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Showing posts from July, 2007

ठोस खोखला है और स्थिर गतिशील

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धरती हमारे सौरमंडल का सबसे ताकतवर और ऊर्जावान ग्रह है। आप इस ग्रह पर कहीं भी चले जाएं, आपको गति और ज़िंदगी ही नज़र आती है। यहां तक कि चट्टानों, धातुओं, लकड़ी और मिट्टी जैसी निर्जीव चीजों में गज़ब की आंतरिक गति होती है। इनमें हर न्यूक्लियस के इर्दगिर्द इलेक्ट्रॉन नाचते रहते हैं। उनकी इस गति की वजह ये है कि न्यूक्लियस उन्हें अपने विद्युत बल के ज़रिए खींचकर आबद्ध रखना चाहता है। यह बल इलेक्ट्रॉनों को जितना संभव है, उतना ज्यादा न्यूक्लियस के करीब रखने की कोशिश करता है। और इलेक्ट्रॉन ठीक उस व्यक्ति की तरह जिसके पास थोड़ी भी शक्ति होती है, इस बंधन का विरोध करता है, इससे छूटने की भरसक कोशिश करता है। न्यूक्लियस जितनी ही ज्यादा ताकत से इलेक्ट्रॉन को बांधता है, इलेक्ट्रॉन उतनी ही ज्यादा गति से अपने ऑरबिट में धमा-चौकड़ी मचाता है। दरअसल किसी परमाणु में इस तरह बंधे रहने के चलते इलेक्ट्रॉन 1000 किलोमीटर प्रति सेकंड यानी 36 लाख किलोमीटर प्रति घंटा तक की रफ्तार हासिल कर लेता है। इसी तेज़ गति की वजह से परमाणु किसी ठोस गोले जैसे नज़र आते हैं, उसी तरह जैसे हमें तेज़ी से चलता पंखा एक गोलाकार डिस्क जैसा दिख

याकूब को सज़ा-ए-मौत : अच्छा नहीं लगा

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विशेष टाडा अदालत ने याकूब मेमन को मौत की सजा सुना दी। न जाने क्यों ये फैसला सुनकर दिल को अच्छा नहीं लगा। ये सच है कि उसके बड़े भाई टाइगर मेमन ने ही अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम के साथ मिल कर 1993 के मुबंई बम धमाकों की साजिश रची थी। लेकिन ये भी सच है कि वह मेमन परिवार का एक शरीफ और पढ़ा लिखा सदस्य है जो धमाकों से पहले तक चार्टर्ड एकाउंटेंट की हैसियत से एक फर्म चलाता था। हम मान लें कि धमाकों की साजिश की जानकारी उसे थी। लेकिन जब टाइगर मेमन पूरे परिवार के साथ धमाकों से ठीक पहले दुबई भाग गया और वहीं कहीं सेटल हो गया था, तब सवा साल बाद ही 28 जुलाई 1994 को याकूब जिद करके भारत लौट आया था और उसने पुलिस के सामने जाकर खुद सरेंडर कर दिया। याकूब को यकीन था कि उसे सरकारी गवाह बना लिया जाएगा और एक बार फिर उसकी जिंदगी पटरी पर लौट आएगी। उसी ने सीबीआई के सामने इस साजिश से परत-दर-परत परदा उठाया, नहीं तो वह अंधेरे में ही तीर मारती रह जाती। लेकिन जेल में बारह साल गुजारने के बाद जब सितंबर 2006 में विशेष टाडा अदालत ने याकूब मेमन को दोषी करार दिया तो वह कोर्ट में फट पड़ा। उसने अपने बड़े भाई टाइगर मेमन का जि

पांच साल तक यहीं विराजेंगे क्या?

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नई राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के विस्तृत परिवार के बीच दांतों में जीभ से फंसे पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम। कहीं ऐसा न हो कि प्रतिभा ताई का पूरा कुनबा, चंटी-पिंकी-बबली... आदि-इत्यादि पांच साल तक उनके राजसी सुख का आनंद लेने के लिए यहीं जमे रहें। तब तो राष्ट्रपति भवन के 354 एकड़ के परिसर और 340 कमरों में जमकर धमा-चौकड़ी मचती रहेगी। फोटो साभार- इंडियन एक्सप्रेस

