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Showing posts from June, 2007

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो...

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जीवन में कुछ ऐसी अवस्थाएं आती हैं, जब स्मृति का लोप होने लगता है, बुद्धि का नाश होने लगता है। वैसे गीता में इसकी कुछ और भी वजहें बताई गई हैं। ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोञंभिजायते।। क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृति विभ्रम:। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। जब भी किन्हीं वजहों से स्मृति विभ्रमित होने लगे, बुद्धि का नाश होने लगे तो उसे वापस लाने का मेरे पास एक आजमाया हुआ सूत्र है। रामचरित मानस की इस शिव वंदना को जिस दिन आप कंठस्थ कर लेंगे, उसी दिन आपकी स्मृति का लोप होना थम जाएगा। तो आइए, इसका पारायण पाठ करें... नमामिशमीशान निर्वाण रूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।। निजं निर्गुणं निर्किल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं।। निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं।। करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोहं।। तुषाराद्रि संकाश गौरं गंभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।। स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेंदु कंठे भुजंगा।। चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठ दयालं।। मृगाधीशचर्मा

फर्क भीमराव और पंडित जी का

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भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात करते हुए एक संदर्भ छूट गया था। वो यह कि भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात सबसे पहले बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने की थी। ये तथ्य मुझे आज ही सुबह गोरखपुर के एक मित्र अशोक चौधरी ने फोन पर बताया। बाबा साहब ने व्यापक भूमि सुधारों पर जोर दिया था। उनका कहना था कि कृषि जोत का छोटा या बड़ा होना उसके आकार से नहीं, बल्कि इससे तय होता है कि उस पर कितनी सघन खेती हो रही है, श्रम और दूसरी लागत सामग्रियों समेत उस पर कितना उत्पादक निवेश किया गया है। उन्होंने कृषि में भारी पूंजी निवेश के साथ ही औद्योगिकीकरण पर जोर देते हुए कहा था कि इससे कृषि से अतिरिक्त श्रमिकों को खपाने में मदद मिलेगी। बाबा साहब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी और कहा था कि जोतनेवालों के समूह को जमीन लीज पर दी जाए और कृषि को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें को-ऑपरेटिव बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में 10 अक्टूबर 1927 को बहस में हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा था, “कृषि समस्या का समाधान खेत के आकार को बढ़ाने में नहीं, बल्कि सघन खेती में है जिसमें ज्यादा पूंजी और श्रम को नियोजित किय

चलो अब शंख बजाएं

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इतना कह चुकने के बाद अब आखिरी शंख बजाया जाए, संघर्ष का नहीं, समापन का। बात को वैसे अभी और फैलाया जा सकता था, लेकिन उपसंहार जरूरी है। इंटरनेट पर तो भारत के कृषि सवाल पर सामग्रियों का अंबार अटा पड़ा है। और, ऐसा नहीं है कि मैंने कोई अनोखी चीज लिख दी है। कई साल पहले सिद्धार्थ दुबे ने प्रतापगढ़ के बाबा का पुरवा गांव के दलित किसान रामदास, उनकी पत्नी प्रयागा देवी, उनके बेटे श्रीनाथ और नाती हंसराज की सच्ची कहानी के जरिए शानदार किताब (Words Like Freedom : Memoirs of an Impoverished Indian Family 1947-1997) लिखी थी, जिसका पेपरबैक संस्करण हार्पर कॉलिंस ने साल 2000 में छापा था। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमने भारत में जन्म पाया है। हमारे पास दुनिया की सबसे उर्वर जमीन है। हमारे यहां कृषि-योग्य जमीन 55 फीसदी (32.90 करोड़ हेक्टेयर में से 18.20 करोड़ हेक्टेयर) है, जबकि अमेरिका में ये 19 फीसदी, यूरोप में 25 फीसदी और अपने ‘बैरी’ पड़ोसी पाकिस्तान में तो 28 फीसदी ही है। चीन के पास भी हमसे कम कृषि-योग्य जमीन है। लेकिन दिक्कत ये है हमारे नीति-नियामकों को ये बात परेशान नहीं करती कि हम अपने इस एडवांटेज का फायदा न

