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Showing posts from January, 2008

शरीर हमारा है, लेकिन जीवन नहीं है हमारा

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मानस का चरित्र गढ़ते वक्त मैं अपनी दो प्रस्थापनों पर बड़ा मुदित था। पहली यह कि जीवन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है और दूसरी यह कि जानवर कभी आत्महत्या नहीं करते, इंसान ही आत्महत्या करता है। दोनों में ही आत्महत्या को सही ठहराने की कोशिश की गई है। जीवन को बायोलॉजिकल फैक्ट मानकर जीते चले जाने की बात ज़रूर आई थी, जिससे लग सकता है कि यह तर्क आत्महत्या का विरोध करता है। लेकिन असल में यह जीवन को जिंदा लाश जैसा ढोने का बहाना भर देता है। आज मुझे लगता है कि इन दोनों ही प्रस्थापनाओं में छिपी सोच सरासर गलत है। मानव शरीर यकीनन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है, लेकिन हर किसी इंसान का जीवन एक सामाजिक हकीकत है। भगवान ने हमें बनाया, उसने किसी मकसद से हमें धरती पर भेजा है और यह शरीर ईश्वर की धरोधर है - ये सारी बातें पूरी तरह बकवास हैं। हम प्रकृति की रचना हैं और हमारे मां-बाप ने हमें पैदा किया है। वो न होते तो हमें यह शरीर नहीं मिलता। ये हाथ-पांव, मुंह-नाक, सुंदर सलोनी आंखें, खूबसूरत चेहरा हमें नहीं मिलता। इसलिए इस शरीर के लिए हम प्रकृति और अपने मां-बाप के ऋणी हैं। लेकिन हमारे जीवन और किसी आवारा कुत्ते या जंगली जानवर और पक

रेल की फसल तैयार है, लालू अब काटेंगे चारा

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लालू चालीसा गाने का वक्त आ गया है। ठीक 28 दिन बाद 26 फरवरी को लालू जी अपना पांचवां और शायद आखिरी रेल बजट पेश करेंगे। बहुत से लोग उम्मीद कर रहे हैं कि लालू इस बार फिर कोई कमाल दिखाएंगे। लेकिन ज़रा संभल के। लालू प्रसाद यादव 23 मई 2004 को रेल मंत्री बनने के बाद से अब तक चार बजट पेश कर चुके हैं। फसल अब पककर तैयार हो चुकी है और लालू इस बार दबे पांव चारा काटने की तैयारी में हैं। इसकी पहली आहट मिली है इस खबर से कि भारतीय रेल अब रेलवे प्लेटफार्म और ट्रेनों से अपने ब्रांडेड पानी, रेल नीर को हटाकर उसकी जगह प्राइवेट कंपनियों के ब्रांडेड पानी बेचने जा रही है। वजह यह बताई जा रही है कि रेल नीर के खराब होने की बहुत सारी शिकायतें मिल रही हैं। सवाल उठता है कि क्या 20,000 करोड़ के सरप्लस में चल रही लालू की रेल शुद्ध पानी भी नहीं बना सकती? जवाब है – बना सकती है। लेकिन औरों का ब्रांडेड पानी बेचने से जो ‘कट’ मिलेगा, वह रेल नीर से नहीं मिल सकता। लालू की इस बदलती सीरत का एक और नमूना पेश करना चाहूंगा। दो दिन बाद पहली फरवरी से रेल में 90 दिन पहले आरक्षण कराया जा सकता है। अभी तक यह अवधि 60 दिन की है। आप कहेंगे

पकड़े जाने का डर ही हमें नैतिक बनाए रखता है

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नैतिकता की अवधारणा को समझने में दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों को भले ही देर लग जाए, लेकिन हम इसे अपनाते बड़ी जल्दी हैं। नर्सरी में जाते ही बच्चा सीख लेता है कि क्लास में खाना अच्छी बात नहीं है क्योंकि टीचर इससे मना करती हैं। अगर टीचर कह दे कि इसमें कोई बुराई नहीं है तो बच्चा खुशी-खुशी क्लास में खाने लगेगा। लेकिन वही टीचर अगर यह कह दे कि दूसरे बच्चे को कुर्सी से धकेल देने में कोई बुराई नहीं है तो बच्चा इसे नहीं मानता। वह कहेगा – नहीं, टीचर आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। ध्यान दें, दोनों ही मामलों में बच्चे को सीख घर-परिवार और समाज के किसी बड़े से मिली है, लेकिन धकेलने के खिलाफ नियम तब भी कायम रहता है जब कोई बड़ा भी उसे तोड़ने को कहता है। यह अंतर है नैतिकता और सामाजिक मान्यता के बीच। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चा इसे बड़ा होने के साथ-साथ आत्मसात करता जाता है। असल में यह भी सच है कि वही बच्चा अगर कोई न देखे और उसे पकड़े जाने का ज़रा-सा भी अंदेशा न हो तो वह किसी को धकेल भी सकता है और उसे अंदर से बुरा भी नहीं लगेगा। यही बात उन लोगों पर लागू होती है जो चोरी करते हैं या किसी की हत्या करते है

