटिंग रेशियो, नेट सरप्लस, टॉप फॉर्च्यून 500 कंपनियां, मेगा इंटरप्राइज़, डिविडेंड, भारतीय अर्थव्यवस्था का ट्रांसपोर्ट मार्केट, स्ट्रैटजिक बिज़नेस यूनिट, प्रोफेशनल एजेंसी, कैपिटल इन्टेंसिव व्यवसाय में मार्जिन लागत, वॉल्यूम गेम खेलकर, टैरिफ कम कर, नॉन एसी स्लीपर, फुली एसी गरीब रथ, रेलवे को पार्टनर बनाना, वैगन टर्नराउंड टाइम घटाकर और पे लोड बढ़ाकर, हाई डेंसिटी

हमारे बिना भी दुनिया में चलता है बहुत कुछ

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हम परेशान रहते हैं कि ये चारों तरफ क्या चल रहा है। मूल्यों का इतना पतन। नैतिकता का इतना पराभव। इतना भ्रष्टाचार! नेताओं की इतनी मनमानी!! राजनीतिक पार्टियों का ये हश्र!!! किसी बूढ़े खूसट की तरह हम कोठरी के कोने में बैठकर खांसते रहते हैं, कोसते रहते हैं कि अरे पवार तू क्या रहा है बच्चा, तूने तो क्रिकेट को खुल्ल्मखुल्ला सट्टेबाज़ी बना डाला। हम क्रिकेट खिलाड़ियों की खराब परफॉर्मेंस पर दुखी होते हैं। दुखी होते हैं कि रेलमंत्री झांकी दिखाने के बाद अब रेल को बेचने पर उतारू हैं। परेशान हैं कि वित्तमंत्री किसानों को केवल सब्जबाग ही दिखा रहे हैं। और बताइए, ये तो हद है!!! सेना तक में एड़ी से लेकर चोटी तक कट-पे-कट चलता है। हम दुखी हैं कि हम दुखी होने के अलावा कर भी क्या सकते हैं? लेकिन बाहर है कि दुनिया चली जा रही है। नगरपालिका में फैसले हो रहे हैं, राज्य में योजनाएं बन रही है, केंद्र में नई-नई नीतियां तैयार हो रही हैं। मानते हैं कि कभी-कभी कुछ अच्छा हो जाता है, लेकिन ज्यादा कुछ गलत ही होता है। बस समझ लीजिए कि नीचे से ऊपर तक 95% काम गलत ही होता है। लेकिन हम कर भी तो कुछ नहीं सकते। क्या करें! घर-परि

ड्राफ्ट ब्लॉगर की सुविधा में कुछ तो लोचा है

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कुछ दिनों पहले ज्ञान जी ने ज्ञान दिया कि ममता टीवी ने पोस्ट अभी लिखकर बाद में पब्लिश करने की कोई जुगत बताई है। मैंने फौरन जाकर मौका-ए-वारदात का मुआयना किया और इस सुविधा की जानकारी मिलने पर दुनिया भर के तमाम ब्लॉगरों की तरह गदगद हो गया। लगा कि महीनों की मुराद पूरी हो गई। मनीष जी के मुंबई आने पर मैंने विकास से यह सुविधा विकसित करने की गुजारिश की थी। अगले ही दिन मैंने इस सुविधा का फायदा लेना शुरू कर दिया। रात को दो बजे सोने से पहले पूरी पोस्ट सुबह 6 बजे के लिए शिड्यूल कर दी। आराम से नौ बजे उठा और कंप्यूटर खोलकर देखा तो पोस्ट पर दो कमेंट आ भी चुके थे। लेकिन जब मैंने आगे पढ़ें की अपनाई गई जुगत पर क्लिक किया तो पूरी पोस्ट दिखी ही नहीं। ब्लॉगवाणी पर जाकर देखा तो वहां भी पोस्ट आगे पढ़ें के साथ अधूरी पड़ी थी। बाद में पता चला है कि दुनिया भर के बहुत सारे ब्लॉगरों को इस सुविधा के साथ यही समस्या पेश आ रही है। फिलहाल, ब्लॉगर वाले इसका समाधान निकालने में लगे हैं। खैर, मुझे इस सुविधा का फायदा लेना ही लेना था तो मैंने आगे पढ़ें की सुविधा ही अपने ब्लॉग से निकाल डाली। लेकिन अब आ गई असली दिक्कत, जिस

लालू की सायरो-सायरी: दखिए अबकी का सुनाते हैं!

