भारतीय ब्लॉगिंग की दुनिया, जहां हिंदी बस 4/500 है
नौ घंटे का बारकैम्प मुंबईस्टाइल पूरी ‘इश्टाइल’ से कल आईआईटी मुंबई में संपन्न हो गया। रजिस्ट्रेशन, नाश्ता, शुरुआती रूपरेखा, लंच और चाय-पानी वगैरह का समय निकाल दिया जाए तो इस कैंप में पांच घंटे तक ब्रेनस्टॉर्मिंग बातचीत हुई। शुरू में थोड़ी निराशा यह देखकर ज़रूर हुई थी कि कोई भी हिंदी ब्लॉगर इसमें नहीं पहुंचा था। फोन किया विकास आए और बताया कि हिंद-युग्म के पंकज तिवारी भी शिरकत के लिए आए हुए हैं। पंकज के साथ उनके सहयोगी साकेत चौधरी भी थे। थोड़ा ढांढस बंधा कि चलो अब अकेले नहीं, हिंदी के हम चार बंदे हो गए हैं। लेकिन इस कैंप में उमड़े तकरीबन 500 लोगों में चार की गिनती हिंदी और हमें गायब करने के लिए पर्याप्त थी। अफसोस इस बात का रहा कि युनूस भाई तक किसी फंसान या थकान के चलते नहीं आ पाए जबकि उन्होंने ही तरुण चंदेल का वह मेल बहुतों को फॉरवर्ड किया था जिसमें तरुण की दिली पेशकश थी कि, “हमें हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक चर्चा करनी चाहिए ब्लॉग कैम्प में। ज़रूरी नही है कि ये चर्चा powerpoint slides के साथ की जाए, हम ‘चाय पर दो बातें’ जैसी चर्चा भी कर सकते हैं।”
विषय तय करने की प्रक्रिया के दौरान मैं और विकास (लाल गोले में)
कोई तो कम्युनिकशन गैप रह गया होगा कि मुंबई के हिंदी ब्लॉगर्स इसमें नहीं आ पाए। खैर, दिलचस्प बात यह रही कि जब पंकज तिवारी ने अपने विषय के बारे में बताया कि वे हिंदी ब्लॉगिंग की दशा और दिशा के बारे में बोलेंगे तो आयोजन में आए लोगों ने ऐसी तालियां बजाईं जैसी किसी के लिए नहीं बजी थीं। 500 से ज्यादा लोगों में कुछ लोग शुद्ध तकनीक या मार्केटिंग से जुड़े थे तो तकरीबन एक तिहाई सीधे-सीधे ब्लॉगिंग से ताल्लुक रखते थे। लोगों को तीन हिस्सों में बांट दिया गया और फिर तीन हॉल में चले गए लोग आपसी अनुभवों को आपस में बांटने के लिए।
जाहिर है मैं, विकास, पंकज और साकेत ब्लॉगिंग वाले हॉल में जाकर डट गए। ब्लॉग से कमाई से लेकर उनको लोकप्रिय बनाने की ऐसी-ऐसी तकनीकी जुगत कि माथा भन्ना जाए!! अंग्रेज़ी के लोग थे तो सब कुछ अंग्रेज़ीमय था। फिर भी बहुत सारी चौंकानेवाली बातें सामने आईं। जैसे, अपनी 200 वेबसाइट्स (इसमें से 10% ब्लॉग) से फरवरी में 53,500 डॉलर (21.40 लाख रुपए) कमा चुके और मार्च में 60,000 डॉलर (24 लाख रुपए) की अनुमानित कमाई करनेवाले पुणे के ब्लॉगर करमवीर ने डंके की चोट पर बताया कि उन्हें कमाई और ट्रैफिक से मतलब है, बाकी किसी चीज़ से नहीं। तो, कैंप के आयोजकों में शुमार तरुण चंदेल ने कहा कि उनके लिए काम के दस पाठक ही पर्याप्त हैं, दस हज़ार के जुगाड़ू ट्रैफिक की तुलना में। कुछ ने बताया कि ब्लॉगिंग ने दोस्तों का दायरा पेशे और परिवार से बाहर तक फैला दिया है तो कुछ ने कहा कि आज ब्लॉगिंग कैसे एक emotional safety net बन गई है।
