और, बढ़ता गया बेगानापन

अभी तक इधर की बातें हुईं। अब जरा उधर की भी बात कर ली जाए, भूस्वामित्व के इतिहास में झांक लिया जाए। जमीन तो हमेशा राजा, बादशाह या सरकार की रही है और किसानों को उस पर खेती करने के लिए टैक्स देना पड़ा है। मनु ने उपज का छठां हिस्सा राजा को देने का नियम बनाया था, जो युद्ध जैसे विपत्तिकाल में एक चौथाई हो जाता था। हालांकि टैक्स का अंतिम फैसला राजा की मनमर्जी से ही होता था।
भारत में सदियों तक जमीन का मामला एकदम बिखरा-बिखरा रहा। अकबर के खजाना मंत्री टोडरमल ने पहली बार जमीन की कायदे से नापजोख कराई और उर्वरता के आधार पर जमीन को चार श्रेणियों में बांटकर उसकी मालियत तय कर दी। गौर करने की बात ये है कि टोडरमल ने जमीन के सर्वेक्षण की जो तौर-तरीके अपनाए, वो आज भी भारत के ज्यादातर हिस्सों में अपनाए जाते हैं। अकबर के शासन में किसानों से उपज का एक तिहाई हिस्सा बतौर टैक्स लिया जाता था। बाद में मुगलों से लेकर मराठा शासन तक में कमोबेश इसी अनुपात में टैक्स लिया जाता रहा। लेकिन मुगल शासन के पतन के दौरान देश में राजस्व खेती लागू की गई। इस प्रणाली में कभी-कभी किसानों को फसल का 9/10वां हिस्सा तक बादशाह को देना पड़ता था।
वैसे, आज हम खेती में जो कुछ भी देख रहे हैं, वह अंग्रेजों के पाप का नतीजा है। उन्हें खेती-किसानी की हालत से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनका मकसद सिर्फ इतना था कि उन्हें टैक्स देने से कोई किसान बच न पाए। देश में स्थाई बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा लागू करने का पापी था लॉर्ड कॉर्नवालिस। उसने 1793 में इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल से की, जो बाद में उड़ीसा, उत्तर प्रदेश (आगरा और अवध को छोड़कर), बिहार, राजस्थान (जयपुर और जोधपुर को छोड़कर) समेत देश के कुल कृषि क्षेत्रफल के लगभग 57 फीसदी हिस्से पर लागू हो गई। इसके तहत रियासतों को गांव के गांव मुफ्त में दे दिए गए। बस, उनका जिम्मा ये था कि वो किसानों से टैक्स वसूल कर अंग्रेजों तक पहुंचाएं। किसान बटाईदार बना दिए गए। बिचौलिये जमींदारों और उनके कारिंदों की मौज हो गई।
अंग्रेजी शासन में भू-स्वामित्व की दूसरी प्रमुख व्यवस्था थी रैयतवारी, जिसे 1792 में मद्रास में और 1817-18 में बॉम्बे में लागू किया गया। इसमें रैयत या किसान को उसकी जमीन का मालिक माना गया। जब तक वह अंग्रेज कलेक्टर को समय पर तय मालगुजारी देता रहता था, उसकी जमीन को कोई आंच नहीं आ सकती थी। रैयतवारी व्यवस्था आज के महाराष्ट्र और कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, अधिकांश मध्य प्रदेश, असम और कमोबेश पूरे दक्षिण समेत देश के 38 फीसदी कृषि क्षेत्रफल में लागू थी। इस व्यवस्था की खासियत ये थी कि इसमें सरकार और किसानों के बीच कोई बिचौलिया नहीं था।
जमीन के मालिकाने की तीसरी प्रथा थी महलवारी। इसे विलियम बेनटिन्क ने साल 1820 में आगरा और अवध में लागू किया, जो 1840 तक मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों और संयुक्त पंजाब तक फैला दी गई। इसके तहत अंग्रेजों को जमीन का टैक्स पहुंचाने की जिम्मेदारी गांव (महल) के मुखिया की थी, जिसे लंबरदार कहा जाता था। किसान अपनी जोत के हिसाब से तय मालगुजारी (जो उपज का दो तिहाई से लेकर तीन चौथाई तक थी) लंबरदार के पास जमा कराते थे, जो इसे परगना के अंग्रेज कलेक्टर तक पहुंचाता था। महलवारी देश की कृषि जमीन के पांच फीसदी पर लागू थी।
भू-स्वामित्व की इन तीनों ही व्यवस्थाओं के तहत किसान कभी अपनी मर्जी के मालिक नहीं रहे। ब्रिटिश सरकार जिंदा रहने भर का न्यूनतम अनाज छोड़कर उनसे बाकी हिस्सा छीन लिया करती थी। लेकिन किसानों की सबसे खराब हालत जमींदारी वाले इलाकों में थी। इन इलाकों के किसानों ने खेती पर ध्यान देना भी बंद कर दिया। जमीन को लेकर उनमें एक बेगानापन सा भर गया। जारी...

Comments

azdak said…
स्‍थायी बंदोबस्‍त, रैयतवारी, महलवारी हमने बी.ए. की इतिहास वाली कक्षाओं में पढ़ा था. और बेमतलब पढ़ा था. यहां छोटे में उसकी सटीक टीका समझ गए.
स्थायी बंदोबस्त के बारे में काफी पहले पढ़ा था। आपने ताजी करा दी जानकारियां। आज हमने भी लंबरदार शब्द पर पोस्ट लिखी है।

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