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Showing posts from March, 2008

भारतीय ब्लॉगिंग की दुनिया, जहां हिंदी बस 4/500 है

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नौ घंटे का बारकैम्प मुंबईस्टाइल पूरी ‘इश्टाइल’ से कल आईआईटी मुंबई में संपन्न हो गया। रजिस्ट्रेशन, नाश्ता, शुरुआती रूपरेखा, लंच और चाय-पानी वगैरह का समय निकाल दिया जाए तो इस कैंप में पांच घंटे तक ब्रेनस्टॉर्मिंग बातचीत हुई। शुरू में थोड़ी निराशा यह देखकर ज़रूर हुई थी कि कोई भी हिंदी ब्लॉगर इसमें नहीं पहुंचा था। फोन किया विकास आए और बताया कि हिंद-युग्म के पंकज तिवारी भी शिरकत के लिए आए हुए हैं। पंकज के साथ उनके सहयोगी साकेत चौधरी भी थे। थोड़ा ढांढस बंधा कि चलो अब अकेले नहीं, हिंदी के हम चार बंदे हो गए हैं। लेकिन इस कैंप में उमड़े तकरीबन 500 लोगों में चार की गिनती हिंदी और हमें गायब करने के लिए पर्याप्त थी। अफसोस इस बात का रहा कि युनूस भाई तक किसी फंसान या थकान के चलते नहीं आ पाए जबकि उन्होंने ही तरुण चंदेल का वह मेल बहुतों को फॉरवर्ड किया था जिसमें तरुण की दिली पेशकश थी कि, “हमें हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक चर्चा करनी चाहिए ब्लॉग कैम्प में। ज़रूरी नही है कि ये चर्चा powerpoint slides के साथ की जाए, हम ‘चाय पर दो बातें’ जैसी चर्चा भी कर सकते हैं।” विषय तय करने की प्रक्रिया के दौरान मैं और विकास

कैसी कर्जमाफी कि मरते ही जा रहे हैं किसान?

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जो देखना चाहते थे, उनके लिए तो किसानों के लिए 60,000 करोड़ रुपए की कर्ज-माफी की घोषणा का सच बजट के दिन ही सामने आ गया था। उसी दिन साफ हो गया था कि खुदकुशी कर रहे विदर्भ के किसानों का रुदन इससे थमने वाला नहीं है। अब इसका प्रमाण भी मिलने लगा है। इसी हफ्ते रविवार से मंगलवार तक के तीन दिनों में ही विदर्भ के 14 किसानों ने आत्महत्या की है। इसके साथ 29 फरवरी को बजट के आने के बाद से विदर्भ में खुदकुशी करनेवाले किसानों की संख्या 61 पर पहुंच गई है। अकोला ज़िले के बाभुलगांव के रहनेवाले 48 साल के श्रीकृष्ण कलम्ब ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उन्होंने कृषक को-ऑपरेटिव सोसायटी से 37,000 रुपए का कर्ज ले रखा था, लेकिन पांच एकड़ से ज़रा-सी ज्यादा ज़मीन होने के कारण वे कर्जमाफी के हकदार नहीं थे। उनकी पांच बेटियां है, जिनमें से दो की शादी के लायक हो चुकी है। कलम्ब ने अपने सुसाइट नोट में अचानक लिए गए इस फैसले की तुलना पिछले हफ्ते की बेमौसम बरसात से की है जिससे पूरे विदर्भ में फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है। उन्होंने अपनी आत्महत्या को भगवान का चढ़ावा बताया है। वरधा जिले के सेलु-मुरपद गांव के किसान सुधारक

अनाम को ब्लॉक करें ताकि बना रहे आपसी भरोसा

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छोटा था तो पिताजी एक बार बैल खरीदने के लिए सुल्तानपुर ज़िले में पड़नेवाले गुप्तारगंज के मशहूर मेले में साथ ले गए। वहीं मुझे पता कि बैल के दांत, कद-काठी या मोटा-तगड़ा होने के साथ ही उसे चलाकर देखना ज़रूरी होता है। नहीं तो पूरी असलियत पता नहीं चलेगी। ब्लॉगिंग की दुनिया में भी चलते रहने से ही नए-नए सच सामने आ रहे हैं। आपके नाम से कोई भी किसी के ब्लॉग पर टिप्पणी कर सकता है और आपको पता भी नहीं चलेगा। जब तक पता चलेगा, तब तक सामनेवाला आपके बारे में जल-भुनकर एक राय कायम कर चुका होगा। आप कहां तक और किस-किसको सफाई देते फिरेंगे। अच्छी बात यह हुई कि कल के प्रकरण पर पहले तो Ghost Buster ने कुछ जानकारियां दी। प्रमोद ने उसमें कुछ और नुक्ते निकाले तो आखिर में Ghost Buster ने बड़ी मुकम्मल सी राय रखी है, जिस पर मुझे लगता है कि सब ब्लॉगरों को गौर करना चाहिए। उनके दो सुझाव है: एक, अगर सभी ब्लागर एकमत होकर कमेंट्स के लिए anonymous का ऑप्शन हटा दें तो कोई आपके ब्लॉग पर किसी और के नाम से फर्जी टिप्पणी नहीं कर पाएगा। दो, सभी ब्लागर्स को अपने प्रोफाइल में अपना चित्र जरूर शामिल करना चाहिए जो कि कमेंट के साथ द