लंच के बाद पंकज तिवारी ने अपनी बात रोचक अंदाज़ में रखी। सभी ने गौर से सुना। लेकिन बात उठी कि हिंदी ही नहीं, देश की कन्नड़, तमिल, तेलुगू, मलयालम जैसी 18 क्षेत्रीय भाषाओं में लिखकर हम केवल एक भाषा तक सिमट जाते हैं, जबकि अंग्रेज़ी में लिखकर हम देश में सभी भाषाएं बोलनेवालों तक पहुंच सकते हैं। मुझे लगा कि यह देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि संविधान की धारा 343 के तहत देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को केंद्र सरकार की राजकीय भाषा मानने के बावजूद अब भी अंग्रेज़ी का इतना प्रभुत्व है। इसमें दोष हमारा-आपका या इनका-उनका नहीं है। दोष उनका है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद भी विकास की बाध्यकारी औपनिवेशिक संरचना से हमें बाहर नहीं निकाल सके।
वैसे तो बारकैम्प एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन है और इसके तार दूर-दूर तक जुड़े हैं। Flickr पर barcamp की फोटो खोजिए तो एक ही जैसे logo के साथ आपको सेंट्रल एशिया से लेकर मायामी तक की तस्वीरें मिल जाएंगी। लेकिन कल के आयोजन में आए किसी भी शख्स में हिंदी को हीन मानने या हिकारत की निगाह से देखने की सोच लेशमात्र भी नहीं नज़र आई। लेकिन इतना ज़रूर समझ में आया कि भारत में अंग्रेज़ी ब्लॉगरों की अलग दुनिया है। उनकी दुनिया और हमारी दुनिया में चंद अमूर्त भावनाओं और इच्छाओं के अलावा शायद कुछ भी कॉमन नहीं है। हम दोनों mutually disjoint entities हैं। अंग्रेज़ी वाले हिंदी ब्लॉगर को किसी संत और त्यागी-महात्मा जैसा सम्मान ज़रूर दे सकते हैं, लेकिन उसके साथ उनका संवाद संभव नहीं है। बीसवें माले का आदमी दूसरे माले के आदमी से बात करेगा भी तो कैसे। वैसे, शायद कुछ हिंदवालों ने भी हिंदी के उद्धार का एनजीओ-मार्ग अपना रखा है। मुझे नहीं लगता कि इस ऑफलाइन-ऑनलाइन फेनोमेना से हम हिंदी वालों का कोई स्थाई भला होनेवाला है।
कोई तो कम्युनिकशन गैप रह गया होगा कि मुंबई के हिंदी ब्लॉगर्स इसमें नहीं आ पाए। खैर, दिलचस्प बात यह रही कि जब पंकज तिवारी ने अपने विषय के बारे में बताया कि वे हिंदी ब्लॉगिंग की दशा और दिशा के बारे में बोलेंगे तो आयोजन में आए लोगों ने ऐसी तालियां बजाईं जैसी किसी के लिए नहीं बजी थीं। 500 से ज्यादा लोगों में कुछ लोग शुद्ध तकनीक या मार्केटिंग से जुड़े थे तो तकरीबन एक तिहाई सीधे-सीधे ब्लॉगिंग से ताल्लुक रखते थे। लोगों को तीन हिस्सों में बांट दिया गया और फिर तीन हॉल में चले गए लोग आपसी अनुभवों को आपस में बांटने के लिए।
जाहिर है मैं, विकास, पंकज और साकेत ब्लॉगिंग वाले हॉल में जाकर डट गए। ब्लॉग से कमाई से लेकर उनको लोकप्रिय बनाने की ऐसी-ऐसी तकनीकी जुगत कि माथा भन्ना जाए!! अंग्रेज़ी के लोग थे तो सब कुछ अंग्रेज़ीमय था। फिर भी बहुत सारी चौंकानेवाली बातें सामने आईं। जैसे, अपनी 200 वेबसाइट्स (इसमें से 10% ब्लॉग) से फरवरी में 53,500 डॉलर (21.40 लाख रुपए) कमा चुके और मार्च में 60,000 डॉलर (24 लाख रुपए) की अनुमानित कमाई करनेवाले पुणे के ब्लॉगर करमवीर ने डंके की चोट पर बताया कि उन्हें कमाई और ट्रैफिक से मतलब है, बाकी किसी चीज़ से नहीं। तो, कैंप के आयोजकों में शुमार तरुण चंदेल ने कहा कि उनके लिए काम के दस पाठक ही पर्याप्त हैं, दस हज़ार के जुगाड़ू ट्रैफिक की तुलना में। कुछ ने बताया कि ब्लॉगिंग ने दोस्तों का दायरा पेशे और परिवार से बाहर तक फैला दिया है तो कुछ ने कहा कि आज ब्लॉगिंग कैसे एक emotional safety net बन गई है।
