ज़िंदगी में जब जगह नहीं बचती दोस्तों की
कहते हैं दोस्ती सबसे बड़ी नेमत होती है और सच्चे दोस्त नसीब वालों को ही मिलते हैं। लेकिन सच बताइए बीवी-बच्चे वाला हो जाने के बाद क्या आपकी ज़िंदगी में दोस्तों की जगह बचती है? रोज़गार-धंधे में लग जाने के बाद क्या काम और धंधे के दायरे से बाहर के लोगों से आप दोस्ती कायम रख पाते हैं? मुझे तो यही लगता है कि जब तक आप छड़े-छकड़े रहते हैं तभी तक दोस्तों और उनकी यारी का निर्वाह कर पाते हैं। बाद में घर-गृहस्थी और नौकरी का जुआ कंधे पर पड़ने के बाद दोस्तों की याद बस एक नास्टैल्जिया को सहलाने का ज़रिया भर रह जाती है। पांच-दस साल पहले जहां से आप अलग हुए थे, दोस्ती के फ्रेम में आप और आपका दोस्त वहीं पर चस्पा होकर रह जाते हैं। वह दोस्त मिलता भी है तो आज के धरातल पर पहले जैसी यारी नहीं बन पाती।फोन पर बात हुई तो बस इतनी कि कैसे हो, क्या चल रहा है, घर-परिवार, बीवी-बच्चे। ज्यादा बात हुई तो... यार क्या मज़े थे। वो दिन अब लौटकर नहीं आएंगे। दोनों तरफ से कुछ ऐसी घटनाओं की याद, जो कभी-कभी दूसरे को याद ही नहीं आती, फिर भी वह हंस-हंसकर दोस्त की भावनाओं का सम्मान करता है और तुरंत अपनी भी कोई पुरानी याद छेड़ देता है। फिर आखिर में... कभी घर आओ तो इत्मिनान से बैठते हैं। लेकिन यह ‘कभी’ अक्सर कभी नहीं आता। आ भी गया तो सारी बातचीत दस मिनट में ही चुक जाती है। फिर माहौल इतना रूखा-सूखा और रूटीन बन जाता है कि दोस्त आपस में सोचते हैं कि न ही मिले होते तो अच्छा रहता। कम से कम एक-दूसरे का भ्रम तो बना रहता।
इसीलिए ऐसी दोस्तियों में आमने-सामने मिलना ज्यादा सांघातिक होता है, वह भी तब जब मुलाकात लंबी खिंच जाए। सड़क चलते, सभा-समारोहों में हाय-हेलो तक ही मामला ठीक रहता है। इससे आगे बढ़ा तो समझिए कि अब कुछ टूटने वाला है। वैसे कुछ दोस्त समय के साथ इतने समझदार और दुनियादार हो जाते हैं कि वो आपके भ्रम को सीधे-सीधे नहीं तोड़ते। आप उनके काम के हुए तो दोस्ती के तार जोड़े रखते हैं। लेकिन बस एक सीमा तक। अपने स्तर पर वो आपसे पूरी तरह विमुख हो चुके होते हैं। उनकी प्राथमिकताओं में आप कहीं भी नहीं आते। आप उनके लिए किसी भी अन्य इंसान की तरह होते हैं, जिन पर वे अपने नए रसूख और साम्राज्य की धाक जमाते हैं। मेरे एक ऐसे ही वीआईपी दोस्त मुंबई में हैं जो दो साल बीत जाने के बावजूद चेहरा देखने-दिखाने तक की ‘फुरसत’ नहीं निकाल पा रहे।
चलिए, छोड़िए उनकी बात। अब ज़रा नज़र पीछे दौड़ाइए कि जीवन की किन-किन संधियों पर दोस्तों के कैसे-कैसे जत्थे आप से कैसे बिछुड़ गए हैं। बालसखा – गांव, मोहल्ले, सोसायटी के दोस्त। स्कूल के सहपाठी। कॉलेज की यारी। विश्वविद्यालय, डिग्री कॉलेज की दोस्ती। इन सभी चरणों में हर कोई अपने कुछ दोस्तों को खोता है, जिनके लिए बाद में उसके जीवन में कोई जगह नहीं बचती। अंतिम और सघनतम दोस्ती जीवन-संग्राम में ठीक उतरने के पहले की होती है। इस आखिरी चरण की दोस्ती की प्रत्यास्थता (Elasticity) सबसे ज्यादा होती है। लेकिन हद से हद यह भी पांच-दस साल खिंचती है, बशर्ते हम रोज़ी-रोज़गार में एक साथ न आ जाएं। हां, हर संधि पर कहीं संतराम, कहीं विपिन, कहीं दिलीप, कहीं वंशीधर, कहीं गिरीश, कहीं दीपक और कहीं सत्येंद्र अटके पड़े रहते हैं। वहीं से गाहे-बगाहे झांकते हैं और आपसे कम और अपने से ज्यादा पूछते रहते हैं – कैसे हो दोस्त। लेकिन इन दौरान उनकी ही नहीं, आपकी भी दुनिया बदल चुकी होती है।
परिवार और पेश में स्थायित्व के साथ ही आपका दायरा बंध चुका होता है। आपके ज्यादातर दोस्त काम की जगह वाले होते हैं। अभिन्नतम दोस्ती आप घर के भीतर खोजते हो। इसकी ज़रूरत वहीं से पूरी करते हो। जिस दिन आप अपना करीबी दोस्त घर से बाहर तलाशने लगते हैं, उसी दिन से घर में एक परायापन पनपने लगता है। घर के अपनापे और दोस्ती के बीच आपको बड़ी निर्ममता से एक को चुनना पड़ता है। बीवी से बड़ा यार आपने किसी को बनाया तो समझिए खैर नहीं। मुझे लगता है कि निरपेक्ष सत्य की तरह ही स्थायी दोस्ती जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। दोस्ती समय और हालात के सापेक्ष होती है। फिर यह भी कि दोस्ती कोई सामाजिक संस्था नहीं है। यह वैसी ही चीज़ है जैसे हम प्लेटफार्म पर या बसों, ट्रेनों या हवाई जहाज़ो में मिल जाया करते हैं। बस, मंजिल तक पहुंचने भर का साथ, रास्ते का टाइमपास।
फोटो साभार: सनशाइन जूनियर
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