Posts

Showing posts from April, 2008

कुरान पर हाथ रखकर झूठी गवाही

Image
हमारे धर्म-ग्रंथ सत्ता में बैठे लोगों के लिए किस तरह मजाक बन गए हैं, इसका सबूत है सरबजीत के मामले के मुख्य गवाह शौकत सलीम की ये स्वीकारोक्ति कि, “सरकारी वकील ने मुझे बताया कि इस आदमी ने विस्फोट किए और वह दोषी है। वकील ने मुझसे कहा कि मुझे भी ऐसा ही कहना है और मैंने कह दिया।” शौकत सलीम लाहौर का रहनेवाला वो शख्स है जिसके पिता और एक अन्य रिश्तेदार उस विस्फोट में मारे गए थे जिसका दोष सरबजीत पर लगाया गया है। एजेंसी की खबर के मुताबिक सलीम ने एक भारतीय टीवी चैनल से बातचीत में कहा है कि उस पर सरबजीत के खिलाफ गवाही देने के लिए दबाव बनाया गया था और अदालत में सरबजीत के खिलाफ बोलने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था। शौकत सलीम का कहना है कि उसने अदालत में पेशी से पहले न तो सरबजीत को कभी देखा था और न ही उसे यह भरोसा था कि वह विस्फोटों में शामिल हो सकता है। शौकत सलीम ने यहां तक कहा कि पाकिस्तान में तमाम ताकतवर लोग तक पुलिस से डरे रहते हैं। सलीम ने बताया कि जब उसको अदालत में लाया गया तो उसने न्यायाधीश को बताया कि सरबजीत ने ही विस्फोट किए थे। सलीम के मुताबिक न्यायाधीश ने उसे सुना और जाने दिया। सलीम का

जिंदगी एक मचमच है, मचमच!!!

Image
इस दुनिया में मेरा मकसद क्या है? यह सवाल अभय के ही नहीं , अलग-अलग समय पर बहुतों के, हम सभी के मन में आता होगा। इसी सवाल का समानार्थी सवाल है कि मेरे जीवन का मकसद क्या है? मैं इसके जवाब को लेकर गुन ही रहा था कि कल स्टेशन से घर आते वक्त ऑटो-रिक्शा में गजब का वाक्य सुनने को मिला। जिंदगी मचमच है, मचमच है। ऑटो में पीछे तीन और आगे ड्राइवर के बगल में बैठी एक और सवारी। ड्राइवर की जान-पहचान का लगता था। दोनों ज्यादातर मराठी में बात कर रहे थे। लेकिन बीच-बीच में हिंदी भी बोल रहे थे, जैसे हम लोग हिंदी में बातचीत के दौरान अंग्रेज़ी में बोल लिया करते हैं। पूछा – रिक्शे ने तो तेरी जिंदगी बना दी, क्यों? बना दी कहां, ज़िंदगी बिगाड़ दी। अब मैं कभी रिक्शे को हाथ नहीं लगाऊंगा। ऊपरवाले ने वेल्डिंग मशीन पर लगा दिया है, वही अपुन का सब कुछ है...माई-बाप। फिर मराठी में थोड़ी गिटिर-सिटर। अचानक वेल्डिंग मशीन वाला फक्कड़ बोल पड़ा – ज़िंदगी मचमच है, मचमच। एक-दो वाक्य मराठी के। फिर ड्राइवर बोला – अभी तेरा खून गरम है, इसलिए ऐसा बोलता है। वो बोला – ठडे खून से अपुन को जीने का नहीं। जिस दिन खून ठंडा होगा, उसी दिन किसी पे

