Friday, 29 February, 2008

घोषणाएं लुभाती हैं, सच रुलाता है

जो जानते हैं, वो रो रहे हैं और जो अनजान हैं, वो तालियां बजा रहे हैं। चिदंबरम के बजट में घोषित किसानों की कर्ज़माफी पर शहरी लोग वाह-वाह कर रहे हैं, लेकिन विदर्भ के जिन किसानों के नाम पर यह कदम उठाया गया है, वो आज भी आह-आह कर रहे हैं। कैसी विडंबना है!! लालू तो विदूषक हैं, इसलिए उन पर हंसी नहीं आती तो गुस्सा भी नहीं आता। गुस्सा तो शरद पवार पर आता है जो हकीकत जानते हुए भी 60,000 करोड़ रुपए की कर्ज़माफी को ऐतिहासिक कदम बता रहे हैं। शरद पवार को सब इसीलिए नहीं पता है कि वे कृषि मंत्री हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे खुद महाराष्ट्र के हैं।

चिंदबरम ने ऐलान किया है कि 5 एकड़ तक की जोत वाले सभी किसानों के किसी भी तरह के बैंक से लिए 31 दिसंबर 2007 तक के कर्ज ब्याज समेत माफ किए जा रहे हैं, जबकि 5 एकड़ से ज्यादा जोत वाले किसानों के लिए 75 फीसदी कर्ज चुकाने देने पर बाकी 25 फीसदी कर्ज माफ कर दिया जाएगा। इस योजना से 5 एकड तक के लाभ पाने वाले किसानों की संख्या तीन करोड़ है, जबकि एक चौथाई कर्जमाफी का लाभ एक करोड़ किसानों को मिलेगा।
सच यह है कि विदर्भ के खुदकुशी कर रहे किसानों के नाम पर उठाए गए इस कदम का लाभ विदर्भ के किसानों को ही नहीं मिल रहा क्योंकि विदर्भ के अधिकांश किसानों के पास पांच एकड़ से ज्यादा ज़मीन है। दूसरे, विदर्भ के आधे से ज्यादा किसानों ने किसी बैंक से नहीं, बल्कि स्थानीय सूदखोरों से कर्ज ले रखा है।

पहली श्रेणी के किसानों को 50,000 करोड़ और दूसरी श्रेणी के किसानों को 10,000 करोड़ रुपए की कर्ज़माफी केंद्र सरकार दे रही है। कृषि मंत्री कहते हैं कि देश के 76 फीसदी किसानों की जोत दो हेक्टेयर (पांच एकड़) से कम है और बाकी किसानों की संख्या 24 फीसदी है। इस तरह 76 फीसदी किसानों की पूरी कर्ज़माफी और बाकी 24 फीसदी किसानों की एक चौथाई कर्ज़माफी जैसा ऐतिहासिक कदम आज़ादी के बाद किसी भी सरकार ने पहली बार उठाया है।

लेकिन इस ऐतिहासिक घोषणा की चकाचौंध के पीछे का सच यह है कि विदर्भ के खुदकुशी कर रहे किसानों के नाम पर उठाए गए इस कदम का लाभ विदर्भ के किसानों को ही नहीं मिल रहा। कारण नंबर एक, विदर्भ के अधिकांश किसानों के पास पांच एकड़ से ज्यादा ज़मीन है। कारण नंबर दो, विदर्भ के आधे से ज्यादा किसानों ने किसी बैंक से नहीं, बल्कि स्थानीय सूदखोरों से भारी ब्याज़ पर कर्ज ले रखा है, जिन सूदखोरों में कांग्रेस के कुछ नेता भी शामिल हैं।

महाराष्ट्र के कुल 89 लाख किसानों को चिदंबरम की आज की घोषणा का लाभ मिलेगा, जिसमें से केवल नौ लाख किसान ही विदर्भ के हैं। जानकार बताते हैं कि विदर्भ एक वर्षा-आधारित इलाका है और वहां के किसानों की समस्या महज बैंकों के कर्ज़ की माफी से नहीं हल होगी। खुद वित्त मंत्री ने किसानों की कर्ज़माफी की समस्या पर बनी जिस राधाकृष्णन समिति की रिपोर्ट का जिक्र किया था, उसमें कहा गया है कि किसानों को सूदखोरों के चंगुल से निकालने के लिए बैंकों को ‘one time relief’ के तहत किसानों को लंबी अवधि का कर्ज़ देना चाहिए जिसके लिए अलग से ‘Money Lenders Debt Redemption Fund’ बनाना चाहिए जिसकी शुरुआती राशि 100 करोड़ रुपए की होनी चाहिए।

चिदंबरम ने ऐसा कुछ नहीं किया। बस तालियां बजवाने के लिए 60,000 करोड़ रुपए लुटाने की घोषणा कर दी। सवाल यह भी उठता है कि ये 60,000 करोड़ रुपए आएंगे कहां से? अगर यह राशि बैंकों के ही माथे पर मढ़ दी गई तो बैंकों की सारी बैलेंस शीट खराब हो जाएगी और अगर सरकारी खज़ाने से बैंकों के इस कर्ज़ की भरपाई की गई तो यह तो जनता से लिया गया पैसा बैकों की झोली में डालने जैसी बात होगी। आगे की बात विद्वान जानें। मैंने तो एक आम हिंदुस्तानी के नाते अपनी बात रख दी। आप ज्यादा कुछ जानते हों, तो ज़रूर बताएं ताकि मेरे साथ औरों का भी ज्ञानवर्धन हो सके। इति।
फोटो साभार: आउटलुक

पुनश्च: ब्लॉग किसी भी तरह की भड़ास को निकालने का मंच नहीं है। इसलिए मैं भी मानता हूं कि भड़ास का बहिष्कार होना चाहिए। मैंने भी इस बाबत ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत को मेल भेज दिया है।

Thursday, 28 February, 2008

दिल खोलकर दिया टैक्स, अब दिखाओ दरियादिली

वित्त मंत्री पी चिदंबरम कल इस वक्त तक साल 2008-09 का आम बजट पेश कर चुके होंगे। अगर पिछले कुछ दिनों से उठे गुबार को सच मानें तो वो कृषि के लिए बड़े पैकेज का ऐलान कर सकते हैं जिसमें छोटे किसानों की कर्जमाफी एक बड़ा कदम होगा। साथ ही मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आयकर छूट की सीमा 1.10 लाख रुपए के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 1.25 लाख या 1.50 लाख रुपए कर सकते हैं। सब्सिडी में कमी नहीं करेंगे, कृषि आय पर टैक्स नहीं लगाएंगे। खास बात ये है कि इस साल का बंपर कर राजस्व उन्हे ऐसी दरियादिली दिखाने का पूरा मौका भी दे रहा है।

चिदंबरम ने कुछ दिनों पहले खुद ही माना है कि इस बार अप्रत्यक्ष कर संग्रह 2,79,190 करोड़ रुपए के लक्ष्य से ज्यादा रहेगा। और, अगर केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के अधिकारियों की मानें तो इस बार प्रत्यक्ष कर संग्रह तीन लाख करोड़ रुपए के ऊपर पहुंच जाएगा, जबकि लक्ष्य 2,68,932 करोड़ रुपए का था। अगर ऐसा होता है तो यह एक ऐतिहासिक बात होगी क्योंकि देश में पहली बार प्रत्यक्ष कर संग्रह अप्रत्यक्ष कर संग्रह से ज्यादा रहेगा। साल 2007-08 के बजट अनुमान के मुताबिक अप्रत्यक्ष कर संग्रह कुल कर राजस्व 5,48,122 करोड़ रुपए (राज्यों के हिस्से समेत) का 51 फीसदी और प्रत्यक्ष कर संग्रह को 49 फीसदी रहना था। लेकिन अगर प्रत्यक्ष कर (कॉरपोरेट कर, आयकर) तीन लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया तो कुल कर संग्रह में इसका हिस्सा 51 फीसदी हो जाएगा।

इसकी अहमियत इसलिए है क्योंकि आमतौर पर विकासशील देशों में कुल कर राजस्व में अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा प्रत्यक्ष करों से कम रहता है। 1990-91 में जब देश में आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ तब कुल कर राजस्व में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा 19.6 फीसदी था, जिसका करीब-करीब आधा हिस्सा आयकर और कॉरपोरेट कर का था। साल 2006-07 तक कुल कर राजस्व में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा 47.6 फीसदी (आयकर – 17.5 फीसदी, कॉरपोरेट कर – 30.1 फीसदी) हो गया, जबकि अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा घटते-घटते 52.1 फीसदी पर आ गया। 1990-91 में अप्रत्यक्ष कर संग्रह कुल कर राजस्व का 78.4 फीसदी हिस्सा हुआ करता था।

मुझे याद है, उसके साल-दो साल बाद तक मुझ जैसे नौसिखिया आर्थिक पत्रकार इसी बात पर हाय-हाय करते थे। कहते थे कि जो सरकार अपनी कर आमदनी का तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा आम लोगों की गैर-जानकारी में उनकी जेब काटकर (कस्टम और उत्पाद शुल्क के जरिए) जुटाती है, वह उनका भला कैसे कर सकती है। हम कभी भी आर्थिक सुधारों के हिमायती नहीं रहे। लेकिन 16-17 सालों के सुधारों के बाद अगर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का अनुपात उल्टा हो गया है तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ तो हुआ है। अर्थव्यवस्था बढ़ी है तो उसके साथ आबादी के एक हिस्से की आमदनी भी बढ़ी है जो अब खुशी-खुशी सरकार को टैक्स दे रहा है। इससे अर्थव्यवस्था में काले धन की कमी का अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है।

आम तौर पर माना जाता है कि प्रत्यक्ष कर सरकार के लिए राजस्व जुटाने का ज़रिया हैं, जबकि अप्रत्यक्ष कर समाज में समता लाने का माध्यम हैं। लेकिन अपने यहां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का अनुपात बदलने के बावजूद ऐसा नहीं हुआ है। सरकार विश्व व्यापार संगठन (WTO) के दबाव में कस्टम ड्यूटी (सीमा शुल्क) घटाती जा रही है और बड़े उद्योगों के दबाव में उपभोक्ता वस्तुओं को एक्साइज (उत्पाद शुल्क) घटाकर सस्ता बना रही है। हमारी सरकार के लिए अप्रत्यक्ष कर समता लाने का माध्यम नहीं बने हैं। इसका सबूत है कि आज एलसीडी टीवी सस्ता होता जा रहा है, जबकि दालें आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं।

यूपीए सरकार की मुखिया कांग्रेस ने अपने नारों में आम आदमी को केंद्र में रखा है। इसी नारे के दम पर वह अगले साल के आम चुनाव भी फतेह करना चाहती है। ज़ाहिर है कि चिदंबरम कल लगातार यही दिखाने की कोशिश करेंगे कि उनके सारे कदम आम आदमी के हित में उठाए गए हैं, किसानों के भले के लिए हैं, गरीबों के उत्थान के लिए हैं। लेकिन जो दिखता है और जो बोला जाता है, वही सच नहीं होता। इसलिए चिदंबरम के ताज़ा बजट को बड़े गौर से देखने-सुनने की ज़रूरत है।

नौ सदियों से शून्य क्यों छाया है हमारे दर्शन में?

भारतीय जनमानस में आत्मा व शरीर के रिश्तों को लेकर जमी हुई जड़ सोच को मैंने कल कुरेदने की कोशिश की तो चंदू ने कह दिया कि, “यह बहस दो हजार साल पुरानी लग रही है। आत्मन् सुदूर उपनिषदों से निकला शब्द है, जिसे तार्किक तीक्ष्णता योगवाशिष्ठ में और दार्शनिक पूर्णता आचार्य शंकर के काम में प्राप्त होती है।” एकदम सही बात है और आश्चर्य इस बात का है कि भारत में सन् 820 में शंकराचार्य के बाद कोई कायदे का दार्शनिक नहीं हुआ है। गिनाने को उदयनाचार्य, रत्नकीर्ति, जयंत भट्ट, गंगेश और शाक्य श्रीभद्र के नाम गिनाए जा सकते हैं। लेकिन शाक्य श्रीभद्र भी साल 1225 में ही निपट गए थे।

उसके बाद भक्ति आंदोलन के संतों का जिक्र किया जा सकता है। राजाराम मोहन राय (1774-1833), दयानंद सरस्वती (1824-83) और विवेकानंद (1863-1902) का नाम लिया जा सकता है। लेकिन ये सभी चिंतक, विचारक, समाज सुधारक या पुराने दर्शन के नए व्याख्याकार थे। खुद इन्होंने किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं किया। जबकि इसी दौरान यूरोप में राजर हैकन, रेमोंद लिली, बेकन, हॉब्स, दे-कार्त, स्पिनोज़ा, बर्कले, रूसो, हेलवेशियस, कांट, हेगेल, शोपेनहार, फायरबाख, मार्क्स, स्पेंसर, बुख्नेर, नीत्से, ब्राडले और डेवी जैसे कई नामी दार्शनिक हुए हैं। सवाल उठता है कि दार्शनिक माने जानेवाले हमारे देश में करीब नौ सौ सालों से ऐसा सन्नाटा क्यों छाया हुआ है? हम क्यों अभी तक आत्मा-शरीर, ब्रह्म-माया, द्वैत-अद्वैत और वेदांत से आगे नहीं बढ़ पाए हैं? वह क्या चीज़ है जिसने भारतीय मेधा को इस तरह पंगु बना रखा है?

साफ कर दूं कि मैं दर्शन का गंभीर विद्यार्थी नहीं हूं। मैंने अभी तक भारतीय दर्शन के बारे में जितना भी जाना-समझा है, वह सारा का सारा कुंजी-छाप किताबों पर ही आधारित है। हां, निरंतर कुछ सोचते-समझते रहने का भ्रम ज़रूर पाल रखा है। मगर, मैं भारतीय दर्शन की परंपरा या गतिरोध के बारे में साधिकार कुछ नहीं कह सकता। बस, एक सीधा-सा सवाल उठा रहा हूं, जो हो सकता है पूरी तरह नासमझी का नतीजा हो। लेकिन मैं सचमुच जानना चाहता हूं कि हम आम भारतीयों की सोच 900 से 1200 साल पुराने स्तर पर क्यों अटकी हुई है? आप लोगों में से जो भी जानकार हों, उनसे मैं इसके उत्तर की अपेक्षा करता हूं।

संदर्भवश बता दूं कि शंकराचार्य भी मैं क्या हूं का जवाब तलाशने में लगे थे और उन्होंने फलसफा दिया कि जब यह ज्ञान हो जाता है कि निर्विशेष नित्य, शुद्ध, बुद्धमुक्त, स्वप्रकाश, चिन्मात्र, ब्रह्म ही मैं हूं तो अविद्या दूर हो जाती है और बद्ध होने का भ्रम हट जाता है जिसे ही मुक्ति कहते हैं। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: अर्थात् ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या, जीव ब्रह्म ही है दूसरा नहीं। शंकर के दर्शन को ऊपरी तौर पर देखने पर लगता है कि वह ब्रह्मवाद को मानता है और उपनिषद के अध्यात्म ज्ञान को सबसे अधिक प्रधानता देता है। लेकिन उसके भीतर उतरने पर पता चलता है कि वह नागार्जुन के शून्यवाद का मायावाद के नाम से नामांतरण मात्र है।

असल में शंकराचार्य के दर्शन की आधारशिला रखनेवाले 500 ईस्वी के दार्शनिक गौडपाद थे जो खुद सीधे तौर पर बुद्ध और नागार्जुन के दर्शन के अनुयायी थे। गौडपाद उपनिषद को अपने दर्शन से संबद्ध मानते थे, लेकिन साथ ही बुद्ध भी उनके लिए उतने ही श्रद्धा और सम्मान के पात्र थे। नागार्जुन के बारे में बस इतना ही कि वे बचपन में ही बौद्ध भिक्षु बन गए थे। उनका समय 175 ईस्वी के आसपास का था। उनके शून्यवाद की धारणा यह है कि वस्तुओं के भीतर कोई स्थिर तत्व नहीं है, वह विच्छिन्न प्रवाह मात्र है। जो इस शून्यता को समझ सकता है, वह सभी अर्थों को समझ सकता है और जो इस शून्यता को नहीं समझता, वह कुछ भी नहीं समझ सकता।

बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का मानना था कि विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व (जैसे आत्मा) से बिल्कुल शून्य हैं। उन्होंने कार्य-कारण संबंध का भी खंडन किया था। उनका कहना था कि यदि पदार्थ सत्य है तो उसके लिए प्रत्यय (कारण) की ज़रूरत नहीं। यदि अ-सत् है तो भी उसके लिए किसी प्रत्यय की ज़रूरत नहीं। शंकराचार्य भी इसी तरह के सत्, अ-सत्, मिथ्या के फेर में पड़े थे। इसीलिए कुछ लोग उनको ‘प्रछन्न बौद्ध’ भी कहते हैं। ....चलिए, अब खत्म करते हैं क्योंकि भारतीय दर्शन के नौ सदियों के शून्य को लेकर शुरू हुई बात दूसरी सदी के शून्यवाद पर आते ही भटक गई है।
संदर्भ: राहुल सांकृत्यायन की किताब – दर्शन दिग्दर्शन

Wednesday, 27 February, 2008

एतना कमाए हैं तो हाथ क्यों फैलाते हैं जी!

