कौन है जो खेल रहा है सांप-सीढ़ी का खेल?
शेयर बाज़ार आखिरकार संभल गया। क्यों संभल गया? क्योंकि अमेरिका में ब्याज दरों में तीन-चौथाई फीसदी की ऐतिहासिक कटौती जो की गई है। लेकिन यह बाज़ार धराशाई हुआ ही क्यों था? क्योंकि अमेरिका में आसन्न मंदी का खतरा बढ़ गया था। लेकिन अमेरिका में यह संकट तो बीते साल अक्टूबर से चल रहा था, फिर हमारा शेयर बाज़ार तीन महीने से कुलांचे क्यों मार रहा था? इसलिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था की अपनी स्वतंत्र हैसियत बन चुकी है और उस पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था का खास असर नहीं पड़ता। बाज़ार जब उठा तो अलग तर्क और बाज़ार जब गिरा तो उसका उलट!!
विश्लेषण का यह अवसरवादी अंदाज़ बहुत खतरनाक है। इसके पीछे सच को छिपाने की खतरनाक मंशा है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई है। आईटी से लेकर दवा कंपनियों का फायदा-नुकसान सीधे-सीधे दुनिया के बाज़ार पर निर्भर करता है। उद्योगों का ग्लोबल चक्र मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के संवेदी सूचकांक सेंसेक्स में शामिल कंपनियों पर करीब 38 फीसदी तक असर डालता है। आईटी और दवा कंपनियों को मिला दें तो सेंसेक्स पर विश्व बाज़ार की धमक का असर 52 फीसदी से ऊपर पहुंच जाता है। ज़ाहिर है चिदंबरम या दूसरा कोई भी जानकार कितना भी कहे कि भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से decouple हो चुकी है, लेकिन ये सच नहीं बदल सकता कि हम एक globalized world में रह रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर 9 फीसदी रहे, कंपनियों के मुनाफे भी 25-30 फीसदी बढ़ जाएं, तब भी अमेरिका की मंदी हमारे शेयर बाज़ार की चूलें हिला देने का दम रखती है।
इस असलियत को स्वीकार करने के बजाय पिछले दो-तीन दिनों में विद्वानों ने देश के आम निवेशकों को जमकर कोसा। कहा कि ज्यादा लालच का यही नतीजा होता है। कुल लोग कहने लगे कि हमने तो पहले ही सावधान किया था तो कुछ न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम समझा रहे हैं। कोई ये नहीं बता रहा कि बाज़ार को किसने और क्यों गिराया? हकीकत ये है कि अक्टूबर 2007 में जब से सरकार ने विदेशी फंडों के हथकंडे पार्टीसिपेटरी नोट्स पर बंदिश लगाई, तभी से विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) बाज़ार को गिराने की फिराक में थे। इस गिरावट में आम निवेशकों की लालच या घबराहट का कोई हाथ नहीं है।
एफआईआई ने अक्टूबर से लेकर अब तक शेयरों में 50,144 करोड़ रुपए की शुद्ध बिक्री की है। जबकि इस दौरान म्यूचुअल फंडों जैसी घरेलू निवेशक संस्थाओं ने 22,770 करोड़ रुपए की ही खरीद की जो एफआईआई की बिक्री की आधी भी नहीं है। लेकिन तेज़ी के माहौल में बड़े निवेशक भी बाज़ार में कूद पड़े और खरीदारी के आलम में अक्टूबर से 10 जनवरी 2008 तक सेंसेक्स 13 फीसदी बढ़कर 21,206 अंक पर पहुंच गया। पिछले हफ्ते से एफआईआई और बड़े निवेशक मुनाफा बटोरने के इरादे से बिक्री पर उतर आए।