बचत की नई परिभाषा, बाबा का सच्चा किस्सा

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एक रोचक किस्सा याद आया। मैं सुल्तानपुर में कमला नेहरू इंस्टीट्यूट से बीएससी कर रहा था। हफ्ते के अंत में गांव जाता था। एक दिन जैसे ही गांव के बस स्टैंड पर उतरा तो बगलवाले गांव के एक बाबा जी साइकिल पैदल लेकर जाते हुए मिल गए। इन बाबा जी का इलाके में बहुत सम्मान था। बताया जाता था कि पुराने ज़माने के इंटरमीडिएट हैं। उनको देखते ही खुद ब खुद अंदर से आदर भाव छलक आता था। पैलगी के बाद मैंने पूछा क्या हुआ बाबा? कैसे पैदल? बोले – क्या बताऊं बच्चा, गया था गोसाईंगंज। जैसे ही गोसाईंगंज से निकला, मड़हा पुल डांका कि साइकिल ससुरी पंक्चर हो गई। मैंने सवाल दागा कि फिर बनवाया क्यों नहीं? बाबा बोले – अरे, बच्चा, बनवाता कैसे? पुल से उतरकर पंक्चर बनानेवाले के पास गया। पूछा कितने पैसे लोगे। बताया 75 पैसे एक पंक्चर के। मोलतोल करके 65 पैसे पर मामला पट गया। एक ही पंक्चर था। बनाकर चक्का कस दिया। मैंने उसके साठ पैसे दिए। उसने मना कर दिया। कहने लगा – वाह, बाबा! बहुत चालाक हो। एक तो दस पैसे छुड़वा लिए, ऊपर से पांच पैसे भी कम दे रहे हो। बाबा जी का किस्सा जारी था। बोले – हमहूं ठान लिहे कि बच्चा अब देब तो साठय पैसा देब।

सांप का खून ठंडा, पुलिस का उससे भी ठंडा

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एनकाउं टर का सच: जीतेंद्र दीक्षित के खुलासे का बाकी हिस्सा एनकाउंटर के ठिकाने पर गाड़ी आकर रुकती है। एनकाउंटर करनेवाला अफसर पहले ही वहां पहुंच चुका होता है। दस्ते के सभी सदस्य अपना मोबाइल फोन बंद कर देते हैं। आसपास मुआयना किया जाता है कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। अगर कोई फेरीवाला, भिखारी या इक्का-दुक्का राहगीर नजर आता है तो उसे डांट-डपट कर भगा दिया जाता है। जब पूरी तरह से तसल्ली हो जाती है कि आसपास कोई चश्मदीद नहीं है तो कार में बैठे आरोपी को बाहर निकलने को कहा जाता है। उसके हाथ अब भी हथकडी से बंधे हुए होते हैं। कार से बाहर निकलते वक्त आरोपी जोरों से रोता है, चिल्लाता है, जान बख्श देने की फरियाद करता है, लेकिन उसकी चीख पुकार ज्यादा देर तक कायम नहीं रहती। फटाक...फटाक...फटाक...4 से 5 फुट की दूरी पर खडा अफसर अपनी सरकारी रिवॉल्वर से उस पर गोलियां बरसाने लगता है। खासकर आरोपी के पेट में, पैर में और सिर में गोली मारी जाती है। आरोपी गोलियां लगते ही गिर पडता है और उसकी सांसें कम होती जातीं हैं। खून से लथपथ आरोपी के हाथ में पिस्तौल या रिवॉल्वर पकडाई जाती है (जो आमतौर पर आरोपी के पास से ही पुलिस

ज्ञान जी! दिमाग में भी एक जठराग्नि होती है

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ज्ञान जी ने कल ही अभय के स्वाभाविक स्नेह में आकर एक ‘स्माइलीय’ पोस्ट ठेल दी तो आंखें तरेरती और हंसी-ठिठोली करती तमाम टिप्पणियां ठिठक कर खड़ी हो गईं। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह पोस्ट मजाक-मजाक में लिखी गई है। लेकिन आप सभी से, खासकर ज्ञान जी से मैं कुछ नितांत आध्यात्मिक किस्म के सवाल पूछना चाहता हूं। क्या आपने सुबह उठते वक्त या दिन-रात कभी भी, कुछ पल के लिए ही सही, ऐसा महसूस किया है कि आपके दिमाग के अंदर का करकट किट-किट कर जल रहा है, जैसे अलाव में पुआल जलता है, जैसे होलिका में बबूल की लकड़ियां जलती हैं, जैसे हाथ में पुआल लेकर उस पर थोड़ी-सी आग रखो या धूप में उसे मोटे कॉन्वेक्स लेंस को फोकस करके सुलगाओ और फिर फूंक मारकर उससे लपट निकालो? क्या आपको कभी अनुभूति हुई है कि ज्ञान चक्र से सहस्रार चक्र के बीच कहीं अचानक कोई अखंड दीप जल उठा है जिसकी लौ पर पड़ते ही तमाम कीट-पतंगे जलकर स्वाहा हो जा रहे हैं, आपकी आंखों की ज्योति और उनका दायरा अचानक बढ़ गया है और बिना गर्दन घुमाए आप आगे-पीछे, ऊपर नीचे, दाएं-बाएं, हर दिशा में एक साथ देख सकते हैं? क्या आपने अपने अंदर गले के पास मेरुदंड से उठती नीचे से