मुझ जैसा आम आदमी लालू से यह पूछे तो उसका कोई खास मतलब नहीं होगा। लेकिन जब पूर्व रेलमंत्री नीतीश कुमार लालू से यही बात पूछते हैं तो उसको कोरी राजनीतिक बयानबाजी कहकर नहीं टाला जा सकता। नीतीश ने लालू के 25,000 करोड कैश सरप्लस के दावे को आंकड़ों की पैतरेबाज़ी करार दिया है। वो पूछते हैं कि अगर ऐसा ही है तो भारतीय रेल अब भी सरकारी खज़ाने से पैसा क्यों ले रही है?

नए वित्त वर्ष 2008-09 में लालू ने भारतीय रेल की 37,500 करोड़ रुपए की सालाना योजना में से 7874 करोड़ रुपए (योजना खर्च का 21 फीसदी) बजट समर्थन से जुटाने का प्रावधान रखा है। इससे पहले साल 2007-08 में 31,000 करोड़ के योजना खर्च का 24.55 फीसदी हिस्सा (7611 करोड़ रुपए) बजट समर्थन से जुटाया गया था। लालू ने अपने पहले 2004-05 के के रेल बजट में सालाना योजना व्यय का 55 फीसदी हिस्सा बजटीय समर्थन से जुटाया था। साल 2005-06 में यह हिस्सा 47 फीसदी और साल 2006-07 में 32 फीसदी था। बड़ा वाजिब-सा सवाल है कि जिस रेल ने चार सालों में 68,778 करोड़ रुपए का लाभांश पूर्व कैश सरप्लस कमाया है, वह अपने सालाना खर्च का पूरा इंतज़ाम खुद क्यों नहीं कर ले रही?

जानकार लोग इसका जवाब यूं देते हैं कि इन चार सालों में रेल ने केंद्र सरकार को 15,898 करोड़ रुपए का लाभांश भी दिया है। साल 2007 में अगर उसने केंद्र सरकार से 7611 करोड़ रुपए लिए हैं तो उसे 4500 करोड़ से ज्यादा का लाभांश भी दिया है। नए साल 2008-09 में वह अगर सरकार से 7874 करोड़ रुपए लेगी तो उसे 4636 करोड रुपए लाभांश के तौर पर लौटाएगी भी। यह वैधानिक इंतज़ाम जैसा है जिसमें भारतीय रेल केंद्र सरकार से पैसे लेती है और उसे सालाना 7 फीसदी की दर से ब्याज़ देती है। लेकिन लाभांश तो वह पैसा है जो 100 फीसदी इक्विटी के एवज़ में भारतीय रेल को अपनी मालिक भारत सरकार को देना ही है। फिर वह उसी से उधार क्यों लिए जा रही है? हमारे लालूजी शायद इसका जवाब नहीं देना मुनासिब नहीं समझते।

वैसे भारतीय रेल के कैश सरप्लस का राज़ मुझे आज बिजनेस स्टैंडर्ड के प्रमुख संपादक ए के भट्टाचार्य के लेख से समझ में आया। भट्टाचार्य उदाहरण देकर बताते हैं कि 2005 में जहां 10 लाख टन माल ढुलाई से रेल की अनुमानित आमदनी 53 करोड़ रुपए थी, वहीं लालू यादव की अगुआई में क्षमता के बेहतर इस्तेमाल से इसकी ढुलाई लागत 13 करोड़ रुपए पर ले आई गई। इससे हर दस लाख टन पर रेलवे की शुद्ध आमदनी 40 करोड़ रुपए हो गई। इस तरीके पर अमल करके भारतीय रेल ने साल 2004-05 में 7000 करोड़ रुपए का कैश सरप्लस कमाया जो अब बढ़ते-बढ़ते 25000 करोड़ तक पहुंच गया है। खैर, जो भी हो। लालू ने रेल के ऊपर जादू की छड़ी तो घुमाई ही है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन लालू ने कुछ हेराफेरी भी की है।

चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से न जाए
लालू ने एसी-1 के किराए में 7 फीसदी और एसी-2 के किराए में 4 फीसदी कमी का ऐलान किया है। लेकिन इसके साथ दो शर्तें जोड़ दी हैं। एक, इसकी आधी ही कमी पीक सीजन में मिलेगी। यानी इसका पूरा लाभ साल भर में केवल तीन महीने – फरवरी, मार्च और अगस्त में मिलेगा। दो, यह कमी लोकप्रिय ट्रेनों पर लागू नहीं होगी। रेलवे बोर्ड अभी ‘लोकप्रिय’ ट्रेनों की परिभाषा तैयार कर रहा है। लेकिन बताते हैं कि इस सूची में करीब 450 एक्सप्रेस और मेल ट्रेनें शामिल हैं, जिनमें राजधानी और शताब्दी तो आराम से आ जाएंगी।

इसके अलावा लालू ने द्वितीय श्रेणी के अनारक्षित किराए में 5 फीसदी कमी की घोषणा की है। इससे 100 किलोमीटर तक के सफर पर एक रुपए और 500 किलोमीटर तक के सफर पर 5 रुपए कम लगेंगे। लेकिन उन्होंने उस सेफ्टी सरचार्ज को विकास शुल्क के नाम पर अब भी जारी रखा है, जिसे मार्च 2007 में ही खत्म हो जाना चाहिए था और जिसके खिलाफ प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर संसद की स्थाई समिति तक एतराज़ जता चुकी है। इसके तहत हर रेल यात्री से एक से लेकर 100 रुपए वसूले जाते हैं। ऐसे में किराए में दो-चार रुपए कमी का क्या मतलब रह जाता है?
स्केच साभार: ब्रेन चिमनी

गुरुजी आशीष दें, आप से जिरह ही मेरी दक्षिणा है

गुरुजी! मैं आपके ज्ञान, साधना और अनुभव के आगे कहीं नहीं टिकता। लेकिन मैं क्या हूं इस सवाल का जवाब खोजने के क्रम में कुछ बातें दिमाग में आई हैं, जिन्हें मैं कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। आप कहते हैं कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है, लेकिन वह इससे भिन्न है। वह आत्मा है। नहीं तो क्या वजह है कि प्राण निकलने के बाद शरीर ज्यों का त्यों रहता है, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह सड़ने लगता है। सच है और इस अनुभव व प्रेक्षण की रोशनी में आत्मा की अवधारणा को मानने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन अगर हम अपने प्रेक्षण का दायरा बढ़ा दें तो आत्मा की अवधारणा खंडित हो जाती है, उसी तरह जैसे सूरज के धरती का चक्कर काटने की मान्यता आज पूरी तरह गलत साबित हो चुकी है।

आप खुद ही कहा करते थे कि हर दिन को नए जन्म के रूप में देखो। आप हर दिन मरते हैं और हर दिन नया जीवन प्राप्त करते हैं। आप सही कहते थे। विज्ञान तो यहां तक कहता है कि हम जन्म लेने के साथ ही हमारे मरने का क्रम शुरू हो जाता है। हमारा शरीर खरबों कोशिकाओं से मिलकर बना है। इनमें से हर एक कोशिका उतनी ही जीवित होती है जितने कि हम। क्रोमोजोम, डीएनए, आरएनए की बड़ी जटिल, लेकिन जाननेवालों के लिए बड़ी सुलझी हुई संरचना है कोशिकाओं की। इन कोशिकाओं में बनने-बिगड़ने का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। नतीजतन, कोशिकाओं के मामले में हमारा शरीर कुछ ही पलों में पूरा नया हो जाता है।

अरविंद शेष के ब्लॉग पर अमिताभ पांडे लिखते हैं, “बचपन में हमारे शरीर में कोशिकाएं ज्यादा बनती हैं और मरती कम हैं। लेकिन 18-20 की उम्र तक जन्म और मृत्यु का पलड़ा बराबरी पर आ जाता है। और फिर जिंदगी की ढलान शुरू हो जाती है। चालीस की उम्र हमारी प्राकृतिक सीमा है। उसके बाद की जिंदगी तो तकनीक और विज्ञान का गिफ्ट है।” स्पष्ट है कि जब कोशिकाएं अपने को पुनर्सृजित करना बंद कर देती हैं तो हमारी मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु भी कई चरणों में कई घंटों के दौरान होती है। इसीलिए शरीर के अंगों का प्रत्यारोपण कर पाना संभव होता है।

इस तरह मैं क्या हूं का उत्तर मैं आत्मा हूं नहीं हो सकता क्योंकि शरीर से भिन्न प्राण या आत्मा का कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं है उसी तरह जैसे किसी चुंबक में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का अलग-अलग अस्तित्व नहीं है। फिर भी चेतना तो होती है, जिसे हम शरीर नहीं कह सकते। यह चेतना हमारे पारिवारिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक परिवेश से बनती है। यह चेतना भाषा से बनती है, शिक्षा से बनती है, ज्ञान से बनती है, संस्कार से बनती है।

किसी स्थिर बिंदु की पोजीशन समझनी हो तो हम लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के एक्सिस पर उसके को-ऑर्डिनेट्स (x, y, z) का पता लगाते हैं और बिंदु गतिशील हो तो उसमें समय की एक और विमा व को-ऑर्डिनेट (t) जुड़ जाता है। उसी तरह बहुत सीधी-सी बात है कि हम मैं क्या हूं प्रश्न का सही उत्तर तभी जान सकते हैं जब हम अपने सामाजिक, ऐतिहासिक व सामयिक को-ऑर्डिनेट्स को अच्छी तरह समझ लें। इसीलिए अपने को जानना भी समाज और सभ्यता के विकास के सापेक्ष है। बुद्ध और कबीर के जमाने में अपने को जानना कुछ और था और आज कुछ और है।

अंत में अमिताभ पांडे के लेख का एक रोचक अंश देने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूं, इस संस्तुति के साथ कि इस पूरे लेख को आप ज़रूर पढ़ें। इसमें कहा गया है, “एक तरह से देखें तो हम, हमारे सारे पुरखे और उनकी हर कोशिका गर्मी प्रेमी आदि बैक्टीरिया की संतान हैं जो आज से लगभग चार अरब साल पहले महासागर के गर्भ में ज्वालामुखियों की आंच में पैदा हुआ और पनपा था। इस मायने में तो हम अमर हैं। हम, पुरखों और संतानों की अटूट श्रृंखला हैं और हम अपने मन और विचारों को संस्कृति के द्वारा जिंदा रखने में कामयाब हैं।”

Tuesday, 26 February, 2008

लालू का इंद्रजाल, हिंदी को अंग्रेज़ी का झटका

वैसे तो बिहारी लोग हिंदी बोलते हुए भी अंग्रेज़ी में नर्भसाने के लिए मशहूर हैं, लेकिन इस बार रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में अंग्रेज़ी शब्दों का इतने धड़ल्ले से इस्तेमाल किया है कि आश्चर्य होता है कि इतना तगड़ा आमान-परिवर्तन कैसे हो गया। उनका पूरा हिंदी भाषण पढ़कर आप इसका लुत्फ ले सकते हैं। यहां मैं कुछ शब्दों और वाक्यों की बानगी पेश कर रहा हूं। तो, अर्ज़ कर रहा हूं, आप इरशाद बोलिए।

लाभांश पूर्व कैश सरप्लस, यात्रा समय को घटाकर थ्रूपुट बढ़ाना, थ्रूपुट संवर्धन, आइरन ओर मूवमेंट के नए डेडीकेटेट रूट, पीक सीजन में सरचार्ज और लीन सीजन में डिस्काउंट, यात्री गाड़ियों में ऑनबोर्ड सफाई की व्यवस्था, ऑटोमेटिक टिकट वेंडिंग मशीन, ऑपरेटिंग रेशियो, नेट सरप्लस, टॉप फॉर्च्यून 500 कंपनियां, मेगा इंटरप्राइज़, डिविडेंड, भारतीय अर्थव्यवस्था का ट्रांसपोर्ट मार्केट, स्ट्रैटजिक बिज़नेस यूनिट, प्रोफेशनल एजेंसी, कैपिटल इन्टेंसिव व्यवसाय में मार्जिन लागत, वॉल्यूम गेम खेलकर, टैरिफ कम कर, नॉन एसी स्लीपर, फुली एसी गरीब रथ, रेलवे को पार्टनर बनाना, वैगन टर्नराउंड टाइम घटाकर और पे लोड बढ़ाकर, हाई डेंसिटी नेटवर्क, एलईडी डिस्टिनेशन डिस्प्ले बोर्ड...

इसके अलावा लालू जी दस लाख टन को मिलिटन टन ही बोलते रहे। उन्होने जन उद्घोषक प्रणाली की बात की तो पब्लिक ऐड्रेस सिस्टम भी बोले। हिंदी में अंग्रेज़ी शब्दों के तड़के की कुछ और बानगी – मॉड्यूलर टॉयलट, डिस्चार्ज फ्री ग्रीन टॉयलट के ट्रायल, मल्टी लेवल पार्किंग, हाई, मीडियम, लो लेवल प्लेटफॉर्म, ऑनलाइन ट्रेन आगमन-प्रस्थान सूचना पट्ट, कोच इंडीकेशन डिस्प्ले बोर्ड, रेलवे इन्क्वायरी कॉल सेंटर, ऑनलाइन बेसिस पर, डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, फ्रेट लोडिंग, पोर्ट ट्रैफिक मिशन, टाइम एंड कॉस्ट ओवर-रन, एसपीवी का कन्शेसन पीरियड, अपग्रेडेशन, प्लेटफॉर्म सेंटर की व्यवस्था।

अब कुछ वाक्यों पर गौर फरमाएं...
- वर्तमान में केवल कनफर्म ई-टिकट इश्यू होता है। यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हमने वेटलिस्टेड ई-टिकट भी निर्गत करने का निर्णय लिया है।
- अनेक मार्ग पूरी तरह सैचुरेट हो चुके हैं।
- नेटवर्क का रूटवार विस्तृत अध्ययन कर एक ब्लूप्रिंट तैयार किया गया है।
- लीजिंग कंपनियों को अपना लेसी चुनने अथवा बदलने के पूरे अधिकार दिए गए हैं। ये कंपनियां स्पेशल परपज वैगन, हाई कपैसिटी वैगन तथा कंटेनर वैगन लीज़ पर देंगी।

लेकिन इसके अलावा लालू ने अपने बजट भाषण में गतायु संपत्तियों, युक्तिकरण, कायाकल्प को चिरस्थाई बनाने, मितव्ययिता, साधारण संचालन व्यय और आमान परिवर्तन जैसे कठिन-कठोर पारंपरिक सरकारी शब्द भी इस्तेमाल किए हैं। उन्होंने इस बार भी जमकर शेरो-शायरी की है। उसमें से एक शेर...
जादू औ टोना हमने दिखाया था पिछले साल,
इस बार पूरा इंद्रजाल देख लीजिए।।

चलते-चलते लालू की संश्लिष्ट हिंदी और अंग्रेजी के मेल का एक और नमूना...
अद्भुत सृजनशीलता और जोखिम उठाने की भावना की बदौलत पिछले चार वर्षों में रेलवे का जादुई कायाकल्प हुआ है। 21वीं शताब्दी में विद्युत की गति से व्यावसायिक परिवेश में परिवर्तन हो रहे हैं। नित नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तथा नई तकनीक एवं विचारों को आत्मसात करने के लिए समन्वित प्रयास ज़रूरी हैं। अत: हमने रेलवे बोर्ड में एक बहुविभागीय इनोवेशन प्रमोशन ग्रुप का गठन करने का निर्णय लिया है।

Monday, 25 February, 2008

हमारे बिना भी दुनिया में चलता है बहुत कुछ

हम परेशान रहते हैं कि ये चारों तरफ क्या चल रहा है। मूल्यों का इतना पतन। नैतिकता का इतना पराभव। इतना भ्रष्टाचार! नेताओं की इतनी मनमानी!! राजनीतिक पार्टियों का ये हश्र!!! किसी बूढ़े खूसट की तरह हम कोठरी के कोने में बैठकर खांसते रहते हैं, कोसते रहते हैं कि अरे पवार तू क्या रहा है बच्चा, तूने तो क्रिकेट को खुल्ल्मखुल्ला सट्टेबाज़ी बना डाला। हम क्रिकेट खिलाड़ियों की खराब परफॉर्मेंस पर दुखी होते हैं। दुखी होते हैं कि रेलमंत्री झांकी दिखाने के बाद अब रेल को बेचने पर उतारू हैं। परेशान हैं कि वित्तमंत्री किसानों को केवल सब्जबाग ही दिखा रहे हैं। और बताइए, ये तो हद है!!! सेना तक में एड़ी से लेकर चोटी तक कट-पे-कट चलता है।

हम दुखी हैं कि हम दुखी होने के अलावा कर भी क्या सकते हैं? लेकिन बाहर है कि दुनिया चली जा रही है। नगरपालिका में फैसले हो रहे हैं, राज्य में योजनाएं बन रही है, केंद्र में नई-नई नीतियां तैयार हो रही हैं। मानते हैं कि कभी-कभी कुछ अच्छा हो जाता है, लेकिन ज्यादा कुछ गलत ही होता है। बस समझ लीजिए कि नीचे से ऊपर तक 95% काम गलत ही होता है। लेकिन हम कर भी तो कुछ नहीं सकते। क्या करें! घर-परिवार में उलझे हैं। फिर कल के बुढ़ापे का इंतज़ाम भी करना है। पहले की तरह तो रहा नहीं कि बच्चे बुढ़ापे की पेंशन और बीमा हुआ करते थे।