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लालू प्रसाद यादव चार दिन बाद 26 फरवरी को साल 2008-09 का रेल बजट पेश करेंगे। अनुमान है कि वे इस बार न तो यात्री किराया न बढ़ाएंगे और न ही मालभाड़ा। ज़ाहिर है पहले की तरह इस बार भी पूरे रेल बजट भाषण में जमकर ‘सायरो-सायरी’ करेंगे। तो पेश कर रहा हूं, इससे पहले के दो रेल बजट में बोली गई उनकी शेर-ओ-शायरी। 24 फरवरी 2006: आम आदमी ही हमारा देवता है!! मेरे जुनूं का नतीजा ज़रूर निकलेगा इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा हम भी दरिया हैं, अपना हुनर हमें मालूम है जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता बन जाएगा एक कदम हम बढ़ें, एक कदम तुम आओ मिलकर नाप दें, फासले चांद तक हम ना हारें पर वो जीतें, ऐसा है प्रयास मुसाफिर हो जेल का राजा, हम सबकी ये आस मन में भाव सेवा का, होठों पर मुस्कान बेहतर सेवा वाज़िब दाम, रेल की होगी ये पहचान कामगारों की लगन से, है तरक्की सबकी हौसला इनका बढ़ाओ, कि ये कुछ और बढ़ें आम आदमी ही हमारा देवता है वह जीतेगा तो हम जीत पाएंगे तभी तो यह तय करके बैठे हैं फैसले अब उसी के हक में जाएंगे मैंने देखे हैं सारे ख्वाब नए लिख रहा हूं मैं इंकलाब नए ये इनायत नहीं, मेरा विश्वास है दौरे महंगाई में रेल सस्त

गुरु की बातें गुरु ही जानें

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यही कोई आठ-नौ साल का रहा हूंगा। सुलतानपुर में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य आए हुए थे। अम्मा-बाबूजी अपने साथ मुझे और मुझसे साल भर बड़े भाई को भी उनकी सभा में ले गए। उन्होंने खुद मंत्र लेने के साथ ही हम दो भाइयों को भी गुरुजी से मंत्र दिलवा दिया। उस समय का ज्यादा कुछ तो याद नहीं है। बस, इतना याद है कि पहनी हुई पीली तौलिया मंत्र लेने के लिए बैठते वक्त खुल गई थी और उसे अम्मा ने यूं ही ढंक दिया था। इस तरह इतनी छोटी-सी उम्र में ही मंत्रधारी बन गया। हालांकि बाद में मांस-मछली सब कुछ खाया। लेकिन मैंने बचपन से लेकर विश्वविद्यालय पहुंचने तक अखंड ज्योति, युग-निर्माण योजना जैसी पत्रिकाएं और श्रीराम शर्मा आचार्य की किताबें घर जाने पर बराबर पढ़ी हैं। आज उनकी एक पतली-सी किताब ‘मैं क्या हूं’ दिख गई। उसके कुछ अंश पेश कर रहा हूं। जानता हूं, इससे मेरे पूर्व वामपंथी मित्र थोड़ा भड़केंगे। लेकिन बाकी लोगों की राय मैं ज़रूर इस पर चाहूंगा। कम से कम ये ज़रूर बताएं कि गुरुजी की बातें आपके लिए सार्थक हैं या आज के ज़माने में इनका कोई मायने नहीं है। किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि आप कौन हैं तो वह अपने वर्ण, कुल व्यवसाय,

