पाखंड का प्रतिफल है अमेरिका पर घहराती ये मंदी

जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ साल 2001 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं। इस समय कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। कुछ दिनों पहले गार्डियन अखबार में छपे लेख में उन्होंने अमेरिका में छाए मौजूदा आर्थिक संकट को पाखंड के टूटने का नतीजा बताया है। इसमें उन्होंने और भी कई बड़ी दिलचस्प बातें कही हैं। इन दिनों कुछ फालतू कामों में फंसा हूं तो अपना कुछ लिखने के बजाय जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ का यह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं। मुलाहिज़ा फरमाइए...
ताश के महल ढह रहे हैं। आर्थिक संकट ऐसा कि इसकी तुलना 1929 की महामंदी से की जा रही है। लेकिन असल में यह संकट वित्तीय संस्थाओं की परले दर्जे की बेईमानी और नीतियां बनानेवालों की अक्षमता का नतीजा है। हुआ यह है कि हम अजीब तरह के पाखंड के आदी हो गए हैं। किसी तरह के सरकारी नियंत्रण की बात होती है तो बैंक हल्ला मचाने लगते हैं, एकाधिकार बढ़ाने के खिलाफ उठाए गए कदमों का विरोध करते हैं, लेकिन हड़ताल होने पर फौरन सरकारी दखल की मांग करने लगते हैं। आज भी वो पुकार लगा रहे हैं कि उन्हें संकट से उबारा जाए क्योंकि वे इतने बड़े और महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें डूबने नहीं दिया जा सकता!!!

बड़ा सवाल हमेशा इसी व्यवस्थागत जोखिम के इर्दगिर्द मंडराता रहा है कि किसी संस्था का धसकना पूरी वित्तीय प्रणाली को किस हद तक बरबाद कर सकता है? दिक्कत यह है कि अमेरिका का वित्तीय तंत्र व्यवस्थागत जोखिम को फटाक से पलीता बना देता है। इसका उदाहरण है मेक्सिको का 1994 का वित्तीय संकट। लेकिन वह अपने कर्मों की तरफ नहीं देखता। अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन ने Fannie Mae and Freddie Mac के सरकारी उद्धार को तो जायज बता डाला, लेकिन लेहमान ब्रदर्स के डूबने में उन्हें पर्याप्त व्यवस्थागत जोखिम नहीं नज़र आया।

मौजूदा (अमेरिकी) आर्थिक संकट भरोसे के भयानक रूप से भसकने का प्रतिफल है। बैंक अपने कर्जों और धंधे को लेकर एक-दूसरे से भारी दांव लगा रहे थे। परिसंपत्तियों के गिरते मूल्य को छिपाने और जोखिम को टालने के लिए बेहद जटिल सौदों का सहारा ले रहे थे। ये ऐसा खेल है जिसमें कुछ लोग जीतते हैं तो कुछ हारते हैं। लेकिन इसमें कर्ज देनेवाले बैंक और उनके कर्ज़ों का जोखिम उठाने के धंधे में लगी मॉर्टगेज कंपनियां ही नहीं, आम लोग भी शामिल हैं। इसलिए यह हिसाब-किताब बराबर करनेवाला खेल नहीं है। इसमें आम लोगों का भरोसा टूटता है। वे जब देखते हैं कि वित्तीय प्रणाली से धुआं उठ रहा है तो हिसाब-किताब ऋणात्मक हो जाता है, पूरा बाज़ार धराशाई हो जाता है और नुकसान हर किसी को उठाना पड़ता है।

दरअसल, वित्तीय बाज़ार भरोसे पर टिके होते हैं और वही भरोसा अब टूट चुका है। लेहमान ब्रदर्स का ढहना इस भरोसे के तलहटी पर पहुंच जाने का द्योतक है और ये सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। इस भरोसे का ताल्लुक बैंकों तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक संदर्भ में देखें तो आज अमेरिकी नीति-नियामकों के ऊपर लोगों का भरोसा डगमगा गया है। जुलाई में जी-8 की बैठक में अमेरिका ने ढांढस बंधाया था कि सब कुछ अब ठीक हो रहा है। लेकिन हाल की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि ऐसा कहना महज छलावा था।

आखिर हम किस हद तक इस संकट की तुलना 1929 की महामंदी से कर सकते हैं? ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि हमारे पास वो मौद्रिक व राजकोषीय उपाय और समझ है जिनसे हम संकट को उस हद तक पहुंचने से रोक सकते हैं। लेकिन आईएमएफ और अमेरिकी वित्त मंत्रालय समेत दुनिया के तमाम देशों के केंद्रीय बैंकों और वित्त मंत्रियों के ऐसे ही बचाव ‘उपायों’ ने इंडोनेशिया में 1998 का आर्थिक भूचाल पैदा कर दिया था। फिलहाल बुश प्रशासन ने इराक युद्ध से लेकर कैट्रीना चक्रवात का जैसा सामना किया है, उससे तो यही लगता है कि वो मौजूदा आर्थिक संकट को यकीनन मंदी के हश्र तक पहुंचाने का पूरी ‘काबिलियत’ रखता है।