हच की हद, दूर रहें

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रविवार की बात है। मेरा मोबाइल फोन बजा। मैंने उठाया तो उधर से रिकॉर्डेड आवाज़ बोलने लगी। पांच-दस सेकंड बाद समझ में आया कि ये हच की तरफ से कॉलर ट्यून्स का कोई ऑफर है। मुझे पांच गाने सुनाए गए और कहा गया कि इनमें से जो भी आपको पसंद हो, उसका नंबर दबा दें। मैं थोड़ा हिचका। सोचा कि जिस तरह कॉलर ट्यून्स के एसएमएस रोज़ डिलीट करता हूं, वैसा ही रवैया यहां भी अपनाऊं। फिर मुझे लगा कि जब हच से सीधे फोन आ रहा है तो शायद ये मुफ्त का ऑफर हो। मैंने अपने मनपसंद गाने के लिए तीन नंबर दबा दिया। फौरन उधर से जवाब आया - आपके मोबाइल पर 48 घंटे के अंदर ये कॉलर ट्यून एक्टिव हो जाएगी और इसका मंथली चार्ज है 30 रुपए। मुझे सदमा-सा लगा। मैंने हचकेयर के नंबर 111 पर फोन किया। वहां मेरी सेवा में हाज़िर हुए कोई जगदीश टक्कर साहब। जनाब, क्या टक्कर दी टक्कर साहब ने। मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने कहा - इसमें क्या बात है। आप can ct लिखकर 123 पर एसएमएस कर दें, ये सेवा कैंसल हो जाएगी। इस एसएमएस के तीन रुपए लगेंगे, लेकिन क्योंकि आपने इस सेवा को चुन लिया है, इसलिए इसके 30 रुपए मंथली चार्जेज तो लगेंगे ही। मैंने कहा कि

चाहतें होतीं परिंदा, हम बादलों के पार होते

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कभी-कभी सोचता हूं कि क्या हम कभी लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ से निकल कर ऐसे हो पाएंगे कि देश की सभी समस्याओं का हमें गहरा ज्ञान होगा और हम जो हल पेश करेंगे, वही दी गई काल-परिस्थिति का सबसे उत्तम समाधान होगा। ऐसा समाधान, जिस पर अमल करना हवाई नहीं, पूरी तरह व्यावहारिक होगा। लाल बुझक्कड़ के किस्से आपको पता ही होंगे। गांव में हाथी आकर चला गया, पीछे पैरों के निशान छोड़ गया। गांव वाले इस निशान को देखकर सोच में पड़ गए कि कौन-सा जीव उनकी धरती पर आकर चला गया। पहुंच गए लाल बुझक्कड़ के पास, तो बुद्धिजीवी बुझक्कड़ ने क्या जवाब दिया, ये सुनिए एक दोहे में – लाल बुझक्कड़ बुज्झि गय और न बूझा कोय, पैर में चाकी बांधि के हरिना कूदा होय। मुझे लगता है कि हम जैसे लोग भी दुनिया-जहान की समस्याओं का लाल बुझक्कड़ी समाधान सुझाते हैं, उसी तरह जैसे कमेंट्री सुनने-देखने वाला कोई शख्स सचिन, सौरव या द्रविड़ के लिए कहता है कि ऐसे नहीं, ऐसे खेला होता तो सेंचुरी बन जाती, भारत जीत जाता। फिर ये भी सोचता हूं कि हम करें क्या! आखिर हमारे पास यथार्थ सूचनाएं ही कितनी होती हैं! किन हालात में, किन दबावों में फैसला लेना होता है, समाधान

कल आज और कल

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एपीजे अब्दुल कलाम का आज राष्ट्रपति भवन में आखिरी दिन है। कल से देश की नई राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल यहां स्थापित हो जाएंगी। कलाम अविवाहित हैं और पूरा देश ही उनका कुनबा था, जबकि प्रतिभा पाटिल का भरा-पूरा परिवार है। वह राष्ट्राध्यक्ष हैं, लेकिन किस परिवार को अहमियत देती हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता कि जब उनका गृह राज्य महाराष्ट्र उनके पधारने का इंतज़ार कर रहा था, तब वो आधिकारिक रूप से यहां नहीं आईं। लेकिन गुपचुप जलगांव पहुंच कर लौट भी गई क्योंकि जलगांव में उनके नाती का अस्पताल में इलाज चल रहा था। कलाम और प्रतिभा की प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। राष्ट्रपति भवन के कर्मचारियों को कलाम का संदेश

फॉर्मूला दुनिया की सबसे हिट ब्लॉगर का

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सु जिंगलेई का चीनी में लिखा जा रहा ब्लॉग आज दुनिया का सबसे हिट ब्लॉग है। इसी साल 12 जुलाई को इस ब्लॉग ने 10 करोड़ हिट का आंकड़ा छुआ। लेकिन उसके बाद के 12 दिनों में ही इसके हिट 41 लाख और बढ़ गए हैं। मैं जिस वक्त ये पोस्ट लिख रहा हूं, तब इसका विजिटर काउंटर 10,41,42,555 का आंकड़ा दिखा रहा है। जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, तब इस काउंटर पर नज़र डाल लीजिएगा। आपको सु जिंगलेई के ब्लॉग की लोकप्रियता का अंदाजा लग जाएगा। वैसे तो सु जिंगलेई चीन की सेलिब्रिटी हैं, फिल्म अभिनेत्री हैं, डायरेक्टर हैं, इसलिए उनके जीवन में तांकझांक करने की तगड़ी दिलचस्पी लोगों में होगी। लेकिन खास बात सु के लिखने की स्टाइल और विषय में भी हैं। वे छोटी पोस्ट लिखती हैं। अपनी सोच और काम से निकले निजी अनुभवों पर लिखती हैं। किस्से कहानियों से जोड़कर लिखती हैं। एक ताज़ा नमूना पेश है, जो पहले चीनी से अंग्रेजी में यांत्रिक रूप से अनूदित हुआ, फिर उस भ्रष्ट अनुवाद को मैंने दुरुस्त किया। ....वाह, आपका ब्लॉग तो बिलियन डॉलर का हो गया! ये तारीफ है या सवाल? कुछ लोग कहते हैं कि यह आंकड़ा अतिरंजित है। इस पर मुझे एक बड़ी ही दिलचस्प भारतीय लोक