लिखें तो ऐसा कि दूसरे लोग जुड़ते चले जाएं

Image
वैसे तो टेक्नोराती की अथॉरिटी का हम हिंदी ब्लॉगरों के लिए फिलहाल कोई विशेष मतलब नहीं है। फिर भी आपकी औकात ज्यादा आंकी जाए तो भला किसको अच्छा नहीं लगता। लेकिन इधर हफ्ते-दो हफ्ते से टेक्नोराती की अथॉरिटी में तेज़ गिरावट आ रही है। कभी 92 तक जा चुकी मेरी अथॉरिटी घटते-घटते अब 74 पर आ गई है और हो सकता है जब आप यह पोस्ट पढ़ रहे हों तब तक वह 1-2 सीढ़ी और नीचे गिर गई हो। टेक्नोराती के सहायता फोरम में झांककर देखा तो कइयों के साथ यही समस्या नज़र आई। मुझे लगा कि शिकायत वगैरह करने का कोई फायदा नहीं है तो अथॉरिटी की मूल धारणा ही समझ ली जाए। टेक्नोराती अथॉरिटी उन ब्लॉगों की संख्या है जिन्होंने पिछले छह महीने (180 दिन) में आपके ब्लॉग का लिंक दिया है, चाहे ब्लॉगरोल में या किसी पोस्ट में। जितने ज्यादा से ज्यादा लोग आपको लिंक करेंगे, आपके ब्लॉग की अथॉरिटी उतनी ही बढ़ती जाएगी। इसमें एक बात और गौर करने लायक है कि 180 दिन होते ही अथॉरिटी में पिछले लिंक्स की अहमियत शून्य हो जाती है। साथ ही कोई ब्लॉग अगर आपको 180 दिन में सौ बार भी लिंक करे तब भी टेक्नोराती अथॉरिटी में उसका योगदान केवल एक का रहेगा। मतलब साफ है

घट रहे हैं हिंदी न्यूज़ चैनलों के दर्शक

Image
हिदी न्यूज़ चैनलों में खली-बली, सांप-छछूंदर, राम-रावण, शिव-पार्वती और सास-बहू से लेकर भूत-प्रेत का जो नाटक चलता है, जो अपराध और सनसनी फैलाई जाती है, जिस तरह अंधविश्वासों को सच बताया जाता है, उसके पीछे का तर्क है कि बाज़ार में खड़े हैं तो बिकाऊ नहीं होंगे तो कैसे काम चलेगा। टीआरपी के लिए भागमभाग लाज़िमी है। लेकिन क्या आपको पता है कि टेलिविजन के कुल दर्शकों में हिंदी न्यूज के दर्शक कितने हैं? इस साल के पहले हफ्ते (30 दिसंबर 2007 से 5 जनवरी 2008) में यह आंकड़ा था 5.1 फीसदी। यानी हिंदी न्यूज़ चैनलों को 100 में से केवल पांच दर्शक मिले थे। चौंकानेवाली बात यह है कि साल के 15वें हफ्ते (8 से 12 अप्रैल 2008) में यह आंकड़ा घटकर 4 फीसदी रह गया है। ज़ाहिर है कि गुजरे साढ़े तीन महीनों में हिंदी चैनलों ने अपने 20 फीसदी दर्शक गवां दिए हैं। टैम मीडिया रिसर्च के मुताबिक इस समय दर्शकों में सबसे बड़ा हिस्सा हिंदी के मनोरंजन चैनलों का है। इन्हें लगभग 22 फीसदी दर्शक देखते हैं। अब चूंकि ज्यादातर न्यूज़ चैनल इनफोटेनमेंट चैनल होते जा रहे हैं, इसलिए शायद दर्शकों को लगने लगा है कि जब इंटरटेनमेंट ही देखना है तो

ठाकुर तो पिछड़े नहीं, फिर पिछड़ों के नेता क्यों हैं?

Image
आज तक कभी भी, मतलब कभी भी, अपनी जाति को लेकर नहीं सोचा। हो सकता है सब कुछ पका-पकाया मिलता रहा। मान-सम्मान, आगे बढ़ने के मौके। कभी जातिगत उत्पीड़न नहीं झेला तो कभी जाति पर अलग से सोचने की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई। लेकिन इधर देख रहा हूं तो कुछ लोग जाति को लेकर बराबर सुगबुग-सुगबुग करते जा रहे हैं। हालांकि यह बात तो मेरे दिमाग में दो हफ्ते पहले ओबीसी कोटे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही आ गई थी और मैं पहली बार ठाकुर जाति पर सोचने लगा। सोचने लगा कि नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण एक ठाकुर ने लागू करवाया, जिसका नाम है विश्वनाथ प्रताप सिंह। अब उच्च शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण लागू हुआ तो एक दूसरे ठाकुर, अर्जुन सिंह की हठ के चलते। मज़े की बात है कि वी.पी. और अर्जुन सिंह दोनों ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोडक्ट हैं। ऐसा क्यों है कि सामाजिक न्याय के इस ज़रूरी अभियान के नेता पिछड़े या दलित तबके से आए लालू यादव, मुलायम यादव, शरद यादव या रामबिलास पासवान नहीं, बल्कि अगड़ों में भी रजवाड़ों से आए विश्वनाथ प्रताप सिंह और अर्जुन सिंह बने? जो अपनी जाति के नेता नहीं बन सके, वे दूसरी जाति