मेरे नाम से की गई टिप्पणी फ्रॉड है

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आज तबीयत थोड़ी नासाज थी तो न सुबह कुछ लिख सका और न ही शाम को कुछ लिखने का मन हो रहा था। लेकिन औरों को पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर सका। पहुंच गया ब्लॉगवाणी पर और वहां सबसे ज्यादा पढ़ी गई पोस्ट पर क्लिक किया तो विमल की अतीत-यात्रा की आखिरी किश्त पढ़कर मन खुश हो गया। लेकिन लेख के अंत में टिप्पणियों पर पहुंचा, तो मैं चौंक गया। पहली ही टिप्पणी मेरी है जिसमें लिखा गया है कि, “अविनाश के मोहल्‍ले को इस संस्‍मरण में आपने भी लिंक रहित करके एक सुखद काम किया है। अब साइडबार से भी उसको बेदखल करें।” और, मजे की बात है कि अजित भाई ने गंभीरता से लेते हुए तुरंत इसका जवाब भी दे डाला। मैंने तुरंत अजित भाई को फोन मिलाया, लेकिन उनका फोन नहीं मिला। मुझे उन्हें यह बताना था कि यह टिप्पणी मेरी नहीं है। टिप्पणी की तिथि 24 मार्च और समय 10:00 PM लिखा है, जबकि उस समय मैं लोकल ट्रेन से घर जा रहा था। यकीन मानिए, मैं अंदर से हिल गया हूं कि इस तरह का फ्रॉड ब्लॉग-जगत में चलने लगा तो किसी की भी छवि मिनटों में बरबाद की जा सकती है। मैं अपनी तरफ से साफ कर दूं कि मैंने कल ही शपथ ली है कि आगे से अविनाश और मोहल्ला के बारे में प

बड़ी हत्यारी और बेरहम है तुम्हारी दिल्ली

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बीस साल की दालिया बीवी अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उसके ये शब्द अब भी दिल्ली की हवाओं में, फिज़ाओं में गूंज रहे हैं। उसने मरने के कुछ ही घंटे पहले एम्स में अपनी देखभाल कर रही नर्स से ठेठ देहाती बांग्ला में कहा था – बड़ी बेरहम और हत्यारी है तुम्हारी दिल्ली। लेकिन जो लोग कुरुक्षेत्र में अब भी गीता के श्लोकों की गूंज सुनने का दावा करते हैं, उनके कान दालिया के दिल से निकली आवाज़ को नहीं सुन सकते क्योंकि वे मिथकीय सिज़ोफ्रेनिया के शिकार हैं। गाज़ा में हो रही मौतों पर आंसू बहानेवाले दिल्ली के लोगों के लिए भी दालिया के ये शब्द मायने नहीं रखते क्योंकि वे दिमागी हाइपरमेट्रोपिया के शिकार हैं। पश्चिम बंगाल की दालिया बीवी अपने शौहर के साथ दिल्ली आई थी नई ज़िंदगी और भविष्य का ख्वाब लेकर कि जहां लाखों लोगों को रोज़ी-रोज़गार का ज़रिया मिल ही जाता है, वहां वह भी अपना कुनबा बसा लेगी। लेकिन चार दिन में ही दिल्ली ने अपना असली जौहर दिखा दिया। पहले तो उतरते ही सारा माल-असबाब कोई लेकर भाग गया। फिर जहां भी गई, गिद्धों की निगाहें उसके जवान जिस्म को नोंचने के फिराक में लगी रहीं। हद तो तब हो गई जब बेरहम दि

देश का असली शहीद दिवस तो आज है

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सरकार के नियम-धर्म से सारा देश 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाता है। क्यों? क्योंकि 30 जनवरी 1948 को मोहनदास कर्मचंद गांधी को नाथूराम गोंडसे नाम के एक हिंदूवादी देशभक्त ने गोली मार दी थी। गोंडसे कुछ भी था, लेकिन उसे हम देश का दुश्मन नहीं कह सकते। बहुत हुआ तो गुमराह कह सकते हैं। इसका मतलब महात्मा गांधी की हत्या देश के किसी दुश्मन ने नहीं की थी। मेरा सवाल यह है कि अगर गांधीजी ने 30 जनवरी 1948 को बंद कमरे में खुदकुशी की होती तब भी क्या हम देश में 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाते? दूसरी तरफ ब्रिटिश हुकूमत ने आज के दिन 23 मार्च 1931 को देश के तीन सपूतों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर लटका दिया था। ये तीनों पवित्रतम देशभक्ति की मिसाल थे। ज़रा-सा भी राजनीतिक खोट नहीं था इनकी समझ में। इन्होंने असेम्बली में बम फेंका था तो किसी को मारने के लिए नहीं, बल्कि बहरों को सुनाने के लिए। ये चाहते तो माफी मांग कर आसानी से फांसी से बच सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा करना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि भगत सिंह के शब्दों में, “दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सि

रंगों के त्यौहार पर थोड़ा रंगभेद हो जाए तो!!!