चिंता की बात यह है कि हम इतनी सारी चिंताएं करते हुए व्यक्ति और समाज के अंतर को भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि व्यक्ति की भूमिका कहां तक है और समाज या सरकार की ज़िम्मेदारी कहां से शुरू हो जाती है। हकीकत ये है कि हम अपने लिए जो भी कमाते-खाते-करते हैं, उसका एक हिस्सा हमारे न चाहते हुए भी सरकारी खज़ाने में चला जाता है। हमारी कमाई और खर्च से हर साल करोड़ों-करोड़ों का टैक्स सरकार को मिलता है। चालू साल की बात करें तो अकेले केंद्र सरकार को हम अपने खर्च से 2,79,190 करोड़ रुपए का अप्रत्यक्ष कर (एक्साइज, कस्टम और सर्विस टैक्स) और अपनी कमाई से 2,68,832 करोड़ रुपए का प्रत्यक्ष कर (इनकम टैक्स और कॉरपोरेट टैक्स) दे रहे हैं। इसलिए सरकार हमारी मालिक नहीं, हमारी नौकर है। वह अगर हमारे हित में कोई काम करती है तो एहसान नहीं करती।

दूसरी बात सोचने की यह है कि हमने सही-गलत के जो मानदंड बना रखे हैं, वे आए कहां से और आखिर बने कैसे हैं? समाज व देश किसी अमूर्त दर्शन या शाश्वत नैतिकता के आधार पर नहीं चला करते। आपसी हितों के संतुलन और सामंजस्य से चलती है दुनिया। जैसे, अपने यहां अभी देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हित सबसे ऊपर हैं तो सारा कुछ इसी के माफिक तय होता है। कृषि नीति से लेकर शिक्षा नीति तक इसी के व्यापक हितों को पूरा करने के लिए बनती है। चमचमाती सड़कों से लेकर ओवरब्रिज, बिजली की शानदार सप्लाई, उत्तम रेल यातायात, इन सब कुछ के केंद्र में इसी का हित है।

यह इसके हित में है कि भ्रष्टाचार खत्म हो, गरीबी मिटे, अशिक्षा मिटे, स्वास्थ्य के अच्छे इंतज़ाम हों। जो थोड़े बहुत काम इस दिशा में हो रहे हैं, वे सरकार के किसी नैतिक आग्रह के चलते नहीं, बल्कि ठोस व्यावहारिक हितों के चलते हो रहे हैं। विश्व बैंक अगर एड्स से जुड़े कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार को लेकर हल्ला मचाता है तो यह महज दिखावा नहीं है। आज देशी-विदेशी पूंजी की ज़रूरत बनती जा रही है कि सरकारी तंत्र को जवाबदेह बनाया जाए और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया जाए। जाति व्यवस्था या धार्मिक अंधविश्वास उनके माफिक नहीं पड़ते तो इनका खत्म होना भी उनके हित में है। इन तमाम मुद्दों को लेकर एनजीओ बना लीजिए, फिर देखिए देश-विदेश से कितनी मदद आने लगती है।

आज ज़रूरत साफ-साफ यह समझने की है कि सत्ता में बैठे तबकों के स्वार्थ और उनकी खींचतान लोकतांत्रिक संस्थाओं को कितना और कहां तक मजबूत कर सकती है। वहां तक हम दबाव बनाकर इसी सिस्टम में बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। लेकिन उसके आगे के लिए तो वही बात है कि याचना नहीं अब रण होगा, संघर्ष बड़ा भीषण होगा।

Saturday, 23 February, 2008

ड्राफ्ट ब्लॉगर की सुविधा में कुछ तो लोचा है

कुछ दिनों पहले ज्ञान जी ने ज्ञान दिया कि ममता टीवी ने पोस्ट अभी लिखकर बाद में पब्लिश करने की कोई जुगत बताई है। मैंने फौरन जाकर मौका-ए-वारदात का मुआयना किया और इस सुविधा की जानकारी मिलने पर दुनिया भर के तमाम ब्लॉगरों की तरह गदगद हो गया। लगा कि महीनों की मुराद पूरी हो गई। मनीष जी के मुंबई आने पर मैंने विकास से यह सुविधा विकसित करने की गुजारिश की थी।

अगले ही दिन मैंने इस सुविधा का फायदा लेना शुरू कर दिया। रात को दो बजे सोने से पहले पूरी पोस्ट सुबह 6 बजे के लिए शिड्यूल कर दी। आराम से नौ बजे उठा और कंप्यूटर खोलकर देखा तो पोस्ट पर दो कमेंट आ भी चुके थे। लेकिन जब मैंने आगे पढ़ें की अपनाई गई जुगत पर क्लिक किया तो पूरी पोस्ट दिखी ही नहीं। ब्लॉगवाणी पर जाकर देखा तो वहां भी पोस्ट आगे पढ़ें के साथ अधूरी पड़ी थी। बाद में पता चला है कि दुनिया भर के बहुत सारे ब्लॉगरों को इस सुविधा के साथ यही समस्या पेश आ रही है। फिलहाल, ब्लॉगर वाले इसका समाधान निकालने में लगे हैं।

खैर, मुझे इस सुविधा का फायदा लेना ही लेना था तो मैंने आगे पढ़ें की सुविधा ही अपने ब्लॉग से निकाल डाली। लेकिन अब आ गई असली दिक्कत, जिसका समाधान ड्राफ्ट ब्लॉगर वाले भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह बड़ी देशज, भारतीय किस्म की समस्या है। पोस्ट सुबह 6.30 पर छपने के लिए शिड्यूल करके सो गया। सुबह उठकर 9.30 पर देखा तो पोस्ट पूरी छप गई थी। लेकिन ब्लॉगर मीट से जुड़ी पोस्ट पर तीन घंटे बाद भी कोई पढ़वैया नहीं आया था। मैं चौका। देखा तो ब्लॉगवाणी पर यह पोस्ट गई ही नहीं थी।

तो, ड़्राफ्ट ब्लॉगर की नई सुविधा के साथ हमारी नितांत हिंदुस्तानी समस्या यह है कि पोस्ट तय समय व तारीख पर छप तो जाती है, मगर एग्रीगेटर पर नहीं आती। लगता तो है कि इसका लेनादेना ज़रूर फीड भेजने के साधन से होगा। पर मेरा फीडबर्नर ठीक काम कर रहा है। फिर क्यों यह समस्या आ रही है? शायद औरों को पोस्ट शिड्यूल करने में दिक्कत नहीं आ रही है। तभी वो चैन से देर तक सो रहे हैं। लेकिन मैं क्या करूं? अपनी मुश्किल कैसे सुलझाऊं? कैसे यह काम हो जाए कि शिड्यूल पोस्ट छपते ही एग्रीगेटर पर भी आ जाए? रविजी, ई-स्वामी, श्रीशजी, तकनीकी चिट्ठा वाले गुरुजी और बालक ब्लॉग-बुद्धि... आप सभी सुन रहे हैं?

Friday, 22 February, 2008

लालू की सायरो-सायरी: दखिए अबकी का सुनाते हैं!

लालू प्रसाद यादव चार दिन बाद 26 फरवरी को साल 2008-09 का रेल बजट पेश करेंगे। अनुमान है कि वे इस बार न तो यात्री किराया न बढ़ाएंगे और न ही मालभाड़ा। ज़ाहिर है पहले की तरह इस बार भी पूरे रेल बजट भाषण में जमकर ‘सायरो-सायरी’ करेंगे। तो पेश कर रहा हूं, इससे पहले के दो रेल बजट में बोली गई उनकी शेर-ओ-शायरी।


24 फरवरी 2006: आम आदमी ही हमारा देवता है!!
मेरे जुनूं का नतीजा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा

हम भी दरिया हैं, अपना हुनर हमें मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता बन जाएगा

एक कदम हम बढ़ें, एक कदम तुम
आओ मिलकर नाप दें, फासले चांद तक

हम ना हारें पर वो जीतें, ऐसा है प्रयास
मुसाफिर हो जेल का राजा, हम सबकी ये आस

मन में भाव सेवा का, होठों पर मुस्कान
बेहतर सेवा वाज़िब दाम, रेल की होगी ये पहचान

कामगारों की लगन से, है तरक्की सबकी
हौसला इनका बढ़ाओ, कि ये कुछ और बढ़ें

आम आदमी ही हमारा देवता है
वह जीतेगा तो हम जीत पाएंगे
तभी तो यह तय करके बैठे हैं
फैसले अब उसी के हक में जाएंगे

मैंने देखे हैं सारे ख्वाब नए
लिख रहा हूं मैं इंकलाब नए

ये इनायत नहीं, मेरा विश्वास है
दौरे महंगाई में रेल सस्ती रहे
अपना ईनाम हमको तो मिल जाएगा
रेल पर आपकी सरपरस्ती रहे

26 फरवरी 2007: खेल तमाशा आगे देखो, दरिया दिल सौदागर का
नवाजिस है सबकी, करम है सभी का
बड़े फख्र से हम बुलंदी पर आए
तरक्की के सारे मयारों से आगे
नए ढंग लाए, नई सोच लाए

माना कि बड़ी-बड़ी बातें करना हमें नहीं आया
मगर दिल पर कड़ी कारीगरी से नाम लिखते हैं

जितना अब तक देख चुके हो, ये तो बस शुरुआत है
खेल तमाशा आगे देखो, दरिया दिल सौदागर का

बात मैं कायदे की करता हूं, देश के फायदे की करता हूं
जिस तरह पेड़ साया देता है, हर मुसाफिर का ध्यान रखता हूं

हो इजाज़त तो करू बयां दिल अपना
संजो रखा है मैंने रेल का एक सपना

जिसने पहुंचाया बुलंदी पर उसे सम्मान दें
कड़ी मेहनत को उनकी मिलकर मान दें

दौर-ए-महंगाई में भी रेल सस्ती रखी
पर कमाई में कोई कमी ना रखी

हर साल नया साल तरक्की का, प्रगति का
आपका है साथ तो फिर ये सफर जारी रहेगा

गुरु की बातें गुरु ही जानें

यही कोई आठ-नौ साल का रहा हूंगा। सुलतानपुर में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य आए हुए थे। अम्मा-बाबूजी अपने साथ मुझे और मुझसे साल भर बड़े भाई को भी उनकी सभा में ले गए। उन्होंने खुद मंत्र लेने के साथ ही हम दो भाइयों को भी गुरुजी से मंत्र दिलवा दिया। उस समय का ज्यादा कुछ तो याद नहीं है। बस, इतना याद है कि पहनी हुई पीली तौलिया मंत्र लेने के लिए बैठते वक्त खुल गई थी और उसे अम्मा ने यूं ही ढंक दिया था।

इस तरह इतनी छोटी-सी उम्र में ही मंत्रधारी बन गया। हालांकि बाद में मांस-मछली सब कुछ खाया। लेकिन मैंने बचपन से लेकर विश्वविद्यालय पहुंचने तक अखंड ज्योति, युग-निर्माण योजना जैसी पत्रिकाएं और श्रीराम शर्मा आचार्य की किताबें घर जाने पर बराबर पढ़ी हैं। आज उनकी एक पतली-सी किताब ‘मैं क्या हूं’ दिख गई। उसके कुछ अंश पेश कर रहा हूं। जानता हूं, इससे मेरे पूर्व वामपंथी मित्र थोड़ा भड़केंगे। लेकिन बाकी लोगों की राय मैं ज़रूर इस पर चाहूंगा। कम से कम ये ज़रूर बताएं कि गुरुजी की बातें आपके लिए सार्थक हैं या आज के ज़माने में इनका कोई मायने नहीं है।

किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि आप कौन हैं तो वह अपने वर्ण, कुल व्यवसाय, पद या संप्रदाय का परिचय देगा। ब्राह्मण हूं, अग्रवाल हूं, बजाज हूं, तहसीलदार हूं, वैष्णव हूं आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर अपने निवास स्थान, वंश व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। प्रश्न के उत्तर के लिए ही यह सब वर्णन हों, सो नहीं, उत्तर देनेवाला यथार्थ में अपने को वैसा ही मानता है। शरीर भाव में मनुष्य इतना तल्लीन हो गया है कि अपने आपको शरीर ही समझने लगा है।

मनुष्य शरीर में रहता है, यह ठीक है। पर यह भी ठीक है कि वह शरीर नहीं है। जब प्राण निकल जाते हैं तो शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है। उसमें से कोई वस्तु घटती नहीं तो भी वह मृत शरीर बेकाम हो जाता है। उसे थोड़ी देर रखा रहने दिया जाए तो लाश सड़ने लगती है। इससे प्रकट है कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है, पर वस्तुत: वह शरीर से भिन्न है। इस भिन्न सत्ता को आत्मा कहते हैं। वास्तव में यही मनुष्य है। मैं क्या हूं? इसका सही उत्तर यह है कि मैं आत्मा हूं।

आत्मा शरीर से पृथक है। शरीर और आत्मा के स्वार्थ भी पृथक हैं। शरीर के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व इंद्रियां करती हैं। दस इंद्रियां और ग्यारहवां मन सदा ही शारीरिक दृष्टिकोण से सोचते और कार्य करते हैं। शरीर भाव में जागृत रहनेवाला मनुष्य यदि आहार, निद्रा, भय और मैथुन के साधारण कार्यक्रम पर चलता रहे तो भी उसे पशुवत जीवन में निरर्थता है, सार्थकता कुछ नहीं। इस दृष्टिकोण के व्यक्ति न तो स्वयं सुखी रहते हैं और न ही दूसरों को सुखी रहने देते हैं। शरीर-भावी दृष्टिकोण मनुष्य को पाप, ताप, तृष्णा तथा अशांति की ओर घसीट ले जाता है।

जीवन में वास्तविक सफलता और समृद्धि आत्मभाव में जागृत रहने में है। जब मनुष्य अपने को आत्मा अनुभव करने लगता है तो उसकी इच्छा, आकांक्षा, और अभिरुचि उन्हीं कामों की ओर मुड़ जाती है जिनसे आध्यात्मिक सुख मिलता है। आत्मा को तत्कालीन सुख सत्कर्मों में आता है। आत्मा का स्वार्थ पुण्य प्रयोजन में है। शरीर का स्वार्थ इसके विपरीत है। इंद्रियां और मन संसार के भोगों को अधिकाधिक मात्रा में चाहते हैं। इस तरह शरीर के स्वार्थ और आत्मा के स्वार्थ आपस में मेल नहीं खाते। एक के सुख में दूसरे का दुख होता है। इन दो विरोधी तत्वों में से हमें एक को चुनना होता है।

जानने योग्य इस संसार में अनेक वस्तुएं हैं। पर उन सब में प्रधान है अपने को जानना। जिसने अपने को जान लिया, उसने जीवन का रहस्य समझ लिया। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों ने अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किए हैं। प्रकृति के अंतराल में छिपी हुई विद्युत शक्ति, ईश्वर शक्ति, परमाणु शक्ति आदि को ढूंढ निकाला। आध्यात्म जगत के महाने अन्वेषकों ने जीवन सिंधु का मंथन करके आत्मारूपी अमृत उपलब्ध किया है। इस आत्मा को जाननेवाला सच्चा ज्ञानी हो जाता है और इसे प्राप्त करनेवाला विश्वविजयी मायातीत कहा जाता है। इसलिए हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने आपको जाने। मैं क्या हूं, इस प्रश्न का उत्तर अपने आपसे पूछे और विचार करे। चिंतन और मननपूर्वक उसका सही उत्तर प्राप्त करे।

Thursday, 21 February, 2008

शब्द शरीर है तो व्याकरण आत्मा है भाषा की

मुझे अच्छी तरह पता है कि अगर इस पोस्ट का शीर्षक मैं यह देता कि ऐसी ब्लॉगर मीट, जिसकी चर्चा नहीं हुई तो बहुत-से लोगों के लिए यह ‘खबर’ होती और वे इसे लपककर पढ़ने आते। लेकिन मेरे अलावा मुंबई में 10 फरवरी, रविवार को जुटे सभी छह ब्लॉगर शायद मानेंगे कि यह ब्लॉगर मीट सामान्य बैठकी नहीं थी जिसमें लोग आए, चाय-समोसा खाया, गप-सड़ाका किया और फिर अपने-अपने शून्य में लौट गए। इसमें तकरीबन चार घंटे तक समाज व राजनीति से लेकर ब्लॉगिंग के स्थायित्व और हिंदी भाषा की समस्या पर इतने आत्मीय, गंभीर और व्यावहारिक तरीके से चर्चा हुई कि उसे बहस कहना उसके स्तर को गिराने जैसी बात होगी। इस बैठक का बहाना बने थे दिल्ली से आए प्रमुख ब्लॉगर सृजन शिल्पी और उनके सहकर्मी राजेश जिन्होंने खुद ब्लॉगर न होते हुए भी पूरी चर्चा में बेहद संजीदगी से शिरकत की। बैठक में शामिल बाकी लोग थे – हर्षवर्धन, शशि सिंह, प्रमोद, अभय, विकास और मैं।
तस्वीर में क्लॉक-वाइज़: सृजन शिल्पी, राजेश, हर्षवर्धन, शशि सिंह, अनिल, प्रमोद, विकास। तस्वीर अभय ने खींची है, सो वे इसमें नज़र नहीं आ रहे हैं...