किसी दिन ढूंढे नहीं मिलेंगे सरकारी दूल्हे

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इस समय केंद्र सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी की फिक्स्ड सैलरी 26,000 रुपए हैं। इसमें एचआरए और दूसरे भत्ते मिला दिए जाएं तो यह पहुंच जाती है 63,110 रुपए महीने पर यानी साल भर में करीब 7.5 लाख रुपए का पैकेज। इससे कई गुना ज्यादा वेतन तो आईआईएम से निकले 24-25 साल के नए ग्रेजुएट को मिल जाता है। आज स्थिति ये है कि जिस आईएएस अफसर को, चाहे अपने संस्कारों से या अपनी पोस्टिंग से, बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता, वह अपनी तनख्वाह को लेकर हमेशा जलता-भुनता रहता है। ऊपर से सीबीआई के छापे का डर। कहीं अंदरूनी राजनीति के चलते किसी सीनियर की वक्री दृष्टि पड़ गई तो समझिए पूरा करियर चौपट। रेलवे में काम कर रहे मेरे एक आईएएस मित्र मारुति-800 से ऊपर की कार नहीं खरीद रहे क्योंकि उन्हें बेकार में सीबीआई की नज़रों में आने का डर लगता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे हॉस्टल (ए एन झा, या म्योर हॉस्टल) से निकले मेरे ही बैच के करीब दर्जन भर आईएएस अफसर हैं, जिन्हें मैं जानता हूं। उनमें से एक-दो के ही चेहरों पर मैंने अफसरी की लुनाई देखी है। बाकी तो किसी दफ्तर के सामान्य बाबू की तरह मुश्किलों का रोना रोते रहते हैं। ऊप

भारत के जिलाधिकारियों सावधान!

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अगर आप, आपका कोई नातेदार या जान-पहचान वाला भारत के किसी जिले का डीएम है तो उस तक ये सूचना ज़रूर पहुंचा दीजिए कि जिलाधिकारी/ डिप्टी-कलेक्टर/ डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की पोस्ट पर ही तलवार लटक रही है और इस पद को कभी भी खत्म किया जा सकता है। वैसे, भारत के लिए ये अभी दूर की कौड़ी है, लेकिन ज्यादा दूर की नहीं क्योंकि पुराने हिंदुस्तान के एक हिस्से पाकिस्तान में ऐसा हो चुका है। और टूटे बांध का पानी दस गांव दूर तक पहुंच गया हो तो बाकी गांवों के लोग इस गफलत में नहीं रह सकते हैं कि हमारे गांव में पानी थोड़े ही आएगा। या, उस पादरी की तरह भी नहीं हो सकते, जिसने बीच मझधार में जब नाव के दूसरे किनारे पर छेद हो गया और नाव उधर से डूबने लगी तो कहा था – थैंक गॉड द होल इज नॉट अवर साइड। पाकिस्तान ने दो सौ सालों के अंग्रेजी शासन से विरासत में मिले डीएम के पद को खत्म कर दिया है और अभी नहीं, सात साल पहले से। इसकी जगह ज़िला वित्त आयोग और ज़िला-स्तरीय पब्लिक सर्विस कमीशन बनाए गए हैं। ज़िले के अधिकारियों-कर्मचारियों का चयन ज़िला समितियां करती है और ये लोग राज्य या केंद्र सरकार के प्रति नहीं, इन समितियों के प्रति जव

फैलेगी बरगद छांह वहीं

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गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं ने विद्यार्थी जीवन में मुझ पर गज़ब का जादुई असर किया था। उन्हीं की तीन प्यारी-सी छोटी-छोटी कविताएं। 1. मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना और कि साथ-साथ यों साथ-साथ फिर बहना-बहना-बहना मेघों की आवाज़ से, कुहरे की भाषाओं से, रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से, जी खोल रहा धरती से त्यों चाह रहा था कहना उपमा संकेतों से, रूपक से, मौन प्रतीकों से मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना! जैसे मैदानों को आसमान, कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग बिचारा आसमान कुछ रूप बदलकर रंग बदलकर कहे। 2. बाज़ार में बिकते हुए इस सूट में, इस पैंट में, इस कोट में कैसे फंसाऊं जिस्म!! या मैं किस तरह काटूं-तराशूं देह जिससे वह जमे उसमें बिना संदेह जीने की अदा हो रस्म!! चाहे मैं छिपूं, छिपता रहूं अपनी स्वयं की ओट में बेशक कि जोकर दीखता हूं और लगता हूं खुद ही को चोर पिटता हूं अकेले चुप-छिपे, निज की निहाई पर स्वयं के हथौड़ों की चोट में ...फिर भी एक सज-बज, एक धज भई वाह!! मुझको नित बताती ज़िंदगी क