खंड-खंड जमीन पर जारी है पाखंड

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कर्ज माफी के मेले चल ही रहे थे कि नब्बे के दशक से देश में उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण की आंधी आ गई। हर चीज की तरह कृषि को भी आंखों पर परदा डालकर बाजार में ला खड़ा किया गया। सरकार की नजर में भूमि सुधारों के मायने बदल गए। लेकिन लिप-सर्विस जारी रही। अभी साल भर पहले ही 18 अप्रैल 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीआईआई (कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री) के सालाना सम्मेलन में कहा था, “भूमि सुधार भले ही स्टेट सब्जेक्ट हो, लेकिन एक राष्ट्रीय प्राथमिकता है, जिस पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति की जरूरत है।” देश भर में खंड-खंड होती जमीन का हवाला देकर राष्ट्रीय प्राथमिकता और सर्वसम्मति का ये पाखंड जारी है। इस पाखंड के पीछे खेती का कॉरपोरेटाइजेशन अभियान चल रहा है। सालों साल से कई कंपनियां कई राज्यों में कांट्रैक्ट फार्मिंग कर रही हैं। आईटीसी समूह आंध्र प्रदेश में तंबाकू की खेती कर रहा है। पेप्सिको पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल तक में आलू, मिर्च और धान की खेती कर रही है। मित्तल समूह ने ब्रिटेन के बैंक रॉथ्सचाइल्ड के साथ मिलकर भारत में बड़े पैमाने पर कई फसलों की खेती शुरू कर दी है। तमिलनाडु स

नहीं मालूम, कहां ठहरा है पानी

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दुष्यंत कुमार ने लिखा था : यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां, हमे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा। लेकिन ईमानदारी से मुझे नहीं मालूम कि पानी कहां ठहरा हुआ है। इसे 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भागीदारी का असर कहिए या बाद में लगातार होते रहे किसान आंदोलनों का, हमारे नेताओं को आजादी से पहले ही भूमि सुधारों का महत्व समझ में आ गया था। यही वजह है कि आजादी के तुरंत बाद वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जे सी कुमारप्पा की अगुआई में बनी कृषि सुधार समिति ने सिफारिश की थी कि खेती से सभी बिचौलियों को खत्म कर दिया जाए और जमीन जोतनेवालों को दे दी जाए; विधवाओं, नाबालिग और अपाहिजों के अलावा बाकी लोगों के लिए ज़मीन को बटाई पर देने पर रोक लगा दी जाए; छह साल से किसी जमीन पर खेती करनेवाले हर कास्तकार को उसका मालिक बना दिया जाए; कास्तकार को भूमि ट्राइब्यूनल द्वारा तय वाजिब कीमत पर जमीन को खरीदने का अधिकार दिया जाए और कृषि अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे किसानों को विकास का मौका मिले। पहली पंचवर्षीय योजना से ही जमींदारी उन्मूलन का सिलसिला शुरू हो गया। ज्या दातर राज्यों ने इस बाबत कानून बना दिए।

तुम जीती रहोगी, जीता जी!

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अनिल भाई, जीता जी की मृत्यु हो गई। कैंसर से, आज ही सुबह, जालंधर में। यदि संभव हो तो आप उनके बारे में भी कुछ लिखें, आखिर- मेरी जानकारी के मुताबिक- उन्हें आंदोलन की धारा में लाने वाले आप ही रहे हैं... रात के लगभग एक बज रहे हैं। शनिवार से रविवार हुए अभी एक घंटे भी नहीं बीते कि ब्लॉग देखा, कमेंट में चंदू भाई की ये सूचना पढ़ी तो मुझे लगा कि लिखने में कुछ भी विलंब किया तो जीता जी मुझे झड़प देंगी। करीब सात साल पहले दिल्ली की लू भरी दोपहर में बस स्टैंड के पास जीता ने देखा था तो पास आकर छोटे भाई की तरह डांटते हुए पूछा, कैसे हो बीवी-बच्चों का ख्याल रखते हो कि वैसे ही लापरवाह हो। हां! चंदू भाई, मैं ही वह शख्स हूं जो एक बेहद बहादुर जिंदादिल लड़की को क्रांतिकारी आंदोलन में लाने का जरिया बना था। जीता जी उस समय गोरखपुर के एक सम्मानित सिख परिवार की सामान्य लड़की थीं। लेकिन घर में उनका छोटा भाई ही नहीं, सभी उन्हें ही एक तरह से घर का मुखिया मानते थे। गजब की नेतृत्व क्षमता थी उनमें। जीता के दृढ़ रवैये के भीतर एक भावुक लड़की भी बसती थी जो किसी से बेहद प्यार करती थी, लेकिन प्यार में गद्दारी उसे कुबूल नहीं

