
नीरज का गीत - शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब, उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी-सी शराब, होगा यूं नशा जो तैयार, वो प्यार है। चांद मेरा दिल, चांदनी हो तुम। फूलों के रंग से, दिल की कलम से। झुरमुट की छांव। फूलों की क्यारियां। वो आंखों ही आंखों के इशारे। वो संगीत की धुन। वो परदे का लहराना। वो उड़ता दुपट्टा। वो लहराते बाल। कजरारे-कजरारे नैना। दिलों का बेहिसाब धड़कना। आई लव यू की अनंत बारंबारता। वो निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश। इन सबमें अजीब-सा नशा है, रहस्य है। बताते हैं कि इस रहस्य के पीछे है ऐंद्रिकता की ताकत, विषयासक्ति, दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे रसायनों की मार, हारमोंस की चाल, दो लोगों के दिमाग के खास हिस्से से एक जैसी तरंगों का लहराना।
यह ऐंद्रिकता बचपन से लेकर युवा होने तक हमारे अंदर धीरे-धीरे प्रौढ़ होती जाती है। लेकिन ऐसा तो सभी जानवरों के साथ होता है। फिर इंसानी प्यार और जानवरी यौनाकर्षण में फर्क क्या है? इंसानी प्यार की भिन्नता यह है कि उसका निर्धारण सामाजिक घर्षण-प्रतिघर्षण के दौरान हुआ है। सभ्यता ने विकासक्रम में जो बंधन बनाए हैं, नैतिकता के जो अदृश्य मानदंड बनाए हैं, उनके साथ लगातार द्वंद्व करते हुए बढ़ती हैं प्यार की पेंग। अक्सर विषयासक्ति से उपजे प्यार का उद्वेग इतना तेज़ होता है कि नैतिकता के परखचे उड़ जाते हैं, इच्छा-शक्ति और तर्क बहकर कहीं किनारे लग जाते हैं। ऐंद्रिकता हमें पूरी तरह वश में कर लेती है, अंधा बना देती है। लेकिन सवाल उठता है कि तर्क बड़ा होता है या हमारे भावुक आवेग, दिमाग की ताकत या भावनाओं का प्रवाह, सामाजिक वजूद या बेसिक एनीमल इंस्टिक्ट?
प्यार का लौकिक दायरा ‘संकीर्ण’ किस्म का है तो उसका एक व्यापक पारलौकिक विस्तार भी है। मीरा जब कृष्ण की दीवानी होती हैं तो उसमें लौकिक कुछ नहीं होता। कबीर जब कहते हैं राम मोरे पिया, मैं राम की बहुरिया तो उसमें बहुत कुछ पारलौकिक होता है। प्यार जब शरीर तक सीमित रहता है तो उसका आवेग चढ़ते ही नसें कांपने लगती हैं, धमनियों में उबाल आ जाता है, रक्त प्रवाह तेज़ हो जाता है। लेकिन यह जब शरीर से ऊपर उठ जाता है तो कभी आध्यात्मिक शक्ल अख्तियार करता है तो कभी सत्ता की चाह, महत्वाकांक्षा, और प्रसिद्धि की चाहत में तब्दील हो जाता है। ऐंद्रिक प्यार को शादी और नैतिकता का बंधन अनुशासित करता है तो कहते हैं कि आध्यात्मिक प्रेम निर्बंध होता है, असीम होता है।
लेकिन क्या आध्यात्मिक प्रेम बड़ी उत्कृष्ट चीज़ है और विषयासक्ति-जनित ऐंद्रिकता से उपजा प्यार बहुत ही घटिया स्तर की चीज़ है? हकीकत तो यही है कि रक्त संचार में आई तेज़ी साबित करती है कि मनुष्य जबरदस्त संवेदना और भावप्रवण स्थिति में ही प्यार करता है। लेकिन धार्मिक लोग कहते हैं कि प्यार यंत्रवत तरीके से करो। विषयासक्ति में डूबकर प्यार मत करो, जिस्मानी सुख के लिए प्यार मत करो। प्यार इसलिए करो क्योंकि तुम्हें अपना वंश आगे बढ़ाना है। ईश्वर का आदेश है कि तुम अपना पुनरुत्पादन करो, संतति बढ़ाओ।