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चमड़ी पर लगा रंग धुल जाता है, लेकिन चमड़ी का रंग कभी नहीं धुलता। अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना को दो सौ साल से ज्यादा हो गए हैं। लेकिन आज भी वहां गोरों और कालों के विभेद की बात हो रही है। राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी के काले उम्मीदवार बराक ओबामा के भाषण का एक अंश पेश कर रहा हूं जो उन्होंने चंद दिनों पहले फिलाडेल्फिया में दिया था। मुझे तो इससे अमेरिकी राजनीति को समझने में मदद मिली है और मैं पहले से ज्यादा ओबामा का समर्थक बन गया हूं। शायद आपके साथ भी ऐसा ही कुछ हो... एक तरफ कहा जा रहा है कि मेरी उम्मीदवारी एफरमेटिव एक्शन जैसा कुछ है, जो बड़ी सस्ती किस्म की जातिगत मेलमिलाप की उदारवादी इच्छा पर आधारित है; दूसरी तरफ मेरे पूर्व धर्मगुरु रीव जेरेमियाह राइट ऐसे भड़काऊ बयान दे रहे हैं जिससे जातिगत फासले न केवल बढ़ सकते हैं, बल्कि हमारे राष्ट्र की महानता और अच्छाई दोनों ही गर्त में जा सकती हैं। गोरे और काले इससे समान रूप से आहत हुए हैं। लेकिन मैं उनको (पूर्व धर्मगुरु) छोड़ नहीं कर सकता जैसे मैं काले समुदाय को नहीं छोड़ सकता। मैं उनका परित्याग नहीं कर सकता जैसे मैं अपनी गोरी दादी क

होली गांवों का कार्निवाल थी, अब शहरी त्यौहार है

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कल सोचा था कि आज भूमि के राष्ट्रीयकरण के भारी-भरकम विषय की थाह लगाऊंगा, लेकिन आज लिखने बैठा तो लगा कि होली के माहौल में चट्टान से टकराना वाजिब नहीं होगा। जुबान से तो आप सभी को होली मुबारक कह रहा हूं, लेकिन जेहन में सालों-साल की छवियां उसी तरह सिकुड़ कर घनी हो गई हैं, जैसे भांग के नशे में दूरियों और समय के फासले सिमट जाया करते हैं। होली से जुड़ी पुरानी छवियां बिना सांकल बजाए दाखिल हो रही हैं और माथे में धम-धम करने लगी हैं। गांव के बाहर होलिका सजाई जा चुकी है। खर-पतवार और गन्ने की पत्तियों से लेकर सूखे पेड़ की डालियां तक उसमें डाल दी गई होती हैं। शाम होते-होते हर घर के आंगन में बच्चों को उबटन (पिसे हुए सरसों का लेप) लगाकर उसका चूरा इकट्ठा कर लिया जाता है। चूरे में थोड़ा पानी और गोबर मिलाकर टिकिया जैसी बना ली जाती हैं। फिर उनके बीच अलसी के पौधों के तने डालकर लड़ी जैसी बना ली जाती है। बड़ों के साथ बच्चे भी मुकर्रर वक्त पर होलिया दहन के लिए जत्थे बनाकर पहुंचते हैं। गांव का कोई निर्वंश (निरबसिया, अविवाहित अधेड़) आदमी या पंडित होलिका के फेरे लगाकर आग लगाता है। फिर शुरू होता है गालियों का दौर,

परनाना टांय-टांय फिस्स, तो परनाती से क्या उम्मीद

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जवाहर लाल नेहरू जैसा विद्वान, जिसने भारत एक खोज जैसी किताब लिखी। जो भारत के इतिहास, भूगोल और संस्कृति की रग-रग से वाकिफ था। मोहनदास कर्मचंद गांधी जैसा आदर्शवादी नेता जो किसी भी दबाव में नहीं झुकता था। सत्य-अहिंसा का पुजारी। जो इतना सत्यवादी था कि पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों के लिए सैनिकों की भर्ती कराने के लिए भागदौड़ की तो उसे अपनी किताब में बेहिचक दर्ज कर लिया। साथ में पटेल जैसा दृढ़ इच्छा शक्ति वाला ज़मीन से जुड़ा देशभक्त नेता। भीमराव अंबेडकर जैसा शख्स जिसमें देश के दबे-कुचले तबकों की आत्मा सांस लेती थी। किसी भी देश के लिए इतने सारे शानदार नेताओं का एक साथ मिल जाना गजब का संयोग और सौभाग्य है। लेकिन इन सभी समर्पित और दिग्गज नेताओं के होने के बावजूद आखिरकार हुआ क्या? दस साल के भीतर ही मोहभंग शुरू हो गया। देश को बहुत बारीकी से झांकनेवाले नेहरू जी ही खुद अगल-बगल झांकने लगे। धीरे-धीरे नेहरू की नीतियों के बीच से इंदिरा गांधी का अधिनायकवाद पैदा हुआ। राजीव गांधी की दलाली पैदा हुई। देश चंद्रशेखर के जमाने के हश्र तक जा पहुंचा जब हमें अपना सोना तक विदेश में गिरवी रखना पड़ा। भजनलाल जैसे चाटु