शब्द शरीर है तो व्याकरण आत्मा है भाषा की

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मुझे अच्छी तरह पता है कि अगर इस पोस्ट का शीर्षक मैं यह देता कि ऐसी ब्लॉगर मीट, जिसकी चर्चा नहीं हुई तो बहुत-से लोगों के लिए यह ‘खबर’ होती और वे इसे लपककर पढ़ने आते। लेकिन मेरे अलावा मुंबई में 10 फरवरी, रविवार को जुटे सभी छह ब्लॉगर शायद मानेंगे कि यह ब्लॉगर मीट सामान्य बैठकी नहीं थी जिसमें लोग आए, चाय-समोसा खाया, गप-सड़ाका किया और फिर अपने-अपने शून्य में लौट गए। इसमें तकरीबन चार घंटे तक समाज व राजनीति से लेकर ब्लॉगिंग के स्थायित्व और हिंदी भाषा की समस्या पर इतने आत्मीय, गंभीर और व्यावहारिक तरीके से चर्चा हुई कि उसे बहस कहना उसके स्तर को गिराने जैसी बात होगी। इस बैठक का बहाना बने थे दिल्ली से आए प्रमुख ब्लॉगर सृजन शिल्पी और उनके सहकर्मी राजेश जिन्होंने खुद ब्लॉगर न होते हुए भी पूरी चर्चा में बेहद संजीदगी से शिरकत की। बैठक में शामिल बाकी लोग थे – हर्षवर्धन , शशि सिंह , प्रमोद , अभय , विकास और मैं। तस्वीर में क्लॉक-वाइज़: सृजन शिल्पी, राजेश, हर्षवर्धन, शशि सिंह, अनिल, प्रमोद, विकास। तस्वीर अभय ने खींची है, सो वे इसमें नज़र नहीं आ रहे हैं... बहुत सारी बातों में से मैं यहां केवल एक मुद्दे

लूट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड

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आप कहेंगे हमारे तमाम नेतागण तो इसी काम में लगे हैं। इंडिया को लूटने की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी समझ रखी है उन्होंने। सत्ता पर बैठते ही देश को लूटने का लाइसेंस मिल जाता है उन्हें। अगर सत्ता पर काबिज़ खानदान से आपका दूर का भी रिश्ता है तो आप इस देश के सैन्य प्रमुखों से भी ऊपर हो जाएंगे। नहीं तो क्या वजह है कि प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वढ़ेरा कुछ न होते हुए भी उन वीवीआईपी लोगों में शामिल हैं, जिनकी कोई सुरक्षा जांच हमारे हवाई अड्डों पर नहीं होती। लेकिन मैं यहां नेताओं की जगज़ाहिर लूट की बात नहीं कर रहा। मैं यहां धर्म और रामनाम की बात भी नहीं कर रहा, जहां लूट शब्द का भले अर्थ में शायद इकलौता इस्तेमाल हुआ है। वो कहते हैं न कि रामनाम की लूट है, लूट सके तो लूट, अंतकाल पछताएगा जब प्राण जाएंगे छूट। मैं तो बात कर रहा हूं एक भारतीय कंपनी की जिसने अपना नाम ही रख रखा है लूट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड। आज इसके बारे में सुबह-सुबह मैंने पढ़ा तो बस इच्छा हो गई कि आप सभी के साथ शेयर कर लूं। वैसे हो सकता है कि आप में से तमाम लोग इसके बारे में पहले से जानते हों। मुंबई की यह कंपनी डिस्काउंट पर कपड़े, जूते-चप

जातियों के रंग तो शुरुआत में ही मिल गए थे

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अपने यहां प्राचीन काल से ही जातिगत विभाजन के खिलाफ बार-बार आंदोलन होते रहे हैं। इन आंदोलनों में कुछ कम कामयाब हुए तो कुछ ज्यादा। लेकिन इन्होंने रूढ़िवादी मतों पर चोट करने के लिए मजबूत तर्क पेश किए। ऐसे बहुत सारे तर्क हमारे ग्रंथों में दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि जाति व्यवस्था के शुरुआती दौर में भी इसमें निहित ऊंच-नीच की धारणा का विरोध होता आया है। हमें नहीं पता कि जिन लेखकों ने ये तर्क पेश किए हैं, उन्होंने इन्हें खुद गढ़ा था या उन्होंने बस समाज में प्रचलित विचार को ही व्यक्त कर दिया। लेकिन भारतीय ग्रंथों और महाकाव्यों में इन असमानता-विरोधी तर्कों की मजबूत मौजूदगी साफ दिखाती है कि हमारे यहां तर्कवादी परंपरा की पहुंच कितनी व्यापक थी और वहां एकल हिंदू सोच जैसी कोई चीज़ नहीं थी। उदाहरण के लिए महाभारत में भृगु जब भारद्वाज को बताते हैं कि जातियों के बंटवारे का वास्ता इंसान की शारीरिक बुनावट से भी है जो चमड़ी के रंग में झलकता है, तब भारद्वाज ने कहा था कि हर जाति के भीतर लोगों की चमडी के रंग में काफी भिन्नता है और अलग रंग अगर अलग जाति को दर्शाते हैं तो मैं कहना चाहता हूं कि सभी जातियां मिश्

गर्भ में जाकर छिप जाऊं या किताब बन जाऊं तो!!!