एक तो चोरी, ऊपर से जमींदारी!!

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तथ्यों की दलदली जमीन पर दिमाग की गाड़ी धंसी जा रही है। इतिहास लिखू, अनुभव लिखूं या किसी रटी-रटाई सोच को दोहरा दूं। कोई एकल पैटर्न ही नहीं उभर रहा। कभी सोचता हूं कि कैसा नीरस विषय पकड़ लिया, न कमेंट, न अमेंट, न ही कोई आवाजाही। फिर सोचता हूं कि जब मैं किसी के लिखे पर कमेंट नहीं करता तो कोई मेरे लिखे पर क्यों कमेंट करे। फिर भी पांच-दस लोगों को आह-वाह तो कर ही देना चाहिए ना! खैर, हम सभी लोगों की अपनी दुनिया है, जिसमें मैं भी शामिल हूं। सब सहे, मस्त रहे के अंदाज में कामधेनु सरिया जैसा जीवन जीते हैं। वैसे, सचमुच सोचता हूं कि क्या मतलब है इस तरह जमीन और कृषि के सवाल पर लगातार लिखते जाने का? फिलहाल तो मन को यही सोचकर दिलासा देना पड़ रहा है कि ये मेरे स्वाध्याय का हिस्सा है। लेकिन इसे स्वांत: सुखाय लेखन भी तो नहीं कह सकते है? खैर, चलिए आगे बढते हैं... तो, मैं जिस महलवारी प्रथा की बात कर रहा था, उसी प्रथा के तहत हमारा गांव भी आता था। इस महलवारी व्यवस्था को शायद जजमानी और पट्टीदारी प्रथा भी कहा जाता था, जो भारत की पुरानी व्यवस्था का ही नैरंतर्य थी। बाबा के परबाबा गांव के लंबरदार थे, गांव भर से मा

और, बढ़ता गया बेगानापन

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अभी तक इधर की बातें हुईं। अब जरा उधर की भी बात कर ली जाए, भूस्वामित्व के इतिहास में झांक लिया जाए। जमीन तो हमेशा राजा, बादशाह या सरकार की रही है और किसानों को उस पर खेती करने के लिए टैक्स देना पड़ा है। मनु ने उपज का छठां हिस्सा राजा को देने का नियम बनाया था, जो युद्ध जैसे विपत्तिकाल में एक चौथाई हो जाता था। हालांकि टैक्स का अंतिम फैसला राजा की मनमर्जी से ही होता था। भारत में सदियों तक जमीन का मामला एकदम बिखरा-बिखरा रहा। अकबर के खजाना मंत्री टोडरमल ने पहली बार जमीन की कायदे से नापजोख कराई और उर्वरता के आधार पर जमीन को चार श्रेणियों में बांटकर उसकी मालियत तय कर दी। गौर करने की बात ये है कि टोडरमल ने जमीन के सर्वेक्षण की जो तौर-तरीके अपनाए, वो आज भी भारत के ज्यादातर हिस्सों में अपनाए जाते हैं। अकबर के शासन में किसानों से उपज का एक तिहाई हिस्सा बतौर टैक्स लिया जाता था। बाद में मुगलों से लेकर मराठा शासन तक में कमोबेश इसी अनुपात में टैक्स लिया जाता रहा। लेकिन मुगल शासन के पतन के दौरान देश में राजस्व खेती लागू की गई। इस प्रणाली में कभी-कभी किसानों को फसल का 9/10वां हिस्सा तक बादशाह को देना पड

