Posts

Showing posts from April, 2007

कल ने किया था कल फोन

Image
कल दोपहर की बात है। मानस कुछ उनींदा सा था। तभी मोबाइल की घंटी बजी। नंबर जाना-पहचाना नहीं था। मानस ने सोचा देखा जाए कि कोई परिचित है या रॉन्ग नंबर। उधर से आवाज आई, मैं गोपाल बोल रहा हूं, पहचाना। मानस के मन में गोपाल प्रधान से लेकर गोपाल सरकार के नाम तैर आए। वह आवाज से नहीं पहचान पाया कि दूसरी तरफ से कौन से गोपाल की आवाज है। - नहीं, आप कौन से गोपाल बोल रहे हैं? - गोरखपुर से गोपाल बोल रहा हूं। आप साथी किशोर बोल रहे हैं न... अब मानस के चौंकने की बारी थी। कौन है ये गोपाल जो उसे सालों पीछे छूट गए नाम से बुला रहा है। - हां, किशोर बोल रहा हूं। लेकिन आप मेरा ये नाम कैसे जानते हैं... - साथी, याद है आप जहां कभी-कभी शेल्टर लिया करते थे। अब मानस को पूरा याद आ गया। गोपाल संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता हुआ करते थे और वह रेलवे मजदूरों या भूमिहीन किसानों के बीच काम से फुरसत पाकर घने पेड़ों के बीच बने उनके घर में दो-चार दिन गुजारने चला जाया करता था। उसे किशोर से मानस बनने की पूरी यात्रा याद हो आई। वह आंकने लगा कि क्या-क्या उसके अंदर बदला है और क्या-क्या बाहर बदल गया। - साथी, मुझे पता है कि आप अब मानस हो गए

आरक्षण कटार है, कल्याण नहीं

Image
सरकार ही नहीं, सभी विपक्षी पार्टियां भी उच्च शिक्षा में आरक्षण के पक्ष में हैं, तो इसकी स्पष्ट वजह राजनीतिक नफा-नुकसान है। आज ओबीसी तबका उत्तर भारत में राजनीतिक रूप से सबसे सशक्त है। खुद गिन लीजिए कि कितने राज्यों के मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री इन्हीं जातियों के हैं। और, विश्वनाथ प्रताप सिंह या अर्जुन सिंह कोई ओबीसी के सगे नहीं हैं। उन्हें अपनी राजनीतिक जमीन बनानी या बचानी थी, इसलिए वो आरक्षण का डंका पीट रहे हैं। एक बात और साफ समझ लेनी चाहिए कि आरक्षण कोई कल्याणकारी कार्यक्रम नहीं है, ये सत्ता में हिस्सेदारी का जरिया है। इसलिए पहली दो किश्तों में मैंने जो आंकड़े पेश किए हैं, वो सत्ता की इस लड़ाई में निरर्थक साबित हो जाएंगे क्योंकि यहां तर्कों की नहीं, ताकत की जुबान, राजनीतिक हैसिय़त की जुबान चलेगी। यहां वोटों की ताकत ही असली तर्क और ताकत है। ये महाभारत जैसा 'धर्म-युद्ध' है, जहां नियम से नहीं, नरोवा कुंजरोवा की चाल से जीत होती है। बात अगर देश के पिछड़ों को शिक्षा और उच्च शिक्षा में आगे बढ़ाने की होती तो पहले सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर सुधारा जाता। कम से कम सौ नए आईआईटी और

ताकते रह जाएंगे 80% ओबीसी

Image
हिंदुस्तानी नाक और जूते की नाप के साथ ही 1931 की इस जनगणना में देश में फैली तमाम जातियों की गणना भी की गई थी। लेकिन आजादी के 60 साल बाद हमारी सरकार इस जनगणना को सामाजिक न्याय के अहम फैसले का आधार बना रही है, ये हास्यास्पद ही नहीं, शर्मनाक है। वैसे तो जैसा मैंने शुरू में कहा था कि उच्च शिक्षण संस्थानों में 27% ओबीसी आरक्षण का मसला राजनीति से जुड़ा है, इसका आंकड़ों या तर्कों से कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी मजा लेने के लिए कुछ ताजा आंकड़ों पर नजर डालने में कोई हर्ज नहीं है। साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है। औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है। भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां

ये राजनीति है राजा! यहां तर्क का क्या तुक

Image
केंद्र सरकार को ही नहीं, पूरे देश को सोमवार 23 अप्रैल का इंतजार है क्योंकि इस दिन सुप्रीम कोर्ट उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण पर लगी रोक पर सुनवाई करने वाला है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी कानून के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया था। उसे दो मुद्दों पर ऐतराज है। एक, आबादी में ओबीसी का 52 फीसदी अनुपात 1931 की जनगणना पर आधारित है, जबकि उसके बाद देश में जातियों की स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव आ चुका है। इस पर केंद्र सरकार की तरफ से सफाई दी गई है कि साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक भी आबादी में ओबीसी का हिस्सा 41 फीसदी है। इसलिए 50 फीसदी अधिकतम आरक्षण की कानूनी सीमा के भीतर ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण रखना कहीं से भी गलत नहीं है। वैसे भी, देश में 1931 के बाद जाति आधारित कोई जनगणना नहीं हुई है। इसलिए जातियों पर उसकी फाइंडिंग्स को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट को दूसरा ऐतराज इस बात पर था कि केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून में ओबीसी की क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं किया गया है। इस तरह उसमें जाति को ही सामाजिक और शैक्

कौन है ये भारत भाग्यविधाता?

Image
इधर इनफोसिस के चीफ मेंटर नारायण मूर्ति और भूतपूर्व मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाए जा रहे हैं। मूर्ति पर आरोप है कि उन्होंने एक समारोह में जानबूझकर राष्ट्रगान की केवल धुन बजने दी, जबकि सचिन पर आरोप है कि वेस्ट इंडीज में दौरे के दौरान उन्होंने अपने जन्मदिन पर ऐसा केक काटा, जो तिरंगे की शक्ल में बनाया गया था। नारायण मूर्ति और सचिन दोनों ही सफाई दे चुके हैं कि उनका मसकद कहीं से भी किसी की राष्ट्रीय भावना को चोट पहुंचाना नहीं था। लेकिन ये मुद्दा उठा तो मेरे जेहन में एक पुराना सवाल कौंध गया। वो यह कि जनगण अधिनायक जय हे...में भारत का भाग्यविधाता कौन है। वो कौन है जिसकी प्रशस्ति विंध्य हिमाचल यमुना गंगा और सागर की लहरें गाती हैं और जिससे ये सभी आशीष मांगते हैं। इतिहास साक्षी है कि ये गान 1911 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में सबसे पहले गाया गया था। एक दिन बाद ही गुलाम 'भारत के भाग्यविधाता' किंग जॉर्ज पंचम भारत आए थे। इसलिए कुछ लोग कहने लगे कि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे जॉर्ज पंचम के स्वागत में लिखा था। जॉर्ज पंचम के स्वागत में ही उसी साल मुं

ये कैसा कोलाहल!

Image
ब्लॉग बनाते वक्त सोचा था कि शांति से अपने अनुभवों को एक कोने में लिखता जाऊंगा। ये भी उम्मीद थी कि दो-चार लोग सार्थक टिप्पणियां करते रहेंगे तो अपने लिखे को उपयोगी बनाने और अंतिम रूप देने में सहूलियत हो जाएगी। लेकिन यहां तो इतना कोलाहल है कि कान नहीं, दिमाग फटने लगा है। टिप्पणियां देखकर लगता है कि 99.9999 फीसदी हिंदी ब्लॉगर्स के पास अपना दिखाने की इतनी व्यग्रता है कि वो बस आह और वाह ही कर सकते हैं। इनसे सार्थक टिप्पणियों की उम्मीद बेमानी है। यहां तो हर कोई कवि है, साहित्यकार है। आपको बता दूं कि नए जमाने के इन कवियों और साहित्यकारों से मुझे यूनिवर्सिटी के दिनों से ही नफरत है। परशुराम ने पचास बार धरती को क्षत्रियों से सूना कर दिया था। मैंने ज्यादा तो नहीं किया, लेकिन यूनिवर्सिटी के दिनों में कम से कम एक दर्जन कवियों-साहित्यकारों की भ्रूण हत्या तो जरूर की होगी। और, आज तक मुझे इसका कोई मलाल नहीं है। फिर भी तथाकथित जनवादी कवियों और साहित्यकारों की दुकानदारी चल ही रही है। ब्लॉग के इस ग्लोब में मची खींचतान के बीच लिखने का मन ही नहीं करता। लेकिन लिखने की इच्छा है तो लिखूंगा ही। हां, अब मानकर लिख