बहुत सारी बातों में से मैं यहां केवल एक मुद्दे पर चर्चा करना चाहूंगा। शिल्पी और राजेश आए थे पुणे में विकसित किए जा रहे अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद के सॉफ्टवेयर की मॉनीटरिंग करने। उन्होंने बताया कि एक खास डोमेन, जैसे संसद की कार्यवाही में इस्तेमाल होनेवाले शब्दों के अनुवाद का सॉफ्टवेयर विकसित किया जा सकता है। इसमें भी उन्हें करीब तीन लाख शब्दों का डाटाबैंक बनाया है। लेकिन इसकी सीमाएं हैं। मसलन चेयरमैन शब्द के लिए इसमें दो ही शब्द हैं – सभापति और अध्यक्ष। चेयरमैन शब्द का हिंदी में कोई और अनुवाद यह सॉफ्टवेयर नहीं कर सकता।

चर्चा आगे बढ़ी तो एक तर्क यह आया कि अगर हम शाब्दिक और सरकारी अनुवाद के चक्कर में उलझे रहे तो ऐसी अपठनीय हिंदी तैयार होगी जिसे समझने के लिए उसका ‘अनुवाद’ करना पड़ेगा हिंदी में। यहीं से बात निकली कि शब्द शरीर हैं, जबकि व्याकरण ही भाषा की आत्मा है। हम चाहकर भी व्याकरण से तोड़मरोड़ नहीं कर सकते, क्योंकि तब वह समझ से बाहर हो जाएगी। लेकिन शब्द हमें लोक व देसी भाषाओं से लेकर विदेशी भाषाओं तक से लेने पड़ेंगे। अंग्रेज़ी अगर इतनी प्रवहमान भाषा है तो इसीलिए कि उसने फ्रांसीसी या जर्मन जैसी यूरोपीय भाषाओं को छोड़ दीजिए, हिंदी तक से पंडित, गुरु, डकैत जैसे बहुतेरे शब्द जस के तस ले लिए हैं। Kaput जर्मन शब्द है, लेकिन अंग्रेज़ी से उसे ऐसे ले लिया, जैसे सदियों से यह उसी का शब्द था।

हमारी देसी भाषाओं में भी तमाम शब्द हैं, जिनका कोई समानार्थी शब्द हिंदी में नहीं मिलता। जैसे गुजराती शब्द शाता के लिए हम ठंडक का इस्तेमाल करें तो वह बात नहीं आ पाती। अवधी या भोजपुरी के शब्द अँकवार को अगर हिंदी ने लिया है, तो वह समृद्ध ही हुई है। पंजाबी से लेकर मराठी और तमिल, मलयालम, कन्नड़ में भी बहुतेरे शब्द होंगे, जिनसे हिंदी का खज़ाना भर सकता है। कबीर की भाषा ऐसे ही घुमक्कड़ अंदाज़ में बनी थी। अब कोई की-बोर्ड को कुंजीपट और कंप्यूटर को संगणक कहता है तो कितना अटपटा लगता है। हां, मराठी भाषा कैंसर के लिए कर्करोग शब्द को आसानी से पचा लेती है। शब्दों का चयन अगर लोकजीवन के चलन और परंपरा से किया जाए तभी उनकी स्वीकृति संभव है।

असल में ध्वनियों और संकेतों से शुरू हुआ भाषा का सफर सदियों का है जो मानव जाति के आगे बढ़ने के साथ अनंत समय तक जारी रहेगा। हम हिंदी वालों के साथ समस्या यह है कि हम शब्दों की वायवी शुद्धता के चक्कर में पड़े रहते हैं जिसका मूल वहां है जहां हम शब्दों को ब्रह्म की रचना मानते थे। हम मानते थे कि हिंदी भाषा के सभी सोलह स्वर शक्ति-स्वरूप हैं और सभी व्यंजन शिव-स्वरूप। इन्हीं के आपस में मिलने से नामरूपात्मक सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। यह सारी सृष्टि ऊर्ध्वमूल अध:शाखा वाला अश्वस्थ है। इस संसार-रूप अश्वस्थ का बीज ईश्वर, ब्रह्म या शिव है। महद् उसकी योनि (माँ) है और परमात्मा शिव बीजप्रद पिता। गीता में इसे यूं कहा गया है:
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद् योनिरहम बीजप्रद: पिता।।


मुझे लगता है, आज हमें शब्दों के इस ब्रह्मजाल से बाहर निकलकर सोचना होगा। और, अगर हम व्याकरण को भाषा की आत्मा मान लें तो हिंदी-उर्दू का राजनीतिक झगड़ा भी मिट जाएगा। मुझे बस इतना कहना था। मुंबई की ब्लॉगर मीट की और बातें इसके दूसरे सहभागी लिखें तो वैल्यू-एडिशन हो जाएगा।

Wednesday, 20 February, 2008

लूट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड

आप कहेंगे हमारे तमाम नेतागण तो इसी काम में लगे हैं। इंडिया को लूटने की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी समझ रखी है उन्होंने। सत्ता पर बैठते ही देश को लूटने का लाइसेंस मिल जाता है उन्हें। अगर सत्ता पर काबिज़ खानदान से आपका दूर का भी रिश्ता है तो आप इस देश के सैन्य प्रमुखों से भी ऊपर हो जाएंगे। नहीं तो क्या वजह है कि प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वढ़ेरा कुछ न होते हुए भी उन वीवीआईपी लोगों में शामिल हैं, जिनकी कोई सुरक्षा जांच हमारे हवाई अड्डों पर नहीं होती।

लेकिन मैं यहां नेताओं की जगज़ाहिर लूट की बात नहीं कर रहा। मैं यहां धर्म और रामनाम की बात भी नहीं कर रहा, जहां लूट शब्द का भले अर्थ में शायद इकलौता इस्तेमाल हुआ है। वो कहते हैं न कि रामनाम की लूट है, लूट सके तो लूट, अंतकाल पछताएगा जब प्राण जाएंगे छूट। मैं तो बात कर रहा हूं एक भारतीय कंपनी की जिसने अपना नाम ही रख रखा है लूट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड।

आज इसके बारे में सुबह-सुबह मैंने पढ़ा तो बस इच्छा हो गई कि आप सभी के साथ शेयर कर लूं। वैसे हो सकता है कि आप में से तमाम लोग इसके बारे में पहले से जानते हों। मुंबई की यह कंपनी डिस्काउंट पर कपड़े, जूते-चप्पल और पुरुषों व महिलाओं के पहनने की दूसरी चीजें बेचती है। देश भर में उसकी दुकानों की संख्या अभी 30 है, जिसे वह साल भर में बढ़ाकर 100 कर देना चाहती है। इसके लिए कंपनी 100 करोड़ रुपए जुटाने की जुगत में लगी हुई है।

वैसे, दुर्भाग्य से इसकी एक भी दुकान मैंने आज तक मुंबई में नहीं देखी है। पर, कंपनी कह रही है तो ज़रूर होंगी इसकी दुकानें। आज मिंट में जब इसके बारे में मैंने पूरी खबर पढ़ी तो मुझे कानपुर के ठग्गू के लड्डू याद आ गए, जिसका स्लोगन है – ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं। मैंने तो खाए नहीं हैं, लेकिन बताते हैं कि ठग्गू के लड्डू बड़े स्वादिष्ट होते हैं। इसी तरह नाम से तो लगता है कि लूट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड भारत को लूटने के अभियान पर निकली है। लेकिन हो सकता है कि डिस्काउंट स्टोर चेन की वजह से इसने अपना नाम ऐसा रखा हो। खैर, जो भी हो। इसके नाम में पकड़ तो है ही!!!

जातियों के रंग तो शुरुआत में ही मिल गए थे

अपने यहां प्राचीन काल से ही जातिगत विभाजन के खिलाफ बार-बार आंदोलन होते रहे हैं। इन आंदोलनों में कुछ कम कामयाब हुए तो कुछ ज्यादा। लेकिन इन्होंने रूढ़िवादी मतों पर चोट करने के लिए मजबूत तर्क पेश किए। ऐसे बहुत सारे तर्क हमारे ग्रंथों में दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि जाति व्यवस्था के शुरुआती दौर में भी इसमें निहित ऊंच-नीच की धारणा का विरोध होता आया है। हमें नहीं पता कि जिन लेखकों ने ये तर्क पेश किए हैं, उन्होंने इन्हें खुद गढ़ा था या उन्होंने बस समाज में प्रचलित विचार को ही व्यक्त कर दिया। लेकिन भारतीय ग्रंथों और महाकाव्यों में इन असमानता-विरोधी तर्कों की मजबूत मौजूदगी साफ दिखाती है कि हमारे यहां तर्कवादी परंपरा की पहुंच कितनी व्यापक थी और वहां एकल हिंदू सोच जैसी कोई चीज़ नहीं थी।

उदाहरण के लिए महाभारत में भृगु जब भारद्वाज को बताते हैं कि जातियों के बंटवारे का वास्ता इंसान की शारीरिक बुनावट से भी है जो चमड़ी के रंग में झलकता है, तब भारद्वाज ने कहा था कि हर जाति के भीतर लोगों की चमडी के रंग में काफी भिन्नता है और अलग रंग अगर अलग जाति को दर्शाते हैं तो मैं कहना चाहता हूं कि सभी जातियां मिश्रित जातियां हैं। भारद्वाज ने यहां तक कहा कि, “हम सभी इच्छा, क्रोध, भय, दुख, चिंता, भूख और परिश्रम से समान रूप से प्रभावित होते हैं तो हम में जातिगत विभेद कैसे हो सकता है?” इसी तरह एक और महत्वपूर्ण ग्रंथ भविष्य पुराण में कहा गया है कि, “चारों जातियों के सदस्य ईश्वर की संतान हैं, इसलिए उन सभी की जाति एक है। जब सभी इंसानों के पिता एक हैं तो उसी पिता के बच्चों की जातियां अलग नहीं हो सकतीं।”

इसके काफी समय बाद हम पंद्रहवीं शताब्दी तक स्थापित हो चुकी ‘मध्यकालीन रहस्यवादी कवियों’ की परंपरा को देखें तो ऐसे बहुतेरे विचारक मिलते हैं जिन पर हिंदी भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन की समतामूलक सोच का भरपूर असर नज़र आता है। भक्ति आंदोलन के संतों और सूफियों ने तमाम सामाजिक बंधनों को खारिज़ कर दिया था। उन्होंने जाति और वर्ग भेद के खिलाफ ऐसे जबरदस्त तर्क दिए जिनका समाज पर काफी असर पड़ा। इनमें से तमाम संत कवि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर तबकों से आए थे। इन्होंने सामाजिक विभाजन के साथ-साथ धार्मिक दीवारों पर प्रहार किया। इन संत-फकीरों ने धर्म और जाति की बंदिशों को बनावटी करार दिया और इनकी प्रासंगिकता को नकारने के गंभीर प्रयास किए।

देखने लायक बात यह है कि इन विधर्मी नज़रिये वाले संत चिंतकों में से ज्यादातर कामगार तबके से आए थे। उनमें से सबसे बड़े संत कवि कबीर एक जुलाहा थे। दादू धुनिया थे। रविदास मोची थे, जबकि सेना एक नाई थे। इसके अलावा इन आंदोलनों की कई अहम हस्तियां महिलाएं थीं। मीराबाई के भजन तो पांच सौ साल बाद भी गाए जाते हैं। इसके अलावा अंदल, दयाबाई, सहजोबाई और सेना जैसी कई महिलाएं जाति और धर्म के खिलाफ चले आंदोलन में शामिल थीं।

- ऊपर का लेख अमर्त्य सेन की किताब The Argumentative Indian के पहले अध्याय का एक अंश है। इससे साफ पता चलता है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ हमारे समाज में शुरुआत से ही कितनी अस्वीकृति रही है। गौतम बुद्ध और महावीर ने भी पुरोहितवाद के खिलाफ जबरदस्त भूचाल खड़ा किया। अशोक और अकबर जैसे शासकों ने भी जाति व धर्म की विभेदकारी दीवारों को कमज़ोर करने की कोशिश की। लेकिन अंग्रेजों ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए अप्रांसगिक होती जा रही इन संस्थाओं को फलने-फूलने का मौका दिया। आज़ादी के 15-20 सालों पहले तक इनका इस्तेमाल सामूहिक मोलतोल के लिए होने लगा। आज भी आम जीवन में मिट रही जाति व्यवस्था इसीलिए बची है क्योंकि ऊपर से लटकी सत्ता में बांट-बखरे के लिए यह मोलतोल का ज़रिया बनी हुई है।

Tuesday, 19 February, 2008

गर्भ में जाकर छिप जाऊं या किताब बन जाऊं तो!!!

डर किसी मासूम दिल को बचने की क्या-क्या जगहें सुझा देता है! हिंदी के क्रांतिकारी कवि गोरख पांडे के बारे में सुना था कि परत-दर-परत जमते गए तनाव के बाद जब वे विश्रांति की अवस्था में पहुंच गए थे, तब वे महिलाओं की एक सेना बना लेने की बात करते थे जिसमें इंदिरा गांधी से लेकर चीन के कुख्यात गैंग ऑफ फोर में शामिल माओत्से तुंग की पत्नी जियांग क्विंग भी शामिल थीं। गोरख कहते थे कि जब उनके 'दुश्मन' (वाम बुद्धिजीवी) उन पर हमला करने आते थे तो उनकी ये महिलाएं उन्हें अपने गर्भ में छिपा लेती थीं। गर्भ की ऊष्मा और सुरक्षा की कल्पना करके मैं हमेशा सिहर उठता हूं। लगता है समय की धारा में उलटा बहते हुए आप दोबारा मां के गर्भ में जाकर सारी दुनिया से सुरक्षित हो गए। अब कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

ऐसी ही एक और अनोखी बाल कल्पना के बारे में मैंने चंद दिनों पहले जाना है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले इसराइली लेखक अमोस ओज़ (Amos Oz) ने बीते शनिवार को इंडियन एक्सप्रेस में छपे (न्यूज़वीक से साभार) एक इंटरव्यू में कहा है: मैं तब एक आतंकित छोटा बच्चा था। 1940 के दशक के शुरुआती साल थे। यूरोप में यहूदियों के जनसंहार के बारे में अफवाहें जेरूसलम आती रहती थीं। हर तरफ यही आशंका तैर रही थी कि जेरूसलम के यहूदियों के साथ भी यही होनेवाला है। मैंने सोचा कि बड़ा होकर इंसान बनने के बजाय किताब बनना ज्यादा सुरक्षित रहेगा क्योंकि किताब के रूप में कम से कम मेरी एक प्रति दूर किसी देश की किसी लाइब्रेरी में सुरक्षित तो रहेगी।

अमोस ओज़ इस समय 69 साल के हैं। नियमित रूप से लिखे जानेवाले लेखों के अलावा उन्होंने अपनी मातृभाषा हीब्रू में 25 किताबें लिखी हैं, जिनमें से 17 उपन्यास हैं। पिछले साल छपा उनका ताज़ा उपन्यास है - Rhyming Life and Death। उनकी रचनाओं का अनुवाद दुनिया की तकरीबन 30 भाषाओं में हो चुका है। उनकी सबसे चर्चित रचना है साल 2003 में छपी उनकी आत्मकथा A Tale of Love and Darkness। इसमें उन्होंने अपनी तीन पीढियों की त्रासद यात्रा का ब्यौरा दिया है।

जब वे महज 12 साल के थे, तब उनकी मां फानिया ने आत्महत्या कर ली। मां की उम्र उस समय 38 साल थी। वो अपने-आप में डूबी चुप-चुप रहनेवाली महिला थीं। ओज़ बताते हैं कि शब्दों से उनको जबरदस्त लगाव था और वो उन्हें चमत्कारों से लेकर दानवों की कहानिय़ां सुनाया करती थीं। ओज़ को लगता है कि उनकी मां चाहती थीं कि वे बड़े होकर वो सारी बातें सामने लाएं जो वे नहीं कह सकीं। और इस तरह ओज़ ऐसे ‘शब्द शिशु’ बन गए जो ‘बड़ा होकर किताब’ बनना चाहता था।

न्यूज़वीक के इंटरव्यू में ओज़ से पूछा गया कि क्या वे कभी अपनी मां की आवाज़ सुनते हैं तो उनका जवाब था: हां, कभी-कभी। मैं अक्सर मृत लोगों की आवाज़ें सुनता हूं। मेरे लिए मरे हुए लोगों की बड़ी अहमियत है। ... जब मैंने A Tale of Love and Darkness लिखी तो एक तरीके से मैंने मृत लोगों को अपने घर कॉफी के लिए आमंत्रित किया। मैंने उनसे कहा – बैठिए। कॉफी पीते हैं और कुछ बात करते हैं। जब आप ज़िंदा थे तो हमने ज्यादा बातें नहीं की थीं। हमने राजनीति के बारे में बात की, ताज़ा घटनाक्रमों के बारे में बात की, लेकिन उन चीज़ों के बारे में बात नहीं की जो मायने रखती है.. बात करते हैं, क़ॉफी पीते हैं। फिर आप चले जाना। आप यहां मेरे साथ मेरे घर में रहने के लिए नहीं आ रहे। लेकिन कभी-कभार कॉफी का एक कप मेरे साथ पीने के लिए आप आएंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।