और, तूँ हमार हड्डी चिचोरत हया

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आप बीएसपी के दूसरे मतलब बिजली-सड़क-पानी से तो वाकिफ होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एलपीजी यानी लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस का दूसरा मतलब क्या होता है? मैं भी नहीं जानता था। वो तो जमीन के सवाल पर इंटरनेट में गोता लगा रहा था तो इसका भेद खुला। लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन। बड़ा अफसोस हुआ कि नब्बे के दशक से देश में जारी इस सर्वव्यापी प्रक्रिया का संक्षिप्त रूप ही मुझे पता नहीं था। खैर, देश में जब से ये एलपीजी आई है, तभी से हम शहरी पढ़े-लिखे लोगों की नजर में जमीन हाउसिंग, पूंजी निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का साधन भर रह गई है। हम भूल गए हैं कि जमीन महज अनाज, दलहन और तिलहन उपजाने का साधन नहीं है, बल्कि इसका गहरा नाता आजीविका, समता, सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा से है। असल में जमीन सभी आर्थिक गतिविधियों का आधार है। इसका इस्तेमाल या तो देश के आर्थिक विकास और सामाजिक समता के लिए जरूरी परिसंपत्ति के रूप में किया जा सकता है या यह कुछ लोगों के हाथों में देश की आर्थिक आजादी का गला घोंटने और सामाजिक प्रगति को रोकने का साधन बन सकती है। अंग्रेजों ने दो सौ सालों के शासन में भारत के साथ

ये कहां आ गए हम

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देश के जीडीपी में कृषि का योगदान घटते-घटते 18 फीसदी पर आ गया है, जबकि देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी अब भी कृषि से रोजी-रोटी जुटाती है। होना ये चाहिए था कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में घटते योगदान के अनुपात में कृषि पर निर्भर आबादी का अनुपात भी घट जाता, लोग कृषि से निकलकर औद्योगिक गतिविधियों में शामिल हो जाते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा क्यों नही हुआ, ये पहला यक्ष प्रश्न है। खैर, इसका नतीजा ये हुआ है कि जो योगदान 18 फीसदी लोगों को देना चाहिए था, उसमें 42 फीसदी अतिरिक्त आबादी फंसी हुई है। इसका प्रभाव-कुप्रभाव आप गांवों में ताश खेलते लोगों, गांव के पास के बाजार में सुबह से शाम तक पान और चाय की दुकानों पर मजमा लगाए लोगों में देख सकते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर होता है तो यही खलिहर लोग आज अपहरण और वसूली जैसे अपराधों का रुख करने लगे हैं। उत्तरांचल की तराई से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़ते अपहरण की एक वजह कृषि में बेकार उलझी पड़ी आबादी है। लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा बहुत सोच-समझ कर दिया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गरीब परिवार से आने के कारण शायद उनमें किसानों की बढ

अच्छा नहीं है ये कौआ-रोर

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वाकई बहुत दुखद है ये कौआ-रोर। शनिवार-इतवार का दिन मैं अपने कुटुंब के लिए रखता हूं। लेकिन नारद पर जिस तरह से कई दिनों से पोस्ट पर पोस्ट दागे जा रहे हैं, उससे मेरा ये नियम टूट गया। मुझे बचपन में घर के आंगन के कटहल के पेड़ की याद आ गई। इस पेड़ पर कौओं ने बसेरा बना रखा था। शाम सात-आठ बजते ही वहां न जाने कहां से कई सैकड़ा कौए जुट जाते थे और सुबह तक इतनी बीट कर देते कि पूरा आंगन गंधाने लगता था। खासकर बारिश के दिनों में तो वहां से निकलना दूभर हो जाता था। ये कौआ-रोर तब भी होता था, जब कोई कौआ मर जाता था। सैकड़ों कौए मरे हुए कौए के चारों तरफ रार मचाने लगते थे। मुझे तो नारद पर मची ये रार सचमुच कौआ-रोर जैसी लगती है। प्रतिरोध पर छपी असगर वजाहत की कहानी के अंश पर बेंगानी बंधुओं की टिप्पणियां bad taste में थी और राहुल ने जो लिखा, वह भी उसी दर्जे का था। लेकिन नारद मुनि ने जो किया वो किसी भी ब्लॉग एग्रीगेटर को शोभा नहीं देता। पहले भी बहुत से चिट्ठों में संभल जाओ और निपट लेने की बातें होती रही हैं। इसे भी उसी तरह नजअंदाज कर दिया जाता तो मामला कब का दम तोड़ चुका होता। क्रिया-प्रतिक्रिया का ये दौर नहीं चल