बाज़ार जब तक ठीक-ठाक ऊंचाई पर था तो इन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता लाखों-लाखों शेयर निकाल डाले। फिर चूंकि इन्हें निचले स्तरों पर आगे की खरीदारी करनी थी, इसलिए इन्होंने छोटी-छोटी मात्रा में शेयरों की बिक्री से उनके भाव तलहटी पर पहुंचा दिए। 10 जनवरी के बाद से ही एफआईआई ने 15,340 करोड़ रुपए के शेयर बेचे हैं। अब, जब बाज़ार एकदम निचले स्तर पर पहुंच गया तो इन्होंने फिर खरीदारी शुरू कर दी है। बजट के बाद मार्च-अप्रैल में एफआईआई और बड़े निवेशक फिर ऊंचे भावों पर शेयरों की बिक्री करेंगे और पूरी आशंका है कि तब एक बार फिर बाज़ार में गिरावट आएगी। बहाना रहेगा कि चिदंबरम ने चुनावों के मद्देनजर आर्थिक सुधारों को ताक पर रख दिया है। इसलिए बाज़ार का सेंटीमेंट बिगड़ गया है। हमें एक बात याद रखनी चाहिए कि 15 साल पहले शेयर बाजा़र में एक हर्षद मेहता था जो बैंकों के पैसों से खेलता था। आज बाज़ार में हज़ार से ज्यादा हर्षद मेहता (एफआईआई) हैं और उनके पास खुद के पैसे हैं।
अंत में इतना और बता दूं कि बाज़ार से दो दिनों में जिस 10 लाख करोड़ रुपए के स्वाहा हो जाने की बात की जा रही है, वह असल में महज सांकेतिक (notional) नुकसान है। पिछले 15 सालों में देश का आम निवेशक इतना समझदार हो गया है कि वो ऐसे मौकों पर अपने शेयर नहीं बेचता। वह उन्हें रखकर बैठ जाता है। जब उसने इस दौरान शेयर बेचे ही नहीं तो उसे घाटा कैसे हो गया? हां, इतना ज़रूर है कि डीमैट खाते में पहले जहां एक-डेढ़ लाख का फायदा दिख रहा था, वह अब घटकर 70-75 हज़ार पर आ गया है। बाज़ार ठीक रहा तो उसका यह सांकेतिक घाटा भी कुछ दिनों में भर जाएगा। हां, यहां-वहां से जिन इक्का-दुक्का लोगों के दिवालिया और दिवंगत होने की खबरें आ रही हैं, वो उधार लेकर सट्टा खेलने वाले लोग थे, गाढ़ी कमाई लगानेवाले निवेशक नहीं।
फोटो सौजन्य – लीव नो ट्रैस
विश्लेषण का यह अवसरवादी अंदाज़ बहुत खतरनाक है। इसके पीछे सच को छिपाने की खतरनाक मंशा है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई है। आईटी से लेकर दवा कंपनियों का फायदा-नुकसान सीधे-सीधे दुनिया के बाज़ार पर निर्भर करता है। उद्योगों का ग्लोबल चक्र मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के संवेदी सूचकांक सेंसेक्स में शामिल कंपनियों पर करीब 38 फीसदी तक असर डालता है। आईटी और दवा कंपनियों को मिला दें तो सेंसेक्स पर विश्व बाज़ार की धमक का असर 52 फीसदी से ऊपर पहुंच जाता है। ज़ाहिर है चिदंबरम या दूसरा कोई भी जानकार कितना भी कहे कि भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से decouple हो चुकी है, लेकिन ये सच नहीं बदल सकता कि हम एक globalized world में रह रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर 9 फीसदी रहे, कंपनियों के मुनाफे भी 25-30 फीसदी बढ़ जाएं, तब भी अमेरिका की मंदी हमारे शेयर बाज़ार की चूलें हिला देने का दम रखती है।