ऑन योर मार्क, गेट सेट, अब उड़ा दो साले को

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यह एनकाउंटर की ऐसी कहानी है जो अभी तक सिर्फ सुनी गई है, देखी नहीं गई क्योंकि एनकाउंटरों को देखनेवाले सिर्फ पुलिसवाले होते हैं और वो इसे किसी और के देखने की कोई गुंजाइश नहीं छो ड़ते। लेकिन सच की तलाश में लगे लोग सात परदों में छिपे सच को भी निकाल लाते हैं । स्टार न्यूज़ के मुंबई ब्यूरो चीफ जीतेंद्र दीक्षित एक ऐसे ही पत्रकार हैं। बारह साल के करियर में आठ साल तक उन्होंने क्राइम रिपोर्टिंग की है। अंडरवर्ल्ड और पुलिस महकमे की हर नब्ज़ से वो वाकिफ हैं। लेकिन बहुत सारी बातें वे प्रोफेशनल बंदिशों व दबावों के चलते सामने नहीं ला पाते। सच कहने की बेचैनी उन्हें ब्लॉगिंग में खींच ले गई। लेकिन समय और उचित रिस्पांस के अभाव में उन्होंने ब्लॉग को सक्रिय बनाने की योजना से हाथ खींच लिया। इस ब्लॉग पर उन्होंने महीनों पहले एनकाउंटर के बारे में ऐसा सच लिखा था जो उन्होंने खुद एक पुलिसवाले से उगलवाया है। दिक्कत ये है कि इस सच को टीवी पर दिखाने के लिए स्टिंग ऑपरेशन की जरूरत पड़ती, जबकि अखबार में इसे छापने पर कानूनी साक्ष्यों की दरकार होगी। लेकिन ब्लॉग पर इसे छापने के लिए केवल सत्यनिष्ठा चाहिए, वह भी केवल अपने

उसे सबकी परवाह थी, इन्हें केवल शान की

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लोकजीवन का अपना प्रवाह है। यहां पहुंचकर इतिहास और मिथक अलग ही शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। राजा जनक बारातियों को खुद खाना परोस रहे होते हैं और ऐसा करते हुए उनकी धोती मैली हो जाती है। सीता कुएं पर गगरी लेकर पानी भरने जाती है। दशरथ और कौशल्या हिरन (प्रजा) का मांस तो क्या चमड़ी तक नहीं छोड़ते। असल में, अपने देश में कृषि और व्यापार अर्थव्यवस्था की प्रमुखता के हज़ारों सालों के दौरान लोकजीवन बड़ी निर्मल और मंथर गति से बहता रहा। अपनी बात कहने या आक्रोश निकालने पर कोई बाहरी बंदिश नहीं थी। इसका जरिया बनते थे लोक उत्सव और लोकगीत। अभी दस-पंद्रह साल पहले तक गांवों में लड़के की बारात के चले जाने के बाद घर की बुढ़िया आजी से लेकर नई नवेली बहुएं तक आंगन में लड़के के बाप, दादा, चाचा और ताऊ से लेकर सभी पुरुषों की क्या खबर लेती थीं, आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते। औरतें बाकायदा दाढ़ी-मूंछ लगाकर घर के पुरुष का बाना धर लेती थीं और फिर नाटक/स्वांग के नाम पर पुरुषों की ऐसी छीछालेदर करतीं कि कुछ पूछिए मत। होलिका दहन के पहले गालियों का रिवाज़ कुछ इसी तरह निकला होगा। हमारे लोकगीत भी लोगों की असली अबाधित अभिव्यक्ति का म

वफादारों का सैलाब आएगा, लेकिन धीरे-धीरे

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एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल अप्रैल तक दुनिया भर में इंटरनेट पर सक्रिय ब्लॉगों की संख्या करीब 1.55 करोड़ पर पहुंच चुकी थी। ये वो ब्लॉग हैं जो तीन महीने में कम से कम एक बार अपडेट किए जाते हैं। मुझे लगता है कि अब तक ऐसे सक्रिय ब्लॉगों की संख्या कम से कम दो करोड़ तक पहुंच गई होगी। गौरतलब है कि साल 2005 तक सक्रिय ब्लॉगों की संख्या 30 लाख के आसपास थी। दो-ढाई साल में करीब पांच गुना, छह गुना की वृद्धि यही दिखाती है कि दुनिया भर में अभिव्यक्ति का जबरदस्त विस्फोट हो रहा है। इन ब्लॉगों पर निजी किस्से-कहानियों और प्रेम जैसे भावुक मसले तो होते ही है, राजनीति से लेकर समाज, साहित्य, तकनीक, खेल, कला और पाक-कला तक पर लिखा जा रहा है। सवाल उठता है कि इतने सारे ब्लॉगों के बीच अपने ब्लॉग को लोकप्रिय कैसे बनाया जाए? कौन-सी बातें हैं जो किसी ब्लॉग को ब्लॉग के ग्लोब में मची धक्कमधुक्की में अलग पहचान देती हैं? दो साल पहले अमेरिका में तमाम ब्लॉगरों से बात करके इस पर एक रोचक लेख लिखा गया था। उसी की कुछ बातें पेश कर रहा हूं। फैनब्लॉग्स अमेरिका में कॉलेज़ फुटबॉल प्रेमियों का ब्लॉग है। फी़डबर्नर से ही 18361 पा

कौन है जो खेल रहा है सांप-सीढ़ी का खेल?