हिम्मत है तो कर के दिखाओ

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आगे बढ़ने से पहले दो बातें साफ कर देना चाहता हूं। एक तो मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं, न ही किसी विकासशील अर्थव्यवस्था में ज़मीन के सवाल की समग्र समझ रखता हूं। बल्कि लेखों की इन कड़ियों के ज़रिए खुद भारत में ज़मीन के सवाल को समझने की कोशिश कर रहा हूं। इसके लिए मेरे पास एकमात्र स्रोत एकमात्र इंटरनेट पर मौजूद सामग्रियां हैं। इसलिए ज़मीनी कार्यकर्ताओं और इस मुद्दे पर जानकारी रखनेवाले ब्लॉगर बंधुओं से मेरी अपील है कि जहां भी मैं गलत डगर पर भटकता नजर आऊं, मुझे फौरन दुरुस्त कर दें। दूसरी बा त जमीन का सवाल भू-दक्षिणा या भू-दान का मसला नहीं है। निर्धन सुदामा को किसी श्रीकृष्ण का उपहार नहीं चाहिए, न ही किसी बिनोबा भावे का यज्ञ। असल में भूमि सुधार का सवाल गरीबों को दो जून की रोटी मुहैया कराने तक सीमित नहीं है। न ही ये महज वंचित तबकों के हक़ का मसला है। बल्कि ये देश के तेज़ औद्योगिक विकास की ज़रूरी शर्त है। ऐसा मेरा नहीं, नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है। हैदराबाद में पिछले साल 93वीं इंडियन साइंस कांग्रेस की बैठक में अमर्त्य सेन ने चेतावनी भरे लफ्ज़ों में कहा था कि भारत तब तक दुनिया क

हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों?

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भूमि के सवाल पर मैं सोच ही रहा था कि प्रमोद का फोन आया। उनका कहना था कि इस जटिल सवाल पर प्यार से लिखना चाहिए। दिक्कत ये है कि इस मसले पर मेरी समझ और अध्ययन बहुत छिछला और अनुभवजन्य है। जैसे, जब कोई भूस्वामियों की जमीन छीनकर जोतनेवालों को जमीन देने की बात करता है तो मुझे उपहास करने का मन होता है। आखिर जिस देश में औसत जोत का आकार घटते-घटते तीन-साढ़े तीन एकड़ का रह गया हो, वहां जमीन के और टुकड़े करने का क्या तुक है। इलाके के इलाके छान मारिए, आपको 30-35 एकड़ से ज्यादा के किसान नहीं मिलेंगे। 10-12 एकड़ तक के किसान तो आपको हर तरफ रोते-बिलखते मिल जाएंगे। उनके लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। वो कोई ठीक-ठाक नौकरी पाकर शहर का रुख करना चाहते हैं। अच्छे दाम मिल जाए तो खेती की जमीन बेचकर निकल जाएंगे। ये उत्तर भारत के किसानों का औसत हाल है। लेकिन औसत की बात चली तो एक साहूकार की कहानी याद आ गई। साहूकार महोदय अपनी बीवी और तीन बच्चों के साथ पास के शहर को जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी। नांव का इंतजार किया। वो नहीं आयी तो साहूकार ने सोचा कि ये नदी तो घुसकर पार की जा सकती है। उन्होंने किनारे से लेकर ब