लंच के बाद पंकज तिवारी ने अपनी बात रोचक अंदाज़ में रखी। सभी ने गौर से सुना। लेकिन बात उठी कि हिंदी ही नहीं, देश की कन्नड़, तमिल, तेलुगू, मलयालम जैसी 18 क्षेत्रीय भाषाओं में लिखकर हम केवल एक भाषा तक सिमट जाते हैं, जबकि अंग्रेज़ी में लिखकर हम देश में सभी भाषाएं बोलनेवालों तक पहुंच सकते हैं। मुझे लगा कि यह देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि संविधान की धारा 343 के तहत देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को केंद्र सरकार की राजकीय भाषा मानने के बावजूद अब भी अंग्रेज़ी का इतना प्रभुत्व है। इसमें दोष हमारा-आपका या इनका-उनका नहीं है। दोष उनका है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद भी विकास की बाध्यकारी औपनिवेशिक संरचना से हमें बाहर नहीं निकाल सके।
वैसे तो बारकैम्प एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन है और इसके तार दूर-दूर तक जुड़े हैं। Flickr पर barcamp की फोटो खोजिए तो एक ही जैसे logo के साथ आपको सेंट्रल एशिया से लेकर मायामी तक की तस्वीरें मिल जाएंगी। लेकिन कल के आयोजन में आए किसी भी शख्स में हिंदी को हीन मानने या हिकारत की निगाह से देखने की सोच लेशमात्र भी नहीं नज़र आई। लेकिन इतना ज़रूर समझ में आया कि भारत में अंग्रेज़ी ब्लॉगरों की अलग दुनिया है। उनकी दुनिया और हमारी दुनिया में चंद अमूर्त भावनाओं और इच्छाओं के अलावा शायद कुछ भी कॉमन नहीं है। हम दोनों mutually disjoint entities हैं। अंग्रेज़ी वाले हिंदी ब्लॉगर को किसी संत और त्यागी-महात्मा जैसा सम्मान ज़रूर दे सकते हैं, लेकिन उसके साथ उनका संवाद संभव नहीं है। बीसवें माले का आदमी दूसरे माले के आदमी से बात करेगा भी तो कैसे। वैसे, शायद कुछ हिंदवालों ने भी हिंदी के उद्धार का एनजीओ-मार्ग अपना रखा है। मुझे नहीं लगता कि इस ऑफलाइन-ऑनलाइन फेनोमेना से हम हिंदी वालों का कोई स्थाई भला होनेवाला है।
Comments
हिन्दी ब्लॉगिंग को नए स्तर पाने के लिए अभी बहुत प्रयत्न करने शेष हैं।
रपट बढ़िया लगी, शुक्रिया!!
हिन्दी को कमाई की भाषा बनने दें...बाकि अपने आप हो जायेगा.
Achha yun lagaa ki yah ek aaj ke , taknik se bharpoor samay ki gathering thi aur aap chaar bloggers hi sahi , lekin aapke maadhyam se hindi v hindi-blogging ko ek aise manch par aavaaz toh mili ... aap chaaron ko iske liye badhai ...
Ab achha-nahi isliye lagaa ki mumbai main rehte hue , main vahaan na pahunch paaya ... matr isliye ki mujhe iski soochanaa hi nahi mili ... na sirf ek serious discussion ko miss kar diya balki aap chaaron se ek baar milne ka avasar bhi khoya ... yadi bhavishya main koi aisa aayojan ho toh kripya mujhe bhi avashya soochit karen ...