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शेयर बाज़ार आखिरकार संभल गया। क्यों संभल गया? क्योंकि अमेरिका में ब्याज दरों में तीन-चौथाई फीसदी की ऐतिहासिक कटौती जो की गई है। लेकिन यह बाज़ार धराशाई हुआ ही क्यों था? क्योंकि अमेरिका में आसन्न मंदी का खतरा बढ़ गया था। लेकिन अमेरिका में यह संकट तो बीते साल अक्टूबर से चल रहा था, फिर हमारा शेयर बाज़ार तीन महीने से कुलांचे क्यों मार रहा था? इसलिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था की अपनी स्वतंत्र हैसियत बन चुकी है और उस पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था का खास असर नहीं पड़ता। बाज़ार जब उठा तो अलग तर्क और बाज़ार जब गिरा तो उसका उलट!! विश्लेषण का यह अवसरवादी अंदाज़ बहुत खतरनाक है। इसके पीछे सच को छिपाने की खतरनाक मंशा है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई है। आईटी से लेकर दवा कंपनियों का फायदा-नुकसान सीधे-सीधे दुनिया के बाज़ार पर निर्भर करता है। उद्योगों का ग्लोबल चक्र मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के संवेदी सूचकांक सेंसेक्स में शामिल कंपनियों पर करीब 38 फीसदी तक असर डालता है। आईटी और दवा कंपनियों को मिला दें तो सेंसेक्स पर विश्व बाज़ार की धमक का असर 52 फीसदी से ऊपर पहुंच जाता है। ज़ाहिर है च

सुनो भाई! बोलो मत, यहां सब स्वचालित है

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तरकश से तीर निकल चुका है। हिंदी चिट्ठाकारों के स्वर्ण कलम 2007 पुरस्कारों के लिए नामांकन का काम पूरा हो गया। दस महिला ब्लॉगरों और दस पुरुष ब्लॉगरों के नाम सामने हैं। दस महिलाओं में से एक रचना जी ने अपना नाम वापस लेने का ऐलान किया है क्योंकि उन्हे लगता है कि ब्लॉगरों को महिला-पुरुष में नहीं बांटा जाना चाहिए और दूसरे, खुद उनकी मां इसमें से एक पुरस्कार की प्रायोजक हैं। खैर, संजय भाई ने उनकी सुन ली और उनका नामांकन हटा लिया। साथ ही उन्होंने किसी भी हमले से खुद को बचाते हुए साफ कर दिया है कि, “हमारे हाथ में कुछ नहीं है, पूरी प्रक्रिया स्वचालित है।” नामांकित की गई महिला ब्लॉगरों की सूची पर किसी को शायद ऐतराज नहीं हो सकता। लेकिन चिट्ठाकारों ने ही जिन दस पुरुष ब्लॉगरों को नामांकित किया है, उनमें गजब का दिलचस्प विन्यास है। सारथी जी और ज्ञानदत्त जी वरिष्ठ ब्लॉगर हैं। काकेश और पुराणिक व्यंग्यकार हैं। शब्दावली और रेडियोवाणी की अपनी विशेषज्ञता है। ये सभी छह ब्लॉग राजनीतिक रूप से पूरी तरह तटस्थ हैं। वैसे तटस्थता भी एक तरह की राजनीति होती है। बाकी नामांकित किए गए चार ब्लॉगों में भी गजब की समान छ

अभी तक तो मैं अंधा हो चुका होता

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मेरे गांव में गजाधर नाम के एक पंडित हुआ करते थे। उन्होंने ही मेरी जन्मपत्री बनाई थी। पत्री बाकायदा संस्कृत में थी। कम से कम गज भर लंबी थी। लकड़ी की नक्काशीदार डंडी पर उसे लपेटकर रखा गया था। 20-22 साल का हुआ तो एक दिन मां की संदूक से निकालकर उसे पढ़ने लगा। पढ़कर मैं कई जगह अटका, कई जगह चौंका। उसके मुताबिक रावण के जैसे तमाम सर्वनाशी अवगुण मेरे अंदर थे। यथा - यह जातक घोर अहंकारी होगा। कुल का नाश करनेवाला है। माता-पिता को कष्ट पहुंचाएगा। और, सबसे बड़ी बात यह कि, “नेत्रो विहानो जात:”… समय और तिथि ऐसी थी कि मुझे समझ में आया कि मैं 35-36 साल का होते-होते अंधा हो जाऊंगा। मैंने चिंतित होकर पिताजी को यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता, गजाधर पंडित ने किसी और की जन्मपत्री दे दी होगी। मैंने कहा – नहीं, उसमें जन्म का समय और राशि का नाम बिलकुल मेरा ही दर्ज है। पिताजी ने तब खुद मेरी जन्मपत्री शुरू से लेकर आखिर तक बांची और बोले – सब बकवास है। लेकिन मेरे लिए वह भयंकर अनिश्चितता का दौर था। करियर और भावी जीवन को लेकर उहापोह जारी थी। इसलिए भविष्य की तनिक-सी आहट भी बेचैन कर देती थी। कुल का नाश

जानते हैं, समय का काल कौन है?