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डर किसी मासूम दिल को बचने की क्या-क्या जगहें सुझा देता है! हिंदी के क्रांतिकारी कवि गोरख पांडे के बारे में सुना था कि परत-दर-परत जमते गए तनाव के बाद जब वे विश्रांति की अवस्था में पहुंच गए थे, तब वे महिलाओं की एक सेना बना लेने की बात करते थे जिसमें इंदिरा गांधी से लेकर चीन के कुख्यात गैंग ऑफ फोर में शामिल माओत्से तुंग की पत्नी जियांग क्विंग भी शामिल थीं। गोरख कहते थे कि जब उनके 'दुश्मन' ( वाम बुद्धिजीवी ) उन पर हमला करने आते थे तो उनकी ये महिलाएं उन्हें अपने गर्भ में छिपा लेती थीं। गर्भ की ऊष्मा और सुरक्षा की कल्पना करके मैं हमेशा सिहर उठता हूं। लगता है समय की धारा में उलटा बहते हुए आप दोबारा मां के गर्भ में जाकर सारी दुनिया से सुरक्षित हो गए। अब कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसी ही एक और अनोखी बाल कल्पना के बारे में मैंने चंद दिनों पहले जाना है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले इसराइली लेखक अमोस ओज़ (Amos Oz) ने बीते शनिवार को इंडियन एक्सप्रेस में छपे (न्यूज़वीक से साभार) एक इंटरव्यू में कहा है: मैं तब एक आतंकित छोटा बच्चा था। 1940 के दशक के शुरुआती साल थे। यूरोप में यहूदियों के जनस

अनर्थ हो सकता है अर्थ का अर्थ न जानने से

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कितनी अजीब बात है कि हम सभी अर्थ के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन आर्थिक शब्दों का सामना होते ही उल्टा भागना शुरू करते हैं। सोचते हैं कि इनसे हमको क्या लेनादेना। इन्हें समझना है तो अर्थशास्त्री, विद्यार्थी, पत्रकार उद्योगपति या कारोबारी समझें। हम इन्हें समझकर क्या करेंगे? लेकिन आज के जमाने में ऐसा वीतरागी नज़रिया बड़ा घातक है। अर्थ के तमाम शब्दों को समझना बहुत ज़रूरी है क्योकि इनका गहरा वास्ता हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से है। अब मुद्रास्फीति को ही ले लीजिए। पहले इसके आंकड़े हर रविवार को जारी किए जाते थे और सोमवार के अखबारों में छपते थे। अब शुक्रवार को ही इन्हें जारी करके शनिवार को छाप दिया जाता है। पंद्रह साल पहले तक मुद्रास्फीति का इकाई अंक में आना बड़ी खबर होती थी, जबकि आज अगर यह दहाई अंक में चली जाए तो हंगामा मच जाएगा। इसका ताज़ा आंकड़ा 4.07 फीसदी का है। मुश्किल यह है कि हम मुद्रास्फीति को या तो समझते नहीं या इसे फालतू समझते हैं क्योकि इसे महंगाई से जोड़कर देखने के बावजूद हम मानते हैं कि ये महंगाई की सही तस्वीर नहीं पेश करती। इस सोच के चलते हम धीरे-धीरे इस आंकड़े के प्रति संवेदनहीन हो जाते