अपने से चली बड़-बड़, तड़-बड़

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पिता ने कहा – हवन करो। लेकिन मैं हवन क्यों करूं? मैं तो सोते-जागते निरंतर आहुतियां देता रहता हूं। जब बोलता हूं तो सांसों की आहुति देता हूं और जब सांस लेता हूं तो वचन की आहुति देता हूं। दोस्तों ने कहा – जिंदगी में नशा ज़रूरी है। मैंने कहा - हर नशे से दूर हूं क्योंकि भोजन के नशे का आदी हो गया हूं। सिगरेट का नशा क्यों करूं? मैं तो हवा का नशा करता हूं। शराब का नशा क्यों करूं? मैं तो पानी का नशा करता हूं। उसने कहा - मनुष्य के रूप में ये तुम्हारा पहला जन्म है। तभी तो तुम्हें दुनिया की रीति-नीति, छल-छद्म एकदम नहीं आते। मैंने कहा - शायद तुम ठीक कहते हो। बॉस ने कहा – तुम जो कुछ हो, मैंने तुम्हें बनाया है। मैंने कहा – तुम मुझे क्या बनाओगे। मैं सूर्य-पुत्र, सरस्वती का बेटा। मैं असीम हूं, अनंत हूं। सूरज मेरा पिता है, नेता और दोस्त भी। जैसे वह पेड़-पौधों को बढ़ाता है, बनाता है, वैसे ही मुझे भी आगे बढ़ाएगा। उसका प्रकाश मेरे लिए भी जिंदगी और ज्ञान का स्रोत बन जाएगा। दोस्त की हैसियत से सूरज हर सफर में तब तक मेरे साथ चलता रहता है, जब तक वह डूब नहीं जाता। पेड़ों, घरों और बादलों की ओट आती जरूर है, लेकिन

देश के माथे पर बिंदी या कलंक का टीका

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शाम ढल चुकी है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में घड़ी की सुइयां दो घंटे पहले ही पांच बजा चुकी हैं। राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट पड़ चुके हैं। देश भर के 4,896 जन प्रतिनिधियों (776 सांसद, 4120 विधायक) के मतों के बहुमत से नए राष्ट्रपति का फैसला शनिवार 21 जुलाई की शाम तक सबके सामने आ जाएगा। यूपीए को यकीन है कि प्रतिभा पाटिल बहुमत से चुन ली जाएंगी और तब उनके माथे पर चिपके दाग-धब्बों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। कांग्रेस प्रतिभा पाटिल पर को-ऑपरेटिव बैंक, चीनी मिल, शिक्षा ट्रस्ट और सांसद निधि में घोटाला करने और हत्या के आरोपी अपने भाई को बचाने के आरोपों को बेबुनियाद मानती है। वह कहती है कि इन आरोपों के कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं है। वैसे आपको बता दूं कि इन आरोपों को अब हम दो दिन तक ही दोहरा सकते हैं। कह सकते हैं कि कैसी अंधविश्वासी महिला को हम आधुनिक भारत की राष्ट्रपति बना रहे हैं जो किसी मरे हुए शख्स से बात करने का दावा करती है। लेकिन कांग्रेस जानती है और हमें भी समझ लेना होगा कि राष्ट्रपति बन जाने के बाद हम प्रतिभा ताई की कोई आलोचना नहीं कर सकते, क्योंकि तब देश की महामहिम होने के नाते वे सारी

प्यार में नहीं चलती जागीरदारी

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अमेरिका के ओहायो प्रांत का एक्रॉन शहर। इसी शहर में रहा करते थे एक अनिवासी भारतीय डॉक्टर, जिनका नाम था गुलाम मूंडा। सालों पहले भारत से गए तो अमेरिका के ही बनकर रह गए। जमकर दौलत कमाई। लेकिन प्यार में ओवर-पज़ेसिव होना उनकी मौत का सबब बन गया। उनकी मौत का ज़रिया बन गई वही औरत जो पहले उनकी क्लीनिक में नर्स थी और बाद में उनकी बीवी बन गई, जिसे वो अपनी ज़ागीर की तरह सहेज कर, संवार कर रखते थे। जी हां, डोना मूंडा, यही नाम है डॉ. गुलाम मूंडा की 48 साल की पत्नी का, जिस पर इल्जाम है कि उसने 26 साल के एक नौजवान को अपनी लाखों डॉलर की जायदाद का आधा हिस्सा देने का लालच दिखाया और उसके हाथों 69 साल के अपने पति की हत्या करवा दी। डोना को गिरफ्तार किया जा चुका है और सज़ा का फैसला भी होनेवाला है। उसे या तो उम्रकैद मिलेगी या मिलेगी सज़ा-ए-मौत। अगर उसे मौत की सज़ा मिलती है तो वह अमेरिका के इतिहास में मौत की सज़ा पानेवाली तीसरी महिला होगी। वैसे, जो औरत ताज़िंदगी तिल-तिल कर मरती रही, शायद उसके लिए मौत की सज़ा ज्यादा तकलीफदेह नहीं होगी। डॉ. गुलाम मूंडा डोना का इतना ख्याल रखते थे कि पूछिए मत। वह कब कौन-सी जूतियां प