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अक्सर हमारे पास समय रहते हुए भी समय नहीं होता और समय न रहते हुए भी हम समय निकाल ही लेते हैं। ये कोई गूढ़ पहेली नहीं, बल्कि हमारी-आपकी रोज़ की ज़िंदगी का सच है। किसी बेरोज़गार से पूछ लीजिए या मैं ही बता देता हूं क्योंकि मुझे भी कुछ निजी कारणों से करीब साल भर बेरोज़गार रहना पड़ा था। सुबह से लेकर शाम और देर रात तक इफरात समय था, फिर भी किसी काम के लिए समय कम पड़ जाता था। हर समय व्यस्त रहता था, लेकिन काम क्या किया, ये दिखता नहीं था। फिर आठ घंटे की नौकरी पकड़ी तो दुख इस बात का था कि अपना लिखने का समय ही नहीं मिलता। अब दस घंटे की नौकरी कर रहा हूं और लिखने का समय भी मजे से निकल जा रहा है। सोचता हूं कि यह सुलझा हुआ आसान-सा पेंच क्या है? जो समय असीमित है, वह हमारे लिए सीमित क्यों बन जाता है? हालांकि आइंसटाइन दिखा चुके हैं कि समय और आकाश (Time & Space) इतने विराट हैं कि हम इनकी कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन इन दोनों का अंत है। आइंसटाइन ने यह भी निकाला कि आकाशीय समष्टि या Space की तीन ही विमाएं नहीं होतीं। लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई या गहराई के अलावा चौथी विमा है समय। स्थिरता ही नहीं, गति के सापेक्ष

मृत्यु ही ब्रह्म है

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सत् नहीं, असत् नहीं, वायु नहीं, आकाश नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई गति नहीं, कोई आधार नहीं, मृत्यु नहीं, अमरता नहीं, न रात, न दिन, न प्रकाश, न अंधकार। नहीं, अंधकार तो था। उबलता हुआ अंधकार! तरल! अपने में ही छिपा हुआ! अंधकार तो था। परंतु इस अंधकार से पहले, तब जब अंधकार भी नहीं रहा होगा, जब कुछ न रहा होगा, तब क्या था? कुछ नहीं होने को क्या कहते याज्ञवल्क्य? उसे अंधकार कहना ठीक नहीं लग रहा था और उन्हें उस अवस्था के लिए कोई शब्द नहीं मिल रहा था। तभी उनकी कल्पना के सामने उपस्थित उस अंधकार से ही जैसे एक शब्द फूटा, कुछ यूं कि जैसे अंधकार ही सिमटकर शब्द बन गया हो – मृत्यु। जब कुछ नहीं था, तब मृत्यु थी – जैसे कोई समझा रहा हो उन्हें परमगुरु की भांति। मृत्यु का कोई रूप या आकार तो है नहीं। अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है। रूप का, आकार का, क्रिया का, गति का, किसी का भी न रह जाना। यदि किसी का अस्तित्व था ही नहीं तो वह अंधकार भी नहीं रहा होगा। मृत्यु ही रही होगी। अंधकार का भी रूप उसी ने लिया होगा। सब कुछ मृत्यु से निकला है, मृत्यु ही जीवन का गर्भ है, सृष्टि का मूल। मृत्यु से ही सब ढंका हुआ था। क्षुधा से ह

शास्त्रीजी सही कहते हैं आप, हम तो निमित्त भर हैं

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आदरणीय शास्त्री जी ने कल मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी की कि, “मुझे कई बार ऐसा लगता है कि कोई दैवी शक्ति एक हिंदुस्तानी की डायरी लिखने में तुम्हारी मदद करती है. कारण? इस चिट्ठे का विश्लेषण सामान्य से अधिक सशक्त होता है, यह है मेरे सोचने का कारण!” इसे पढ़कर मन फूलकर कुप्पा हो गया। अगर मन में रह-रह के उठनेवाले आवेगों को दैवी शक्ति मानूं तो सच है कि यह दैवी शक्ति ही मुझसे बराबर हिंदुस्तानी की डायरी लिखा रही है और शायद मरते दम तक लिखवाती रहेगी। सीखने-जानने की ललक है, अपने अधूरे होने का अहसास है तो मरते दम तक पढ़ता-सीखता-सोचता भी रहूंगा। वैसे, यह बात अभय ने आठ-नौ साल पहले मेरी कुंडली देखकर बताई थी, तभी से माने बैठा हूं कि मेरे सीखने की प्रक्रिया कभी थमेगी नहीं। क्या कमाल है साफ-साफ देखने-दिखाने की बात करता हूं। लेकिन मन की चादर को तानने के लिए ज्योतिष और कुंडली के रूप में एक्सटैसी जैसी ड्रग का भी सहारा लेता हूं। किसी दुविधा में फंसता हूं तो रामचरित मानस की श्रीरामशलाका-प्रश्नावली पर पेंसिल से निशान लगाकर समाधान भी खोजता हूं। इसीलिए तो कहता हूं कि मैं एक आम इंसान हूं। मुझसे कभी कोई गफलत मत पालिए

आला-ए-पैमाइशे-हरारत है आपके पास?