अनिश्चितता अनंत है तो डरना क्या? बिंदास जीने का

Image
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक वो जो मूर्खों की तरह कोई परवाह किए बगैर गिरते-पड़ते बिंदास जिए जाते हैं। ऐसे मूर्खों की श्रेणी में मुझ जैसे बहुतेरे लोग आते हैं। दूसरे वो लोग हैं जो मूर्खों की तरह डर-डरकर ज़िंदगी जीते हैं; हर छोटे-बड़े फैसले से पहले जितनी भी उल्टी बातें हो सकती है, सब सोच डालते हैं। फिर या तो घबराकर चलने ही इनकार कर देते हैं या चलते भी हैं तो सावधानियों का क्विंटल भर का पिटारा कंधे पर लाद लेते हैं, अविश्वास का काला कंटोप दिमाग की आंखों पर चढ़ा लेते हैं। दिगम्बर जैनियों की तरह मुंह पर कपड़ा बांध लेते हैं। हर कदम फूंक-फूंककर रखते हैं। मन को हर आकस्मिकता की आशंका से भर लेते हैं। लेकिन क्या ऐसा संभव है कि हम आगे जो होनेवाला है, उसे प्रभावित करनेवाले सारे कारकों को पहले से जान लें, उनके असर का हिसाब-किताब लगा लें? शायद नहीं क्योंकि ऐसे बहुत से न दिखनेवाले कारक अचानक पैदा हो जाते हैं, जिनकी कल्पना तक हमने नहीं की होती है। हम सब कुछ कभी नहीं जान सकते। अनिश्चितता का पहलू हमेशा बना रहता है। जिन अर्जित अनुभवों, उनसे बनी मानव चेतना और दिमाग से हम बाहर की चीजों को जानना चाहते हैं,

महीने में 25000 तो क्रीमीलेयर, 50000 तो गरीब!!!

Image
अजीब विभ्रम की स्थिति है। मानव संसाधन मंत्रालय ने कल रात घोषित कर दिया कि आईआईएम और आईआईटी जैसे तमाम केंद्रीय शिक्षण संस्थानों को इसी साल शुरू हो रहे सत्र से 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण लागू करना होगा। यह पहले से अनुसूचित जाति के लिए लागू 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के लिए लागू 7.5 फीसदी आरक्षण के ऊपर है। इस तरह इन संस्थानों की 49.5 फीसदी सीटें अब कमज़ोर और पिछड़ी जातियों के छात्रों के लिए आरक्षित हो गई हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर को इस आरक्षण से बाहर कर दिया है, जिसके मुताबिक साल में 2.5 लाख रुपए से ज्यादा कमानेवाले परिवारों के बच्चों को यह सुविधा नहीं मिलेगी। यानी अगर किसी परिवार की मासिक आमदनी 25,000 रुपए है तो पिछड़ी जाति का होने के बावजूद उसके बच्चे को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। दूसरी तरफ देश के छह के छह आईआईएम ने अपने पीजी कोर्स की फीस 25 से 175 फीसदी बढ़ा दी है। सबसे ज्यादा फीस आईआईएम अहमदाबाद ने बढ़ाई है। जहां पहले दो साल के इस कोर्स की फीस 4.30 लाख रुपए थी, वहीं अब यह 11.50 लाख रुपए हो गई है। आप ही बताइए कि देश में कितने परिवार हैं जो अपने बच्चे की पढ़ाई

मेरे बाद मेरे इस ब्लॉग का क्या होगा?