अमोस ओज़ कहते हैं कि उनकी राय में मृत लोगों के सम्मान का यही सही तरीका है। मुझे उनकी यह अदा बहुत पसंद आई। वैसे तो ओज़ अंध-राष्ट्रवादी हैं। उन्होंने जुलाई 2006 में लेबनॉन पर किए गए इसराइली हमले का समर्थन किया था। लेकिन फिलिस्तीन-इसराइल संघर्ष पर उनकी दो-टूक राय है, "यह न तो धर्म की लड़ाई है, न संस्कृति या परंपरा की। यह रीयल एस्टेट का झगड़ा है। यह ज्यादा आपसी समझ या समझदारी से हल नहीं होगा। इसके लिए दोनों पक्षों को कुछ कष्टप्रद समझौते करने होंगे।"

Monday, 18 February, 2008

अनर्थ हो सकता है अर्थ का अर्थ न जानने से

कितनी अजीब बात है कि हम सभी अर्थ के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन आर्थिक शब्दों का सामना होते ही उल्टा भागना शुरू करते हैं। सोचते हैं कि इनसे हमको क्या लेनादेना। इन्हें समझना है तो अर्थशास्त्री, विद्यार्थी, पत्रकार उद्योगपति या कारोबारी समझें। हम इन्हें समझकर क्या करेंगे? लेकिन आज के जमाने में ऐसा वीतरागी नज़रिया बड़ा घातक है। अर्थ के तमाम शब्दों को समझना बहुत ज़रूरी है क्योकि इनका गहरा वास्ता हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से है। अब मुद्रास्फीति को ही ले लीजिए। पहले इसके आंकड़े हर रविवार को जारी किए जाते थे और सोमवार के अखबारों में छपते थे। अब शुक्रवार को ही इन्हें जारी करके शनिवार को छाप दिया जाता है।

पंद्रह साल पहले तक मुद्रास्फीति का इकाई अंक में आना बड़ी खबर होती थी, जबकि आज अगर यह दहाई अंक में चली जाए तो हंगामा मच जाएगा। इसका ताज़ा आंकड़ा 4.07 फीसदी का है। मुश्किल यह है कि हम मुद्रास्फीति को या तो समझते नहीं या इसे फालतू समझते हैं क्योकि इसे महंगाई से जोड़कर देखने के बावजूद हम मानते हैं कि ये महंगाई की सही तस्वीर नहीं पेश करती। इस सोच के चलते हम धीरे-धीरे इस आंकड़े के प्रति संवेदनहीन हो जाते हैं। लेकिन खुदा न खुदा अगर इसने जिम्बाब्वे जैसा जलवा दिखा दिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। आप जानते हैं कि ज़िम्बाब्वे में मुद्रास्फीति की दर कितनी है? सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2007 में यह दर 66,212.3 फीसदी रही है। यानी, वहां हर दिन ही नहीं, हर घंटे चीज़ों के दाम बढ़ रहे हैं। आईएमएफ की मानें तो इस महीने के अंत तक ज़िम्बाब्वे में मुद्रास्फीति की दर 1,50,000 फीसदी तक पहुंच सकती है।

सोचिए, करीब 28 सालों के शासन में रॉबर्ट मुगाबे ने दक्षिण अफ्रीकी देश ज़िम्बाब्वे की हालत यह कर दी है कि वहां करोड़पति बने बगैर किसी का गुजारा संभव नहीं है क्योंकि इस समय वहां मामूली ब्रेड की कीमत भी 30 लाख जिम्बाब्वे डॉलर हो चुकी है। अखबार खरीदना है तो इससे दोगुनी रकम ढीली करनी पड़ती है। इन हालात में जिसकी महीने की तनख्वाह 10 करोड़ ज़िम्बाब्वे डॉलर है, वह भी कपड़े-लत्ते और खाने-पीने को लेकर रो रहा है। ज़िम्बाब्वे की यह हालत तब है जब वह प्राकृतिक संसाधनों से भरा-पूरा देश है। पहले वहां भी किसी को मुद्रास्फीति की फिक्र नहीं रहती थी, लेकिन पिछले कई महीनों से उन्हें इसकी भयंकर कड़वी खुराक ने रत्ती-रत्ती का हिसाब-किताब रखना सिखा दिया है।

ज़िम्बाब्वे की दुर्दशा की सारी खबर आप बड़े आराम से नेट पर हासिल कर सकते हैं। यहां उसका उदाहरण देने का मकसद बस इतना है कि आर्थिक आंकड़ों में तबाही का संदेश छिपा हो सकता है। इसलिए उनसे कन्नी काटने से कोई फायदा नहीं है। वैसे, अच्छी खबर यह है कि अपने यहां बिजनेस स्टैंडर्ड का हिंदी संस्करण बाज़ार में आ चुका है। जल्दी ही इकोनॉमिक टाइम्स और दैनिक जागरण/टीवी-18 के हिंदी आर्थिक अखबार भी आनेवाले हैं। लेकिन बुरी खबर यह है कि बिजनेस स्टैंडर्ड और इकोनॉमिक टाइम्स अपनी मूल अंग्रेजी खबरों का हिंदी में घटिया/अपठनीय अनुवाद ही छापनेवाले हैं, जबकि दैनिक जागरण/टीवी-18 ग्रुप से भी भरोसा नहीं है कि वह हिंदी पाठकों को उनकी बोलचाल की भाषा में अर्थ के अर्थ का ज्ञान करा पाएगा।

खैर, ना-ना मामा से काना मामा ही भला। मुद्रास्फीति से बात शुरू की थी तो एक बात और बता दूं कि इसने आज खाते-पीते मध्यवर्ग और धुर गरीबों के बीच गजब की समानता पैदा कर दी है। इस समय दोनों ही मुद्रास्फीति की दर बढ़ने से परेशान हैं। गरीब इसलिए कि इसका सबसे ज्यादा असर अनाजों के दाम पर पड़ता है, जिसके चलते उसे उतने ही सामान के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं। और खाता-पीता मध्यवर्ग इसलिए क्योंकि मुद्रास्फीति बढ़ने पर बैंक अपनी ब्याज़ दरें बढ़ा देते हैं, जिससे सीधे-सीधे उसकी ईएमआई (Equal Monthly Installment) बढ़ जाती है। इसलिए दोनों ही चाहते हैं कि सरकार किसी न किसी तरह मुद्रास्फीति पर लगाम लगाए।

Sunday, 17 February, 2008

तुम बनाओ खेमे, तुम्हें जो करनी है राजनीति

तुम बना लो खेमे, कर लो राजनीति। हमें नहीं करनी किसी भी किस्म की राजनीति। क्रांति-व्रांति कुछ नहीं करना। हमें तो सबको साथ लेकर चलना है। सबके साथ बहना है। यह सच है कि देश और समाज में किसी भी सार्थक और टिकाऊ बदलाव के लिए राजनीति एक अपरिहार्य चीज़ है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति बड़ी तात्कालिक और फौरी किस्म की, बड़ी कमीनी चीज़ होती है। सत्ता बदल जाती है। मगर, सत्ता में बैठे लोगों के चेहरे धीरे-धीरे पूर्व-सत्ताधारियों जैसे होते चले जाते हैं। वैसा ही दमन, वैसी ही जोड़तोड़। यह भले ही कोई शाश्वत सत्य न हो, लेकिन 1945 में लिखी जॉर्ज ऑरवेल की पतली-सी किताब एनीमल फार्म साठ-बासठ साल बाद आज भी बेहद प्रासंगिक लगती है।

अपने देश की बात करें तो वाममोर्चा-शासित पश्चिम बंगाल भ्रष्टाचार से लेकर हत्या और बलात्कार जैसे किसी भी जघन्य अपराध में बाकी देश से भिन्न नहीं है। केरल में साक्षरता जैसे तमाम आंकड़ों के चमकने की वजह कम्युनिस्ट शासन नहीं, बल्कि घरबार छोड़कर खाड़ी देशों में कमाई करने गए केरलवासियों की मेहनत है। आप कहेंगे कि ये तो पतित हो चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के काम हैं। फिर, पूर्वी यूरोप के देशों और पूर्व सोवियत संघ के किस्से भी आज पुराने पड़ गए हैं। लेकिन यह देखें कि आज चीन में क्या हो रहा है?

आप कहेंगे कि पूंजीवाद के पूर्ण विकास के बिना समाजवाद या साम्यवाद नहीं आ सकता। लेकिन क्या जन-मुक्ति का वहां वैसा ही उत्सवी उल्लास है जैसा क्रांति और उससे बाद के दस-बीस सालों के दौरान रहा था? बताते हैं कि माओत्से तुंग ने जब चीन में औद्योगिक विकास के लिए इस्पात उत्पादन को बुनियादी उद्योग बताया तो सारा देश लोहा गलाने में लग गया था। लोगों को कुछ नहीं मिलता था तो घर की कढ़ाही व लोहे के दूसरे बर्तन या पार्क की रेलिंग तक उखाड़कर पिघलाने चले जाते थे। वे जूते-चप्पल में धंसी कील तक संभालकर रख लेते थे कि इससे उनके सपनों के चीन का लोहा बनेगा।

लेकिन आज भोग से लेकर सत्ता संस्कृति में चीन किसी भी पश्चिमी देश से भिन्न नहीं है। वहां भी गरीबी है, बेरोजगारी है। सत्ता से दूर रहे लोगों में असुरक्षा की वैसी ही भावना है। मेरी बड़ी इच्छा है कि कभी चीन जाकर नजदीक से देखूं कि सत्ता के बदलाव ज़मीन पर कैसे और कितना असर डालते हैं। लेकिन शायद ये कभी संभव नहीं होगा। इसलिए मीडिया की रिपोर्टें ही चीन को जानने-समझने का माध्यम हैं। वैसे, बाहर बैठकर ये कह देना बड़ा आसान है कि चीन साम्यवाद की राह से भटक गया है, पतित हो गया है। लेकिन ऐसा कहनेवाले अगर खुद सत्ता में होते तो शायद उससे भी ज्यादा पतित हो गए होते। अब उनके लिए क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देश प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। देखिए आगे क्या होता है।

खैर, जो भी हो। यह उनका काम है। मुझे उनके काम और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने का कोई हक नहीं बनता। मैं अपने तईं तो यही संतोष करके बैठा हूं कि राजनीति और क्रांति से सत्ता भले ही बदल जाए, लेकिन समाज और इंसान नहीं बदलता। समाज और इंसान लंबे समय में धीरे-धीरे बदलते हैं। इंसान की सोच धीरे-धीरे बदलती है। जैसे, साइकिल तो फौरन मुड़ जाती है, लेकिन ट्रेन को मोड़ने के लिए काफी घुमावदार चक्कर काटना पड़ता है। अपनी तो स्थिति वैसी ही है कि, न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्। कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥ हमें सत्ता नहीं चाहिए। हमें तो आत्मा का इंजीनियर बनना है। अपने भाव-संसार के हर खोट को खोजना है और उसे गढ़-गढ़कर ठीक करना है। हो सकता है जो अपने लिए सही हो, वह औरों के काम भी आ जाए।

चलते-चलते एक बात और। देश और राज्य की सत्ता के लिए राजनीति करना अच्छी बात है। लेकिन दफ्तरों और मोहल्लों में छोटी-छोटी बातों के लिए राजनीति करना टुच्चई है। आम जीवन में जबरदस्ती की खेमेबंदियां करना टुच्चई है। बड़े अफसोस की बात है कि यह टुच्चई मुझे कभी-कभार हिंदी ब्लॉगिंग की इस छोटी-सी दुनिया में भी दिखाई पड़ जाती है। अटल जी के अंदाज़ में बोलूं तो ये अच्छी बात नहीं है।

Saturday, 16 February, 2008

अतृप्त आत्माओं से भरा है हमारा हिंदी समाज

हमारे हिंदी समाज में अतृप्त आत्माओं की भरमार है। हर कोई भुनभुना रहा है, जैसे कोई मंत्र जप रहा हो। कान के पास, सिर के ऊपर से सूं-सां कर गुजरती आवाज़ों का शोर है। हर किसी के अंदर एक आग धधक रही है। एक बेचैनी है। एक अजीब किस्म की प्यास है। हर किसी के गले में कुछ अटका हुआ है। इन्हें भी कुछ कहना है, उन्हें भी कुछ कहना है और मुझे भी कुछ कहना है। कुछ कहना है तो बहुत कुछ सुनना है। अनगिनत सवाल है। कुछ के जवाब होने का भरोसा है और बहुतों के जवाब हासिल करने हैं।

यह सारा कुछ हमारी हिंदी ब्लॉगिंग में झलक रहा है। यहां कोई कायदे का मुद्दा उछलते ही झौंझौं-कौंचो शुरू हो जाती है। इनके बीच कुछ भी कहकर आप मोहल्ले से तो छोड़िए, पतली गली तक से नहीं निकल सकते। महिलाओं के बारे में कुछ कह दीजिए तो चोखेर बालियां तैयार बैठी हैं और सचमुख इनकी धार बहुत चोख (अवधी में चोख का मतलब तेज़ धार होता है) है। जाति व्यवस्था पर कुछ बोल दिया तो पिनकने वाले लोग तैयार बैठे हैं। सांप्रदायिकता का मामला इन दिनों ठंडा है। नहीं तो हालत तो यही थी कि इधर मोदी के खिलाफ कुछ कहा नहीं कि उधर से हल्ला शुरू।

असल में हमारे हिंदी समाज की ऐतिहासिक बुनावट ही ऐसी है। अमर्त्य सेन ने इसे Argumentative समाज ठहराया है। यहां तर्क और बहस के साथ-साथ साहित्य, संस्कृति और दर्शन की अमिट प्यास है। लोगों को जो भी मिलता है, उसी से अपनी प्यास बुझाते हैं। जीवन के हर क्षेत्र को समेटने वाली रामचरित मानस जैसी कोई रचना सदियों से नहीं मिली तो हमारी बुजुर्ग पीढ़ी अभी तक उसी से काम चलाती है। आज की खाती-पीती, पढ़ी-लिखी पीढ़ी की बात करें तो जिस भी किताब को नोबेल या बुकर्स पुरस्कार मिलता है, वह ज्यादा दिन तक उसकी किताबों की रैक से बाहर नहीं रह पाती। इसका एक लक्षण हम इस रूप में देख सकते हैं कि पुरस्कृत होते ही उसके पाइरेटेड संस्करण नगरों-महानगरों के फुटपाथों पर 50 से 100 रुपए में मिलने लगते हैं।

हिंदी समाज में जीवन की उलझनों को समझने की तड़प है, किताबों से मदद पाने की जबरदस्त लालसा है। लेकिन मुश्किल यह है कि उसकी धड़कनों में बसी भाषा का साहित्य उसको यह सब देने में बहुत हद तक नाकाम रहा है। किताबें आती भी होंगी तो उनका प्रचार और वितरण तंत्र इतना सिमटा हुआ है कि पाठकों के बड़े समुदाय तक वो नहीं पहुंच पातीं। पाठकों तक किताबें पहुंचती ही नहीं तो उनका रिस्पांस प्रकाशक या लेखक को कहां से मिलेगा? यही वजह है कि हिंदी के लेखक-साहित्यकार मायूस हैं और प्रकाशक उनकी मायूसी का वणिक अंदाज़ में फायदा उठाते हैं।

लेकिन नई संवेदना और नए कथ्य से भरी जो भी किताबें पाठकों तक पहुंच पाती हैं, उन्हें पाठक हाथोंहाथ भी लेते हैं। इसका एक छोटा-सा उदाहरण है विनोद शुक्ल का उपन्यास – दीवार में एक खिड़की रहती थी। अगर प्रतीक रूप में बात करूं तो हिंदी ब्लॉगिंग ने दीवार में रहनेवाली इसी खिड़की को खोल दिया है। इसके खुलते ही समाज का जबरदस्त शोर दीवार के भीतर आने लगा है। साथ ही आ रही है ऐसी ताज़ा और साफ हवा जो हमारे भाव संसार की ऊंघ को तोड़ सकती है।

इस मायने में हिंदी ब्लॉगिंग की चाल-ढाल और अंदाज़ अंग्रेज़ी से बहुत अलग है। अंग्रेजी में सबसे चर्चित भारतीय ब्लॉगर अमित वर्मा का अनकट देख लीजिए। आपको अंतर समझ में आ जाएगा। अंग्रेज़ी में सूचनाओं के लिंक भर होते हैं जबकि हिंदी की हर पोस्ट में कोई न कोई तड़प करवट ले रही होती है, कोई अनकही बात शब्दों के सांचे में ढल रही होती है। वहां दो-चार लाइन में बात खत्म हो जाती है, यहां पूरा का पूरा आख्यान लिखने पर भी लगता है कि बात अधूरी रह गई।
फोटो साभार: donna di mondo

Friday, 15 February, 2008

देश के एक तिहाई नौजवान अनपढ़ हैं, दलित हैं

हम गर्व करते हैं कि भारत नौजवानों का देश है क्योंकि हमारी आबादी के 65 फीसदी हिस्से की उम्र 35 साल से कम है। लेकिन हमें शर्म नहीं आती कि इन नौजवानों का 35 फीसदी हिस्सा आज भी अशिक्षित है। यह हकीकत टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (टीआईएसएस) के ताजा अध्ययन से सामने आई है। इस अध्ययन के मुताबिक देश के एक-तिहाई नौजवान अनपढ़ हैं और दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए अभिशप्त हैं क्योंकि देश में रोज़गार के बढ़ते अवसर पढ़े-लिखे लोगों को ही मिल सकते हैं। इस अध्ययन में यह तो नहीं बताया गया है कि इन अशिक्षित नौजवानों की जाति क्या है, लेकिन हम अपने सामान्य अनुभव से जान सकते हैं कि तकरीबन ये सारे के सारे नौजवान दलित समुदाय के होंगे।