ऊपर-ऊपर की बातें दिखाकर सच छिपा जाते हैं लोग

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कल 20 मार्च को इराक पर अमेरिकी हमले के पांच साल पूरे हो जाएंगे। इसमें अब कोई शक नहीं रहा कि इससे न इराक के अवाम को कुछ मिला, न अमेरिका को और न ही दुनिया को। आज इराक पूरी तरह तबाह हो चुका है। बुश प्रशासन का हर आरोप झूठा साबित हो चुका है। न तो सद्दाम के पास जनसंहारक हथियार मिले और न ही अल-कायदा के साथ उसके रिश्तों का कोई सबूत। अलबत्ता अमेरिकी हमले के बाद इराक आतंकवादियों की पनाहगाह बन गया है। रोज़-ब-रोज़ बगदाद और इराक के दूसरे शहरों में ऐसे बम फूटते हैं जैसे पटाखे छूट रहे हों। और, अमेरिका में घर वापस लौटते अपंग सैनिकों की तादाद बढ़ती जा रही है। अमेरिकी अर्थशास्त्री और 2001 में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ यूजीन स्टिगलिट्ज़ का आकलन है कि मोटे तौर पर इस युद्ध से अकेले अमेरिका पर तीन ट्रिलियन (3000 अरब) डॉलर का बोझ पड़ा है, जबकि बुश ने दावा किया था कि पूरे युद्ध पर 50 अरब डॉलर खर्च होंगे। सच यह है कि आज अमेरिका के 50 अरब डॉलर तो इराक में तीन महीने में खर्च हो जा रहे हैं। जोसेफ स्टिगलिट्ज़ का पूरा लेख बहुत दिलचस्प है, जिसके अंत में उन्होंने कहा है कि इराक युद्ध से पड़े असर का स

यहां तो मौलिक होने की कोशिश भी गुनाह है

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कितनी सामूहिक असुरक्षा से घिरे हुए हैं ये लोग कि अपनी अलग पहचान तक भूल गए हैं। बोलचाल की सामान्य भाषा भूल गए हैं। दुआ-सलाम तक बनावटी जुबान में करते हैं। सामंतवाद, अर्ध-सामंतवाद, नव-उपनिवेशवाद, अर्ध-उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, बुर्जुआ, पेटी-बुर्जुआ, नव-उदारवाद जैसे गिनेचुने शब्द इनकी बौद्धिक बस्ती के आंतरिक कोडवर्ड हैं और बाहरवालों के लिए निकाली जानेवाली गालियां। ये लोग शब्दों से धारणा तक और धारणा से यथार्थ तक पहुंचते हैं। सामंतवाद का अर्थ पूछ लीजिए तो गुंडागर्दी टाइप कुछ लक्षण बता देंगे। बता देंगे कि जैसे भारत में अर्ध-सामंतवाद है, सामंती अवशेष हैं। आप पूछ लीजिए कैसे है तो गले में थूक निगलने लगेंगे। ये लोग झांझ-मजीरा लेकर शब्दों और धारणाओं का कीर्तन करते हैं। पहले तो कपड़े और वेशभूषा तक एक जैसी रखते थे। दूर से ही पता चल जाता था कि कॉमरेड चले आ रहे हैं। दाढ़ी, झोला, कुर्ता, जींस। स्पष्ट कर दूं कि मैं वाम राजनीति से जुड़े ज़मीनी कार्यकर्ताओं की बात नहीं कर रहा। मैं उनकी बात कर रहा हूं जो गली-मोहल्लों में वाम-वाम का स्वांग करते हैं, जो मुठ्ठी उतनी ही उठाते हैं कि कांख पूरी तरह ढंक

महाराष्ट्र में टैक्स देते रहो, मर्जी उनकी चलेगी

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अगर आप मुंबई या महाराष्ट्र के किसी भी शहर में नौकरी करते होंगे तो आपकी तनख्वाह से हर महीने 200 रुपए प्रोफेशनल टैक्स कटता होगा। फरवरी में यह रकम 300 रुपए हो जाती है। इस तरह महाराष्ट्र में नौकरी करनेवाले हर शख्स को साल भर में 2500 रुपए का टैक्स देना पड़ता है। लेकिन क्या आपको पता है कि इस टैक्स से कौन-सा काम किया जाता रहा है? हो सकता है आपको पता हो, लेकिन कुछ महीने पहले तक मुझे नहीं पता था। बस सैलरी स्लिप में इसका जिक्र रहता था और सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझता था कि इनकम टैक्स के ऊपर से यह टैक्स आखिर क्यों काटा जाता है। आपको यह भी बता दूं कि नौकरी ही नहीं, काम-धंधा करनेवालों से भी यह टैक्स लिया जाता है। यहां तक कि महीने में 2000 रुपए कमानेवाले मजदूर से भी 30 रुपए का प्रोफेशनल टैक्स लिया जाता है। वैसे आपको बता दूं कि महाराष्ट्र के अलावा देश के सात राज्यों (पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, कर्नाटक) में भी यह प्रोफेशनल टैक्स वसूला जाता है। हां, हर राज्य में इसकी रकम अलग-अलग है। महाराष्ट्र में इस टैक्स से राज्य सरकार को हर साल करीब 1500 करोड़ रुपए मिलते हैं। आपक

महत्वाकांक्षा, तू इतनी क्यों मर गई है मुई!!