राष्ट्रपति के खजाने में 7 लाख करोड़ के शेयर

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आज यूं ही एजेंसी की खबरों पर नज़र डाल रहा था तो बड़ी चौंकानेवाली बात पता लगी। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, भारत के राष्ट्रपति इस समय देश के सबसे अमीर शेयरधारक है। उनके नाम में स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड कंपनियों के जो शेयर हैं, उनका बाजार मूल्य इस समय तकरीबन 7,00,000 करोड़ रुपए है। अगर पांच सबसे अमीर भारतीयों – लक्ष्मी मित्तल, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, कुशलपाल सिंह और अज़ीम प्रेमजी की कुल शेयरधारिता को भी मिला दिया जाए, तब भी वह राष्ट्रपति के शेयरों की कीमत से कम बैठेगी। ये अलग बात है कि राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठनेवाला शख्स इस राशि का महज कस्टोडियन होता है, मालिक नहीं। भारतीय संविधान के मुताबिक भारत सरकार का सारा कारोबार राष्ट्रपति के नाम पर होता है। इसलिए केंद्र सरकार की सारी शेयरधारिता राष्ट्रपति या उनके नॉमिनी के नाम पर दर्ज है। लगभग 50 लिस्टेड कंपनियों में खुद राष्ट्रपति के नाम पर चढ़े शेयरों की बाज़ार कीमत 6,00,000 करोड़ रुपए है, जबकि दस और कंपनियों के 1,00,000 करोड़ रुपए मूल्य के शेयर केंद्र सरकार में राष्ट्रपति के मनोनीत प्रतिनिधियों के पास हैं। राष्ट्रपति ए पी जे अब्

तस्वीर का फ्रेम अधूरा है कलाम साहब

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कलाम साहब महामहिम है, महान हैं। देश के प्रथम नागरिक हैं, खास-म-खास हैं। उम्र और अनुभव के लिहाज़ से भी काफी बड़े हैं। ऐसे में उनकी कही गई बात को काटना छोटे मुंह बड़ी बात होगी। लेकिन कलाम साहब खास होने के बावजूद कभी-कभार अपने जैसे भी लगते हैं। शायद इसीलिए मैं उनकी बातों की काट पेश करने की हिमाकत कर पा रहा हूं। कलाम साहब ने जो तस्वीर पेश की है, उसकी सबसे बड़ी खामी है कि उसका फ्रेम अधूरा है। उसमें पब्लिक ही पब्लिक नज़र आती है, जबकि सरकार गायब है। दो बंडल बीड़ी, 50 ग्राम तेल और एक किलो आटा खरीदनेवाले आम आदमी से लेकर होटलों में खाना खानेवाली खास पब्लिक जिन कामों के लिए इस साल केंद्र सरकार को कस्टम और एक्साइज ड्यूटी के रूप में 2,28,990 करोड़ रुपए, सेल्स टैक्स या वैट और लोकल टैक्स के रूप में हज़ारों करोड़ रुपए, इनकम टैक्स के बतौर 98,774 करोड़ रुपए और सर्विस टैक्स के रूप में 50,200 करोड़ रुपए अदा करेगी, वे काम अगर पब्लिक खुद करने लगे तो सरकारी संस्थाओं की ज़रूरत ही क्या रह जाएगी। टैक्स देनेवाली पब्लिक अपनी जिम्मेदारी निभाए, लेकिन जो इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए पब्लिक से पैसे लेते हैं, वो भ्र

महामहिम की नसीहत

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अगले मंगलवार, 24 जुलाई को राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति भवन से विदा ले लेंगे। उन्होंने अभी कुछ दिन पहले ही हैदराबाद में एक भाषण दिया था, जिसे बाद में उन्होंने ई-मेल के जरिए लाखों लोगों को भेजा और उसे दूसरों को फॉरवर्ड करने को भी कहा। काका कलाम के उसी संदेश का हिंदी अनुवाद मामूली संपादन के साथ पेश कर रहा हूं। बहुतों को उनकी बातें एकदम वाजिब लग सकती हैं, लेकिन उनकी नसीहत इस नाचीज़ के गले नहीं उतरती। क्यों, ये बाद में, पहले महामहिम की नसीहत... क्या आपके पास अपने देश के लिए 10 मिनट है? अगर हां, तो इसे पढ़ें, वरना जैसी आपकी मर्जी। आप कहते हैं कि हमारी सरकार अक्षम है। आप कहते हैं कि हमारे कानून काफी पुराने पड़ चुके हैं। आप कहते हैं कि नगरपालिकाएं कचरा नहीं उठाती हैं। आप कहते हैं कि फोन काम नहीं करते, रेलवे मजाक बन गई है, एयरलाइन की हालत दुनिया में सबसे खराब है, चिट्ठियां कभी अपने पते पर नहीं पहुंचतीं। आप कहते हैं कि देश का सत्यानाश हो चुका है। आप कहते हैं और कहते ही रहते हैं। लेकिन आप इस बारे में करते क्या हैं? मान लीजिए कि आप सिंगापुर जाते हैं। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आप दुनि