Main Sanjay Begani ji ki baat se poori tarah sehmat hoon ... hindi jaise jaise kamai ki bhaasha banati jaayegi , log isase judate jaayenge aur yeh apne aap sudridh hoti chali jaayegi ... yahan baat yeh nahi hai ki hindi ko lokpriya banaana hai toh uske liye logon ke man ke laalach ko exploit kiya jaana chahiye , balki baat yah hai ki Hindi ko aaj ek 'sahi'/'glamouraous' image- creation ki zaroorat hai ... doosre shabdon main - sahi 'brand image' building ki ... iske liye hindi lekhakon ki success-stories ka hona aur unhe janataa tak pahunchanaa , dono behad zaroori hain ... Hindi lekhan ke itihaas se aaj tak jo lekhakon ki image logon ke dimaag main bani hui hai vo hai rote-dhote khali-pet bekaar aadmiyon ki jo apne gharon ke kharche bhi nahin chalaa sakate ; kitne toh bhukhmari se mar gaye ... Is 'garib'/'gayi-guzari'/'bichari' image ko badalanaa hoga ... we must remember that most of 'common men' fall in the catagory of 'followers' and they like to follow 'success stories' rather than 'sad/failure stories'... ham mutthi bhar hindi bloggers ko is par avashya vichar karanaa chaahiye ...
kramank 1
करने से अधिक पाने की लालसा में जो हो सकता है...या जो हो रहा है वह भी नकार दिए जाने के कारण ही हिन्दी और हिन्दी लेखन की यह दशा है. हम हिन्दी की बात करते हैं लेकिन उसके दैनिक जीवन, कामकाज में उपयोग के सम्बन्ध में कभी नहीं सोचते. हम में से अधिकांश लोग मेरी तरह ही चूँकि अंग्रेजी अच्छी नहीं आती इसलिए हिन्दी लेखन करते हैं. हम हिन्दी ब्लोगिंग को अंग्रेजी की ब्लोगिंग से तुलना करते हुए यह क्यों भूल जाते हैं कि तकनीक से जुड़े सभी उपकरण एवं सुविधाएँ पहले अंग्रेजी में फ़िर आवश्यकता प्रतिपादित होने पर हिन्दी के लिए प्रायोगिक तौर पर तैयार की जाती है.
अंग्रेजी ब्लोगिंग के साथ सुविधा इस बात की है कि तकनीक की दुनिया उसके लिए पढ़े लिखे और भरपेट लोगों की वैसे ही एक फौज खड़ा कर रखती है. अंग्रेजी ब्लोगिंग के सफर को हिन्दी से पहले शुरू कर उस चरण तक पहुँचाया जा चुका है जहाँ से व्यवसायिक लाभ अर्जन किया जाना सुलभ है. लेकिन अभी हम उस शुरूआती चरण में है, जहाँ इस तरह के श्रम के सम्बन्ध में सोचना....हिन्दी के साथ "बालश्रम" कराने जैसा होगा. मित्रों पहले हम सर्व स्वीकार्य शब्द...NGO जैसे कार्य करते हुए..हिन्दी ब्लोगिंग को एक गंभीर वैविध्यपूर्ण मंच बनायें. फ़िर इससे व्यवसायिक लाभ तो स्वमेव प्राप्त होना आरम्भ हो जाएगा.
हम में से जिनको हिन्दी लेखन में रूचि है, तकनीक और आर्थिक रूप से सक्षम है, उनकी जिम्मेदारी पहले, अधिक और महती है कि वह अलख जगाये...और जगाये रखें . मैं इस बात से सहमत हूँ कि एक बार सक्षमता साबित होने के बाद शेष तो ......आता और होता ही जाएगा. हम इस विषय में थोड़े तंग दिल, भावुक होकर ज्यादा सोच रहें हैं . आवश्यकता व्यवहारिक होने की है..!!! शायद !!!
यह क्या कम है कि अनिल जी, तरुण जी, साकेत जी वहां पहुँचकर तकनीक, रणनीतिक ज्ञान अर्जित किए साथ ही सबके बीच उसे पहुँचाया भी. शेष रणनीतिक बिन्दु तो हिन्दी के ब्लोगर "पंडित", "विशेषज्ञ, और "गुरूजी" अक्सर हम सबके बीच उड़न तश्तरी में बांटते ही रहते हैं. जिसके लिए मेरा उन्हें हिन्दी ब्लागर के रूप में न केवल प्रणाम है, अपितु सिपाही के रूप में salute भी है.
और क्या कहा जाये ????.....अभी तो हिन्दी ब्लोगिंग में पैसा है नहीं इसलिए आपको तब तक मुझ जैसे लोगों को झेलना ही पड़ेगा.
समीर यादव