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हर ज़माने के उसूल अलग होते है, नीति-वाक्य अलग होते हैं। जैसे, आज के ज़माने में करियर और धंधे में आगे बढ़ने के लिए महत्वाकांक्षा का होना बहुत ज़रूरी है। इस दौर में अगर किसी की महत्वाकांक्षा ही एक सिरे से मर जाए तो उसका एक इंच भी आगे बढ़ पाना संभव नहीं होगा। लेकिन, हमारे मानस की हालत ऐसी ही है। बीस साल पहले सांगठनिक घुटन और जड़ता से परेशान होकर उसने होलटाइमरी क्या छोड़ी, जीवन निस्सार हो गया। पहले कहां लोगों के दिलों से लेकर देश पर राज करने का सपना देखता था, लेकिन अब उसका अपने पर ही कोई राज नहीं रहा। ऊर्जा से लबलबाता नौजवान आज सूखे पत्ते की तरह बेजान पड़ा है। लहरें जहां भी ले जाएं। हवाएं जहां ले जाकर पटक दें। धड़कनों के चलने के तर्क से जिए जा रहा है। वरना आज इसी पल मर जाए तब भी कोई गम नहीं होगा। लेकिन एनिस्थीसिया लगे अंग को दर्द भले ही न महसूस हो, पता तो चलता ही है कि कुछ चुभोया जा रहा है, कुछ काटा जा रहा है। दिख तो रहा ही है कि साथ वाले लोग बढ़ने के प्रयास कर रहे हैं, अपने हुनर दिखा रहे हैं तो बढ़े जा रहे हैं। लेकिन सब चलता है, क्या फर्क पड़ता है के भाव के साथ मानस जहां पड़ जाता है, वहां

प्यार का राजनीतिक नाम भी कभी हुआ करता था

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शीतयुद्ध की समाप्ति (3 दिसंबर 1989) और बर्लिन दीवार के ढहने (9 नवंबर 1989) के बाद 18 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है। उस वक्त कहा गया था कि समाजवादी खेमे ने जो अवरोध खड़े कर रखे थे, उनके हटने के बाद सारी दुनिया तेज़ी से तरक्की करेगी। सामाजिक विषमता दूर होगी। हर तरफ अमन-चैन होगा। लेकिन न तो अमन-चैन कायम हुआ है और न ही सामाजिक विषमता मिटी है। इस समय दुनिया की आबादी लगभग 6.6 अरब है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इसमें से दो-तिहाई लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं, जबकि करीब 1.4 अरब लोग ठीक गरीबी रेखा पर हैं यानी उनकी रोज़ की आमदनी एक अमेरिकी डॉलर (40 रुपए) के आसपास है। इनमें से 85.40 करोड़ लोग भयंकर भुखमरी का शिकार हैं। 500 अरब डॉलर दुनिया के ज्यादातर लोगों को भुखमरी की हालत से निकालने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन आज दुनिया के रहनुमा भूख और गरीबी के आंकड़े तो जुटाते हैं, मगर हर साल इसकी दोगुनी रकम हथियारों पर खर्च देते हैं। मौत में निवेश करो, संहार में निवेश करो, जीवन में नहीं। यह है पूंजीवादी व्यवस्था का तर्क। लेकिन सवाल उठता है कि सिद्धांत में पूंजीवाद का मानवीय विकल्प पेश करने का दावा करनेव

हम तीन में मस्त, वो पांचवीं की खोज में व्यस्त

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यही कोई 10-11 साल पहले की बात है। तब मैं हिंदी के पहले आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में सहायक संपादक हुआ करता था, हालांकि काम समाचार संपादक से लेकर एचआर मैनेजर तक का करता था। उसी दौरान फोर स्क्वायर सिगरेट ने एक स्लोगन कंप्टीशन किया, जिसमें विजेता को बीएमडब्ल्यू मोटरसाइकिल (कीमत 4 लाख रुपए के आसपास) मिलनी थी। मैंने इसमें स्लोगन भेजा था – Add Fifth Dimension to Four Dimensional Life और मुझे 100 फीसदी यकीन था कि पहला ईनाम मुझे ही मिलेगा। यह अलग बात है कि 100 फीसदी यकीन असल में 101 फीसदी भ्रम निकला। यहां इस किस्से का जिक्र मैंने यह बताने के लिए किया कि विमाओं के चक्कर ने मुझे लंबे समय से घनचक्कर बना रखा है। इसलिए चंद दिन पहले ही पांचवी विमा की तलाश से जुड़ी खबर पढ़ी तो उसे समझने की फिराक में लग गया। फिर यह सच भी याद आ गया है कि हम हिंदुस्तानी कैसे मुड़-मुड़कर पीछे देखने के आदी हैं और हमने न जाने कहां-कहां के भ्रम पाल रखे हैं। जैसे यही बात कि आज हम लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई और समय के साथ चार विमाओं या आयाम की बात करते हैं, लेकिन हमारे ऋषि-मुनि तो बहुत पहले ही षट् आयाम या छह विमाओं का पता लगा