और, वह जा गिरा अष्टधातु के कुएं में

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जहां तक मुझे याद है, उसका नाम चंदन था। छह साल पहले दिल्ली में एक बस स्टैंड पर उससे मेरी मुलाकात हुई थी। बस के लिए 45-50 मिनट के इंतजार के दौरान उसने अपनी मनोदशा का जो हाल बयां किया, वह मैं आज आपको सुना रहा हूं। इसे सुनने के बाद मुझे लगा था कि उसने या तो कोई सपना देखा था या वह पागल होने की तरफ बढ़ रहा है। आपको क्या लगता है, ये चंदन का हाल जानने के बाद जरूर बताइएगा। एक सुबह चंदन अपने घर के ईशान कोण के कोने में आलथी-पालथी मारकर बैठा था कि तभी किसी ने उसे अष्टधातु से बने सीधे-संकरे और गहरे अतल कुएं में उठाकर फेंक दिया। गिरने की रफ्तार या फेंके जाने की आकस्मिता से वह इतना संज्ञा-शून्य हो गया कि जब तक वह कुएं की अंधेरी तलहटी से नहीं टकराया तब तक उसे यही लगता रहा, मानो उसका शरीर धातु की बनी कोई मूर्ति हो जो कुएं की दीवारों से टकरा कर खन, खनाखन, टन-टनटन करती हुई बिना टूटे-फूटे नीचे गिरती जा रही हो। कई दिन और रात तक गिरते रहने के बाद वह अष्टधातु के इस अतल कुएं की तलहटी में जा पहुंचा। कुएं का तल एकदम सूखा था। सख्त फौलाद जैसी धातु से बना था वह। चौड़ाई बस इतनी थी कि वह दोनों हाथों की कोहनियां भर उ

टिन-टिन टीना, बीन बजाना

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टीना बहुत उदास करनेवाली चीज़ है। इसलिए उसे छोड़कर आइए बीन बजाते हैं। चौंकिए मत, इस धीर-गंभीर रघुराज का पतन नहीं हुआ है और वह किसी लड़की को छोड़कर नागिन को रिझाने की बात नहीं कर रहा है। मैं तो उन जुमलों की बात कर रहा हूं, जिन्हें पिछले कुछ सालों से दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के साथ ही अपने अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी भी चलाए हुए हैं। टीना का विस्तृत रूप है There is No Alternative, जबकि इस सोच को खारिज करनेवाले लोग कहते हैं कि विकल्प ज़रूर है और Build it Now, जिसका संक्षिप्त रूप है बीन। मैं भी बीन वाली सोच का पैरोकार हूं और मानता हूं कि देश-दुनिया, समाज को बदलने के विकल्प मौजूद हैं, बशर्ते कोई उन्हें देखना चाहे। मसलन, देश में किसानों की सेज़ (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन) की बात ही ले ली जाए। इसी हफ्ते केंद्र सरकार ने मुकेश अंबानी के चौथे एसईज़ेड को मंजूरी दे दी। संसद की स्थाई समिति ने नए एसईज़ेड की मंजूरी पर फ्रीज लगाने की सिफारिश की थी, लेकिन गुरुवार, 12 जुलाई को एक ही दिन में 27 एसईज़ेड को हरी झंडी दे गई। कुल मिलाकर देश भर में अभी तक 511 एसईज़ेड की तैयारी अलग-अलग चरणों में है। इन सभी का मालिकाना ब

शास्त्रीजी ने ले ली अपनी क्लास

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शरीर क्या है? क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच तत्व यह अधम शरीरा। ये तो छह-सात सौ साल पहले कही गई पुरानी बात है, नया क्या है? नहीं पता। क्यों नहीं पता? नहीं पढ़ा। पढ़ना चाहिए था ना! प्राण क्या है? आत्मा ही प्राण है। आत्मा क्या है? परमात्मा का अंश। परमात्मा क्या है? नहीं पता। क्यों नहीं पता? सोचा नहीं। सोचना चाहिए था ना! जीवन के लिए बुनियादी ज़रूरत क्या है? रोटी, कपड़ा और मकान। अरे बेवकूफ, मैं ये नहीं पूछ रहा। मेरा सवाल है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं? पता है। अच्छा! कैसे? कल ही पढ़ा है। तो बताओ... जीवन की उत्पत्ति के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं – पानी जैसा कोई एक तरल बायो-सॉल्वेंट, कार्बन आधारित मेटाबॉलिज्म, अणुओं की ऐसी व्यवस्था जो इवॉल्व कर सके, खुद को विकसित कर सके, और बाहरी पर्यावरण से ऊर्जा के आदान-प्रदान की क्षमता। लेकिन क्या जीवन के लिए केवल यही शर्तें रह गई हैं? ...पता है, पता है, बताता हूं। अमेरिका की नेशनल रिसर्च काउंसिल की एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती से भिन्न रूपों में भी जीवन का होना संभव है। जिन ग्रहों पर पानी और ऑक्सीजन नहीं है, वहां भी जीवन ह