तुम बनाओ खेमे, तुम्हें जो करनी है राजनीति

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तुम बना लो खेमे, कर लो राजनीति। हमें नहीं करनी किसी भी किस्म की राजनीति। क्रांति-व्रांति कुछ नहीं करना। हमें तो सबको साथ लेकर चलना है। सबके साथ बहना है। यह सच है कि देश और समाज में किसी भी सार्थक और टिकाऊ बदलाव के लिए राजनीति एक अपरिहार्य चीज़ है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति बड़ी तात्कालिक और फौरी किस्म की, बड़ी कमीनी चीज़ होती है। सत्ता बदल जाती है। मगर, सत्ता में बैठे लोगों के चेहरे धीरे-धीरे पूर्व-सत्ताधारियों जैसे होते चले जाते हैं। वैसा ही दमन, वैसी ही जोड़तोड़। यह भले ही कोई शाश्वत सत्य न हो, लेकिन 1945 में लिखी जॉर्ज ऑरवेल की पतली-सी किताब एनीमल फार्म साठ-बासठ साल बाद आज भी बेहद प्रासंगिक लगती है। अपने देश की बात करें तो वाममोर्चा-शासित पश्चिम बंगाल भ्रष्टाचार से लेकर हत्या और बलात्कार जैसे किसी भी जघन्य अपराध में बाकी देश से भिन्न नहीं है। केरल में साक्षरता जैसे तमाम आंकड़ों के चमकने की वजह कम्युनिस्ट शासन नहीं, बल्कि घरबार छोड़कर खाड़ी देशों में कमाई करने गए केरलवासियों की मेहनत है। आप कहेंगे कि ये तो पतित हो चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के काम हैं। फिर, पूर्वी यूरोप के देशों और

अतृप्त आत्माओं से भरा है हमारा हिंदी समाज

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हमारे हिंदी समाज में अतृप्त आत्माओं की भरमार है। हर कोई भुनभुना रहा है, जैसे कोई मंत्र जप रहा हो। कान के पास, सिर के ऊपर से सूं-सां कर गुजरती आवाज़ों का शोर है। हर किसी के अंदर एक आग धधक रही है। एक बेचैनी है। एक अजीब किस्म की प्यास है। हर किसी के गले में कुछ अटका हुआ है। इन्हें भी कुछ कहना है, उन्हें भी कुछ कहना है और मुझे भी कुछ कहना है। कुछ कहना है तो बहुत कुछ सुनना है। अनगिनत सवाल है। कुछ के जवाब होने का भरोसा है और बहुतों के जवाब हासिल करने हैं। यह सारा कुछ हमारी हिंदी ब्लॉगिंग में झलक रहा है। यहां कोई कायदे का मुद्दा उछलते ही झौंझौं-कौंचो शुरू हो जाती है। इनके बीच कुछ भी कहकर आप मोहल्ले से तो छोड़िए, पतली गली तक से नहीं निकल सकते। महिलाओं के बारे में कुछ कह दीजिए तो चोखेर बालियां तैयार बैठी हैं और सचमुख इनकी धार बहुत चोख (अवधी में चोख का मतलब तेज़ धार होता है) है। जाति व्यवस्था पर कुछ बोल दिया तो पिनकने वाले लोग तैयार बैठे हैं। सांप्रदायिकता का मामला इन दिनों ठंडा है। नहीं तो हालत तो यही थी कि इधर मोदी के खिलाफ कुछ कहा नहीं कि उधर से हल्ला शुरू। असल में हमारे हिंदी समाज की ऐतिहासि

देश के एक तिहाई नौजवान अनपढ़ हैं, दलित हैं

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हम गर्व करते हैं कि भारत नौजवानों का देश है क्योंकि हमारी आबादी के 65 फीसदी हिस्से की उम्र 35 साल से कम है। लेकिन हमें शर्म नहीं आती कि इन नौजवानों का 35 फीसदी हिस्सा आज भी अशिक्षित है। यह हकीकत टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (टीआईएसएस) के ताजा अध्ययन से सामने आई है। इस अध्ययन के मुताबिक देश के एक-तिहाई नौजवान अनपढ़ हैं और दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए अभिशप्त हैं क्योंकि देश में रोज़गार के बढ़ते अवसर पढ़े-लिखे लोगों को ही मिल सकते हैं। इस अध्ययन में यह तो नहीं बताया गया है कि इन अशिक्षित नौजवानों की जाति क्या है, लेकिन हम अपने सामान्य अनुभव से जान सकते हैं कि तकरीबन ये सारे के सारे नौजवान दलित समुदाय के होंगे। यह खबर आज अखबार में छप चुकी है। फिर भी इसे यहां इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि दलितों की दुर्दशा का प्रमाण मीडिया में खोजनेवाले प्रतिबद्ध पत्रकार आंखें उठाकर थोड़ा बाहर भी झांकें। टीआईएसएस ने देश भर के 593 ज़िलों में सर्वे किया। उसने पाया कि इनमें से 27 ज़िलों में निरक्षरता की दर 66 फीसदी है, जबकि 182 ज़िलों में यह दर 35 से 50 फीसदी है। महिलाओं में निरक्षरता की दर पुरुषों की बन

विजिटर हुए 22,242 पर पाठक तो 200 ही हैं!