मुंबई के तीन नए ब्लॉगरों के आगे मैं पिद्दी बन गया

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नेट पर बैठ जाओ तो पूरा चेन रिएक्शन शुरू हो जाता है। यहां से वहां, वहां से वहां। कल दिन में नेट पर ऐसी ही तफरी कर रहा था कि मुंबई के तीन नए ब्लॉगरों से पाला पड़ गया। और, यकीन मानिए, इनका लिखा मैंने पढ़ा तो कॉम्प्लेक्स से भर गया। मुझे लगा कि साढ़े पांच सौ किलो का जो वजन उठाने का मंसूबा मैं बांध रहा था, उसे तो ये लोग अभी से बड़ी आसानी से उठा रहे हैं। मैं पहले पहुंचा मानव कौल के ब्लॉग पर। मानव की उम्र महज 33 साल है। वे अक्सर ‘अपने से’ बात करते हैं। इसी बातचीत में वे एक जगह कहते हैं, “कुछ अलग कर दिखाने की उम्र, हम सबने जी है, जी रहे हैं, या अभी जीएंगे। मुझे हमेशा लगता है, ये ही वो उम्र होती है... जब हम सामान्य से अलग दिखने की कोशिश में, खुद को पूरा का पूरा बदल देते हैं।... कुछ अलग कर दिखाने की होड़, हमें किस सामान्यता पर लाकर छोड़ती है, ये शायद हमें जब तक पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। फिर हम शायद अपने किए की निरन्तरता में अपने होने की निरन्तरता पा चुके होते हैं।” मानव ने एक अन्य पोस्ट में हार-जीत के बारे में लिखा है, “मैं हार क्यों नहीं सकता... या मुझे हारने क्यों नहीं दिया जा र

काटजू को तो देश का चीफ जस्टिस होना चाहिए

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जी हां, मैं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू की बात कर रहा हूं। उन्होंने आज ही फैसला सुनाया है कि हर भारतीय को देश में किसी भी कोने में जाकर बसने का अधिकार है। न्यायमूर्ति एच के सेमा और मार्कण्डेय काटजू की खंडपीठ का कहना है कि, “भारत राज्यों का कोई एसोसिएशन (संगठन) या कनफेडरेशन (महासंघ) नहीं है। यह राज्यों का यूनियन (संघ) है। यहां केवल एक राष्ट्रीयता है और वह है भारतीयता। इसलिए हर भारतीय को देश में कहीं भी जाने का अधिकार है, कहीं भी बसने का अधिकार है, देश के किसी भी हिस्से में शांतिपूर्वक अपनी पसंद का काम-धंधा करने का हक है।” यानी अगर राज ठाकरे जैसे लोग मुंबई और महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ ‘जेहाद’ चलाते हैं, तो वे कानून और संविधान के मुजरिम हैं। मार्कण्डेय काटजू अपने न्यायिक करियर में अब तक कई शानदार, मगर विवादास्पद फैसले सुना चुके हैं। आपको याद होगा कि साल भर पहले उन्होंने चारा घोटाले में दोषी करार दिए गए एक सरकारी अधिकारी की जमानत पर सुनवाई करते वक्त कहा था कि, “हर कोई इस देश को लूटना चाहता है। इसे रोकने का एक ही जरिया है कि कुछ भ्रष्ट लोगों को लैंप-पोस्ट से लट

आसानी के लिए तुम उसे कुत्ता कह सकते हो

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मेरे तीन सबसे ज्यादा प्रिय कवि हैं मुक्तिबोध, पाश और धूमिल। मुक्तिबोध इसलिए कि वे आपको भाव-संसार की उन अतल गहराइयों में ले जाते हैं जहां अपने दम पर पहुंचना मुमकिन नहीं है। पाश इसलिए कि वो इकलौते कवि हैं जिनमें यह कहने का दम है कि ‘शांति गांधी का जांघिया है जिसे चालीस करोड़ आदमियों को फांसी लगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।’ और धूमिल इसलिए कि उनमें वो धधकती ज्वाला है जो हर अशुद्धि, हर कलुष को जलाकर खाक कर देती है। एक लोकतांत्रिक गुस्सा गालियों की सरहद को ठीक छूकर कैसे निकल आता है, इसकी तमीज कोई धूमिल से सीखे। इसलिए ब्लॉग लेखन में भाषा में भदेस के नाम पर धड़ल्ले से गालियों का इस्तेमाल करनेवालों से मेरी गुजारिश है कि आप में आग है, आप युवा हो, संवेदनशील हो, समय और समाज के सरोकार समझते हो तो अपनी ऊर्जा को दिशाबद्ध करो। जहां-तहां पिच-पिच कर थूकने से न तो आपका भला होगा, न ही समाज को कुछ मिलेगा। फिर भी आप अवसरवादी दुनियादार बुद्धिजीवियों से तो अच्छे हो। तो, इसी बात पर धूमिल की एक कविता पेश है.... उसकी सारी शख्सियत नखों और दांतो की वसीयत है दूसरों के लिए वह एक शानदार छलांग है अंधेरी रातों

शुक्रिया ब्लॉगवाणी, सच्ची सूरत दिखाने के लिए

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छि:, हिंदी समाज की सतह पर तैरती इस काई की एक झलक से ही घिन होती है, उबकाई आती है। इस काई का सच दिखाने के लिए ब्लॉगवाणी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। अजीब हालत है। आप गाली-गलौज करिए, किसी ब्लॉगर का नाम लेकर उकसाइए, कुछ विवाद उछाल दीजिए। बस देखिए, आपकी यह ‘अप्रतिम’ रचना सबसे ज्यादा पढ़ी जाएगी। कौन इन्हें पढ़ेगा? वो जो हिंदी के ब्लॉगर है और इन ब्लॉगरों में भी सबसे ज्यादा सक्रिय है। कमाल की बात यह है कि ये हमारे समाज की सबसे ज्यादा बेचैन आत्माएं हैं, जिनसे हम अपने ठहरे हुए लोक में नई तरंग लाने की उम्मीद पाले बैठे हैं। एक नजर ताज़ा सूरते हाल पर। आज सबसे ज्यादा क्या पढ़ा गया – ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (123 बार), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (85 बार), खीर वाले मजनूं (73 बार), ऑर्कुट वाली अनीताजी (66 बार), केरल से कुछ फोटू (54 बार), तरकश पुरस्कारों का सच (50 बार)... आज की पसंद क्या है – केरल से कुछ फोटू (17 पसंद), ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (14 पसंद), कलकतवा से आवेला (12 पसंद), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (12 पसंद), एक जिद्दी धुन पर रशेल कूरी को श्रद्धांजलि (10 पसंद), गालियों का दिमागशास्त्र (8 पसंद)...

