
एक बात और बता दूं कि साढ़े पांच साल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने के बाद प्रिंट में वापस लौटने पर मुझे लगा, जैसे कोई मछली सूखे किनारे से उछलकर दोबारा पानी में पहुंच गई हो। आपको अगर गांव का अनुभव होगा तो ज़रूर जानते होंगे कि तालाब के पानी में छिछली खिलाना क्या होता है। हाथ तिरछा करके फेंका गया खपड़ा या पतले पत्थर का टुकड़ा सतह को छूता-छूता उड़ा चला जाता है, कहीं गहरे नहीं उतरता। मुझे लगता है कि आज हमारी टेलिविजन न्यूज़ में छिछली खिलाने जैसा ही काम हो रहा है। पूरी शिफ्ट में आप छिछली खिलाते रहते हैं। पारी खत्म कर जब घर लौटते हैं तो लगता है न कुछ किया, न कुछ पाया।
जैसे कोई भिखारी किसी स्टेशन की सीढियों पर दस घंटे बैठकर सौ-दो सौ कमा लेता है, वैसे ही हम हफ्ते में पांच दिन दस-दस घंटे की चाकरी कर महीने में 70-80 हज़ार कमा लेते हैं। लेकिन इस काम से पैसे के अलावा हमें कुछ नहीं मिलता। न बदलते जमाने की समझ, न राजनीति या अर्थनीति की समझ। न अपनी समझ, न परायों की समझ। सत्ता की लिप्सा में डूबे चंद लोग अपना हिसाब-किताब लगाकर आपको सेट करते रहते हैं और आप उनकी फौज के घुघ्घू या सियार बन गए तो ठीक है, नहीं तो बस समय काटते रहिए, ऊर्जा-विहीन होते रहिए, दिन-ब-दिन चुकते चले जाइए। लेकिन मुझे लगता है कि न तो हम इतने फालतू हैं और न ही हमारे पास इतना फालतू समय है।
हां, इतना ज़रूर है कि आज मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सत्ता समीकरण का अनिवार्य हिस्सा बन गया है तो जिन्हें इन समीकरणों से खेलने का मौका मिला है और जिन्हें इस खेल का हुनर आता है उनके लिए यहां मौजा ही मौजा है। बाकी सब तो फुरसत मिलने ही इमारत के स्मोकिंग एरिया में छल्ले उड़ाने चले जाते हैं। कल के चंद विद्रोहियों को मैंने इस हालत में देखा है। और, उनकी यह हालत देखकर मुझे लगा कि मैं इस हश्र को कतई प्राप्त नहीं हो सकता। अंत में मैं वे पंक्तियां पेश करना चाहता हूं जो अपने ताज़ा इस्तीफे में मैंने लिखी थीं...
The moment you feel stagnant, the moment you feel that you are becoming redundant, immediately you should say, quit. That’s why I support euthanasia. Always new challenges are waiting for you somewhere outside.क्या करूं, अपने यहां इस्तीफे अब भी अंग्रेज़ी में लिखने का चलन है। वैसे, आज का लिखा यह सारा कुछ एकालाप ही है। लेकिन अक्सर लगता है कि अपने से संवाद बनाने की कोशिश में बहुतों से संवाद बन जाता है क्योंकि एक की हद टूटकर कब अनेक से मिल जाती है, पता ही नहीं चलता। इसीलिए कभी-कभी लगता है कि मैं अनाम ही रहता तो अच्छा रहता।