Image
भगवान न करे कि ऐसा हो। लेकिन मौत तो किसी भी रूप में कभी भी आ सकती है। अब अजय रोहिला को ही ले लीजिए। उनको गुजरे एक महीना होने को है, लेकिन उनका ब्लॉग नई राहें एयरपोर्ट पर अनक्लेम्ड बैगेज की तरह अभी तक पड़ा है और न जाने कब तक यूं ही पड़ा रहेगा। आखिरी पोस्ट 18 फरवरी की है। उसी के बाद शायद तबीयत बिगड़ने लगी होगी और होली के दिन दुनिया से कूच कर गए। भाई को इतनी फुरसत तक न मिली कि ब्लॉग पर ब्लॉगिंग की दुनिया के सभी दोस्तों को आखिरी सलाम लिख देते या धुरविरोधी की तरह अपना ब्लॉग ही डिलीट कर देते या ब्लॉग पर कोई लिंक दे देते कि यह ब्लॉग मैं खत्म कर रहा हूं, अब आप मुझसे यहां मिल सकते हैं। ऐसे ही कोई भी ब्लॉगर कभी भी हमें बिना बताए विदा हो जाए तो! मैं या आप में से कोई भी ऊपरवाले से सट्टा-बयाना तो लिखाकर आया नहीं है कि अनंत समय तक ज़िंदा रहेगा, कि हमें हमेशा-हमेशा के लिए धरती पर रहने का पट्टा दे दिया गया है। भीष्म पितामह तक को इच्छा-मृत्यु का वर मिला था, मृत्यु से मुक्ति का नहीं। मरने के बाद शरीर को दफना या जला दिया जाता है। लेकिन ब्लॉग तो हमारे अंतर्मन की एक छाया है, उसका क्या किया जा सकता है। वह त

चोखेर बालियों के लिए अच्छी खबर है

Image
जिस देश में 36 साल तक तानाशाही रही हो, जहां लोकतंत्र अभी 30 साल का हुआ हो, वहां के मंत्रिमंडल में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं का होना चौकानेवाली बात है। लेकिन इससे भी ज्यादा चौंकानेवाली बात ये है कि वहां की रक्षामंत्री एक महिला है। यह उस स्पेन की बात है जहां एक दशक पहले तक सेना के दरवाज़े महिलाओं के लिए एकदम बंद थे। आज सुबह मैंने अखबारों में स्पेन की रक्षामंत्री Carme Chacon की तस्वीरें देखीं जिसमें वे सैनिकों का निरीक्षण कर रही हैं तो मैं वाकई आश्चर्य-मिश्रित कुतूहल से भर गया। इन तस्वीरों में आप देख सकते हैं कि Carme Chacon गर्भवती हैं। मैंने पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि Carme Chacon की उम्र महज 37 साल है और वो सात महीने के गर्भ से हैं। एक महिला का रक्षामंत्री बनना और फिर गर्भवती मंत्री का सैनिक परेड का निरीक्षण करना दिखाता है कि दुनिया में महिलाओं के अधिकारों की स्थिति बदल रही है। स्पेन में इस समय प्रधानमंत्री जोस लुइ रोड्रिग्ज ज़ापातेरो के 17 सदस्यीय मंत्रिमंडल में से नौ महिलाएं हैं। ज़ापातेरो ने एक अलग समानता मंत्रालय भी बना रखा है जिसकी जिम्मेदारी उन्होंने 31 साल की Bibiana Aido क

