कुदरती है कमियों को छिपाने की कला
ये आशाराम बापू और पंडित श्री-श्री रविशंकर टाइप सारे बाबा बड़े बजरंगी होते हैं। हालांकि ये और इनकी बातें कहीं बाहर नहीं टपकीं, बल्कि हिंदू परंपरा और सोच में ही इनकी जड़ें हैं। सवाल तो ये लोग सही उठाते हैं, समस्याएं सही पकड़ते हैं, लेकिन निदान के नाम पर किसी घटाटोप में जाकर फंसा देते हैं। अब जैसे इसी बात को ले लें कि तमाम संत, गुरु और बाबा कहते हैं अपने को जान लो तो मुक्त हो जाओगे। मुद्दा एकदम सही है। हमारे दिल के करीब भी है। खुद को जानना बेहद ज़रूरी है। लेकिन ये सभी गुरु घंटाल लोग इस सवाल के जवाब में हमें न जाने कहां-कहां भटकाते हैं। मेरे मामा नाम-नाम की रट लगाते मर गए। अंत तक खुद को जान लेने का भ्रम पाले रहे। लेकिन उस फ्रॉड गुरु को नहीं जान सके जिसने उनकी सारी जायदाद अपने नाम करवा ली।
अपने को जानना ज़रूरी है। अपने स्वभाव को जानना ज़रूरी है। और, मुझे लगता है कि इसके लिए पहले की तरह किसी गुरु-वुरु की ज़रूरत नहीं है। भौतिक विज्ञान से लेकर समाज विज्ञान काफी विकसित हो चुका है। अब तो किसी एकल सूत्र की तलाश चल रही है जो सारे नियमों का नियम होगा है। इंटरनेट पर इस सारे ज्ञान-विज्ञान का विपुल भंडार है, किताबें हैं, संदर्भ ग्रंथ हैं। जो बाहर है वो अंदर है। एक ही तरह की संरचनाएं हैं जो बाहरी प्रकृति से लेकर इंसानी मानस की संरचना में बार-बार लहरों की तरह दोहराई जाती हैं। अति सरलीकरण गलत है, लेकिन सामान्यीकरण से हम सच के कुछ करीब तो पहुंच ही सकते हैं। हम खुद अंदर-बाहर आसपास घट रही चीज़ों को दर्ज करते रहें तो सच की कुछ न कुछ थाह लगती रहेगी।
जैसे, बेहद सामान्य-सी बात है। जब तक हम ज़रा-सा भी जगे रहते हैं, हमें खर्राटे नहीं आते। बगल में सो रहा व्यक्ति आपको हिलाता है तो खर्राटे थोड़ी देर के लिए सही बंद हो जाते हैं। सच यही है कि जब हम पूरी तरह नींद में डूबते है तभी खर्राटे आते हैं। हमारे होश में रहते खर्राटे पास भी नहीं भटकते। इसीलिए कई बार बच्चे या बीवी बताते हैं कि आप तो खर्राटे भरते हैं तो अक्सर आप पलटकर कहते हैं कि ऐसा हो ही नहीं सकता। अब इस मामूली से प्रेक्षण का अगर हम सामान्यीकरण करें तो समझ में आता है कि कुदरत ने ही हमें ऐसा बनाया है कि होश में रहते हमारी कमियां उजागर नहीं होतीं। अपनी कमियां छिपाने, अपनी गलती न मानने की जो कला हम समाज से सीखते हैं, वह दरअसल कुदरत ने हमें दे रखी है।
जब तक हग जगे रहते हैं, हमारे डर, वंचित रह जाने की हमारी कचोट दबी रहती है। लेकिन सोते ही ये सारे ‘जीव-जंतु’ आजाद होकर टहलने लगते हैं। हमारी वर्जनाएं विकराल रूप धारण कर अट्टहास करने लगती हैं। मगर, जागते ही दुम दबाकर अपनी खोह में लौट जाती हैं। मतलब साफ है कि हम अगर अपने रोजमर्रा के व्यवहार में पाते हैं कि सामने वाला अपनी गलती नहीं मान रहा, उसे झूठ बोलकर छिपा रहा है तो उस पर एकबारगी झल्लाने के बजाय हमें थोड़ी ही देर के लिए सोच लेना चाहिए कि ऐसा इंसान की कुदरती फितरत है। इस अहसास के बाद हम खुद को भी ज्यादा निर्मम तरीके से देख सकते हैं। अपनी काट-छांट ज्यादा वस्तुपरक तरीके से कर सकते हैं।
वैसे, सारा कुछ उसी तरह का है कि लंगड़े की दूसरी टांग ज्यादा बलिष्ठ हो जाती है। अंधे की स्पर्श क्षमता बढ़ जाती है। डिस्लेक्सिक बच्चे में आइंसटाइन बनने की संभावना छिपी रहती है। अष्टावक्र अपने ज़माने के सबसे बड़े विद्वान बन जाते हैं। घर से पढ़ाई-लिखाई छोड़कर भागा हुआ बालक राहुल सांकृत्यायन बन जाता है। बुढ़ापा आने के साथ-साथ जीने की इच्छा बढ़ जाती है। हर कमज़ोरी किसी मजबूती से संतुलित होती है। हर कुरुपता किसी सुंदरता से बराबर होती है।