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जब आला-ए-पैमाइशे-हरारत का अर्थ ही आपको नहीं मालूम तो इस सवाल का जवाब आप क्या खाक दे पाएंगे!! इसी तरह अगर मैं आप से माहिर-ए-ज़राहत और इल्म-ए-ज़राब का अर्थ पूछूं तब भी आप अगर-बगल झांकने लगेंगे। लेकिन ऐसे तमाम शब्द हमारी उर्दू की पाठ्य पुस्तकों में भरे पड़े हैं। किसी भी हिंदुस्तानी को उर्दू का ये फारसी रंग उसी तरह रास नहीं आ सकता, जिस तरह हिंदी में ट्रेन को लौह पथगामिनी कहना किसी को पच नहीं सकता। खैर, शुक्र मनाइए कि हमारी सरकार को भी अब देसी भाषाओं का ये परायापन समझ में आ गया है। उसे लगता है कि जो बोलचाल में इस्तेमाल हों, उन्हीं शब्दों को भाषा में तरजीह दी जानी चाहिए। अक्सर विवाद पैदा करनेवाले अर्जुन सिंह के केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने एनसीईआरटी से कहा है कि वह स्कूलों में उर्दू के पाठ्यक्रम में ज़रूरी तब्दीलियां करे। खास बात यह है कि ये आदेश उसने तब दिया है, जब कुछ ही दिनों में अल्पसंख्यक शिक्षा से जुड़ी नेशनल मॉनीटरिंग कमिटी की सालाना समीक्षा बैठक होने वाली है। इसलिए इस पर विवाद भी उठ सकता है। मंत्रालय का मानना है कि आला-ए-पैमाइशे-हरारत की जगह थर्मोमीटर, माहिर-ए-ज़राहत की जगह सर्जन

ये मुआ दिमाग भी जो न करा डाले

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क्या आप कभी सोच सकते हैं कि तारे जमीं से लेकर रंग दे बसंती और फना तक के गाने लिखनेवाले मैक्कैन एरिक्सन के सीईओ प्रसून जोशी रिलायंस फ्रेश, बिग बाज़ार या सुभिक्षा टाइप किसी स्टोर के काउंटर पर बैठनेवाले कैशियर का काम करेंगे? नहीं सोच सकते न! मैं भी नहीं सोच सकता। लेकिन मेरा अवचेतन मन सोच सकता है। दिमाग की वो सतह जो हमारे सो जाने के बाद भी सक्रिय रहती है, वो सोच सकती है। आज रात मेरे साथ यही हुआ। मैं सपना देखा कि प्रसून जोशी एक मॉल में कैशियर हैं। सफेद एप्रन पहनकर काउंटर पर खड़े-खड़े ही काम कर रहे हैं। उस मॉल से मैंने सपरिवार कुछ शॉपिंग की थी। बिल में गड़बड़ी थी। प्रसून ने बिना कोई हुज्जत किए ठीक कर दिया। असली बिल कुल 20 रुपए 24 पैसे का था। लेकिन प्रसून ने 20 रुपए ही लिए और 24 पैसे के लिए कहा – छोड़ो, जाने दो, चलता है। वो मॉल भी बड़ा अजीब था। खुले में था। बगल में वैसा ही खुला-खुला भैंसों का तबेला था। प्रसून से बात करने के बाद मैं एक भैंस के पीछे सटकर खड़ा हो गया। भैंस का पिछला हिस्सा ठीक मेरे कंधे तक ऊंचा था। लगा, जैसे मैं प्लेन में बिजनेस क्लास की सीट पर टेक लगाकर बैठा हूं। प्रसून जोशी ने

मायावती को इनकम टैक्स का नायाब तोहफा

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मायावती ने आज अपना 52वां जन्मदिन खूब धूमधाम से मनाया। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रियों से लेकर पुलिस महानिदेशक और तमाम आला अफसरों में उन्हें केक खिलाने की होड़ लगी रही। लेकिन बहन जी को सबसे चौंकानेवाला तोहफा दिया है आयकर विभाग ने, जिसने टैक्स ट्राइब्यूनल की तरफ से उन्हें मिली क्लीनचिट के खिलाफ हाईकोर्ट में जाने की घोषणा की है। मायावती ने इस साल सितंबर तक ही 14 करोड़ रुपए का एडवांस टैक्स जमा कराया है। इस बार के विधानसभा चुनावों में उन्होंने अपनी कुल संपत्ति 52 करोड़ रुपए घोषित की थी। मायावती कहती हैं कि उन्होंने सारी संपत्ति पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं से मिले चंदे से बटोरी है। इस बार भी अपने जन्मदिन पर उन्होंने समर्थकों और कार्यकर्ताओं से गिफ्ट के रूप में नोट ही मांगे हैं।