महंगाई आयातित है, लेकिन मार तो खालिश देशी है

Image
महंगाई के ताज़ा आंकड़े से सरकार को मामूली राहत मिली है, लेकिन लोगों को नहीं। 5 अप्रैल 2008 को खत्म हुए हफ्ते में मुद्रास्फीति की दर 7.14 फीसदी है, जबकि इसके पिछले हफ्ते यह 7.41 फीसदी थी। ध्यान दें, यह थोक मूल्यों पर आधारित आंकड़ा है। यह दर्शाता है कि साल भर पहले इसी हफ्ते के थोक मूल्य सूचकांक की तुलना में इस हफ्ते के सूचकांक में कितनी फीसदी बढ़त हुई है। हमारे आप जैसे आम लोगों के लिए असली मायने होता है चीजों के खुदरा मूल्य का। और, हाल ही के एक अध्ययन के मुताबिक खुदरा मूल्य थोक मूल्यों से करीब 60 फीसदी ज्यादा चल रहे हैं। यानी किसी चीज़ का थोक मूल्य अगर 100 रुपए है तो वह हमें 160 रुपए में मिल रही है। हकीकत का यही वो पेंच है जो सरकार के इस दावे की कलई उतार देता है कि इस समय सारी दुनिया महंगाई की मार झेल रही है और हम अपने दम पर इसे पूरी तरह नहीं रोक सकते। सच है कि पिछले तीन सालों में दुनिया में खाद्यान्नों की कीमतें 83 फीसदी बढ़ चुकी हैं। लैटिन अमेरिकी देश हैती में चावल और फलियों की महंगाई को लेकर दंगे हो रहे हैं और वहां के प्रधानमंत्री याक एजुअर्ड अलेक्सिस को इस्तीफा देना पड़ा है। मिस्र, क

'अगले जनम मोहे हिजड़ा न कीजो'

Image
हिंदू-बहुल हिंदुस्तान में ज्यादातर हिजड़े मुस्लिम बन जाते हैं, वो भी 50,000 से एक लाख रुपए मौलवी व इमाम को देकर। जानते हैं क्यों? क्योंकि वे अगला जन्म नहीं पाना चाहते। हिंदू रहेंगे तो उनका पुनर्जन्म हो सकता है और हो सकता है वे फिर लैंगिक रूप से विकलांग पैदा हों। इस आशंका को जड़ से खत्म कर देने के लिए ही ज्यादातर हिंदू हिजड़े मुस्लिम बन जाते हैं क्योंकि मुस्लिम धर्म में पुनर्जन्म का कोई चक्कर ही नहीं है। इधर कई दिनों से अजीब से शून्य में डूबा हूं। कुछ लिखने का मन ही नहीं हो रहा। कई पोस्ट आधी लिखकर छोड़ रखी है। लेकिन बीते शनिवार से लैंगिक विकलांगों के बारे में पता चली कुछ बातें मेरे दिमाग में हथौड़े की तरह बज रही हैं। मैंने इंटरनेट से इसकी तस्दीक करने की कोशिश की, लेकिन वहां यही लिखा मिला कि भारत के ज्यादातर हिजड़े हिंदू हैं। ईसाई और मुसलमान भी हिजड़े हैं। लेकिन हिजड़ा बनने के बाद उनका एक ही धर्म बन जाता है। अर्धनारीश्वर यानी शिव उनके आराध्य देव हैं। लेकिन वे बहुचरा माता और अरावान (महाभारत के अर्जुन के पुत्र) की विशेष पूजा करते हैं। इनकी संख्या के बारे में सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं ह

मियां, इतने रीते हो कि अतीत को बेचते हो!!!

Image
एक सज्जन हैं जो पहुंचे हुए पत्रकार हैं। पहले छात्रनेता और अभिनेता रह चुके हैं, पर ब्लॉगर नहीं हैं। मज़ाक-मज़ाक में कहते हैं कि ब्लॉग पढ़ने के पैसे लेते हैं, लेकिन गंभीरता से बताते हैं कि हिंदी ब्लॉगिंग में इस समय काफी गंध और गोबर भरा है। उनकी एक और स्थापना है कि वर्चुअल स्पेस की सक्रियता एक तरह का पलायन है। चील जैसी पैनी चोंच और गिद्ध जैसी तेज़ नज़र है उनकी। पूरे निरीक्षण-प्रेक्षण के बाद बताते हैं कि हिंदी ब्लॉगिंग में ज्यादातर वो लोग हैं जो कभी न कभी किसी न किसी आंदोलन से जुड़े थे। इसे चालू जुमले में कहा जाए तो सब क्रांति के मोर्चे के भगोड़े सिपाही हैं। दूसरे जन हैं, जो पत्रकार नहीं हैं, पर टूटी-बिखरी अवस्था में पहुंचे हुए ब्लॉगर हैं। उन्होंने पहलेवाले सज्जन की एक गुफ्तगू 25-26 दिन पहले अपने ब्लॉग पर छापी है, जहां से मुझे ब्लॉगिंग पर पहलेवाले सज्जन के ऊपर लिखे विचार पता चले। असल में मुझे तो इसका पता ही नहीं चलता, अगर पिछले के पिछले शुक्रवार को भड़ास वाले यशवंत के आने पर हम लोग अभय के घर पर बैठे नहीं होते। बातों-बातों में अभय ने इस गुफ्तगू के बारे में बताया और कहा कि इसमें मेरा भी जिक्