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है तो यह विशुद्ध चिरकुटई। लेकिन जब ब्लॉगरों की बस्ती में खोली ले ही ली है तो समाज के रीति-रिवाज, चाल-ढाल से अलग कैसे रह सकता हूं? तो, जब मेरे ब्लॉग ने कल शाम 22,242 विजिटर्स और 38,591 पेज व्यूज़ का आंकड़ा छुआ तो मेरी इच्छा हुई कि मैं भी इस बारे में एक पोस्ट डाल ही दूं। ब्लॉग तो मैंने बहुतों के साथ फरवरी 2007 में ही बना लिया था, लेकिन ब्लॉगिंग का सुरूर मुझ पर जुलाई 2007 से चढ़ा। उसके बाद से अब तक के आठ महीनों में करीब बीस हज़ार विजिटर, यानी ढाई हज़ार आगंतुक हर महीने, मतलब रोज़ के औसत 80-85 ‘पाठक’। मुझे लगता है कि यह अंग्रेजी या चीनी ब्लॉगिंग के औसत दमखम के सामने डूब मरने की बात है। डूब मरने की बात इसलिए भी है कि क्योंकि भले ही हिंदुस्तानी की डायरी के ‘पाठकों’ की संख्या 22,242 के फैंसी नंबर तक पहुंच गई है, लेकिन आप भी जानते हैं और मुझे भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इन नंबरों में गज़ब का छलावा है क्योंकि असली पाठक ज्यादा से ज्यादा 200 ही होंगे। पाठकों का वही सेट है जो बार-बार हमारे ब्लॉग पर आता है। रोज़ के वही पाठकजी, मिश्राजी, पांडेजी, दलितजी, पिछड़ेजी, बंटी-बबली और उनके मम्मी-पापा। बा

जब वह अन-रीचेबल हो गया अतल सागर में

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हरहराते सागर के किनारे इन्हीं ऊंची-नीची चट्टानों में से किसी एक पर दोनों पैर जमाकर उसने एक दिन सागर को ललकारा था, “आओ समंदर। अपनी पूरी ताकत से, पूरे दमखम से आओ। अपनी सबसे वेगवान लहरों के साथ आओ। आओ मेरे घर आओ। मैं दोनों बांहें फैलाए सीना खोलकर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। हिम्मत है तो पराजित करो मुझे। स्वीकार करो मेरा आतिथ्य।” आप हंस सकते हैं, लेकिन किशोर अंदर से ऐसा ही था। भावुक और जिद्दी। हालात ने शुरू से ही उसका साथ नहीं दिया। लेकिन हालात से लड़ने का जबरदस्त माद्दा था उसमें। प्राची मिली तो लगा कि हर तरफ खुशबूदार फूलों के असंख्य पराग-कण बिखर गए हैं। लेकिन इस मिलन के बाद राह आसान होने के बजाय और कठिन होती गई। उस दिन जब उसने समुद्र को ललकारा था तब प्राची उसकी उठी हुई फैली बांहों को कंधे से पकड़कर ठीक पीछे खड़ी थी। इससे पहले प्राची ने अपनी और अपने घर-परिवार की दिक्कतें उसे सुनाई थीं। रिश्ते में आनेवाली बड़ी-बड़ी मुश्किलों का जिक्र किया था। असल में उस दिन किशोर ने सागर के बहाने इन्हीं मुश्किलों को ललकारा था। लेकिन उसे क्या पता था कि समंदर उसकी बात को इस कदर दिल पर ले लेगा। ये अलग बात है कि उ

