Tuesday 10 April, 2007

ये कैसा कोलाहल!

ब्लॉग बनाते वक्त सोचा था कि शांति से अपने अनुभवों को एक कोने में लिखता जाऊंगा। ये भी उम्मीद थी कि दो-चार लोग सार्थक टिप्पणियां करते रहेंगे तो अपने लिखे को उपयोगी बनाने और अंतिम रूप देने में सहूलियत हो जाएगी। लेकिन यहां तो इतना कोलाहल है कि कान नहीं, दिमाग फटने लगा है। टिप्पणियां देखकर लगता है कि 99.9999 फीसदी हिंदी ब्लॉगर्स के पास अपना दिखाने की इतनी व्यग्रता है कि वो बस आह और वाह ही कर सकते हैं। इनसे सार्थक टिप्पणियों की उम्मीद बेमानी है। यहां तो हर कोई कवि है, साहित्यकार है। आपको बता दूं कि नए जमाने के इन कवियों और साहित्यकारों से मुझे यूनिवर्सिटी के दिनों से ही नफरत है। परशुराम ने पचास बार धरती को क्षत्रियों से सूना कर दिया था। मैंने ज्यादा तो नहीं किया, लेकिन यूनिवर्सिटी के दिनों में कम से कम एक दर्जन कवियों-साहित्यकारों की भ्रूण हत्या तो जरूर की होगी। और, आज तक मुझे इसका कोई मलाल नहीं है। फिर भी तथाकथित जनवादी कवियों और साहित्यकारों की दुकानदारी चल ही रही है।
ब्लॉग के इस ग्लोब में मची खींचतान के बीच लिखने का मन ही नहीं करता। लेकिन लिखने की इच्छा है तो लिखूंगा ही। हां, अब मानकर लिखूंगा कि स्वांत: सुखाय ही लिखना है। कोलाहल में नहीं फंसना है। मन करेगा तो लिखूंगा, नहीं तो फालतू का समय जाया नहीं करूंगा। कबीर का एक दोहा याद आता है...रे गंधि मति अंध तू अतर दिखावत काहि, करि अंजुरि को आचमन मीठो कहत सराहि। वैसे मुझे गंधि होने का दर्प नहीं है। लेकिन जो लोग इत्र को आचमन करके मीठा बताते हों, उनसे चिढ़ जरूर है।

6 comments:

अतुल श्रीवास्तव said...

हिन्दी ब्लॉगिंग जगत की कटु सत्यता समझने पर हार्दिक बधाई.

अभय तिवारी said...

वाह.. आह..

azdak said...

अरे?.. हद है!.. आप चाहते क्‍या हैं, साहब? हम, हमारी प्रेयसी, हमारे साहब की प्रेयसी, बिल्‍लू, बलराम, वर्मा साहब- सब जो साहित्‍य रचकर साहित्‍य और समाज दोनों को सार्थक कर रहे हैं, तज दें, त्‍याग दें! यही कह रहे हैं ना आप? क्‍यों? इसलिए कि आप, आपका डॉगी और डॉली आंटी को चैन की नींद पड़ेगी, इसलिए? स्‍वार्थ की हद है, साहब (आज के ज़माने में)!
आपको मालूम है अप्रगतिशील साहित्‍य से समाज का कितना भला हो रहा है? अप्रगतिशील ग्रंथमाला का बुलेटिन सब्‍सक्राइब किया है आपने? पहले नियम से छै महीने हमारा साहित्‍य पढिये, फिर राय बनाइये! बैठे-बिठाये सिरदर्द दे दिया, यार.. ऐसे करता है कोई?

VIMAL VERMA said...

भाईजी, क्या बात कर रहे है,कर्म किये जाय फ़ल की इच्छा क्यो कर रहे है.अभी तो इस मानसिकता से तो मुक्ति पाइये.कोलहल तो हमेशा से है. इसी कोलाहल के बीच अपनी बात को रखिये. उसी पुराने तेवर मे आते देख रहे है.हमे तो आपकी बाते अच्छी लगती है.

VIMAL VERMA said...

भाईजी, क्या बात कर रहे है,कर्म किये जाय फ़ल की इच्छा क्यो कर रहे है.अभी तो इस मानसिकता से तो मुक्ति पाइये.कोलहल तो हमेशा से है. इसी कोलाहल के बीच अपनी बात को रखिये. उसी पुराने तेवर मे आते देख रहे है.हमे तो आपकी बाते अच्छी लगती है.

अनिल रघुराज said...

एक बात लिखते वक्त छूट गई थी। वो, यह कि इस पूरी सृष्टि में गधों-खच्चरों-जेबरा की ही इकलौती प्रजाति है जिसमें प्यार जताने के लिए जब पहला दूसरे की पीठ खुजलाता है, उसी वक्त दूसरा भी पहले की पीठ उतने ही प्यार से खुजलाता है। आज के कवि और साहित्यकार इंसानों में इसी प्रजाति का विस्तार हैं। दो-सौ चार सौ कवि/साहित्यकार ही आपस में एक दूसरे की रचनाएं पढ़ते हैं और सराहते हैं।