शाम से आंख में नमी-सी है

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नगरों-महानगरों में हम सभी अपनी दुनिया में मस्त हैं। सांप्रदायिकता पर चिंतित होते हैं, मोदी को लेकर गालीगलौज तक कर डालते हैं, इराक में बुश की दादागिरी से खफा होते हैं, वेनेजुअला के राष्ट्रपति शावेज को शाबासी देते हैं, देश के भ्रष्टाचार पर परेशान होते हैं, यौन शिक्षा पर बहस करते हैं, चीनी-कम पर चर्चा करते हैं, व्यवस्था न बदलने पर शोक करते हैं। काम या दफ्तर से लौटकर घर पहुंचते हैं, खाते-पीते और सो जाते हैं। अगले दिन फिर चिंता और काम के चक्र में रम जाते हैं। दुख-सुख, चिंता, मोहमाया सबसे रू-ब-रू होते हैं, दार्शनिक भाव से जिंदगी जीते हैं। अवसाद की हालत में कभी-कभी अपने होने का मतलब तलाशने लग जाते हैं। वैसे, अवसाद की स्थिति होती है बड़ी मजेदार। मन नम-सा हो जाता है, अजीब शीतलता छा जाती है, निराशा में डूबते-उतराते हुए अक्सर स्थितिप्रज्ञता का भाव आ जाता है। ऐसी ही अवस्था में मैं भी अपने होने का मतलब तलाशने बैठ गया। तलाश यहां से शुरू की कि जहां मैं इस समय अवस्थित हूं, उसका समग्र स्वरूप क्या है। मैं किसी द्वीप पर हूं या आबादी और कोलाहल से भरे किसी समूचे भूखंड का हिस्सा हूं। मुझे अहसास हुआ कि नगरो-

विजयी कौन, सुखी कौन

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प्रमोद ने पूछा है कि ये बताइये, ये विजयी कहाए हुए जो दूसरों का लहू पिए जा रहे हैं इनकी कोई पहचान हुई? कहते हैं कि इनकी शिनाख़्त करने के चक्‍कर में रोज रोज़ थकते रहते हैं। तो, साफ बता दूं कि इनकी शिनाख्त को लेकर इधर मैं भी काफी कन्फ्यूज चल रहा हूं, क्योंकि आज मैं ऐसे तमाम ईमानदार लोगों को जानता हूं जो अपनी मेहनत और काबिलियत से शानदार कामयाबी तक पहुंचे हैं। जैसे, मुझे कुछ ही दिन पहले पता चला कि मेरे गांव के एक लड़के ने आईआईटी-बॉम्बे से बी.टेक. और एम.टेक करने के बाद आईआईएम-बैंगलोर से एमबीए किया और 28 साल की उम्र में ही मैकेंजी में एसोसिएट है। उसकी सालाना तनख्वाह 28 लाख रुपए है यानी महीने में 2.33 लाख की पगार। जिस गांव का मैं पहला शख्स था जो विदेश नौकरी करने गया था, वहां के एक पंडित जी अभी नीदरलैंड में और एक बाबू साहब जापान में नौकरी कर रहे हैं। मेरे मां-बाप की पीढ़ी में लोग रिटायर होने पर पेंशन और दूसरे फंड के पैसों से घर बनवाते थे। आज तो 30-35 साल के लड़के-लड़कियां ही मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में अच्छा-खासा फ्लैट खरीद ले रहे हैं। इनमें से शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसके बारे में कहा जा

एक अल्हड़-अक्खड़ गुजराती गीत

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एक गुजराती गीत, जिसके रचयिता है उमा शंकर जोशी। गीत का अंग्रेजी अनुवाद यहां देख सकते हैं। भोमियो एक गुजराती शब्द है, जिसका मतलब होता है गाइड। कल ब्लॉग पर भोमियो का लिंक लगाने के बाद मुझे इस गीत का पता चला। भोमिया विना मारे भमवा'ता डुंगरा, जंगल नी कुंज-कुंज जोवी हती; जोवी'ती कोतरो ने जोवी'ती कंदरा, रोता झरणा नी आँख ल्होवी हती. सूना सरवरियानी सोनेरी पाळे, हंसोनी हार मारे गणवी हती; डाळे झुलंत कोक कोकिला ने माळे, अंतर नी वेदना वणवी हती. एकला आकाश तळे उभीने एकलो, पड़घा उरबोलना झीलवा गयो; वेराया बोल मारा, फेलाया आभमां, एकलो अटूलो झांखो पड्यो. आखो अवतार मारे भमवा डुंगरिया, जंगल नी कुंज-कुंज जोवी फरी; भोमिया भूले एवी भमवा रे कंदरा, अंतर नी आँखड़ी ल्होवी जरी.