भिखारियों का पेट ही देश है, पर वो तो देश के हैं

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कविगण माफ करेंगे। उनके मोहल्ले पर कंकड़ फेंक रहा हूं। इधर दो कवियों ने भिखारियों पर कविताएं लिखीं। एक ने मुंबई में पैदल चलते हुए दिल से ज्यादा लिखा, दूसरे ने दिल्ली में कार में चलते हुए दिमाग से ज्यादा लिखा। दोनों में ही दया है, बेबसी है, अपराध बोध है, मगर गुस्सा नहीं है। वह गुस्सा नहीं है जो एक लोकतांत्रिक देश के लोकतांत्रिक चेतना वाले नागरिक को आना चाहिए। क्यों नहीं है, इस सवाल पर शायद गहराई से सोचने की ज़रूरत है। मुझे पता है कि दोनों ही कवि मेरी इस बात से अंदर-अंदर ही भड़केंगे और हो सकता है मुझे देवताओं (कवियों) की पंक्ति में घुसपैठ करनेवाला राहू दैत्य करार दें। लेकिन मुझे जो लगता है, वह तो मैं कहूंगा ही। पहली बात। भिखारियों का कोई देश नहीं होता। सुबह से शाम तक उनका जुगाड़ पेट भरने तक का रहता है। बाकी शारीरिक ज़रूरतें भी वे पूरी करते हैं। नशा भी करते हैं। लेकिन देश, दुनिया, समाज जैसी कोई जगह उनके मन के नक्शे पर नहीं होती। यह सच है, इसके लिए किसी सर्वे या प्रमाण की जरूरत नहीं है। लेकिन इस सच के लिए भी किसी प्रमाण या पासपोर्ट की ज़रूरत नहीं है कि उनका जन्म भारत-भूमि पर ही हुआ है। जित

संघी ऊपर से नीचे तक इतने फ्रॉड क्यों हैं?

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यह संघ की संस्कृति की ही बलिहारी है, नहीं तो मुरली मनोहर जोशी जैसे ‘जानेमाने चिंतक, दार्शनिक, शिक्षाविद’ भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री को संघ के मुखपत्र ऑरगैनाइजर में सच्चर समिति के खंडन-मंडन के लिए दिल्ली के स्थापित वैचारिक संगठन सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) का झूठा नाम लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जब सीपीआर ने उसके नाम पर उद्धृत की गई बातों का खंडन कर दिया तो जोशी जी कह रहे हैं कि उन्होंने गलती से सीपीआर का नाम ले लिया। उनको सफाई देनी पड़ी कि लेख में उद्धृत की गई बातें चेन्नई के सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ की हैं। लेकिन पूर्व मानव संसाधन मंत्री जोशी जी यह सच अब भी छिपा ले गए कि सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ नाम की यह संस्था राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ से जुड़ी है और इसके संस्थापकों में एस गरुमूर्ति, बलबीर पुंज और गोविंदाचार्य शामिल है। खास बात यह भी है कि इस रिपोर्ट के रचयिता जे के बजाज है जिनकी विशेषज्ञता समाजशास्त्र में न होकर ‘थ्योरेटिकल फिजिक्स’ में है। वैसे मुरली मनोहर जोशी भी खुद फिजिक्स के प्रोफेसर रहे हैं। इसलिए बजाज के समाजशास्त्रीय ‘ज्ञान’ पर ज्यादा ऐतराज शा

देश पर कुर्बानी का जज्बा सच्चा है, एकतरफा है

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कोई अगर मुझसे पूछे कि तुम देश के बारे में क्या सोचते हो तो मैं कहूंगा कि देश मेरे लिए ममता भरी मां की गोद की तरह है जहां पहुंचकर कोई बच्चा अपनी सारी चिंताएं भूलकर निश्चिंत हो जाता है। देश मेरे लिए उस संयुक्त परिवार की तरह है जहां मैं अपनी पूरी काबिलियत के साथ मेहनत और लगन से काम करूंगा, परिवार के हित को कभी आंच नहीं आने दूंगा, लेकिन अपनी सारी निजी चिंताओं से मुक्त रहूंगा क्योंकि इनका जिम्मा तो संयुक्त परिवार के मुखिया ने उठा रखा है। देश मेरे लिए उस प्रेमिका की तरह है जिसने एक बार अपना मान लिया तो मान लिया। बार-बार मुझसे प्रेम करने का सबूत नहीं मांगती। लेकिन भारत देश में पैदा होने और इसके लिए कुर्बान हो जाने का जज्बा रखने के बावजूद मैं खुद को इतना निश्चिंत नहीं महसूस कर पाता। बल्कि ईमानदारी से कहूं तो इसके विपरीत एक पराए मुल्क जर्मनी में दो साल रहने के दौरान मैं खुद को ज्यादा सुरक्षित और बेफिक्र महसूस करता था। हारी-बीमारी से लेकर पेंशन तक का सारा ज़िम्मा सरकार नाम की अदृश्य सत्ता ने उठा रखा था। मैं ही नहीं, कोई जवान लड़की या बूढ़ी महिला तक कभी भी कहीं भी बेधड़क आ जा सकती थी। सड़क चलते क