क्या लिखूं, कैसे लिखूं, कब लिखूं और क्यों लिखूं?

Image
कोई आपकी धमनियों का सारा खून निकालकर उसमें सीसा पिघलाकर डाल दे तो कैसा लगेगा? लगेगा कि हाथ-पैर और अंतड़ियों का वजन इतना बढ़ गया है कि आप सीधे खड़े भी नहीं रह सकते। मोम की तरह पिघलकर गिर जाएंगे। अपने को संभाल पाने की सारी ताकत एकबारगी चुक जाती है। पूरा वजूद भंगुर हो जाता है। लगता है कि कभी भी भर-भराकर आप जमींदोज हो जाएंगे। ऐसे हो जाएंगे जैसे बुलडोजर के कुचलकर कोलतार की सड़क पर बनी कोई चिपटी हुई 2-dimensional आकृति या चॉक का चूरन। दिमाग में ऑक्सीजन पहुंचने का स्रोत बंद कर दिया जाए तो कैसा लगेगा। बार-बार जम्हाई आएगी। लगेगा जैसे गर्दन से लेकर माथे के दोनों तरफ सूखे से तड़के खेतों से निकालकर मिट्टी के टुकड़े भर दिए गए हों। आंखों से आंसू नहीं, पानी की दो-चार बूंदें निकलेंगी। बैठे-बैठे लगेगा कि अब ढप हो जाएंगे। हाथों से सिर थामने की कोशिश करते हैं तो लगता है अब वह धम से सामने की मेज पर गिर जाएगा। पूरा शरीर झनझनाने लगता है। अंग-अंग में झींगुर बोलने लगते हैं। आंखें बंद करो तो लगता है अब ये कभी खुलेंगी ही नहीं। बंद आखों के आगे अजीब-अजीब सी आकृतियां धमाचौकड़ी करती हैं। आप प्रकाश की गति से किसी अन

बहनजी! दलितों के साथ बजट में भी धोखा हुआ है

Image
इधर मायावती बहनजी राहुल गांधी से खास खार खाए बैठी हैं। उन्हें डर है कि राहुल कहीं अपने लटके-झटकों ने दलितों के वोटबैंक को दोबारा कांग्रेस की तरफ न मोड़ ले जाएं। इसलिए बहनजी अपनी पर उतर आई हैं और कह रही हैं कि राहुल गांधी दलितों से मिलने के बाद जाकर खास साबुन से नहाते हैं। लगता है बहनजी के जासूस राहुल के घुसलखाने तक घुसे हुए हैं!!! मेरा तो कहना है कि बहनजी, अगर आप सचमुच दलितों का उद्धार चाहती हैं तो किसी नेता विशेष की नहीं, कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार की नीतियों की पोल खोल डालिए। इसमें तमाम बुद्धिजीवी आपकी मदद करेंगे। ऐसे ही एक बुद्धिजीवी हैं पीएस कृष्णन। कृष्णन केंद्र सरकार में सचिव रह चुके हैं और इस समय आरक्षण पर अर्जुन सिंह के मानव संसाधन मंत्रालय को सलाह देते हैं। आज उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में बड़ा मार्के का लेख लिखा है। पेश हैं उसके चुनिंदा अंश... इस साल के बजट में केवल अनुसूचित जातियों/जनजातियों (एससी/एसटी) को फायदा पहुंचानेवाली स्कीमों के लिए 3,966 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। यह 7,50,884 करोड़ रुपए की कुल बजट राशि (योजना व्यय+ गैर-योजना व्यय) का मात्र 0.53 फीसदी है।