अमेरिका की वित्तीय व्यवस्था न तो जोखिम को साध सकी और न ही पूंजी का सही नियोजन कर सकी। ऐसे तरीके निकाले जा सकते था कि लोगबाग ब्याज दरों के बढ़ने और कीमतों के गिरने के बावजूद कर्ज पर लिए गए अपने घरों में बने रहते। लेकिन अपने जोखिम को बांटने के चक्कर में पूरा उद्योग एक दुष्चक्र पैदा करता गया। यहां तक कि अमेरिका की मॉर्टगेज कंपनियों ने अपना जहरीला जोखिम बाकी दुनिया को एक्सपोर्ट कर दिया। यह सब कुछ नई-नई तजबीज़ों को आजमाने के नाम पर किया गया। लेकिन इन तजबीज़ों ने अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बजाय उसका भठ्ठा बिठा दिया। और, अब उनके किए की कीमत चुका रहे हैं हम जैसे लोग जिन्होंने घर खरीदे थे, जो मजदूर है, निवेशक है और करदाता हैं।

Comments

ॠणम कृत्वा घृतम पिबेत।
ॠण शायद ज्यादा हो गया, या घी पचा नहीं - ज्यादा खा लिया! :-)
अनिलजी , स्टिगलिट्ज़ का लेख प्रस्तुत करने के लिए शुक्रिया।बहुत जरूरी है ।
Ghost Buster said…
अमेरिका का वर्तमान संकट तो अपेक्षित ही था. काफी पहले से पढ़ते आ रहे हैं कि ऐसी कोई मंदी आ सकती है. सन २०१० से पहले आने की आशंका थी. सही साबित हो रही है.
यही संकट भारी पड़ रहा है। जैसे तैसे निकल भी जाएगा। लेकिन अगला उस के लिए क्या तैयारी है अमरीका के पास?
खबरी! said…
हम तो आपके लेखों के कायल हो गए हैं अनिल जी....ब्लाग पर इतना सार्थक लेखन...
बेहतरीन लेख पढ़वाने का आभार।
PD said…
जो जहां होता है उसी नजरीये से देखता है.. ठीक उसी तर्ज पर मुझे तो बस यही दिख रहा है कि कैसे जॉब मार्केट पर बुरा असर हुआ है.. अभी महिने भर पहले आई.टी. जॉब मार्केट कुछ हद तक ठीक हुआ था, अब फिर से वही हाल हो गया है.. मेरी नजर में कुल मिलाकर कह सकते हैं कि जो अभी आई.टी. जॉब में टिक गया वो लंबी रेस का घोड़ा साबित होगा..
Hello

Anil ji,

aap 1999 mein amar ujala karobar mein the kya.

If yes, than i am ok.

Shankar Marathe
98201 34548
shankar.marathe23@gmail.com
अनिल भाई
ऐसे लोगों को मैं जानता हूँ जो लंबे समय से यह कहते रहें हैं की बाजार आधारित अर्थव्यवस्था ( पूंजीवाद ) का आंतरिक संकट गहराता जा रहा है .पर क्या आप किसी विशेषज्ञ को जानते हैं जिनको अमरीका में आए इस आर्थिक और वित्तीय तूफ़ान की भनक थी .अंग्रेज़ी के बिज़नस अख़बारों ने इसको FINANCIAL MELT DOWN की संज्ञा दी है. कुकुरमुत्तों की तरह टीवी चैनलों पर बेतरतिव उग आए एक्सपर्ट्स पता नहीं किस मुंह और ताकत से आज भी धुँआधार भविष्यवानियाँ करते चले जा रहें हैं. आर्थिक या वित्तीय भविष्य दृष्टा और उसका कोई लेख अगर नजर में आए तो उसे भी प्रकाशित करें.हम सबको लाभ होगा.
सादर

.
Richa Joshi said…
आपके माध्‍यम से उपयोगी जानकारी मिली।
bahtreen alekh padhwane ke liye abhar
Abhishek Ojha said…
जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ की एक बड़ी कमाल की पुस्तक है ग्लोबलिजेसन पर 'Globalization and Its Discontents'. शायद आपने पढ़ी हो. न तो जरूर पढ़ें आपको जरूर पसंद आएगी ! धन्यवाद इस आलेख के लिए.
अनिल जी आप बिजनेस भास्‍कर से जुड़ने जा रहे हैं। मेरी बधाई स्‍वीकार करें। कमल भुवनेश (कमल शर्मा)

Popular posts from this blog

मोदी, भाजपा व संघ को भारत से इतनी दुश्मनी क्यों?

चेला झोली भरके लाना, हो चेला...

घोषणाएं लुभाती हैं, सच रुलाता है