देश का असली शहीद दिवस तो आज है

सरकार के नियम-धर्म से सारा देश 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाता है। क्यों? क्योंकि 30 जनवरी 1948 को मोहनदास कर्मचंद गांधी को नाथूराम गोंडसे नाम के एक हिंदूवादी देशभक्त ने गोली मार दी थी। गोंडसे कुछ भी था, लेकिन उसे हम देश का दुश्मन नहीं कह सकते। बहुत हुआ तो गुमराह कह सकते हैं। इसका मतलब महात्मा गांधी की हत्या देश के किसी दुश्मन ने नहीं की थी। मेरा सवाल यह है कि अगर गांधीजी ने 30 जनवरी 1948 को बंद कमरे में खुदकुशी की होती तब भी क्या हम देश में 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाते?

दूसरी तरफ ब्रिटिश हुकूमत ने आज के दिन 23 मार्च 1931 को देश के तीन सपूतों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर लटका दिया था। ये तीनों पवित्रतम देशभक्ति की मिसाल थे। ज़रा-सा भी राजनीतिक खोट नहीं था इनकी समझ में। इन्होंने असेम्बली में बम फेंका था तो किसी को मारने के लिए नहीं, बल्कि बहरों को सुनाने के लिए। ये चाहते तो माफी मांग कर आसानी से फांसी से बच सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा करना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि भगत सिंह के शब्दों में, “दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी ताकतों के बूते की बात नहीं रहेगी।”

भगत सिंह ने यह बात 22 मार्च 1931 को अपने साथियों को लिखे आखिरी खत में कही थी। अदालती आदेश के मुताबिक भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातोंरात ले जाकर ब्यास नदी के किनारे जला दिए गए। असल में मुकदमे की पूरी कार्यवाही के दौरान भगत सिंह ने जिस तरह अपने विचार सबके सामने रखे थे और अखबारों ने जिस तरह इन विचारों को तवज्जो दी थी, उससे ये तीनों, खासकर भगत सिंह हिंदुस्तानी अवाम के नायक बन गए थे। उनकी लोकप्रियता महात्मा गांधी को मात देनी लगी थी।

कांग्रेस तक में अंदरूनी दबाव था कि इनकी फांसी की सज़ा कम से कम कुछ दिन बाद होनेवाले पार्टी के सम्मेलन तक टलवा दी जाए। लेकिन अड़ियल महात्मा ने ऐसा नहीं होने दिया। चंद दिनों के भीतर ही ऐतिहासिक गांधी-इरविन समझौता हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई। सोचिए, अगर गांधीजी ने दबाव बनाया होता तो भगत सिंह भी रिहा हो सकते थे क्योंकि हिंदुस्तानी जनता सड़कों पर उतरकर उन्हें ज़रूर राजनीतिक कैदी मनवाने में कामयाब रहती। लेकिन अहिंसा के पुजारी पुण्यात्मा महात्मा दिल से ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि तब भगत सिंह के आगे इन्हें किनारे होना पड़ता। खैर, इतिहास में किंतु-परंतु नहीं चलते। जो होना था, वह हो चुका है। अब समय के चक्र को पीछे नहीं मोड़ा जा सकता।

लेकिन आज तो हम इतिहास की गलती को सुधार सकते हैं। इतना तो साफ है कि तीन क्रांतिकारी नौजवान भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आज के दिन देश के लिए लड़ते हुए अंग्रेज़ों के अन्याय का शिकार हुए थे, जबकि महात्मा गांधी अपनी करतूतों के चलते देश के ही एक नागरिक के हाथों मारे गए थे। गांधी ने हमेशा अंग्रेज़ों से दोस्ती निभाई। पहले विश्वयुद्ध में उनके लिए सैनिकों की भर्ती कराई और 15 अगस्त 1947 के बाद भी माउंटबेटन से कुछ साल और भारत में रहने का आग्रह किया। स्पष्ट है कि गांधी का मरना इन तीनों नौजवानों की फांसी के सामने पासंग बराबर भी नहीं है। इसलिए मेरा मानना है कि देश में 30 जनवरी के बजाय 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाना चाहिए।