यह खबर आज अखबार में छप चुकी है। फिर भी इसे यहां इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि दलितों की दुर्दशा का प्रमाण मीडिया में खोजनेवाले प्रतिबद्ध पत्रकार आंखें उठाकर थोड़ा बाहर भी झांकें। टीआईएसएस ने देश भर के 593 ज़िलों में सर्वे किया। उसने पाया कि इनमें से 27 ज़िलों में निरक्षरता की दर 66 फीसदी है, जबकि 182 ज़िलों में यह दर 35 से 50 फीसदी है। महिलाओं में निरक्षरता की दर पुरुषों की बनिस्बत लगभग दोगुनी है और ग्रामीण इलाकों में निरक्षरता का अनुपात शहरों के मुकाबले बहुत ज्यादा है।

गांवों और शहरों के गरीब तबकों में जो नौजवान साक्षर भी हैं, उनमें से ज्यादातर सातवीं कक्षा से आगे नहीं जा पाए हैं और उच्च शिक्षा में जानेवालों की संख्या तो बहुत ही मामूली है। ऐसे में देश में 8-9 फीसदी सालाना की दर से हो रहे आर्थिक विकास का कोई लाभ इन नौजवानों को नहीं मिलनेवाला। कारण यह है कि अभी के आर्थिक विकास में आधे से ज्यादा का योगदान सेवा क्षेत्र का है जिसमें कुशल श्रमिकों को ही नौकरियां मिलती हैं। जिनकी जितनी ज्यादा पढ़ाई होती है, उनको उतनी ही बेहतर पगार मिलने की संभावना होती है।

टीआईएसएस की यह अध्ययन रिपोर्ट सरकार के सर्वशिक्षा अभियान की भी पोल खोल देती है। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गांरटी जैसे कार्यक्रमों में निहित बुनियादी कमी की ओर भी इशारा करती है। इस अध्ययन से जुड़े टीआईएसएस के एसोसिएट प्रोफेसर बिनो पॉल का कहना है कि रोज़गार गांरटी कार्यक्रम को मुफ्त शिक्षा के अभियान से जोड़ देना चाहिए, तभी हम गांवों में साक्षरता का स्तर बढ़ा सकते हैं। अंत में शुरू के आंकड़ों को थोड़ा और विस्तार से बता दूं। मीडिया एजेंसी MindShare के मुताबिक भारत की 65 फीसदी आबादी यानी 70 करोड़ से ज्यादा भारतीयों की उम्र 35 साल से कम है और करीब 50 फीसदी यानी 55 करोड़ से ज्यादा नौजवानों की उम्र 25 साल से कम है।
फोटो साभार: Twilight Fairy

विजिटर हुए 22,242 पर पाठक तो 200 ही हैं!

है तो यह विशुद्ध चिरकुटई। लेकिन जब ब्लॉगरों की बस्ती में खोली ले ही ली है तो समाज के रीति-रिवाज, चाल-ढाल से अलग कैसे रह सकता हूं? तो, जब मेरे ब्लॉग ने कल शाम 22,242 विजिटर्स और 38,591 पेज व्यूज़ का आंकड़ा छुआ तो मेरी इच्छा हुई कि मैं भी इस बारे में एक पोस्ट डाल ही दूं। ब्लॉग तो मैंने बहुतों के साथ फरवरी 2007 में ही बना लिया था, लेकिन ब्लॉगिंग का सुरूर मुझ पर जुलाई 2007 से चढ़ा। उसके बाद से अब तक के आठ महीनों में करीब बीस हज़ार विजिटर, यानी ढाई हज़ार आगंतुक हर महीने, मतलब रोज़ के औसत 80-85 ‘पाठक’। मुझे लगता है कि यह अंग्रेजी या चीनी ब्लॉगिंग के औसत दमखम के सामने डूब मरने की बात है।

डूब मरने की बात इसलिए भी है कि क्योंकि भले ही हिंदुस्तानी की डायरी के ‘पाठकों’ की संख्या 22,242 के फैंसी नंबर तक पहुंच गई है, लेकिन आप भी जानते हैं और मुझे भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इन नंबरों में गज़ब का छलावा है क्योंकि असली पाठक ज्यादा से ज्यादा 200 ही होंगे। पाठकों का वही सेट है जो बार-बार हमारे ब्लॉग पर आता है। रोज़ के वही पाठकजी, मिश्राजी, पांडेजी, दलितजी, पिछड़ेजी, बंटी-बबली और उनके मम्मी-पापा। बार-बार इनके आने से साइटमीटर का आंकड़ा सुस्त रफ्तार से ही सही, बढ़ता रहता है और इस तरह बूंद-बूंद से घड़ा भरता जाता है। लेकिन हकीकत यही है कि हर महीने अपने ब्लॉग से बमुश्किल दस पाठक ही नए जुड़ते होंगे।

इस समय हिंदी ब्लॉगों की संख्या 2000 के करीब पहुंच चुकी है। ऐसे में अगर किसी ब्लॉग पर 10 फीसदी ब्लॉगर (यानी 200 पाठक) भी नियमित नहीं आते तो उस ब्लॉगर को अपने लेखन पर गहराई से विचार करना होगा। मान लीजिए हमने ब्लॉग को उत्पाद/सेवा मानकर उसकी मार्केटिंग रणनीति भी तैयार कर ली और दोस्तों को कहने से लेकर टैग से सर्जइंजन को खींचने की हर तिकड़म भिड़ा ली, तब भी क्या फायदा? ब्लॉग कोई फ्रिज, टेलिविजन या एसी जैसा उत्पाद तो है नहीं कि एक बार खरीद लिया तो ग्राहक कई सालों के लिए फंस गया। ये तो चाट/चाय की दुकान या अखबार की तरह है, जहां ग्राहक हर दिन आए, तभी कोई फायदा है। क्या अफीम की कोई ऐसी पुड़िया है जो पाठक को बार-बार हमारे ब्लॉग पर आने को मजबूर कर सकती है?

अंत में एक अनसुलझा सवाल। कल दिन में बातचीत के दौरान पत्नी ने बड़ा सहज और सामान्य-सा सवाल उठाया, जिसका ब्लॉगर्स से संबंध है भी और नहीं भी है। सवाल यह था कि लोगों में अटेंशन पाने की इतनी अकुलाहट क्यों रहती है? लोगबाग एप्रिसिएशन के इतने भूखे क्यों रहते हैं? मैंने यहां-वहां से लमतड़ानी झाड़ने की कोशिश की कि इंसान सामाजिक प्राणी है। कुनबे से लेकर कबीले तक कितने लोग उसे जानते-मानते हैं, इसी से उसकी शख्सियत बनती है। सदियों का वही सिलसिला आज आदमी को अटेंशन पाने की अकुलाहट तक ले गया है। वैसे भी बाज़ार के मौजूदा जमाने में ज्यादा से ज्यादा स्वीकृति वाली चीज़ ही चलती है। तो, अटेंशन या एप्रिसिएशन आज के दौर में अंतर्निहित बुनियादी सोच है। लेकिन इस जवाब से न तो मेरी पत्नी संतुष्ट हुईं और न ही मैं।

(नोट: ये पोस्ट बुधवार को रात लिखी थी, लेकिन वायरस अटैक में कंप्यूटर बैठ गया। कल गुरुवार को रात में कंप्यूटर को रीफॉर्मैट कराया गया। उसी के बाद आज सुबह इसे मामूली फेरबदल के साथ पेश कर रहा हूं)

Wednesday, 13 February, 2008

जब वह अन-रीचेबल हो गया अतल सागर में

हरहराते सागर के किनारे इन्हीं ऊंची-नीची चट्टानों में से किसी एक पर दोनों पैर जमाकर उसने एक दिन सागर को ललकारा था, “आओ समंदर। अपनी पूरी ताकत से, पूरे दमखम से आओ। अपनी सबसे वेगवान लहरों के साथ आओ। आओ मेरे घर आओ। मैं दोनों बांहें फैलाए सीना खोलकर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। हिम्मत है तो पराजित करो मुझे। स्वीकार करो मेरा आतिथ्य।” आप हंस सकते हैं, लेकिन किशोर अंदर से ऐसा ही था। भावुक और जिद्दी। हालात ने शुरू से ही उसका साथ नहीं दिया। लेकिन हालात से लड़ने का जबरदस्त माद्दा था उसमें।

प्राची मिली तो लगा कि हर तरफ खुशबूदार फूलों के असंख्य पराग-कण बिखर गए हैं। लेकिन इस मिलन के बाद राह आसान होने के बजाय और कठिन होती गई। उस दिन जब उसने समुद्र को ललकारा था तब प्राची उसकी उठी हुई फैली बांहों को कंधे से पकड़कर ठीक पीछे खड़ी थी। इससे पहले प्राची ने अपनी और अपने घर-परिवार की दिक्कतें उसे सुनाई थीं। रिश्ते में आनेवाली बड़ी-बड़ी मुश्किलों का जिक्र किया था। असल में उस दिन किशोर ने सागर के बहाने इन्हीं मुश्किलों को ललकारा था।

लेकिन उसे क्या पता था कि समंदर उसकी बात को इस कदर दिल पर ले लेगा। ये अलग बात है कि उसने हमेशा अपने को बाली और सागर को प्रतिद्वंद्वी के रूप में ही देखा। उसे लगता था कि सागर से वह जितना ज्यादा मोर्चा लेगा, सागर की उतनी ही ज्यादा ताकत उसके अंदर आती जाएगी। लेकिन सागर तो सुग्रीव से भी बदतर निकला। जब वो प्राची के साथ दुनिया-जहान से बहुत ऊपर उठकर कहीं बादलों के बीच प्यार के पर्वतों पर कुलांचे भर रहा था, जब उसके शरीर के रोम-रोम से पीले, नारंगी, सुनहरे, नीले और हरे रंग के पराग कण निकल रहे थे, तभी सागर ने अपनी लहरें फैलाकर अनजाने में उस पर पीठ-पीछे वार कर दिया। किशोर के साथ उसकी माशूका प्राची का भी वध कर दिया। किशोर आज जिंदा होता तो ज़रूर कहता, “सागर, तुम से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। यह तो नीचता की हद है।”

दोस्त बताते हैं कि किशोर ने कभी भी समुद्र को समुद्र नहीं समझा। उसे प्राकृतिक संरचना के रूप में नहीं, बल्कि हमेशा किसी न किसी मानवीकृत प्रतीक के रूप में ही देखा। बचपन से ही समुद्र किनारे रहने के बावजूद कभी समुद्र में तैरना सीखने की जरूरत नहीं समझी। नहीं समझा कि हर 12 घंटे पर बदलनेवाला समुद्र का मिजाज कितना खतरनाक होता है। नहीं जाना कि ज्वार-भाटा के दौरान समुद्र के किनारे की ये चट्टानें कितनी जानलेवा हो जाती हैं। जबकि उसी दिन जब वो प्राची के साथ समुद्र के किनारे जा रहा था, तब संतोष ने उसे समझाया था कि वह ज़रा सावधान रहे क्योंकि ‘टाइड के टाइम पर ये रॉक्स बहुत डैंजर’ हो जाती हैं। संतोष ने उसे अपना दो साल पुराना अनुभव भी बताया था, जब वह अपनी दोस्त के साथ वहां से किसी तरह सही-सलामत निकल पाया था।

उस दिन किशोर की सलामती की फिक्र उसके सभी दोस्तों को थी। रविवार को सुबह दस बजे प्राची के साथ घर से निकला किशोर जब दो बजे तक बस्ती में नहीं लौटा तो वे परेशान हो गए। घर पर पूछा तो वहां से भी कोई खबर नहीं मिली। उन्होंने बार-बार किशोर के मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उधर से हमेशा ‘अन-रीचेबल’ का जवाब मिलता। तभी किसी ने बताया कि टीवी पर किशोर की तस्वीर दिखाई जा रही है और वह समुद्र में डूबकर मर चुका है। प्राची की लाश भी समुद्र से निकाली जा चुकी है। हर तरफ मातम छा गया। दोस्तों को लगा कि मोबाइल सही ही कह रहा था, किशोर अब अन-रीचेबल हो गया है।

किशोर और प्राची के शव देर शाम तक बस्ती में ले आए गए। अगले ही दिन दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। लेकिन पुलिस को न तो किशोर के मोबाइल को ढूंढ निकालने में कोई दिलचस्पी थी और न ही उसने इसकी कोई कोशिश की। क्या जाने किशोर जब अपनी सांसें बचाने के लिए लहरों से लड़ रहा होगा, तभी उसका मोबाइल उसकी जेब से खिसक लिया होगा। समुद्र का पानी फिर उसे रुई के फाहे की तरह सोखता गया, खींचता ही गया। और फिर कहीं सागर की अतल गहराइयों में बसी काइयों में पहुंचकर वह गुम हो गया, अन-रीचेबल हो गया।

बहुत से प्रेमी-प्रेमिका जब साथ-साथ जी नहीं पाते तो साथ-साथ मरने की ख्वाहिश पाल लेते हैं। लेकिन किशोर और प्राची ने ज़िंदगी की ही ख्वाहिश पाली थी, मौत की नहीं। आखिर अभी उनकी उम्र ही क्या थी? किशोर बीस साल का था तो प्राची सत्ररह की। इधर हालात भी काफी सुधर चुके थे। शुरुआती विरोध के बाद प्राची के मां-बाप ने अब उनका रिश्ता मंजूर कर लिया था। किशोर के अपने घर में विरोध होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। पिता बचपन में ही गुजर गए थे। मां तो पूरी तरह गऊ है। भाई बस एक साल बड़ा है। वो तो यार है, वो क्या बोलता? फिर छह महीने पहले जब से बड़े भाई की तरह वह भी काम पर लग गया, 12000 रुपए की पगार पर नौकरी करने लगा तो घर में उसकी बात और ज्यादा मानी जाने लगी। वैसे, पहले भी उसकी बात मानी जाती थी क्योंकि पिता की मौत के बाद उसने घर संभालने में बड़े भाई का पूरा साथ दिया था।

प्राची भी ज़िंदगी और जुझारूपन से लबालब भरी लड़की थी। घर की कमज़ोर हालत के बावजूद पढ़ते-पढ़ते बारहवीं तक पहुंच चुकी थी। औरों का ख्याल रखना जानती थी और अपना भी ख्याल रखना उसे आता था। शायद यही वजह थी कि अपने से साल भर बड़ी बहन स्नेहल से भी वह देखने में बड़ी लगने लगी थी। वह स्नेहल से हमेशा इस बात को लेकर लड़ती कि, “वह छोटी है तो क्या हुआ! क्या उसे हमेशा बडी़ बहन के कपड़ों और किताबों से काम चलाना पड़ेगा?” आज स्नेहल उसे पुकारती हुई कहती है – ले ले प्राची, मेरे सारे नए कपड़े, मेरी सारी नई चीजें तू ले ले। मैं तेरी झूठन भी खा लूंगी। बस तू लौटकर आ जा।

स्नेहल को मालूम है कि प्राची अब कभी लौटकर नहीं आएगी। किशोर के बड़े भाई विनोद को भी पता है कि उसका टूटा कंधा अब कभी साथ देने नहीं आएगा। लेकिन वह किशोर पर गुस्सा करता है। कहता है, “चला था बड़ों की तरह वैलेंटाइन डे मनाने। अरे 14 फरवरी को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिली तो कोई ज़रूरी था कि चार दिन पहले रविवार को ही उसे मना डालते। ज़िंदगी भर साथ चलना था। एक दिन साथ नहीं चलते तो क्या घट जाता?” मैं विनोद के दर्द को समझता हूं, लेकिन उसकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता। किशोर आज के ज़माने का नौजवान था। अगर आज की हर लहर ने उसे अपने आगोश में ले लिया था तो इसमें उसका क्या कसूर?

हां, अफसोस बस एक बात का है कि बीस साल के किशोर को अभी बहुत-से रिश्ते निभाने थे, बहुत-से काम करने थे। … चलिए वो नहीं तो कोई और सही। दुनिया में कोई काम किसी के बगैर कहीं रुकता है क्या?
तस्वीर साभार: Soller Photo

Monday, 11 February, 2008

नास्तिक निराला तक सरस्वती के आराधक थे

हर बसंत पंचमी को निराला और इलाहाबाद बहुत याद आते हैं। बसंत पंचमी का मतलब इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही समझा क्योंकि महाप्राण निराला का जन्मदिन हम लोग पूरे ढोल-मृदंग के साथ इसी दिन मनाते थे। हिंदुस्तानी एकेडमी या कहीं और शहर के तमाम स्थापित साहित्यकारों और नए साहित्य प्रेमियों का जमावड़ा लगता था। निराला की कविताएं बाकायदा गाई जाती थीं। नास्तिक होते हुए भी हम वीणा-वादिनी से वर मांगते थे और अंदर ही अंदर भाव-विभोर हो जाते थे।

सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझते थे कि जो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला संगम से मछलियां पकड़कर लाने के बाद दारागंज में हनुमान मंदिर की ड्योढी़ पर मछलियों का मुंह खोलकर भगवान और पंडितों को चिढ़ाते थे, वो मां सरस्वती की वंदना कैसे लिख सकते हैं। बाद में समझ में आया कि सरस्वती तो बस सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। जिस बसंत में पाकिस्तान में जबरदस्त उत्सव मनाया जाता है, उस बसंत की पंचमी का रंग भगवा नहीं हो सकता। यह सभी के लिए बासंती रंग में रंग जाने का उत्सव है, सृजन के अवरुद्ध द्वारों को खोलने का अवसर है।

इस अवसर पर अगर निराला की कविता का पाठ नहीं किया तो बहुत अधूरापन लगेगा। इसलिए चलिए कहते हैं काट अंध उर के बंधन स्तर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर...

