शरीर हमारा है, लेकिन जीवन नहीं है हमारा
मानस का चरित्र गढ़ते वक्त मैं अपनी दो प्रस्थापनों पर बड़ा मुदित था। पहली यह कि जीवन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है और दूसरी यह कि जानवर कभी आत्महत्या नहीं करते, इंसान ही आत्महत्या करता है। दोनों में ही आत्महत्या को सही ठहराने की कोशिश की गई है। जीवन को बायोलॉजिकल फैक्ट मानकर जीते चले जाने की बात ज़रूर आई थी, जिससे लग सकता है कि यह तर्क आत्महत्या का विरोध करता है। लेकिन असल में यह जीवन को जिंदा लाश जैसा ढोने का बहाना भर देता है। आज मुझे लगता है कि इन दोनों ही प्रस्थापनाओं में छिपी सोच सरासर गलत है। मानव शरीर यकीनन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है, लेकिन हर किसी इंसान का जीवन एक सामाजिक हकीकत है।
भगवान ने हमें बनाया, उसने किसी मकसद से हमें धरती पर भेजा है और यह शरीर ईश्वर की धरोधर है - ये सारी बातें पूरी तरह बकवास हैं। हम प्रकृति की रचना हैं और हमारे मां-बाप ने हमें पैदा किया है। वो न होते तो हमें यह शरीर नहीं मिलता। ये हाथ-पांव, मुंह-नाक, सुंदर सलोनी आंखें, खूबसूरत चेहरा हमें नहीं मिलता। इसलिए इस शरीर के लिए हम प्रकृति और अपने मां-बाप के ऋणी हैं। लेकिन हमारे जीवन और किसी आवारा कुत्ते या जंगली जानवर और पक्षी के जीवन में बुनियादी फर्क है।
हम जो भी जैसा भी जीवन जी रहे हैं, वह समाज की देन है। हम किसी के बेटे, किसी के भाई-बंधु, किसी के अपने होते हैं। उनसे जुड़े तारों से हमें अपना नाम मिलता है, अपनी पहचान मिलती है। इसलिए कोई अगर कहता है कि यह मेरी ज़िंदगी है, इसे मैं जैसे चाहूं खर्च करूं तो वह एक अराजक और असामाजिक बयान दे रहा होता है क्योंकि यही बयान आगे बढकर अपनी जान लेने को जायज ठहराने तक पहुंच जाता है। जीवन का अधिकार हमारा नैसर्गिक अधिकार है और संविधान तक ने इसे मौलिक अधिकार का दर्जा दे रखा है। लेकिन यह एकदम बेतुकी व्याख्या है कि जिस तरह संपत्ति रखने के अधिकार में ही संपत्ति न रखने का अधिकार भी निहित है, उसी तरह जीवन के अधिकार में अपनी मृत्यु का अधिकार भी निहित है।
आज आत्महत्या करना एक अपराध है और उसके खिलाफ बाकायदा सज़ा का प्रावधान है। मगर, बड़ा वाज़िब-सा सवाल है कि जब इंसान ने अपनी जान ले ही ली तो उसे सज़ा आप कैसे दे सकते हैं? फिर जो बेचारा किसी वजह से बच गया, उसे समझाने-बुझाने के बजाय कानून और सज़ा का डर दिखाकर और परेशान करना क्या अमानवीयता नहीं है? यहां बिना किसी भावुकता में पड़े एक बात समझनी ज़रूरी है कि हम हत्या, बलात्कार या चोरी डकैती को इसीलिए अपराध मानते हैं क्योंकि ये दूसरों की आज़ादी पर हमला हैं। उसी तरह आत्महत्या भी औरों की ज़िंदगियों पर सीधा ‘हमला’ करती है। हर आत्महत्या से किसी न किसी की आस टूटती है, किसी का सहारा टूटता है। कोई मां, कोई बाप, कोई बहन, कोई पत्नी और कोई बच्चा इससे गहरी चोट खाता है। और, मरनेवाले को भी इसका गहरा अहसास रहता है।
सच ये है कि मरते समय इंसान को मृत्यु का भय नहीं सताता। न ही उसे अगले जन्म की चिंता सताती है। न ही उसे स्वर्ग और नरक की धारणा परेशान करती है। उसे अपना कुछ भी नहीं परेशान करता। उसे जो चीज परेशान करती है, वह यह कि वह जिन-जिन भी लोगों से जुड़ा रहा है, उसके जाने के बाद उनका क्या हाल होगा। वह उनसे बिछुड़ने के गम में बिलखता है। उनसे जुड़ाव, उनसे जुड़ा मोह उसे तकलीफ देता है। खुद में उसका जीवन तो सांस भर है। सांसें टूटीं और वह खल्लास। लेकिन जीवन महज सांसों का घड़ा भर नहीं है। रिश्तों के बारीक तानेबाने बुनते हैं किसी इंसान का जीवन। और मरते वक्त इंसान को इन रिश्तों में ही अपना जीवन नज़र आता है, शरीर में नहीं। उस वक्त तो उसका शरीर संज्ञाशून्य हो जाता है। शरीर का कोई अंग काट लिया जाए तो उसे पता नहीं चलेगा।
लेकिन आत्महत्या करना महज अपने शरीर को ठिकाने लगाना भर नहीं है। इसमें आप एक ज़िंदगी की हत्या कर रहे होते हैं, उस ज़िंदगी की जो समाज में रहने के नाते सिर्फ आप की नहीं, औरों की अमानत है। और, औरों की अमानत की हत्या की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती। इसके खिलाफ कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान रखना ज़रूरी है ताकि लोग आत्महत्या को हत्या जैसा ही गुनाह समझें। ऐसा करने से डरें। साथ ही घनघोर अवसाद के क्षणों में भी समझें कि वे महज एक बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं, बल्कि एक सोशयल रियेलिटी हैं।