तौबा करो दलाली की राजनीति से

Image
संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-3 उत्तर प्रदेश में सवर्ण जातियों की राजनीतिक ताकत अब चुक गई है। मायावती ही उनके बचे-खुचे रसूख को बचाने का जरिया बन गई हैं। सवर्णों के बच्चे या तो अपहरण जैसे 'धंधों' से जल्दी से जल्दी पैसा बनाने के चक्कर में लगे हैं या सभ्य और काबिल हुए तो आईएएस, पीसीएस, मेडिकल, आईआईटी या आईआईएम का मंसूबा पाले हुए हैं। इसीलिए 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण इनको मिर्ची की तरह लगता है। गांव-प्रधान देश और राज्य में राजनीति सत्ता का खेल है, सम्मान का खेल है, पहचान का युद्ध है। यहां विकास जैसे नारे नहीं चलते। विकास, भ्रष्टाचार विरोध, सस्ती बिजली-पानी, किसानों की आत्महत्या या दाम बांधों-काम दो जैसे मुद्दे आंदोलन के नारे हो सकते हैं, सत्ता में आने के नहीं। आंदोलन में जाति की सरहदें टूट जाती हैं। लेकिन राजनीति का खेल शुरू होते ही समाज के वंचित तबकों के लिए जाति निर्णायक बन जाती है क्योंकि सत्ता में उन्हें अपना एक्सटेंशन चाहिए, पहचान चाहिए, सम्मान चाहिए। यही वजह है कि माले की रैलियों में पटना का गांधी मैदान से लेकर दिल्ली का बोट क्लब तक खचाखच भर जाता है, लेकिन ये ताकत वोटों

राम भजो राजनाथ, सत्ता तो माया है

Image
संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-2 दलित और पिछड़ी जातियां इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे प्रखर हैं। उनकी ये प्रखरता मुलायम, मायावती, बेनीप्रसाद वर्मा और सोनेलाल पटेल में प्रतिनिधित्व पा रही है। मायावती पर भ्रष्टाचार का आरोप हो, मुलायम सरकार के दामन पर निठारी के बच्चों के खून और मेरठ में ढाई सौ से ज्यादा हत्याओं का दाग लगा हो या सोनेलाल पटेल का अपना दल बबलू श्रीवास्तव और अबू सलेम जैसे अपराधियों का स्वागत करता हो, इससे दलित और पिछड़ी जातियों के मतदाताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अब ठाकुर, बाभन, बनिया और कायस्थ जैसी सवर्ण जातियों की बात। इन सभी जातियों की अलग-अलग महासभाएं आपको मिल जाएंगी, लेकिन इनकी राजनीतिक हैसियत आज दो कौड़ी की भी नहीं है। परिवारो के विभाजन या पुरानी आदतों के चलते इनकी जमीनें बिकती रहीं। बाभन तो वैसे भी पराश्रयी थे, उनके पास ज्यादा जमीन भी नहीं रही है। आजादी के बाद के बीस-पच्चीस सालों तक उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान की सोच के चलते किसानी से चिपके रहे। फिर लड़के नौकरी करने निकले तो मास्टरी और क्लर्की तक निपट गए। जोत घटती गई, खेती के खर्च बढ़ते

जाति बिना सब सून है साथी...

Image
संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-1 उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के पहले चरण में अब चंद दिन ही बचे हैं। सर्वेक्षण बता रहे है कि दलित और पिछड़ी जातियों के नुमाइंदे ही सरकार बनाएंगे, बाकी जातियां हाथ मलती रह जाएंगी। सवाल उठता है कि आखिर विकास की बातों के बावजूद पिछड़े हुए उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति ही क्यों हावी है? ये सोच-सोचकर मेरे जैसे लोग ही नहीं, लोहिया अगर जिंदा होते तो वे भी बेहद दुखी होते। वैसे, ये भी विडंबना है कि जाति को खत्म करने की राजनीति करनेवाले लोहिया के चेले-चापट आज जाति की ही राजनीति के अलंबरदार बन गए हैं। राजनीति में जाति की ये महिमा क्यों है, आइये समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन पहले जाति को लेकर अपने कुछ साथियों की सोच के स्पेक्ट्रम पर एक नजर... आज जातिगत चेतना को कौन-सी पार्टी नई मंजिल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है, जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है। जाति के आधार पर राजनीति करनेवाले दल जिन जातियों को अपना दुश्मन बताकर राजनीति करते रहे हैं, उन्होंने अब उन्हीं से हाथ मिला लिया है। देश में जाति को राजनीति से हटाकर डेमोक्रेसी