वर दे वीणा-वादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।

काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
वर दे वीणा-वादिनी वर दे...

नव गति नव लय ताल-छंद नव
नवल कंठ नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर नव स्वर दे।
वर दे वीणा-वादिनी वर दे...

जाति-जाति का जाप और आरक्षण पर गिरी गाज

हम दिखावे में इतने उलझे हैं कि पूरी बुद्धि और विवेक पर परदा पड़ गया है। नहीं तो क्या वजह है कि जब हम दलित, मीडिया, महिला, आरक्षण की बहस में उलझे थे, उसी वक्त सरकार ने आरक्षण से संरक्षित करोड़ों नौकरियों पर गाज गिराने का खतरनाक फैसला कर लिया और हमने चूं तक नहीं की। या, इसका मतलब यह भी हो सकता है कि देश के हर क्षेत्र में बड़ी व विदेशी पूंजी की राह आसान करने के सरकारी मंसूबे को हम तहेदिल से मुनासिब समझते हैं। कुछ भी हो सकता है। वैसे भी आपकी कथनी या लेखनी नहीं, आपकी करनी ही आपके असली चरित्र का फैसला करती है।

आरक्षण के मसले का सीधा वास्ता नौकरियों से है। शिक्षा में आरक्षण भी इसीलिए चाहिए ताकि कल समाज के वंचित तबकों को सम्मानजनक नौकरियां मिल सकें। सरकारी ही नहीं, संगठित निजी क्षेत्र को भी इस सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने से बिदकना नहीं चाहिए। लेकिन सरकारी और संगठित निजी क्षेत्र में हैं ही कितनी नौकरियां? सरकार में 30-35 लाख और निजी कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा 25 लाख। कुल मिलाकर लगभग 60 लाख। लेकिन जो लघु उद्योग क्षेत्र इससे पांच से आठ गुना लोगों (3 से 5 करोड़) को रोज़गार देता है, उससे हमारी सरकार ने आरक्षण की सुविधा तकरीबन पूरी तरह छीन ली। उसे बड़ी व विदेशी पूंजी से मुकाबला करने के लिए रिंग में धकेल दिया। मगर अफसोस, हममें से तमाम जागरूक लोग इसे देखने के बजाय अपनी ही बहस में उलझे हुए हैं।

केंद्र सरकार ने तीन दिन पहले ही (शुक्रवार 8 फरवरी 2008) लघु उद्योग क्षेत्र के लिए आरक्षित सूची में से 79 आइटम और हटा लिए। जिस लघु उद्योग की आरक्षण सूची में कभी 873 आइटम हुआ करते थे, उसमें अब केवल 35 रह गए हैं। देश का सबसे बड़ा अंग्रेजी अखबार इसे लाइसेंस-परमिट राज के खात्मे के बचे-खुचे कदमों में शुमार कर रहा है और कह रहा है कि सरकार ने इससे ‘79 और आइटमों पर लघु उद्योग की मोनोपोली’ खत्म कर दी है। जबकि देश ही नहीं, विश्व के सबसे बड़े आर्थिक अखबार ने इस खबर को लेने तक की ज़रूरत नहीं समझी।

वैसे, केंद्र सरकार ने लघु उद्योगों से आरक्षण को हटाने का कदम बड़ा फूंक-फूंक उठाया है। 1984 में कुल आरक्षित आइटम 873 थे। 1991 में नरसिंह राव सरकार ने लघु उद्योग के आरक्षण में सेंध लगाने का फैसला कर लिया। लेकिन उसे डर था कि कहीं मंडल की तरह इस पर भी बवाल न मच जाए क्योंकि यह क्षेत्र खेती के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोज़गार देता है और यहां नौकरी करनेवालों में ज्यादातर पिछड़े और दलित समुदाय के ही लोग हैं। 1997 तक वह डरते-डरते लघु उद्योग के लिए आरक्षित आइटमों की सूची को 800 तक ले आई। लेकिन जब कहीं से विरोध की कोई सुगबुगाहट नहीं हुई तो साल 2002 से इस सूची को काटने का सिलसिला तेज़ हो गया। चंद सालों में ही 686 आइटम हटा दिए गए। हफ्ते भर पहले तक इस सूची में 114 आइटम बचे थे। लेकिन शुक्रवार के फैसले के बाद अब केवल 35 उत्पाद ही ऐसे हैं, जिन्हें बनाने में लघु इकाइयों को विदेशी और बड़ी पूंजी से सीधी टक्कर नहीं लेनी पड़ेगी।

सरकार इस आरक्षण को खत्म करने के लिए बड़े लोकप्रिय तर्क देती रही है। कहा गया कि देश में लघु उद्योग के उत्पादन का 60 फीसदी हिस्सा 800 आइटमों की आरक्षित सूची में से केवल 80 उत्पादों से आता है, इसलिए इतनी लंबी-चौड़ी सूची की ज़रूरत नहीं है। फिर 25 लाख, एक करोड़ और पांच करोड़ रुपए की मौजूदा निवेश सीमा में अति लघु और आधुनिक लघु इकाइयां भी उन्नत संयंत्र, मशीनरी और तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पातीं।

तथ्य यह है कि आज की तारीख में भी देश के औद्योगिक उत्पादन का 40 फीसदी और हमारे निर्यात का 45 फीसदी हिस्सा लघु औद्योगिक इकाइयों से ही आता है। लघु उद्योग क्षेत्र में एक लाख रुपए का निवेश 4 लोगों को स्थाई नौकरी देता है। क्या बड़ी व विदेशी पूंजी इसी अनुपात में लोगों को रोज़गार दे पाएगी? रही बात तकनीक की तो सरकार ने ताज़ा फैसले में जिन आइटमों में आरक्षण खत्म किया है, उनमें स्टेशनरी और बिजली के सामान्य उपकरण शामिल हैं। इससे पहले भी सरकार ने तकनीक के नाम पर आइसक्रीम, जूते-चप्पल, साबुन और कपड़ों जैसे आइटमों को आरक्षण सूची से बाहर निकाला है। आप ही बताइए, इन चीज़ों को बनाने में कौन-सी उन्नत तकनीक की ज़रूरत है जो हमें विदेशी कंपनियों से लेनी पडे़गी।

आपको बता दूं कि लघु उद्योग क्षेत्र में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की कोई सीमा नहीं है। बस इसके एवज में उन पर कुछ सालों तक निर्यात करने की शर्त लगाई जाती है। लेकिन उनके लिए यह शर्त बेहद माफिक पड़ती है क्योंकि भारत में सस्ते श्रम और लागत की बदौलत उनका माल विदेशों में दूसरे माल को मात दे देता है। अंत में बस एक सवाल। क्या आपको नहीं लगता कि अगर हमने जातिगत आरक्षण की तरह ही करोड़ों नौकरियों से जुड़े आरक्षण के इस मसले पर हल्ला मचाया होता तो सरकार की हिम्मत आज लघु उद्योग की छोटी मछलियों को इस तरह आसानी से शार्कों के हवाले कर देने की होती?

Saturday, 9 February, 2008

एक अड़ियल जिद्दी लहर ने बरपाया ठंड का कहर

मुंबई से लेकर दिल्ली और कोलकाता तक कंपकंपी मची हुई है। ठंड के नए-नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। कल तो शर्ट और चद्दर में बिंदास जीनेवाली मुंबई ने दिल्ली को भी मात दे दी। आप कहेंगे, सब ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीजा है। लेकिन असली वजह जानेंगे तो आप भी मेरी तरह ठिठुर जाएंगे। असल में पूरे उत्तर भारत से लेकर चीन तक छाई इस ठंड की वजह है वायुमंडल में बनी उच्च दाब की एक सीधी अड़ियल चोटी (Ridge) जो 21 जनवरी को पश्चिम से आनेवाली हवाओं के रास्ते में खड़ी हो गई तो फिर अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई। हवाओं को इस जिद्दी चोटी के ऊपर जाकर फिर नीचे उतरना पड़ा और वे अपने साथ बर्फीली ठंडक लेकर भारत के मैदानों में सरपट दौड़ रही हैं।

यह सारा कुछ हुआ मध्य एशिया के ऊपर वायुमंडल में। 21 जनवरी को उत्तर में 25 से 45 डिग्री अक्षांश तक एक सीधी Ridge बन गई। ये लगभग दो हफ्ते तक अपनी जगह पर अड़ी रही। वैसे उत्तर में 30 से 50 डिग्री अक्षांश तक उच्च दबाव के शिखर (Ridges) और खाईं (Troughs) का बनना आम बात है। इनमें बीच एक होड़-सी चलती है और दोनों एक दूसरे को रास्ता छोड़ने पर मजबूर कर देती हैं। कुछ दिनों के अंतराल पर इनकी हार-जीत का पैटर्न बदलता रहता है। इसी से भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और चीन में मौसम सामान्य रहता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।

तस्वीर से आप देख सकते हैं कि अड़ियल ऊर्ध्व चोटी जब कई दिनों तक रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं हुई तो पश्चिम से आनेवाली हवाओं को इसे पार करने के लिए उत्तर में 47 डिग्री अक्षांश तक चढ़ना पड़ा और वो जा पहुंचीं पूर्व सोवियत संघ के बर्फीले ठंड वाले वायुमंडल में। ऊपर से जब वे नीचे उतरीं तो उनका साबका पड़ गया बर्फ से घिरी हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं से। इतनी सारी ठंडक अपने भीतर समेट कर तब जाकर वो पहुंची हैं भारत के मैदानी इलाकों में। ज़ाहिर है कि ऊंचे दबाव की यह जिद्दी लहर बीच में न आती तो अपेक्षाकृत गरम देशों अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आ रही हवाएं सीधे भारत पहुंचतीं और हम इस समय ठंड में यूं कड़कड़ाने के बजाय बासंती लुफ्त (जर्मन भाषा में हवा को Luft कहते हैं) का लुत्फ ले रहे होते।

अगर पश्चिम से आनेवाली ये हवाएं इतनी ठंडी नहीं होतीं तो वो अपने साथ अरब सागर से नमी भी समेट कर लातीं और इस तरह नमी से भरी गरम हवाएं पूरे उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत में कोहने की घनी चादर तान देतीं। लेकिन इस बार क्योंकि ये हवाएं ठंडी और शुष्क हैं, इसलिए इस जाड़े में न तो ज्यादा कोहरा नज़र आया है और न ही ठंड वाली बारिश। इस बार हालत ये है कि दिल्ली में तापमान 6.4 डिग्री सेल्सियस तक जा चुका है। कल थोड़ा सुधर कर यह 9.4 डिग्री तक पहुंचा तो मुंबई में पारा 8.5 डिग्री सेल्सियस तक गिर गया जो 27 जनवरी 1962 के 7.4 डिग्री सेल्सियस के बाद अब तक के 46 सालों का न्यूनतम स्तर है। ठंड की बारिश का हाल ये है कि हरियाणा में इस बार औसत से 84 फीसदी, उत्तराखंड में 70 फीसदी, पूर्वी राजस्थान में 100 फीसदी और पश्चिमी मध्य प्रदेश में 96 फीसदी कम बारिश हुई है।

शुक्र की बात यह है कि मौसम विभाग के मुताबिक पश्चिमी विक्षोभ से उच्च दबाव की उस अडियल लहर की जिद 2 फरवरी को टूट चुकी है। इस समय अफगानिस्तान के ऊपर निम्न दबाव का क्षेत्र बना हुआ है जिससे गरम इलाकों से हवाएं आने लगी हैं। इसी के चलते जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी इलाकों में भारी बर्फबारी हुई है। साथ ही पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम इलाकों में छिटपुट बारिश भी हुई है। मौसम विभाग के मुताबिक अगले कुछ दिनों तक सुबह का कोहरा नज़र आएगा। ठंडी हवाएं जारी रहेंगी, लेकिन सूरज खुलकर चमकेगा और धीरे-धीरे अडियल लहर की जिद का असर कम होता जाएगा।

- खबर का स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस

Thursday, 7 February, 2008

बड़ा तो हो गया, पर अंदर से अभी कच्चा हूं

मित्रों, हम सभी को आगे बढ़ते जाने के लिए आश्वस्ति ज़रूरी होती है। मैं भी इससे भिन्न नहीं हूं। यही आश्वस्ति पाने के लिए कल की पोस्ट मैंने लिख डाली। और, आप लोगों ने जिस तरह टिप्पणियां बरसाई हैं, उससे मेरा मन साल भर के लिए लबालब भर गया। अब तो साल भर कोई एक भी टिप्पणी नहीं करेगा तब भी मैं मगन होकर लिखता रहूंगा। मेरे एकालाप को संवाद में बदलने के लिए आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया। आपने दिखा दिया कि सौ-दो सौ पाठकों में से कम से कम तीस-पैंतीस लोग हैं जिनकी निगहबानी मुझ पर है। बस, इतना बहुत है मेरी आश्वस्ति के लिए।

बचपन में अक्सर होता था कि पैदल मेला जाते वक्त या कस्बे से गांव के पांच कोस के सफर मे अपनी खिलंदड़ी में भागता-कूदता चलता चला जाता था। घंटे-आध घंटे में सुनाई पड़ता था कि कोई पीछे से बुला रहा है। बुलानेवाले कभी मां-बाप होते थे तो कभी बड़े भाई-बहन या मुझसे बहुत प्यार करनेवाली बुआ। कभी-कभी यह भी होता था कि अपनी धुन में इतना आगे निकल आता था कि पीछे मुड़ने पर कोई दिखाई नहीं देता था। गांव तक के रास्ते में बीच में करीब दो किलोमीटर का ढाक का जंगल पड़ता था और ढाक के पेड़ों में तो आप गुम हो गए तो भटकते रहिए। केवल आवाज़ सुनाई पड़ती थी और जब कोई एकदम पास जाता था, तभी दिखता था। छोटा था तो सियार से लेकर भूत-प्रेत तक का डर सताता था। और, ढाक के जंगल में अकेला पड़ने पर डर के मारे मेरी रूह कांप जाती थी।

आज बडा़ हो गया हूं, बल्कि काफी बड़ा हो गया हूं। चार-पांच साल में बेटियां शादी करने लायक हो जाएंगी। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी आठ-दस साल का वो छोटा बच्चा अंदर से गायब नहीं हो पाया है। इसीलिए आज भी अपनी रौ में बहता हुआ बिना साथ वालों की परवाह किए हुए खिलंदड़ी कर बैठता हूं। मन में आ गया तो बिना कुछ सोचे-समझे नौकरी छोड़ देता हूं। ये अलग बात है कि ऊपरवाले की मेहरबानी से फौरन नई नौकरी मिल भी जाती है। वरना, आज की मारामारी में नौकरी मिलना कितना मुश्किल है, आप जानते ही हैं।

तो... अपनी रौ में बहते-बहते जब एक अरसा हो जाता है तो अचानक अकेले हो जाने का वही बचपन वाला डर सताने लगता है। पीछे मुड़कर देखता हूं तो दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता। ठीक ऐसे ही मौके पर एक आश्वस्ति की ज़रूरत होती है कि कोई कहे कि तुम अकेले नहीं हो बंधु। देखो, कितनों ने तुम पर नज़र रखी हुई है। साल भर से अपनी रौ में डूबकर ब्लॉग पर लिखता जा रहा था। कचरा-अधकचरा जो भी मन में आया लिख दिया। लेकिन साल भर बीतने के बाद लगा कि देखूं – जो मुझे पढ़ते हैं, उनसे मेरा कितना तादात्म्य बन पाया है। और, आप सभी ने दिखा दिया कि अंधेरे में चलाए गए तीर जाकर शून्य में नहीं विलीन हो रहे हैं। कुछ लोग हैं जो उन्हें पढ़ते हैं और गुनते हैं।

मैं असल में यही चाहता हूं कि अपनी सोच के ज़रिए आपकी सोच को भी उद्वेलित कर दूं। कंकड़ मारकर अपनी और आपके अंदर-बाहर की दुनिया में हलचल पैदा कर दूं। फिर हम सभी मिलकर अपने वर्तमान को समझें, अतीत को आत्मसात करें और भविष्य का तर्कसंगत खाका बुनें। दुख से मुक्ति संभव नहीं है, लेकिन दुख के कारणों को लेकर हम भ्रम में न रहें। और, ईमानदारी से कहता हूं कि मेरे पास कोई बनी-बनाई दृष्टि नहीं है। मैं तो आप सभी के संपर्क और संघर्षण से वह सम्यक दृष्टि पाना चाहता हूं। मेरे लिए लिखना सिर्फ भावी कमाई का ज़रिया नहीं है, वह सच तक पहुंचने की एक निरंतर साधना भी है। इसलिए उसमें सामयिक व्यवधान आ सकते हैं, लेकिन मैं उसे छोड़ नहीं सकता। हमारी सरकार अगर पश्चिमी देशों की तरह बूढ़ों के ससम्मान जीवनयापन की गारंटी कर देती, तब तो मुझे ब्लॉग से कमाई की बात सोचने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।