जेट एयरवेज का काम करवाया प्रधानमंत्री ने

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जिन लोगों को गफलत है कि हमारी चुनी हुई सरकारें और उनके मुखिया जनता और राष्ट्रीय हितों के लिए ही काम करते हैं, उन्हें अब अपनी गफलत दूर कर लेनी चाहिए। ताज़ा सबूत है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का चीन दौरा। प्रधानमंत्री इस समय चीन की यात्रा पर हैं और कल भी चीन में ही रहेंगे। उनके दौरे के एजेंडे में सीमा विवाद को सुलझाने से लेकर आर्थिक और व्यापारिक रिश्तों को मजबूत करना शामिल है। लेकिन आज मैं यह जानकर दंग रह गया है कि इस दौरे में पहली कामयाबी यह मिली है कि भारत की निजी एयरलाइन जेट एयरवेज को मुंबई से सैन फ्रांसिस्को की उड़ान को शांघाई से ले जाने की इजाज़त मिल गई है। बदले में भारत ने चीन के कार्गो कैरियर ग्रेट वॉल एयरलाइन को मुंबई और चेन्नई तक उड़ान भरने की अनुमति दे दी है। पहले भारत ने सुरक्षा कारणों के चलते चीनी कार्गो एयरलाइन की इन उड़ानों पर आपत्ति जताई थी और जेट एयरवेज का मुंबई-शांघाई-सैन फ्रांसिस्को उड़ान का आवेदन साल भर से लंबित पड़ा था। गौरतलब है कि इन डील में शामिल दोनों एयरलाइंस के चरित्र पर सवाल उठ चुके हैं। चीनी एयरलाइन पर आरोप लगा था कि उसकी प्रवर्तक कंपनी ने ईरान को मिसाइल तकनीक द

सारे इंसानों का एक इंसान होता तो पागल होता

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महाभारत में कृष्ण ने अपना विराट स्वरूप दिखाया तो अर्जुन के सारे मोह और भ्रम दूर हो गए। ईश्वर के उस रूप में सारी सृष्टि समाहित थी, सारी मानवजाति समाहित थी। लेकिन मान लीजिए कि यह कल्पना नहीं, हकीकत होती और पूरी मानवजाति किसी एक व्यक्ति में समाहित होती तो क्या होगा? मुझे तो लगता है कि उस व्यक्ति को पागल करार देने में एक सेकेंड भी नहीं लगेंगे। इसलिए नहीं कि उसके दिमाग में कहीं गुस्से का ज्वालामुखी फट चुका होता और वह चीख-चिल्ला रहा होता। इसलिए तो कतई नहीं कि उसके दिमाग में इंसान की सारी अच्छाइयां भरी होतीं और वह सदाचार का पुतला बना होता। बल्कि इसलिए कि उसमें ये दोनों ही बातें एक जैसी प्रबलता से, एक ही साथ, एक ही समय होतीं। ठीक एक ही वक्त वह दानव भी होता और देव भी। हैवान भी होता और इंसान भी। हम एक ऐसे प्राणी हैं जिसमें स्तब्ध कर देनेवाली दयालुता है। हम एक दूसरे का पालन-पोषण करते हैं, एक दूसरे से प्यार करते हैं, एक दूसरे के लिए रोते हैं। यहां तक कि अब तो हम अपने शरीर के अंग तक निकलवा कर दूसरों को देने लगे हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ हम एक दूसरे की इतने भयानक तरीके से हत्याएं करते हैं कि खूंखार

अब रामसेतु पर मुसलमानों का दावा

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सेतुसुंदरम परियोजना को लेकर नया विवाद शुरू हो गया है। मिंट अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु के मुस्लिम समुदाय ने दावा किया है कि एडम्स ब्रिज असल में वह पुल है जिससे होकर हज़ारों साल पहले आदम ने कोलंबो से लेकर सऊदी अरब तक का सफर तय किया था। खास बात ये है कि यह दावा तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके से जुड़े मुस्लिम संगठन तमिलनाडु मुस्लिम मुन्नेत्र कड़गम की तरफ से किया गया है। असल में ईसाई और मुस्लिम दोनों ही समुदाय ओल्ड टेस्टामेंट में विश्वास करते हैं। इस टेस्टामेंट में Abel और Cain नाम के दो दूतों का जिक्र है, जिन्हें मुसलमान हाबिल और काबिल कहते हैं। रामेश्वरम में आज भी हाबिल और काबिल की 60-60 फुट लंबी कब्रें हैं। ये कब्रें हाबिल और काबिल दरगाह के नाम से प्रसिद्ध हैं और इनका रखरखाव पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम के रिश्तेदार करते हैं। लेकिन बीजेपी के लोग मुसलमानों के इस दावे को गलत मानते हैं। पार्टी के स्थानीय नेता अपने पक्ष में ब्रेख्त के नाटक खड़िया का घेरा की वो कहानी सुनाते हैं जिसमें दो औरतें एक बच्चे पर अधिकार के लिए जज के पास पहुंचती हैं। जज ने बच्चे को बीच म