भगवान ने हमें बनाया, उसने किसी मकसद से हमें धरती पर भेजा है और यह शरीर ईश्वर की धरोधर है - ये सारी बातें पूरी तरह बकवास हैं। हम प्रकृति की रचना हैं और हमारे मां-बाप ने हमें पैदा किया है। वो न होते तो हमें यह शरीर नहीं मिलता। ये हाथ-पांव, मुंह-नाक, सुंदर सलोनी आंखें, खूबसूरत चेहरा हमें नहीं मिलता। इसलिए इस शरीर के लिए हम प्रकृति और अपने मां-बाप के ऋणी हैं। लेकिन हमारे जीवन और किसी आवारा कुत्ते या जंगली जानवर और पक्षी के जीवन में बुनियादी फर्क है।
हम जो भी जैसा भी जीवन जी रहे हैं, वह समाज की देन है। हम किसी के बेटे, किसी के भाई-बंधु, किसी के अपने होते हैं। उनसे जुड़े तारों से हमें अपना नाम मिलता है, अपनी पहचान मिलती है। इसलिए कोई अगर कहता है कि यह मेरी ज़िंदगी है, इसे मैं जैसे चाहूं खर्च करूं तो वह एक अराजक और असामाजिक बयान दे रहा होता है क्योंकि यही बयान आगे बढकर अपनी जान लेने को जायज ठहराने तक पहुंच जाता है। जीवन का अधिकार हमारा नैसर्गिक अधिकार है और संविधान तक ने इसे मौलिक अधिकार का दर्जा दे रखा है। लेकिन यह एकदम बेतुकी व्याख्या है कि जिस तरह संपत्ति रखने के अधिकार में ही संपत्ति न रखने का अधिकार भी निहित है, उसी तरह जीवन के अधिकार में अपनी मृत्यु का अधिकार भी निहित है।
आज आत्महत्या करना एक अपराध है और उसके खिलाफ बाकायदा सज़ा का प्रावधान है। मगर, बड़ा वाज़िब-सा सवाल है कि जब इंसान ने अपनी जान ले ही ली तो उसे सज़ा आप कैसे दे सकते हैं? फिर जो बेचारा किसी वजह से बच गया, उसे समझाने-बुझाने के बजाय कानून और सज़ा का डर दिखाकर और परेशान करना क्या अमानवीयता नहीं है? यहां बिना किसी भावुकता में पड़े एक बात समझनी ज़रूरी है कि हम हत्या, बलात्कार या चोरी डकैती को इसीलिए अपराध मानते हैं क्योंकि ये दूसरों की आज़ादी पर हमला हैं। उसी तरह आत्महत्या भी औरों की ज़िंदगियों पर सीधा ‘हमला’ करती है। हर आत्महत्या से किसी न किसी की आस टूटती है, किसी का सहारा टूटता है। कोई मां, कोई बाप, कोई बहन, कोई पत्नी और कोई बच्चा इससे गहरी चोट खाता है। और, मरनेवाले को भी इसका गहरा अहसास रहता है।
सच ये है कि मरते समय इंसान को मृत्यु का भय नहीं सताता। न ही उसे अगले जन्म की चिंता सताती है। न ही उसे स्वर्ग और नरक की धारणा परेशान करती है। उसे अपना कुछ भी नहीं परेशान करता। उसे जो चीज परेशान करती है, वह यह कि वह जिन-जिन भी लोगों से जुड़ा रहा है, उसके जाने के बाद उनका क्या हाल होगा। वह उनसे बिछुड़ने के गम में बिलखता है। उनसे जुड़ाव, उनसे जुड़ा मोह उसे तकलीफ देता है। खुद में उसका जीवन तो सांस भर है। सांसें टूटीं और वह खल्लास। लेकिन जीवन महज सांसों का घड़ा भर नहीं है। रिश्तों के बारीक तानेबाने बुनते हैं किसी इंसान का जीवन। और मरते वक्त इंसान को इन रिश्तों में ही अपना जीवन नज़र आता है, शरीर में नहीं। उस वक्त तो उसका शरीर संज्ञाशून्य हो जाता है। शरीर का कोई अंग काट लिया जाए तो उसे पता नहीं चलेगा।
लेकिन आत्महत्या करना महज अपने शरीर को ठिकाने लगाना भर नहीं है। इसमें आप एक ज़िंदगी की हत्या कर रहे होते हैं, उस ज़िंदगी की जो समाज में रहने के नाते सिर्फ आप की नहीं, औरों की अमानत है। और, औरों की अमानत की हत्या की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती। इसके खिलाफ कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान रखना ज़रूरी है ताकि लोग आत्महत्या को हत्या जैसा ही गुनाह समझें। ऐसा करने से डरें। साथ ही घनघोर अवसाद के क्षणों में भी समझें कि वे महज एक बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं, बल्कि एक सोशयल रियेलिटी हैं।
Comments
आपकी बात बहुत सही है परंतु यही रिश्ते जो हमें जोड़ते है वह तोड़ भी देते हैं । अपेक्षा, उपेक्षा से उपजते हैं निराशा और विषाद और फिर ..सब कुछ खत्म। आपके लेख नें हाल ही में हमारे एक पारिवारिक मित्र के यहाँ हुई घटना की याद ताज़ा कर दी है जिसे सुनकर यह लगा था कि इंसान का अपनें आप पर विश्वास रखना कितना बड़ा बल है सिर्फ़ वही हमें ज़िन्दा रखता है।
आपकी डायरी का पिछला पेज भी पठनीय और विचारणीय है। आभार और धन्यवाद