इस असलियत को स्वीकार करने के बजाय पिछले दो-तीन दिनों में विद्वानों ने देश के आम निवेशकों को जमकर कोसा। कहा कि ज्यादा लालच का यही नतीजा होता है। कुल लोग कहने लगे कि हमने तो पहले ही सावधान किया था तो कुछ न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम समझा रहे हैं। कोई ये नहीं बता रहा कि बाज़ार को किसने और क्यों गिराया? हकीकत ये है कि अक्टूबर 2007 में जब से सरकार ने विदेशी फंडों के हथकंडे पार्टीसिपेटरी नोट्स पर बंदिश लगाई, तभी से विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) बाज़ार को गिराने की फिराक में थे। इस गिरावट में आम निवेशकों की लालच या घबराहट का कोई हाथ नहीं है।
एफआईआई ने अक्टूबर से लेकर अब तक शेयरों में 50,144 करोड़ रुपए की शुद्ध बिक्री की है। जबकि इस दौरान म्यूचुअल फंडों जैसी घरेलू निवेशक संस्थाओं ने 22,770 करोड़ रुपए की ही खरीद की जो एफआईआई की बिक्री की आधी भी नहीं है। लेकिन तेज़ी के माहौल में बड़े निवेशक भी बाज़ार में कूद पड़े और खरीदारी के आलम में अक्टूबर से 10 जनवरी 2008 तक सेंसेक्स 13 फीसदी बढ़कर 21,206 अंक पर पहुंच गया। पिछले हफ्ते से एफआईआई और बड़े निवेशक मुनाफा बटोरने के इरादे से बिक्री पर उतर आए।
बाज़ार जब तक ठीक-ठाक ऊंचाई पर था तो इन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता लाखों-लाखों शेयर निकाल डाले। फिर चूंकि इन्हें निचले स्तरों पर आगे की खरीदारी करनी थी, इसलिए इन्होंने छोटी-छोटी मात्रा में शेयरों की बिक्री से उनके भाव तलहटी पर पहुंचा दिए। 10 जनवरी के बाद से ही एफआईआई ने 15,340 करोड़ रुपए के शेयर बेचे हैं। अब, जब बाज़ार एकदम निचले स्तर पर पहुंच गया तो इन्होंने फिर खरीदारी शुरू कर दी है। बजट के बाद मार्च-अप्रैल में एफआईआई और बड़े निवेशक फिर ऊंचे भावों पर शेयरों की बिक्री करेंगे और पूरी आशंका है कि तब एक बार फिर बाज़ार में गिरावट आएगी। बहाना रहेगा कि चिदंबरम ने चुनावों के मद्देनजर आर्थिक सुधारों को ताक पर रख दिया है। इसलिए बाज़ार का सेंटीमेंट बिगड़ गया है। हमें एक बात याद रखनी चाहिए कि 15 साल पहले शेयर बाजा़र में एक हर्षद मेहता था जो बैंकों के पैसों से खेलता था। आज बाज़ार में हज़ार से ज्यादा हर्षद मेहता (एफआईआई) हैं और उनके पास खुद के पैसे हैं।
अंत में इतना और बता दूं कि बाज़ार से दो दिनों में जिस 10 लाख करोड़ रुपए के स्वाहा हो जाने की बात की जा रही है, वह असल में महज सांकेतिक (notional) नुकसान है। पिछले 15 सालों में देश का आम निवेशक इतना समझदार हो गया है कि वो ऐसे मौकों पर अपने शेयर नहीं बेचता। वह उन्हें रखकर बैठ जाता है। जब उसने इस दौरान शेयर बेचे ही नहीं तो उसे घाटा कैसे हो गया? हां, इतना ज़रूर है कि डीमैट खाते में पहले जहां एक-डेढ़ लाख का फायदा दिख रहा था, वह अब घटकर 70-75 हज़ार पर आ गया है। बाज़ार ठीक रहा तो उसका यह सांकेतिक घाटा भी कुछ दिनों में भर जाएगा। हां, यहां-वहां से जिन इक्का-दुक्का लोगों के दिवालिया और दिवंगत होने की खबरें आ रही हैं, वो उधार लेकर सट्टा खेलने वाले लोग थे, गाढ़ी कमाई लगानेवाले निवेशक नहीं।
फोटो सौजन्य – लीव नो ट्रैस
Comments
sach baat kahi hai
What better opportunity would have been than this for investing! And how many have made use of it?