Comments

अनिल जी आप की बात बिलकुल सही हे, गांधी जी की कई नीतिया ठीक थी, लेकिन उन्हे शहीद का दर्जा देना ?जिन्होने सच मे आजादी दिलवाई हम सब उन्हे भुल गये हे,गांधी जी कभी भी आजादी नही दिलवा सकते थे, लेकिन उन की कई बाते अच्छी भी हे
vikas pandey said…
इतिहास तो उसके अनुरूप ही लिखा जाता है जिसकी सरकार होती है. उस वक़्त कांग्रेस की सरकार थी तो इतिहास भी वैसा ही लिखा गया. मुरली मनोहर जोशी ने अपने मंत्री रहते हुए इतिहास को सुधारने की कोशिश की थी तो
कॉंग्रेस तिलमिला गयी थी. गौरतलब है की CBSE बोर्ड की किताबों मे इन क्रांतिकारियो को आतंकवादी कहा गया था.
आपकी बात से सहमत हूँ,और मेरे भी यही विचार है कि देश को आज हमारे क्रान्तिकारियों नही भूलना चाहिऐ। 23 मार्च ही वास्‍तव में शहीदी दिवस होना चाहिए।

विकास भाई से भी सहमत हूँ कि जोशी जी ने इतिहास लेखन सुधार के लिये बहुत काम किया है
गांधीजी और भगत सिंह के बीच नकारात्मक तुलना करना उचित नहीं है। दोनो हमारे महानायक हैं। दोनों ही लोगों की अलग अलग भूमिका थी। गांधीजी ने अहिंसा का रास्ता अपनाया तो शहीद ए आजम ने गोली का जबाब गोली से देने का फैसला किया। सिर्फ गोला बारुद के बल पर उस दौर में आजादी हासिल करना आसान नहीं था।जब पूरी दुनियां युद्द और हिंसा में लिप्त थी तो ऐसे में उस दौर में ‘अहिंसा’ एक ऐसा हथियार मिला जिसने अंग्रेज सहित पूरे दुनियां को हिला कर रख दिया। जहां तक नाथू राम गोडसे का सवाल है तो इसने गांधीजी की हत्या कर भारत को पूरी तरह कमजोर कर दिया। आजादी के बाद एक मात्र गांधी हीं ऐसे व्यक्ति थे जिसकी बात देश की अधिकांश जनता मानने को तैयार रहती।
द्वितीय विश्व युद्द के बाद दुनियां का सबसे शक्तिशाली देश के रूप में ब्रिटेन की जगह अमेरिका का उदय हुआ। अमेरिका भारत की भौगोलिक और प्राकृतिक संपदा से वाकिफ था। उसे मालुम था कि भारत के पास विश्व स्तरीय नेता हैं जो आजाद होने के बाद भारत को अपने पैरों पर जल्द खड़ा कर लेगा। उसे यह भी मालुम था कि भारत को जैसे धर्म के नाम पर बांटा गया है उसी प्रकार जात और भाषा के नाम पर तोड़ा जा सकता है। यदि भारत और नहीं टूटा तो कम से कम इतना उलझाया जा सकता है कि विकास और सामरिक शक्ति के बारे में वे सोच ही नहीं पायेगा। यह तो जय हो सरदार बल्लभ भाई पटेल का जिसने भारी मतभेद के बावजूद देश को और टुकड़े होने से बचा लिया। हिन्दू महासभा जैसे संगठन को उस दौर में बाहरी मदद मिलती थी बाहर से पैसे आते थे। उसी पैसे पर नाथू राम गोडसे भी अपना काम चलाता था। और भारत विरोधी लोगों के इशारे पर हीं उसने गांधीजी की हत्या की ताकि भारत मजबूत न हो। और जो प्रचारित किया गया कि गोडसे ने गांधी जी को इस लिये गोली मारी क्योंकि वे पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दे रहे थे। ये सब कुछ गोडसे के प्रति सहानुभूति बनाने की कोशिश की गई। जब हजारों करोड़ के जेवरात अंग्रेज अपने साथ ले गये तो गोडसे ने एक भी अंग्रेज पर गोली क्यों नहीं चलाई ?
बिल्कुल सही, वास्तव में शहीद दिवस आज ही मनाया जाना चाहिये।
सत्य वचन.

एक को महान मानने के लिए दुसरे को गिराना जरूरी नहीं. सबने अपनी अपनी भूमिका निभायी है. सबके प्रति आदर होना चाहिए. कोई काँग्रेसी हो या हिन्दु सभा से जुड़ा हुआ हो या फिर वामपंथी. जिनका लक्ष्य देश की आजादी रहा है, उनके प्रति आदर रहे.
mamta said…
संजय जी की बात से हम भी सहमत है।
Anonymous said…
Gandhi Was the person who Split India and Give chance to Jinna to make Pakistan.What is this.??
Anonymous said…
नकारात्मक तुलना नहीँ करनी चाहिए।
Reetu khan Lahar

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