एक बात और स्पष्ट कर दूं। मुझे अच्छी तरह पता है कि हिंदी के पाठक अचानक कहीं आसमान से नहीं टपक पड़ेंगे। हम जो हिंदी के 1500-2000 ब्लॉगर हैं, फिलहाल उनसे हज़ार-दो हज़ार ज्यादा ही हिंदी के संवेदनशील व चिंतनशील पाठक होंगे। हिंदी में ऐसे पाठकों की संख्या लहरों की तरह बढ़ेगी। ऐसा नहीं है कि वे पहले से करोड़ों की तादाद में कहीं बैठे हैं और इंटरनेट के दायरे में आते ही ब्लॉग पर टूट पड़ेंगे। सच यही है कि हम ही लेखक है, हम ही पाठक हैं, हम ही हरकारे हैं और हम ही श्रोता है। हम ही नए पाठकों के सृजक और उन्हें खींचकर लाने का ज़रिया भी बनेंगे। कल तो मैंने यूं ही छेड़ने के लिए लिख दिया था कि, “तब तक शायद इंतज़ार करना ही बेहतर है जब तक हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया ब्लॉगर्स के दायरे से निकलकर असली पाठकों तक नहीं पहुंच जाती। तो आप लोग फसल तैयार कीजिए। जब पककर तैयार हो जाएगी तो इत्तला कर दीजिएगा।”

Wednesday, 6 February, 2008

टिप्पणियां नहीं मिलतीं तो मन मायूस हो जाता है

साल भर पहले ब्लॉग बनाया था तो यही सोचा था कि बरसों से दबे हुए सारे उदगार निकाल डालूंगा। अनलिखी कहानियां और उपन्यास अब मेरी इस चलती-फिरती डायरी में दर्ज हो जाएंगे। डायरी सार्वजनिक है तो क्या? जिसको पढ़ना है, पढ़ लेगा। नहीं पढ़े तो अच्छा ही है। मुझ पर क्या फर्क पड़ेगा? अपना एकांतिक लेखन चलता रहेगा। साल-दो साल में जब रचनाएं सज-संवर तक पूरी तरह तैयार हो जाएंगी, तब किसी प्रकाशक के पास जाऊंगा और रचनाओं में क्योंकि नायाब अनुभव होंगे, इसलिए शायद ही कोई प्रकाशक इन्हें छापने से इनकार करेगा। अगर, हिंदी प्रकाशकों ने इनकार भी कर दिया तो अंग्रेज़ी प्रकाशक तो हैं ही, जिनके लिए अपनी किताबों का अंग्रेज़ी अनुवाद खुद कर दूंगा या किसी से पैसे देकर करवा लूंगा।

लेकिन साल भर होने पर पूरा नज़रिया ही बदल गया है। अनलिखी कहानियों और उपन्यास के नोट्स अब भी पुरानी डायरियों में जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। अब तो मन में चलते-फिरते, आते-जाते जो स्फुट विचार आते हैं, उन्हें ही सूत्रबद्ध करने की उतावली लगी रहती है। कभी अपने हिसाब से कोई अच्छा विश्लेषण लिख दिया या जानकारी दे दी और उस पर खुदा न खास्ता कई घंटों बाद भी कोई टिप्पणी नहीं आई तो दिल बैठने लगता है। लिखने का दूरगामी नज़रिया एकदम अल्पकालिक हो चुका है। निष्काम भाव से लिखने की मूल मंशा अब तत्काल फल चाहने लगी है। इधर लिखा, उधर टिप्पणी आई तो मोगाम्बो खुश, नहीं तो देवदास जैसी निराशा बाहर से लेकर भीतर तक छा जाती है।

जो ब्लॉगर टिप्पणियां बटोर ले जाते हैं, उनसे यकीन मानिए, बड़ी जलन होती है। सोचने लगता हूं कि हम कोई एकालाप तो करते नहीं, न ही फालतू बातें लिखते हैं, फिर भी ज्यादा लोग संवाद करने क्यों नहीं आते। कुछ ब्लॉगरों की तरह बहुत दुरूह बातें भी नहीं लिखता जो सभी के सिर के ऊपर से गुजरती हों। मैं तो वही बातें लिखने की कोशिश करता हूं जो किसी के भी रोजमर्रा के सोच-विचार का हिस्सा होती हैं। फिर भी बात नहीं हो पाती तो इसका मतलब यही निकाला जाए कि अभी तक मैं हिंदी समाज के सक्रिय व संवेदनशील तबके की मुख्यधारा से एकाकार नहीं हो पाया हूं। या कहीं ऐसा तो नहीं कि मुख्यधारा खाली ऊपर की झागधारा हो और अंतर्धारा कहीं नीचे बह रही हो, जो मनमाफिक छवियों की झलक पाकर ही ऊपर सिर निकालेगी।

जो भी हो, समझ नहीं पाता कि ब्लॉग शुरू करके मैं किस झंझट में पड़ गया हूं। लिखूं तो किसके लिए लिखूं और क्यों लिखूं? सर्च-इंजन से तो मेरे ब्लॉग पर वैसे लोग आते नहीं, जैसे जीतू भाई के पन्ने पर आते हैं। अभी तक जितने भी पाठक हैं, सभी एग्रीगेटर से आते हैं और इनमें से 98 फीसदी खुद ब्लॉगर हैं। तो क्या फिलहाल जब तक असली पाठक नहीं आते, तब तक मैं केवल ब्लॉगर्स के लिए ही लिखूं। लेकिन इससे क्या फायदा? या ऐसा करूं कि जैसा माहौल चल रहा हो, उसी पर लिखूं। महिला, दलित, मोदी, ब्राह्मण बहुत से मसले आते-गिरते रहते हैं। या, ऐसा भी कर सकता हूं कि हेडिंग कुछ सनसनीखेज़ लगाऊं, जबकि अंदर कोई और माल पेश करूं।

समझ में नहीं आ रहा कि क्या लिखूं, किसके लिए लिखूं? या लिखूं भी कि ब्लॉग पर लिखना ही बंद कर दूं। आखिर इस अल्पजीवी लेखन की कोई सार्थकता भी है क्या? इस सक्रियता का कोई मतलब भी है क्या? साल भर में 323 पोस्ट लिख मारी तो मिल क्या गया? मेहनत तो लगती ही है। लेकिन इस मेहनत से दो-चार साल तक कोई कमाई तो होनी नहीं है। बाद में कमाई हो जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। फिर क्यों लिखा जाए? ब्लॉगरों के लिए ही लिखना है तो क्या फायदा। वे तो खुद ही बहुत समझदार हैं। उन पर अपनी बात थोपकर मैं उनका अनावश्यक बोझ क्यों बढ़ाऊं?

अपनी उलझनें पहले मैं सुलझा लूं, तब उनके पास जाऊं तो हो सकता है कि कोई फायदा निकले। इसलिए तब तक शायद इंतज़ार करना ही बेहतर है जब तक हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया ब्लॉगर्स के दायरे से निकलकर असली पाठकों तक नहीं पहुंच जाती। तो आप लोग फसल तैयार कीजिए। जब पककर तैयार हो जाएगी तो इत्तला कर दीजिएगा। हम फौरन हाज़िर हो जाएंगे। इसी पॉजिटिव नोट के साथ विदा लेता हूं। नमस्कार...

Tuesday, 5 February, 2008

लालू ने यात्रियों से 1000 करोड़ नाजायज़ वसूले

लालू प्रसाद यादव अगर रेलमंत्री हैं तो रेल महकमे की सारी चालबाजियों की जवाबदेही उन्हीं की बनती है। क्या वे बताएंगे कि जिस संरक्षा सरचार्ज को 31 मार्च 2007 को खत्म हो जाना चाहिए, वह अभी तक रेल यात्रियों से क्यों वसूला जा रहा है? वह भी अनजाने में नहीं, बल्कि जानबूझकर क्योंकि संरक्षा सरचार्ज के नाम से कानूनन इसे वसूलना संभव नहीं था तो इसका नाम समर्पित माल कोरिडोर प्रोजेक्ट का विकास शुल्क कर दिया गया है। रेलवे बोर्ड पूरे मंत्रालय की जानकारी में जनवरी 2007 में ही यह फैसला कर चुका था। लेकिन लालू प्रसाद यादव ने 26 फरवरी 2007 को साल 2007-08 का रेल बजट पेश करते वक्त इसका जिक्र तक करना ज़रूरी नहीं समझा।

अगर रेलवे की स्थाई संसदीय समिति नहीं होती तो देश और सवारियों के साथ लालू के इस ‘फ्रॉड’ पर किसी की नज़र ही नहीं पड़ती! आज ही इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक संसदीय समिति ने लगातार दो रिपोर्टों में रेल मंत्रालय को आगाह किया था कि वह यह सिलसिले को रोके। लेकिन मंत्रालय ने कहा कि इतने शुल्क ने यात्री किराए पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।

हकीकत यह है कि संरक्षा (safety surcharge) अधिभार के तहत यात्रियों से दूरी और क्लास के आधार पर किराए के ऊपर 1 से 100 रुपए वसूले जाते रहे हैं। पिछले साल इससे रेलवे ने 850 करोड़ रुपए जुटाए थे और इस साल इसके आराम से 1000 करोड़ रुपए तक रहने का अनुमान है। संसदीय समिति ने इस बाबत प्रधानमंत्री कार्यालय से भी शिकायत की है। लेकिन सवाल उठता है कि संसद और सरकार को धोखे में रखकर यात्रियों की जेब काटने वाले लालू और उनके महकमे के आला अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हो भी सकती है या नहीं?

शायद कुछ भी नहीं होगा। रुपया, दो रुपया, दस रुपया या 100-100 रुपया करके आम यात्रियों से की गई 1000 करोड़ रुपए की इस नाजायज वसूली पर परदा डाल दिया जाएगा क्योंकि अलग-अलग यात्रियों से ली गई राशि मामूली है और यात्रियों का कोई सामूहिक पैरोकार नहीं है। प्रधानमंत्री कार्यालय भी रेल मंत्रालय से हल्का-फुल्का जवाब मांगने की कागजी खानापूरी करके पीछे हट जाएगा। और संसदीय समितियों का काम तो बस भौंकना है, उनके काटने के दांत हैं ही नहीं। उसको भौकना था, चेताना था, चेता दिया।

पूरा मामला यह है कि साल 2001 में रेलवे की पटरियों, पुलों, सिग्नलों और संचार उपकरणों की समीक्षा के बाद एक समिति ने 17,000 करोड़ रुपए का विशेष रेल संरक्षा कोष (Special Railway Safety Fund) बनाने की सिफारिश की थी। फौरन यह कोष बना दिया गया और तय हुआ कि यह रकम 2001-02 से 2006-07 तक छह सालों में जुटाई जाएगी। इसमें से 12,000 करोड़ रुपए केंद्र सरकार के बजटीय समर्थन से मिलने थे, जबकि 5,000 करोड़ रुपए यात्रियों से संरक्षा अधिभार के रूप में लेने का फैसला हुआ। केंद्र सरकार रेलवे को अपना हिस्सा दे चुकी है और यात्रियों से मार्च 2007 तक तय रकम वसूली जा चुकी है।

इसके बाद यह शुल्क तभी जारी रह सकता था, जब लालू यादव रेल बजट में इसकी घोषणा करते और संसद इसे पास करती। लेकिन लालू ने इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझी। क्या करें, आदत से मजबूर हैं। चुपचाप जनता का पैसा गड़प कर जाने का पुराना चस्का है। उसी से तो अरबों की अवैध संपत्ति खड़ी की है। लालू को ये भी पता है कि इस देश का कानून और अदालतें सत्ता में रहते हुए उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। चारा घोटाले का मामला चल रहा है या खत्म हो गया, पता नहीं। लालू अभी तक बरी होते आ रहे हैं। सबको साफ नजर आता है कि उनके पास आय से अधिक संपत्ति है। लेकिन मुकदमे दायर होते हैं और मामला टांय-टांय फिस्स हो जाता है। क्या कीजिएगा। हमारे लोकतंत्र की यही तो खासियत है।

Monday, 4 February, 2008

अपने-अपने शून्य के सुल्तान हैं हम

हम सभी की अपनी-अपनी दुनिया है, यह कहना ठीक नहीं होगा। बल्कि यह कहना सच के ज्यादा करीब है कि हमने अपने-अपने शून्य बना रखे हैं जिसमें और कोई नहीं है तो हमारा ही राज चलता है। फर्क बस इतना है कि कुछ लोगों के शून्य साबुन या पानी के बुलबुले की तरह पारदर्शी हैं तो कुछ ने शून्य की जगह पूरी रजाई ही लपेट रखी है। पारदर्शी बुलबुलों के फूटने की पूरी गुंजाइश रहती है। ये किसी तेज़ आघात से भी टूट सकते हैं और सूई जैसी मामूली चुभन से भी। लेकिन जिन्होंने मोटी रजाई लपेट रखी है, “उन्हैं न ब्यापै जगत गति।” धमाकों की आवाज़ भी उनके शून्य के भीतर नहीं पहुंच पाती और छोटी-मोटी चुभन का तो उन्हें अहसास तक नहीं होता।

शून्य में रहते-रहते अपने खास होने के गुमान में हम इतने डूबे रहते हैं कि बाकी सभी लोगों को दो-कौड़ी का समझते हैं। खुद को सुल्तान समझते हैं और बाकी लोगों को नादान। खुद की सोच को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दूसरों की सोच को निकृष्ट। अपने-अपने भ्रमों से लिपटा हर कोई अपनी दुनिया में मस्त है। कभी-कभी अपने शून्य की खिड़की ज़रा-सा खोलकर शिष्टाचारवश हम हाय-हेलो कर लेते हैं, लेकिन उससे हमारे गुमान और शान पर कोई आंच नहीं आती। भ्रमों के नशे में भले ही हमारे पैर लड़खड़ाएं, लेकिन इससे संभलने के बजाय हम और भी ज्यादा तनकर चलते लगते हैं। मगर, भ्रांति तो भ्रांति ही होती है, भ्रम तो भ्रम ही होता है । कोई भ्रांति या भ्रम अनंत समय तक नहीं चल सकता। मान लीजिए, किसी दिन ये भ्रम टूट गया और पता चला कि हम औसत ही नहीं, औसत से भी निचले दर्जे के इंसान हैं तब क्या होगा?

अभी तो हम बस कहना जानते हैं। कोई सुने या न सुने, हम सुनाए चले जाते हैं, कहे चले जाते हैं। सामनेवाला हमारे लिए एक जोड़ा कान भर होता है, समूचा इंसान नहीं। हमारी हालत चुटकुलों के कवियों की तरह है जो श्रोता के हाथ आने के बाद सारी कविताएं सुना लेने से पहले नहीं छोड़ता। लेकिन किसी दिन हमारे गैस के गुब्बारे की सारी हवा निकल गई तो? किसी झटके ने हमारे शून्य में छेद कर दिया तो? किसी ने बड़ी ही बेरहमी ने हमारी रजाई छीन ली तो? हमारा स्वनिर्मित कवच उसी पल भरभराकर गिर पड़ेगा। उस दिन शायद हम खुद को औसत लोगों से भी ज्यादा दीन-हीन समझने लगेंगे। नशे की मस्ती हमें भरपूर आनंद तो देती है, लेकिन नशे के उतरने के बाद का हैंगओवर बेहद परेशान करनेवाला होता है।

और, भ्रम का टूटना, नशे का उतरना किसी भी पल हो सकता है। हो सकता है कि आप सुबह उठें, अखबार में छपा कोई सर्वे पढ़े और आपको पता चले कि आप तो सर्वे में शामिल आम लोगों जैसा ही सोचते और करते हैं। आपके उपभोग और व्यवहार में कुछ भी खास नहीं है। आप तो 38, 37 और 25 फीसदी की श्रेणियों में से किसी एक में शामिल अदने से शख्स हैं। आप सबसे अलग नहीं, सबसे जैसे ही हैं। ज़रा सोचकर देखिए कि उस पल आपको कैसा लगेगा। जब आप एक अलग शख्सियत नहीं, बल्कि एक आंकड़ा भर होंगे, तब आपको कैसा लगेगा।

असल में बाज़ार आज यही कर रहा है। इंसान को आंकड़ों में तब्दील कर रहा है। संगठित और बड़े पैमाने के उत्पादन के इस दौर में व्यक्तिगत अभिरुचियों का औसत निकालकर श्रेणियां बनाई जाती हैं। शर्ट के रंग से लेकर परदे और कमरे के पेंट के शेड तक, अचार से लेकर बर्गर के स्वाद तक हम सामान्यीकृत होते जा रहे हैं। कल को विकसित देशों की तरह हमारे यहां भी खिड़की और दरवाज़े भी एक ही आकार के मिलने लगेंगे। न एक इंच इधर, न एक इंच उधर। हमारा निजत्व, हमारा अहं तोड़ा जा रहा है। इसलिए बेहतर है कि हम खुद ही अपने हाथों अपने शून्य को तोड़कर बाहर निकल आएं। खुद को औरों से इतर नहीं, औरों जैसा ही मानकर ज़िंदगी जिएं तो शायद हमारी संवेदनाओं का दायरा ज्यादा व्यापक हो जाएगा। हमारा विचार, हमारा चिंतन और हमारी सोच तब शायद दूसरों के लिए ज्यादा प्रासंगिक हो जाएगी।
- फोटो merkley??? की