महाकवि निराला की एक गज़ल

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मुझे नहीं पता कि तकनीकी रूप से ये गज़ल है या नहीं। लेकिन हम इसे पुराने दिनों में नुक्कड़ों और मंचों पर खूब गाया करते थे। शायद ये पंक्तियां आज भी बहुतों के दिलों को छू सकती हैं, अंतिम पंक्तियां खासकर कि खुला भेद विजयी कहाए हुए जो, लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं। किनारा वो हम से किए जा रहे हैं। दिखाने को दर्शन दिए जा रहे हैं।। जुड़े थे सुहागन के मोती के दाने। वही सूत तोड़े लिए जा रहे हैं।। ज़माने की रफ्तार में कैसा तूफां। जिए जा रहे हैं मरे जा रहे हैं।। छिपी चोट की बात पूछी तो बोले। निराशा के डोरे सिये जा रहे हैं।। खुला भेद विजयी कहाए हुए जो। लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।।

सड़क बनाओ, नक्सली मिटाओ

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अगर आप देश के किसी दूरदराज के ऐसे इलाके में रहते हैं, जहां तक पक्की सड़क नहीं पहुंची है और वहां तक आप सड़क पहुंचाना चाहते हैं तो इसके लिए मेरे पास एक आजमाया हुआ नुस्खा है। आप खबर फैला दीजिए कि उस इलाके में नक्सली सक्रिय हो गए हैं। फिर आपसी झगड़े में हुई मौतों के बारे में खबर छपवा दीजिए कि ये नक्सलियों की करतूत है। ये सिलसिला कुछ महीनों तक चलाते रहिए। फिर देखिए कि वहां पक्की सड़क कैसे नहीं पहुंचती। ये मेरा देखा-परखा नुस्खा है, बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश के कई इलाकों का अनुभव मैं जानता हूं। और, शायद मेरी राय से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इत्तेफाक रखते हैं। तभी तो पीएमओ ने तीन राज्यों, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और झारखंड के नक्सल प्रभावित इलाकों को जोड़नेवाली 1,729 किलोमीटर की सड़क परियोजना को हरी झंडी दे दी है। ये सड़क आंध्र प्रदेश में विजयवाड़ा से शुरू होकर उड़ीसा में मलकागिरी, कोरापुट, रायगडा, गजपति, गंजम, कांधामाल, बोलांगीर, अनुगुल, संभलपुर, देवगढ़, क्योंझर और मयूरभंज होते हुए झारखंड में रांची तक पहुंचेगी। रास्ते में पड़नेवाले तमाम आदिवासी इलाके नक्सली हिंसा से प्रभावित हैं। इसमें से 1,21

डॉन का प्रेम-पत्र

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ये खत अंडरवर्ल्ड डॉन अबू सलेम ने आर्थर रोड जेल से इसी साल 21 जनवरी को अपनी एक खास वकील दोस्त को लिखा है। खत से लगता है कि ये वकील साहिबा के किसी खत का जवाब है। रोमन लिपि में हिंदी-उर्दू जुबान में लिखे गए दस पन्नों के इस खत के कुछ अंश पेश कर रहा हूं। अस सलाम आले कुम...... हाय, मेम साहब। कैसी हैं? वैसे आप ठीक होंगी, उम्मीद करता हूं। आपका बहुत हसीन लेटर मिला। पढ़कर एक उम्दा खुशी मिली। जैसी कि उम्मीद थी, आप अच्छा लिखती हैं, सचमुच मेम साहब। आपको समझ में नहीं आ रहा कि आपके लेटर मुझे कैसे अच्छे लगे और इतने? मेम साहब, एक तो उसमें एक अपनापन झलकता है, प्यारी-प्यारी बातें, प्यारे-प्यारे अंदाज। मुझे तो बेहद अच्छे लगते हैं। इस तनहाई में ऐसी प्यार भरी बातें मेरे लिए अनमोल खजाना हैं, जिसे हर पल याद करता रहता हूं। वो भी आपका लेटर मेरे लिए तो एक जिंदगी है। काश आप समझ सकतीं ऐसे हालात को। खैर, मेम साहब, मैं झूठ नहीं बोलता हूं। आप कसम से अच्छी हैं और आपका लेटर भी बहुत सुंदर है। ...आपको लिखते समय आपको ही सोचा करता हूं। एक उम्दा सी फीलिंग आ जाती है कि काश बाहर होता तो कितनी बातें करता। न जाने क्यों आपसे हर