धरती नहीं रोती, मगर कलपता है इंसान

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भारत जैसी समृद्ध बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत वाले देश के एक अरब दस करोड़ मानुष, यानी एक अरब दस करोड़ दिल और दिमाग, एक अथाह मानव संपदा। प्राकृतिक संपदा का इस्तेमाल न करो तो उसकी पीड़ा मुखर नहीं होती क्योंकि उनकी जुबान नहीं है। लेकिन मानव संपदा का इस्तेमाल न करो तो वह कलसती है, कुढ़ती है, घुट-घुट कर आत्महंता हो जाती है। लोकतंत्र का मतलब ही होता है समाज और व्यक्ति के हित में प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल। जर्मनी में रहने के दौरान मैंने पाया कि किसी लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य में कितनी संभावनाएं हो सकती हैं। मुझे पता चला कि कैसे कोई लोकतांत्रिक देश व्यक्ति के वजूद से जुड़ी सारी चिंताओं का जिम्मा ले लेता है और उससे उसकी काबिलियत के हिसाब से काम लेता है। अपने यहां लोकतंत्र के नाम पर संसद, विधानसभाओं, शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव होते हैं। बहुमत-अल्पमत का ऐसा हिसाब-किताब है कि कुल 40 फीसदी वोट पाकर भी किसी पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ सकता है और 33 फीसदी के पासिंग नंबर पाकर भी कोई पार्टी सरकार बना सकती है। कई बार आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बातें चलीं, जन-प्रत

गांवों से शहर नहीं, राज्यों से केंद्र को घेरो

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कितने अफसोस की बात है कि नक्सलवाद की जिस धारा से तीन-चार दशक पहले तक रेडिकल बदलाव की उम्मीद की गई थी, आज उसकी तरफ से कोई राजनीतिक वक्तव्य नहीं आते, आती हैं तो बस यही खबरें कि माओवादियों ने 24 को मार डाला तो 55 पुलिसवालों का सफाया कर दिया। शायद यही वजह है कि कल के नक्सली और आज के माओवादी महज लॉ एंड ऑर्डर की समस्या बनकर रह गए हैं। कुछ भावुक नौजवान, पीयूसीएल जैसे संगठनों से जुड़े लोग और जली हुई रेडिकल रस्सी की ऐंठनें भले ही उन्हें थोड़ी-बहुत अहमियत दें, लेकिन राजनीतिक रूप से वो अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ये सच है कि माओवादियों का असर छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के 154 जिलों तक फैला हुआ है। ये भी सच है कि जिन आदिवासियों के बीच इन्होंने अपनी पैठ बनाई है, वो उदारीकरण से पहले से लेकर बाद तक सामाजिक और आर्थिक रूप से अनाथ रहे हैं। ये भी सच है कि हमारी सरकारें जंगलों की खनिज संपदा बड़े भारतीय कॉरपोरेट घरानों और विदेशी कंपनियों के हवाले कर रही हैं और आदिवासियों को जीने के लाले पड़ गए हैं। ये भी सच ह

फ्रेम से बाहर निकलो, धारणाओं के गुलाम!

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तुम्हारे साथ समस्या ये है कि तुम अपनी धारणाओं के गुलाम हो। एक बार जो धारणा बना ली, बस फिर वैसा ही देखते हो। दूर के लोगों से लेकर नजदीक के लोगों के बारे में तुम्हारा यही रवैया रहा है। मां-बाप, भाई-बहन से लेकर दोस्तों तक की जो इमेज अपने अंदर बैठा ली, उससे इतर देखने की जरा-सा भी जहमत नहीं उठाते। दुनिया-समाज को बदलने की बात की, राजनीतिक व्यवस्था को आमूल-चूल बदलने की बात की, नई संस्थाओं को बनाने की बात की। लेकिन मौजूदा संस्थाओं को एक सिरे से नकार दिया। देखा ही नहीं कि वो क्या हैं, कैसी हैं। बस खारिज किया तो खारिज ही कर डाला। अरे, कोई भी नई संस्था वैक्यूम से जन्म लेगी क्या? हर सामाजिक-राजनीतिक संस्था बनते-बनते बनती है। नई संस्था तो पुरानी संस्था का ही परिवर्धित रूप होगी न! साइंस में भी कोई नया नियम पुराने को तोड़ता है तो उसी तरह जैसे किसी वृत्त के बाहर बड़ा वृत्त खींचकर पुराने को खत्म कर दिया जाता है। कानून को नहीं समझा तो नया कानून क्या बनाओगे? असल में जिस तरह कोई नींद में चलनेवाला शख्स हाथ-पैर तो मारता है, लेकिन उसकी आंखें बंद रहती हैं, वही हाल तुम्हारा अब तक रहा है। आंखों में मिर्ची पड़ ज