कुदरती है कमियों को छिपाने की कला

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ये आशाराम बापू और पंडित श्री-श्री रविशंकर टाइप सारे बाबा बड़े बजरंगी होते हैं। हालांकि ये और इनकी बातें कहीं बाहर नहीं टपकीं, बल्कि हिंदू परंपरा और सोच में ही इनकी जड़ें हैं। सवाल तो ये लोग सही उठाते हैं, समस्याएं सही पकड़ते हैं, लेकिन निदान के नाम पर किसी घटाटोप में जाकर फंसा देते हैं। अब जैसे इसी बात को ले लें कि तमाम संत, गुरु और बाबा कहते हैं अपने को जान लो तो मुक्त हो जाओगे। मुद्दा एकदम सही है। हमारे दिल के करीब भी है। खुद को जानना बेहद ज़रूरी है। लेकिन ये सभी गुरु घंटाल लोग इस सवाल के जवाब में हमें न जाने कहां-कहां भटकाते हैं। मेरे मामा नाम-नाम की रट लगाते मर गए। अंत तक खुद को जान लेने का भ्रम पाले रहे। लेकिन उस फ्रॉड गुरु को नहीं जान सके जिसने उनकी सारी जायदाद अपने नाम करवा ली। अपने को जानना ज़रूरी है। अपने स्वभाव को जानना ज़रूरी है। और, मुझे लगता है कि इसके लिए पहले की तरह किसी गुरु-वुरु की ज़रूरत नहीं है। भौतिक विज्ञान से लेकर समाज विज्ञान काफी विकसित हो चुका है। अब तो किसी एकल सूत्र की तलाश चल रही है जो सारे नियमों का नियम होगा है। इंटरनेट पर इस सारे ज्ञान-विज्ञान का विपुल भं

इटली में रहनेवाला यह कवि वाकई विशाल है

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कल ही दिल्ली के सुभाष नीरव ने मुझे मेल में गवाक्ष का लिंक भेजा। मैंने इसे साहित्यिक रचनाओं की कोई साइट समझकर अनमने ढंग से खोला और वहां दर्ज कविताएं पढ़ीं तो यकीन मानिए, मन चहक उठा। सचमुच इटली में रहनेवाले विशाल ने जो कविताएं लिखी हैं, उनमें कहीं पाश का दम नजर आता है तो कहीं अपने जैसे घर से भागों की दास्तान। ये कविताएं मूलत: पंजाबी में लिखी गई है और इनका हिंदी रूपांतर सुभाष नीरव ने किया है। प्रस्तुत हैं इन कविताओं के छोटे-छोटे अंश। पूरी कविताएं आप गवाक्ष पर जाकर पढ़ सकते हैं। 1. अपने मठ की ओर रकबा छोटा हो गया है मेरे फैलाव से यह तो मेरे पानियों की करामात है कि दिशाओं के पार की मिट्टी सींचना चाहता हूँ जहाँ कहीं समुन्दर खत्म होते हैं मैं वहाँ बहना चाहता हूँ। 2. नाथों का उत्सव उन्होंने तो जाना ही था जब रोकने वाली बाहें न हों देखने वाली नज़र न हो समझने और समझाने वाली कोई बात न बचे। अगर वे घरों के नहीं हुए तो घरों ने भी उन्हें क्या दिया और फिर जोगियों, मलंगों, साधुओं, फक्कड़ों, बनवासियों, नाथों के साथ न जा मिलते तो करते भी क्या ... फिर उन्होंने ऐसा ही किया कोई धूनी नहीं जलाई पर अपनी आग के

लीजिए डीह बाबा की असली झलक

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ये डीह बाबा की असली फोटो हैं, जिसे मेरे सहयोगी राजेश त्रिपाठी ने उपलब्ध कराया है। इलाहाबाद ज़िले में उनके गांव दरवेशपुर के सीवान पर एक डीह के ऊपर इन्हें स्थापित किया गया है। जो भी इनके पास से गुजरता है, इन्हें प्रणाम ज़रूर करता है। खास बात ये है कि राजेश ने यह फोटो अपने मोबाइल कैमरे से खींची है। वो इस तरह की जबरदस्त तस्वीरें अब अपने ब्लॉग पर भी डाल रहे हैं।

हिंदी ब्लॉगिंग के डीह बाबा, ब्रह्म और करैले

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शुरू में ही हाथ जोड़कर विनती है कि बुरा मत मानिएगा। आदत से मजूबर हूं। छोटा था तो साथ के बच्चों को चिकोटी काटने की आदत थी। कभी-कभी आदतन बड़ों को भी चिकोटी काट दिया करता था। एक बार तो बुजुर्ग विधवा अध्यापिका जी को चिकोटी काटने जा ही रहा था कि मां ने ऐसी आंखें तरेरीं कि तर्जनी और अंगूठा एक साथ में मुंह में चले गए। बड़ा हुआ तो ये आदत लोगों को बेवजह छेड़ने में तब्दील हो गई। प्रमोद इसके भुक्तभोगी रहे हैं। बल्कि उन्होंने ही बताया, तब मुझे पता चला कि मैं ऐसा भी करता हूं। अब ब्लॉगर बन गया हूं तो नए सिरे से चिकोटी काटने को मन मचल रहा है। नादान समझकर माफ कर देंगे, ऐसी अपेक्षा है। तो असली बात पर आया जाए। जो लोग बचपन से लेकर शहरों में पले-बढ़े हैं, उन्हें डीह बाबा, देवी माई का चौरा या बरम (ब्रह्म) देवता की बात नहीं समझ में आएगी। लेकिन गांवों के लोग इन भुतहा ताकतों से अच्छी तरह वाकिफ होंगे। डीह बाबा अक्सर गांव की चौहद्दी पर बिराजते हैं। अगर आप गांव से बाहर कहीं जा रहे हों और गलती से उन्हें नमन करना भूल गए तो वो आपको रास्ता भटका देते हैं। जाना होता है यीरघाट तो आप पहुंच जाते हैं बीरघाट। देवी भाई के