असल में प्यार और श्रम उस जीवधारी की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के सच्चे ऐंद्रिक अनुभव हैं जो सामाजिक उत्पादन के जरिए ही इंसान बना है। प्यार कोई आध्यात्मिक बंधन नहीं है, न ही यह इंसान के किसी निरपेक्ष प्यार तक पहुंचने की सांसारिक सीढ़ी है। प्यार इंद्रियों के संसार में, वास्तविक व्यक्तियों के बीच में होता है, भगवान के भेजे दूतों में नहीं। यह एक सच्चा अनुभव होता है। इसमें किंतु, परंतु और शर्तें नहीं होतीं। प्यार तो इंसान में समाहित प्रकृति है और जिस तरह प्रकृति पर हम अपना प्रभुत्व कायम करते हैं, उसी तरह प्यार की उन्मत्त भावना को भी वश में किया जाना चाहिए। मुक्ति प्रकृति का दास बनने में नहीं, न ही उससे भागने में है। मुक्ति तो प्रकृति से दो-दो हाथ करने और उसका सहकार हासिल करने से मिलती है।
फोटो सौजन्य: (: Petra :)
8 comments:
जब मैंने पहले कमेंट देने के लिए सोचा तो लिखना चाहता था की अगर हम ख़ुद से प्यार करते है, संगीत से प्यार करते है, पुस्तकों से प्यार करते है तो इसमे जिस्म कहा से आता है, लेकिन मैं एक सेकंड के लिए रुक गया कि चाहे हम किसी भी किस्म का प्यार करे होता तो वो जिस्म के लिए ही है, अगर अध्यातिम्क या सात्विक प्यार भी करे तो वो हमारे मस्तिस्क को ही सुकून पहुचाता है जो की जिस्म ही है. हाँ एक बात है कि प्यार हमेशा सुख ही देता है, अगर प्यार मे कोई पीड़ा है तो निश्चित तौर पर वो प्यार नही या तो मोह है, लालच है या वासना है. रही बात रसायन कि तो सारी जिंदगी ही रासायनिक क्रिया है, अब दिमाग मे सेरोटोनीन कि मात्रा बदले या शरीर मे खून का दौरा बढे है तो सब केमिकल लोचा ही.
प्यार के बारे में हमने कभी एक लेख लिखा था। पढिये। प्रेम गली अति सांकरी।
आध्यात्मिक और भौतिक, सारी दुनियाँ इन दो शब्दों के फेर में पड़ी है। प्यार तो प्यार है, वह एक साथ आध्यात्मिक भी है और भौतिक भी। भौतिक शरीर न हो तो प्यार क्या, किसी भी भावना का कोई अर्थ नहीं। तो सब कुछ भौतिक ही है। आध्यात्म भी भौतिक ही है।
गीता में शरीरिणः और देहिनः शब्द आए हैं जिन का (अ)ज्ञानी लोग अर्थ आत्मा बताते हैं। पर यह आत्मा भी अर्थ करने वालों की पैदा की हुई लगती है। आप्टे के शब्द कोश को टटोलें तो इन दोनों शब्दों का मूल अर्थ निकलता है- पदार्थ।
"अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्"
उक्त सूत्र कपिल का है, जिन के लिए गीताकार कहता है कि मुनियों में कपिल मैं हूँ।
खैर टिप्पणी पोस्ट बनती जा रही है।
तो अंत में- आज पहली अप्रेल है।
"विमल" कितना सुन्दर शब्द है, प्यार करने लायक। लेकिन बनता "मल" से ही है।
लेख अच्छा लगा. अनूप जी का लिंक फौलो करके जाना कि अब तक क्या क्या बेहतरीन चीजें मिस करते रहे.
केमिस्ट्री हो या मिस्ट्री हो, हिस्ट्री भी इसीसे बनी है .
मित्र ,सौ की सीधी एक बात.
प्यार लिखने लिखाने या बहसाने की नहीं
'करने ' की चीज़ है.
प्यार में डूब जाओ ,जितने गहरे जाओगे,उतना ही आनन्द पाओगे. परमानन्द.
ज़रूरी नहीं हैप्यार के लिये प्रियतम या प्रेयसी का होना .
प्यार कहीं भी ,किसी से भी हो सकता है.
असली मिस्ट्री तो ये है ,कि प्यार करने वाला भी नहीं जानता कि प्यार कब हो जाता है.( और क्यों ?)
mitra ,pyaar likhane likhaane aur bahasaane kee nahee^ karane kee cheez hai.
प्यार पर खोज ही मौज है - इसपर विवाद तो किसी भी जानिब न बैठे - वैसे पहले थोड़े कान खड़े हुए - क्या? तथाकथित मूर्ख दिवस पर प्रेम चिंतन ? फिर मज़ा आया जब मामला गहराया लोक से परलोक तक ले आया - वैसे अजित भी ने पिछले हफ्ते खोमोशी वाला गाना भी लगाया था - सादर - मनीष
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