नास्तिक निराला तक सरस्वती के आराधक थे

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हर बसंत पंचमी को निराला और इलाहाबाद बहुत याद आते हैं। बसंत पंचमी का मतलब इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही समझा क्योंकि महाप्राण निराला का जन्मदिन हम लोग पूरे ढोल-मृदंग के साथ इसी दिन मनाते थे। हिंदुस्तानी एकेडमी या कहीं और शहर के तमाम स्थापित साहित्यकारों और नए साहित्य प्रेमियों का जमावड़ा लगता था। निराला की कविताएं बाकायदा गाई जाती थीं। नास्तिक होते हुए भी हम वीणा-वादिनी से वर मांगते थे और अंदर ही अंदर भाव-विभोर हो जाते थे। सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझते थे कि जो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला संगम से मछलियां पकड़कर लाने के बाद दारागंज में हनुमान मंदिर की ड्योढी़ पर मछलियों का मुंह खोलकर भगवान और पंडितों को चिढ़ाते थे, वो मां सरस्वती की वंदना कैसे लिख सकते हैं। बाद में समझ में आया कि सरस्वती तो बस सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। जिस बसंत में पाकिस्तान में जबरदस्त उत्सव मनाया जाता है, उस बसंत की पंचमी का रंग भगवा नहीं हो सकता। यह सभी के लिए बासंती रंग में रंग जाने का उत्सव है, सृजन के अवरुद्ध द्वारों को खोलने का अवसर है। इस अवसर पर अगर निराला की कविता का पाठ नहीं किया तो बहुत अधूरापन लगेगा। इसलिए च

जाति-जाति का जाप और आरक्षण पर गिरी गाज

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हम दिखावे में इतने उलझे हैं कि पूरी बुद्धि और विवेक पर परदा पड़ गया है। नहीं तो क्या वजह है कि जब हम दलित, मीडिया, महिला, आरक्षण की बहस में उलझे थे, उसी वक्त सरकार ने आरक्षण से संरक्षित करोड़ों नौकरियों पर गाज गिराने का खतरनाक फैसला कर लिया और हमने चूं तक नहीं की। या, इसका मतलब यह भी हो सकता है कि देश के हर क्षेत्र में बड़ी व विदेशी पूंजी की राह आसान करने के सरकारी मंसूबे को हम तहेदिल से मुनासिब समझते हैं। कुछ भी हो सकता है। वैसे भी आपकी कथनी या लेखनी नहीं, आपकी करनी ही आपके असली चरित्र का फैसला करती है। आरक्षण के मसले का सीधा वास्ता नौकरियों से है। शिक्षा में आरक्षण भी इसीलिए चाहिए ताकि कल समाज के वंचित तबकों को सम्मानजनक नौकरियां मिल सकें। सरकारी ही नहीं, संगठित निजी क्षेत्र को भी इस सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने से बिदकना नहीं चाहिए। लेकिन सरकारी और संगठित निजी क्षेत्र में हैं ही कितनी नौकरियां? सरकार में 30-35 लाख और निजी कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा 25 लाख। कुल मिलाकर लगभग 60 लाख। लेकिन जो लघु उद्योग क्षेत्र इससे पांच से आठ गुना लोगों (3 से 5 करोड़) को रोज़गार देता है, उससे हमारी स

एक अड़ियल जिद्दी लहर ने बरपाया ठंड का कहर

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मुंबई से लेकर दिल्ली और कोलकाता तक कंपकंपी मची हुई है। ठंड के नए-नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। कल तो शर्ट और चद्दर में बिंदास जीनेवाली मुंबई ने दिल्ली को भी मात दे दी। आप कहेंगे, सब ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीजा है। लेकिन असली वजह जानेंगे तो आप भी मेरी तरह ठिठुर जाएंगे। असल में पूरे उत्तर भारत से लेकर चीन तक छाई इस ठंड की वजह है वायुमंडल में बनी उच्च दाब की एक सीधी अड़ियल चोटी (Ridge) जो 21 जनवरी को पश्चिम से आनेवाली हवाओं के रास्ते में खड़ी हो गई तो फिर अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई। हवाओं को इस जिद्दी चोटी के ऊपर जाकर फिर नीचे उतरना पड़ा और वे अपने साथ बर्फीली ठंडक लेकर भारत के मैदानों में सरपट दौड़ रही हैं। यह सारा कुछ हुआ मध्य एशिया के ऊपर वायुमंडल में। 21 जनवरी को उत्तर में 25 से 45 डिग्री अक्षांश तक एक सीधी Ridge बन गई। ये लगभग दो हफ्ते तक अपनी जगह पर अड़ी रही। वैसे उत्तर में 30 से 50 डिग्री अक्षांश तक उच्च दबाव के शिखर (Ridges) और खाईं (Troughs) का बनना आम बात है। इनमें बीच एक होड़-सी चलती है और दोनों एक दूसरे को रास्ता छोड़ने पर मजबूर कर देती हैं। कुछ दिनों के अंतराल पर इनकी हार-जीत का पैट