इलाहाबाद! एक गहरे बिछोह का नाता है तुझसे

Image
इलाहाबाद आया तो दस साल की उम्र से ही घर-परिवार और दोस्तों से बार-बार बिछुड़ते रहने का इतना दंश झेल चुका था कि पत्थर बन गया था। इतना रो चुका था कि आंखों से आंसू निकलते ही नहीं थे। पलकों से लुढ़कने के पहले ही आंसू गरम तवे पर पड़े पानी की तरह छन्न से सूख जाते थे। आंसुओं को बनानेवाली ग्रंथियां भी सुन्न पड़ गई सी लगती थीं। लेकिन जब आखिरी बार इलाहाबाद छोड़ा तो कंपनी बाग, साइंस फैकल्टी के म्योर टॉवर, अपने अमरनाथ झा हॉस्टल, आनंद भवन के सामने बनी अपनी लाइब्रेरी, सीनेट हॉल, प्रयाग स्टेशन और फाफामऊ के पुल को पार करते हुए हंहक-हंहक कर रोया था। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे फिर से रोना सिखा दिया, एक संज्ञाशून्य होते इंसान में नई संवेदना भर दी तूने। इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि सात साल के प्रवास में तूने इतने वेगवान मंथन से गुजारा कि अमृत या विष जो भी अंदर था, निकलकर बाहर आ गया। मैंने यहीं जाना कि देश और देशभक्ति का असली मतलब क्या होता है। जीवन का क्या मतलब होता है, इतिहास क्या होता है, शासन क्या होता है, सरकार क्या होती है। मैं आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ-प्रसंग से यहीं परिचित हुआ। साहित्य को जान

माथेरान में दर्जनों बंगले उजाड़, निजीकरण ज़रूरी है

Image
माथेरान , महाराष्ट्र में कोंकण इलाके का एक खूबसूरत हिल स्टेशन। अभी पिछले हफ्ते ही वहां सपरिवार तीन दिन रहकर आया हूं। बेटियों की परीक्षा खत्म हुई थी तो सोचा कुछ दिन बाहर घुमाकर ले आऊं। मुंबई में घर से सुबह पांच बजे निकलकर नेरल पहुंचा और फिर 7.30 बजे की टॉय ट्रेन पकड़कर 9.30 बजे तक माथेरान। आपको बता दूं कि माथेरान शायद देश का इकलौता हिल स्टेशन है जहां कोई भी मोटरवाहन नहीं चलते। जहां जाना हो, पैदल जाइए या चाहें तो घोड़े पर बैठकर जा सकते हैं। यही वजह है कि माथेरान में घोड़ों की बहुतायत है और घोड़ों की लीद वहां की आबोहवा की खास पहचान है। तो, माथेरान के सारे प्वाइंट मैं बेटियों और पत्नी के साथ पैदल ही घूमा। समझिए कि हर दिन हम कम से कम 20-25 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते थे। रात तक इतने थक जाते कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद के आगोश में डूब जाते थे। सभी के पैर अभी तक दुख रहे हैं। लेकिन इसके अलावा भी दो बातें हैं जो अभी तक मेरे मन को मथे जा रही हैं और जिनका कोई सुसंगत तार्किक समाधान नहीं दिख रहा है। मेरे मोबाइल से खीची गई एक उजाड़ बंगले के गेट की तस्वीर एक तो यह कि हम जगलों के बीच जिधर भी गए वहां प