जीवन का क्रम तो वैसा ही चलता रहता है। लेकिन हम सहज रहकर (वैसे सहज रखना बहुत मुश्किल है) इस जीवन-क्रम को देखते रहें, अपने को देखते रहें तो ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे सूत्र हमारे हाथ लग सकते हैं, जिनसे हम अपनी मानसिक गुत्थियों को सुलझा सकते हैं। इसके साथ अगर पठन-पाठन का सहयोग बना रहे तो चीज़ें वाकई काफी आसान हो जाती हैं। ज़िंदगी बड़ी मस्त बन जाती है।
अपने को जानना ज़रूरी है। अपने स्वभाव को जानना ज़रूरी है। और, मुझे लगता है कि इसके लिए पहले की तरह किसी गुरु-वुरु की ज़रूरत नहीं है। भौतिक विज्ञान से लेकर समाज विज्ञान काफी विकसित हो चुका है। अब तो किसी एकल सूत्र की तलाश चल रही है जो सारे नियमों का नियम होगा है। इंटरनेट पर इस सारे ज्ञान-विज्ञान का विपुल भंडार है, किताबें हैं, संदर्भ ग्रंथ हैं। जो बाहर है वो अंदर है। एक ही तरह की संरचनाएं हैं जो बाहरी प्रकृति से लेकर इंसानी मानस की संरचना में बार-बार लहरों की तरह दोहराई जाती हैं। अति सरलीकरण गलत है, लेकिन सामान्यीकरण से हम सच के कुछ करीब तो पहुंच ही सकते हैं। हम खुद अंदर-बाहर आसपास घट रही चीज़ों को दर्ज करते रहें तो सच की कुछ न कुछ थाह लगती रहेगी।
जैसे, बेहद सामान्य-सी बात है। जब तक हम ज़रा-सा भी जगे रहते हैं, हमें खर्राटे नहीं आते। बगल में सो रहा व्यक्ति आपको हिलाता है तो खर्राटे थोड़ी देर के लिए सही बंद हो जाते हैं। सच यही है कि जब हम पूरी तरह नींद में डूबते है तभी खर्राटे आते हैं। हमारे होश में रहते खर्राटे पास भी नहीं भटकते। इसीलिए कई बार बच्चे या बीवी बताते हैं कि आप तो खर्राटे भरते हैं तो अक्सर आप पलटकर कहते हैं कि ऐसा हो ही नहीं सकता। अब इस मामूली से प्रेक्षण का अगर हम सामान्यीकरण करें तो समझ में आता है कि कुदरत ने ही हमें ऐसा बनाया है कि होश में रहते हमारी कमियां उजागर नहीं होतीं। अपनी कमियां छिपाने, अपनी गलती न मानने की जो कला हम समाज से सीखते हैं, वह दरअसल कुदरत ने हमें दे रखी है।
जब तक हग जगे रहते हैं, हमारे डर, वंचित रह जाने की हमारी कचोट दबी रहती है। लेकिन सोते ही ये सारे ‘जीव-जंतु’ आजाद होकर टहलने लगते हैं। हमारी वर्जनाएं विकराल रूप धारण कर अट्टहास करने लगती हैं। मगर, जागते ही दुम दबाकर अपनी खोह में लौट जाती हैं। मतलब साफ है कि हम अगर अपने रोजमर्रा के व्यवहार में पाते हैं कि सामने वाला अपनी गलती नहीं मान रहा, उसे झूठ बोलकर छिपा रहा है तो उस पर एकबारगी झल्लाने के बजाय हमें थोड़ी ही देर के लिए सोच लेना चाहिए कि ऐसा इंसान की कुदरती फितरत है। इस अहसास के बाद हम खुद को भी ज्यादा निर्मम तरीके से देख सकते हैं। अपनी काट-छांट ज्यादा वस्तुपरक तरीके से कर सकते हैं।
वैसे, सारा कुछ उसी तरह का है कि लंगड़े की दूसरी टांग ज्यादा बलिष्ठ हो जाती है। अंधे की स्पर्श क्षमता बढ़ जाती है। डिस्लेक्सिक बच्चे में आइंसटाइन बनने की संभावना छिपी रहती है। अष्टावक्र अपने ज़माने के सबसे बड़े विद्वान बन जाते हैं। घर से पढ़ाई-लिखाई छोड़कर भागा हुआ बालक राहुल सांकृत्यायन बन जाता है। बुढ़ापा आने के साथ-साथ जीने की इच्छा बढ़ जाती है। हर कमज़ोरी किसी मजबूती से संतुलित होती है। हर कुरुपता किसी सुंदरता से बराबर होती है।
जीवन का क्रम तो वैसा ही चलता रहता है। लेकिन हम सहज रहकर (वैसे सहज रखना बहुत मुश्किल है) इस जीवन-क्रम को देखते रहें, अपने को देखते रहें तो ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे सूत्र हमारे हाथ लग सकते हैं, जिनसे हम अपनी मानसिक गुत्थियों को सुलझा सकते हैं। इसके साथ अगर पठन-पाठन का सहयोग बना रहे तो चीज़ें वाकई काफी आसान हो जाती हैं। ज़िंदगी बड़ी मस्त बन जाती है।
Comments
हां, सहयोग बना रहे तो जीवन मस्त है ही. बस सहयोग लगान न मांगे! लोग लगान पहले तय करते हैं और सहयोग बाद में देते हैं - रीत यही चल रही है!
the attached pictures are beautiful paintings
rachna
.....हा हा हा :):)