बड़ा तो हो गया, पर अंदर से अभी कच्चा हूं

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मित्रों, हम सभी को आगे बढ़ते जाने के लिए आश्वस्ति ज़रूरी होती है। मैं भी इससे भिन्न नहीं हूं। यही आश्वस्ति पाने के लिए कल की पोस्ट मैंने लिख डाली। और, आप लोगों ने जिस तरह टिप्पणियां बरसाई हैं, उससे मेरा मन साल भर के लिए लबालब भर गया। अब तो साल भर कोई एक भी टिप्पणी नहीं करेगा तब भी मैं मगन होकर लिखता रहूंगा। मेरे एकालाप को संवाद में बदलने के लिए आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया। आपने दिखा दिया कि सौ-दो सौ पाठकों में से कम से कम तीस-पैंतीस लोग हैं जिनकी निगहबानी मुझ पर है। बस, इतना बहुत है मेरी आश्वस्ति के लिए। बचपन में अक्सर होता था कि पैदल मेला जाते वक्त या कस्बे से गांव के पांच कोस के सफर मे अपनी खिलंदड़ी में भागता-कूदता चलता चला जाता था। घंटे-आध घंटे में सुनाई पड़ता था कि कोई पीछे से बुला रहा है। बुलानेवाले कभी मां-बाप होते थे तो कभी बड़े भाई-बहन या मुझसे बहुत प्यार करनेवाली बुआ। कभी-कभी यह भी होता था कि अपनी धुन में इतना आगे निकल आता था कि पीछे मुड़ने पर कोई दिखाई नहीं देता था। गांव तक के रास्ते में बीच में करीब दो किलोमीटर का ढाक का जंगल पड़ता था और ढाक के पेड़ों में तो आप गुम हो गए

टिप्पणियां नहीं मिलतीं तो मन मायूस हो जाता है

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साल भर पहले ब्लॉग बनाया था तो यही सोचा था कि बरसों से दबे हुए सारे उदगार निकाल डालूंगा। अनलिखी कहानियां और उपन्यास अब मेरी इस चलती-फिरती डायरी में दर्ज हो जाएंगे। डायरी सार्वजनिक है तो क्या? जिसको पढ़ना है, पढ़ लेगा। नहीं पढ़े तो अच्छा ही है। मुझ पर क्या फर्क पड़ेगा? अपना एकांतिक लेखन चलता रहेगा। साल-दो साल में जब रचनाएं सज-संवर तक पूरी तरह तैयार हो जाएंगी, तब किसी प्रकाशक के पास जाऊंगा और रचनाओं में क्योंकि नायाब अनुभव होंगे, इसलिए शायद ही कोई प्रकाशक इन्हें छापने से इनकार करेगा। अगर, हिंदी प्रकाशकों ने इनकार भी कर दिया तो अंग्रेज़ी प्रकाशक तो हैं ही, जिनके लिए अपनी किताबों का अंग्रेज़ी अनुवाद खुद कर दूंगा या किसी से पैसे देकर करवा लूंगा। लेकिन साल भर होने पर पूरा नज़रिया ही बदल गया है। अनलिखी कहानियों और उपन्यास के नोट्स अब भी पुरानी डायरियों में जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। अब तो मन में चलते-फिरते, आते-जाते जो स्फुट विचार आते हैं, उन्हें ही सूत्रबद्ध करने की उतावली लगी रहती है। कभी अपने हिसाब से कोई अच्छा विश्लेषण लिख दिया या जानकारी दे दी और उस पर खुदा न खास्ता कई घंटों बाद भी कोई टिप