मर्द झल्लाते हैं, महिलाएं जिलाती हैं

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अपने देश की नहीं, सारी दुनिया की यही रीत है। ज्यादातर मर्द शादी के दस साल बीतते-बीतते चाहने लगते हैं कि उन्हें किसी तरह अपनी बीवी से छुटकारा मिल जाए। अपने भारत और पाकिस्तान में ऐसे अनगिनत चुटकुले सुनने को मिल जाएंगे, जिनमें बीवियों के बारे में कहा जाता है कि वो किसी के साथ भाग जाएं या भगवान को प्यारी हो जाएं तो अच्छा है। हरियाणा के मशहूर हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा ने तो ‘घरआली’ पर कित्ती सारी हिट कविताएं बना रखी हैं। लेकिन आज मैंने एक रिपोर्ट पढ़ी, जिसने एक नए पहलू से परिचित कराया और यह भी दिखाया कि हम मर्द लोग हमेशा छतरी बनकर अपने ऊपर तनी घरवाली से कितनी निर्ममता से पेश आते हैं। आज महिला दिवस के मौके पर मैं इस रिपोर्ट की कुछ बातें आप से बांटना चाहता हूं। इसमें कहा गया है कि पत्नियां न होतीं तो मर्द 90 साल के बजाय साठ साल में ही मर जाते। कारण यह है कि घरवाली आपकी सिरगेट से लेकर शराब पीने की लत पर चिकचिक करती है। उम्र बढ़ने पर आप हाई ब्लड-प्रेशर के शिकार हो गए तो वह आपको बराबर दवा लेने की हिदायत देती है। आप डॉक्टर के पास जाने से कतराते हैं, लेकिन बीवी है कि मौका मिलते ही आपको छोटी-सी छोटी

1857 का अनकहा सच: अमरेश तब और अब

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1857 दुनिया का पहला सामूहिक नरसंहार था, जिसमें तकरीबन एक करोड़ भारतीय मारे गए थे। अकेले उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार में मारे गए ये लोग भारत की तत्कालीन आबादी के सात फीसदी थे। गिलगिट से लेकर मदुरई, मणिपुर से लेकर महाराष्ट्र तक कोई इलाका ऐसा नहीं था, जो इस विद्रोह के असर से अछूता रहा हो। अयोध्या में उस जगह पर, जहां बाबरी मस्जिद ढहाई गई, महंत रामदास और मौलवी आमिर अली के साथ-साथ शंभू प्रसाद शुक्ला और अच्चन खान को अगल-बगल फांसी लगाई गई थी। देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के बारे में अब तक न कही गई ये कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें अमरेश मिश्रा अपनी ताज़ा किताब 'War of Civilisations: India AD 1857' में सामने लाए हैं। अमरेश की इस किताब का विमोचन कल, 7 मार्च 2008 को राजधानी दिल्ली में उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने किया। वैसे अमरेश की इस किताब की समीक्षा देश और विदेश के तमाम नामी अखबारों में छप चुकी है। वे आज एक जानेमाने इतिहासकार हैं। कई किताबें उन्होंने लिखी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख लिखे हैं। लेकिन उनका एक परिचय और है कि वे कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक जोशीले छ

सावधान! सत्ता के शिखर-पुरुष कहते हैं कानून तोड़ो

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पहले कृषि मंत्री शरद पवार ने सारे देश के किसानों से कहा कि वे साहूकारों को कर्ज का एक पैसा भी न लौटाएं। उन्होंने राज्य सरकारों से साहूकारों के चंगुल में फंसे किसानों की मदद करने को कहा। कहा कि पुलिस या राजस्व विभाग ब्लॉक स्तर पर ऐसी व्यवस्था करें ताकि किसानों को सता रहे साहूकारों के खिलाफ कार्रवाई की जा सके। करीब दो साल पहले पवार की ही पार्टी के नेता और महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री आर आर पाटिल ऐसे साहूकारों की चमड़ी उधेड़ने का आवाहन कर चुके हैं। अब पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम किसानों का आवाहन कर रहे हैं कि, “अपनी उपजाऊ जमीन विशेष आर्थिक ज़ोन (एसईज़ेड) या किसी दूसरे आर्थिक गतिविधि के लिए मत बेचो।” कलाम ने तीन दिन पहले दिल्ली में इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय में संबोधन के दौरान यह बात कही। उन्होंने कहा, “मैं किसी किसान को भूमिहीन नहीं देखना चाहता। मैं इसका मतलब समझता हूं क्योंकि मैं खुद एक किसान परिवार से आया हूं।” कलाम ने यह बात बहुत सोच-समझकर कही और शायद यह उनके लिखित भाषण का हिस्सा है क्योंकि ठीक यही बात उन्होंने करीब तीन महीने पहले 16 दिसंबर को पुणे में एक समारोह के दौरान