ये जो देश है मेरा, परदेस है मेरा

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एक भारत देश हमारे बाहर है। एक देश हमारे अंदर है। लेकिन दोनों का दरमियानी फासला काफी ज्यादा है। आबादी के अलग-अलग हिस्सों के लिए ये फासला अलग-अलग है। मुंबई, कोलकाता और दिल्ली में काम करनेवाला कामगार जब अपने गांव जाता है तो बोलता है हम अपने मुलुक जा रहे हैं। गांवों के औसत खाते-पीते किसान के लिए देश कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक फैला एक भूखंड है, जिसके नो-मेंस लैंड या बर्फ से ढंके सियाचिन के किसी कोने पर भी अगर चीन या पाकिस्तान की हरकत होती है तो उसका खून खौल उठता है। उसे बचपन से प्रार्थना सिखाई जाती है – वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं, जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जाएं। वह या तो जाति पर कुर्बान होता है या देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए शहीद हो जाता है। काबिल हुआ और किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिल गई तो स्कूल का मोटो होता है – स्वधर्मे निधनं श्रेय: ... इ स तरह भारत देश से इतर हमारे अंदर के देश में धर्म, जाति और इलाके की अस्मिता भी नत्थी हो जाती है। बाहर के देश में 28 राज्य, 14 सरकारी भाषाएं, साढ़े आठ सौ से ज्यादा बोलियां, छह बड

लो, लौट आई पहली दुल्हिन

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इतनी उम्र हो गई। बाल सफेद होने लगे। लेकिन अंदर का बच्चा अब भी वैसा ही है जैसा चार-पांच साल की उम्र में था। तभी तो आज मनहर की बालकनी में अचानक एक लंगड़ी गौरैया आकर फुदक-फुदक करने लगी तो वह बिना कुछ सोचे-समझे शरमा गया, उसी तरह जैसे बचपन में गांव के आंगन के मुंडेर पर लगड़ी गौरैया आकर बैठती थी तो अइया कहती थी कि लो आ गई तुम्हारी दुल्हिन और उसका चेहरा हल्का-सा लाल हो जाता था। उंकड़ू-मुकड़ू होकर वह अपनी दुल्हिन की तरफ देखता। फिर कूदता-फांदता आंगन के बाहर निकल घर की ड्यौढ़ी से बाहर दरवाजे पर निकल जाता। ये खेल तब शुरू हुआ था कि चाचा की शादी में वह सहबाला बनकर घोड़ी पर बैठा था। वहां से लौटते ही उसने अइया और बुआ से जिद कर डाली कि उसकी भी शादी फौरन की जानी चाहिए। उसने जिद की तो एक साल बड़े भाई कहां चुप रहने वाले थे। दोनों अड़ गए कि शादी अभी और तुरंत होनी चाहिए। फिर एक दिन अइया ने शुभ संदेश दिया कि दोनों के लिए दुल्हिन ढूंढ़ ली गई है। मनहर की शादी आंगन में बराबर धान चुगने और पानी पीने आनेवाली लंगड़ी गौरैया से कर दी गई, जबकि बड़े भाई के लिए दुल्हिन चुनी गई छछूनरिया, वो छंछूदर जो बराबर घर के पंडोह (