मोर मारकर खा गया कांग्रेस का कॉरपोरेटर

Image
कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी इधर जब से भारत की खोज पर निकले हैं, लगातार पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र की बात कर रहे हैं। कहते फिर रहे हैं कि, “भारत एक लोकतांत्रिक देश है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर यहां की किसी भी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, चाहे वह कांग्रेस हो, बीजेपी हो या कोई दूसरी पार्टी।” यह अलग बात है कि राहुल गांधी के पार्टी लोकतंत्र की पहुंच केवल निचली इकाइयों तक है और कांग्रेस वर्किंग कमेटी में लोकतंत्र का वो जिक्र तक नहीं करते। लेकिन उस पार्टी में निचली इकाइयों तक वे लोकतंत्र कैसे लाएंगे जो ऊपर से लेकर नीचे तक निहित स्वार्थों का जमघंट बन चुकी है, जिसके नेताओं को लोकशाही तो छोड़िए राष्ट्रीय प्रतीकों तक की परवाह नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में सांगली की पुलिस ने दो दिन पहले ही कांग्रेस के एक कॉरपोरेटर को गिरफ्तार किया है जिस पर आरोप है कि उसने पुणे में कटराज के राजीव गांधी चिड़ियाघर से दो पिजड़ों में बंद पांच मोरों को चुरा लिया था। सांगली के एसपी कृष्ण प्रकाश के मुताबिक, इस कॉरपोरेटर ने मोरों की चोरी खाने के मसकद से की थी। अल्लाबक्श काज़ी नाम का यह कॉर

मनस्मृति जिंदा है हमारी प्रशासनिक सेवाओं में

Image
मुझे याद है जब छात्र जीवन के दौरान हम लोग गावों में जाते थे तो लोगों से कहते थे कि जिस तरह तेल पेरने की मशीन से आटा नहीं पीसा जा सकता, उसी तरह अंग्रेज़ों के जमाने से चले आए प्रशासनिक तंत्र से अवाम का भला नहीं हो सकता। आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को प्रशासनिक सुधारों की वकालत करनी पड़ रही है। असल में हमारे प्रशासनिक तंत्र में बहुत सारे अंतर्विरोध हैं। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद ऐसे ही कुछ अंतर्विरोध उभरकर सामने आए हैं। पिछले हफ्ते इस पर एक दिलचस्प लेख आईपीएस अफसर अभिनव कुमार ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था जिसमें उन्होंने बताया है कि हमारा प्रशासनिक तंत्र एक अलग किस्म की जाति-व्यवस्था में जकड़ा हुआ है। पेश हैं इसके संपादित अंश... छठे वेतन आयोग ने जिस तरह की सिफारिशें की हैं, उसे हमारी सिविल सेवाओं के लिए मनुस्मृति का आख्यान कहा जा सकता है। एक ऐसा आख्यान जो नौकरशाही जाति व्यवस्था में व्याप्त असमानता और अन्याय को तार्किक आधार देता है। यह जाति व्यवस्था आधुनिक भारत के लिए उतनी ही घातक है जितनी की मूल जाति व्यवस्था। संविधान सभा में अपने सहयोगियों की आशंकाओं को दूर करते हुए नेहरू

प्यार की केमिस्ट्री तो ठीक, मिस्ट्री क्या है दोस्त!!

Image
पहले मौलिकता पर बड़ी बचकानी बात की। आज प्यार के रहस्य पर बचकानी बात कर रहा हूं। विद्वानों से गुजारिश है कि यह पूरी तरह मेरा मौलिक विचार नहीं हैं, जहां-तहां का विचार प्रवाह है। इसलिए इसमें किसी बड़ी बहस का सूत्र न तलाशा जाए। बात सीधी-सी है तो इसे सीधे-सीधे ही समझा जाए। इसे महान लेखकों व किताबों के नाम और उद्धरणों में न उलझाया जाए। मैं अरसे से सोचता रहा हूं कि आखिर प्यार की जो भावना है, उसका रहस्य है क्या? आपसी आकर्षण समझ में आता है, प्यार की केमिस्ट्री भी समझ में आती है, फिर भी प्यार की मिस्ट्री पूरा तरह नहीं समझ में आती। नीरज का गीत - शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब, उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी-सी शराब, होगा यूं नशा जो तैयार, वो प्यार है। चांद मेरा दिल, चांदनी हो तुम। फूलों के रंग से, दिल की कलम से। झुरमुट की छांव। फूलों की क्यारियां। वो आंखों ही आंखों के इशारे। वो संगीत की धुन। वो परदे का लहराना। वो उड़ता दुपट्टा। वो लहराते बाल। कजरारे-कजरारे नैना। दिलों का बेहिसाब धड़कना। आई लव यू की अनंत बारंबारता। वो निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश। इन सबमें अजीब-सा नशा है, रहस्य है। बताते हैं कि इस रहस