महा को-ऑपरेटिव हैं यहां के नेता

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मायावती ने उत्तर प्रदेश की 61 को-ऑपरेटिव चीनी मिलों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला क्या किया, महाराष्ट्र के नेताओं को जैसे सांप सूंघ गया। मायावती ने तो यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि राज्य की ये चीनी मिलें 2000 करोड़ रुपए के घाटे में डूब चुकी हैं और इन्हें 18,000 मजदूरों को तनख्वाह तक देने के लाले पड़ गए हैं। लेकिन महाराष्ट्र के नेता इसलिए खदबदा गए क्योंकि को-ऑपरेटिव आंदोलन की मलाई काटकर उन्होंने करोड़ों कमाए हैं और अगर को-ऑपरेटिव मिलों पर हमला हुआ तो उनकी सारी मौज-मस्ती मिट जाएगी, सारा साम्राज्य डूब जाएगा। इसकी एक बानगी पेश है। महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव आंदोलन के प्रणेता रहे हैं विट्ठल राव विखे-पाटिल। इन्होंने 1950 में देश की पहली को-ऑपरेटिव चीनी मिल अहमदनगर जिले में लगाई थी। बाद में उन्होंने पल्प और पेपर मिल, बायोगैस प्लांट, केमिकल प्लांट और डिस्टिलरी भी लगा डाली। 1964 में इस परिवार ने प्रवरा एजुकेशन सोसायटी बनाई, जो इस समय आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स ही नहीं, मेडिकल, इंजीनियरिंग, होमसाइंस और बायोटेक्नोलॉजी तक के कॉलेज चलाती है। विट्ठल राव भगवान को प्यारे हो गए तो उनके बेटे बालासाहेब ने

बातों का रफूगर हूं, पैबंद नहीं लगाता

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देश के हर छोटे-बड़े शहर, गली-मोहल्ले और कस्बे में आपको लंबी-चौड़ी हांकने वाले मिल जाएंगे। प्रेस क्लब में बैठनेवाले पत्रकारों ने तो लगता है हांकने का पूरा टेंडर ले रखा है। रात के 9 बजे तक दो-तीन पैग चढ़ाने के बाद अदना-सा पत्रकार भी आपको सीधे 10 जनपथ तक अपनी पहुंच बताएगा। कुछ बताएंगे कि राहुल गांधी ने उन्हें अपना सलाहकार बना रखा है। वैसे, अपने देश में ये सिलसिला आज से नहीं, सालों से नहीं, सदियों से चल रहा है। ‘भारतवर्षे भरतखण्डे जंबू द्वीपे’ में हांकनेवालों की कमी नहीं रही है। एक राजा खुद बड़ा हांकू था। वह भेष बदलकर अपने राज्य में घूम रहा था कि एक आदमी फेरीवाले की तरह चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहा था – बातों का रफूगर, बातों का रफूगर। राजा ने उसका पता-ठिकाना लिया और अगले दिन सिपाहियों को भेजकर उसे दरबार में बुला लिया। राजा ने पूछा - सुनते हैं कि तुम बातों के रफूगर हो। उसने कहा – हां। राजा ने कहा – ठीक है। मैं तुम्हें कुछ वाकये सुनाता हूं। तुम उनका रफू करो और नहीं कर सके तो तुम्हें शूली पर चढ़ा दिया जाएगा। उसने कहा – सुनाइए हुजूर, मैं तैयार हूं। राजा ने पहला किस्सा सुनाया – एक बार मैं शिकार करन

न कौओं की जमात, न हंसों का झुंड

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आज जतिन गांधी बन चुके मतीन शेख को फिर बड़ी शिद्दत से लगने लगा कि समाज में सभी की अपनी-अपनी गोलबंदियां हैं। सभी अपने-अपने गोल, अपने-अपने झुंड में मस्त हैं। कहीं कौए मस्त हैं तो कहीं हंस मोती चुग रहे हैं। लेकिन वह किसी गोल में नहीं खप पा रहा। सच कहें तो वह न अभी न पूरा हिंदू बना है, न ही मुसलमान रह गया है। बहुत ज्यादा कामयाब नहीं है, लेकिन खस्ताहाल भी नहीं है। फिलहाल हालत ये है कि न तो वह कौओं की जमात में शुमार है और न ही हंसों के झुंड का हिस्सा बन पा रहा है। ये भी तो नहीं कि उसके बारे में कहा जा सके कि सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। फिर वह आखिर चाहता क्या है? जतिन गांधी ने बाहर जाकर सैलून में दाढ़ी-मूछ साफ करवाई। अपना चेहरा आईने में देखकर मुंह इधर-उधर टेढ़ा करके थोड़े मज़े लिए। नहाया-धोया। खाया-पिया और बिस्तर पर आकर लेट गया। लेकिन उसके तमाम सवाल अब भी अनुत्तरित थे। वह सोचने लगा कि आखिर उसके भारत में पैदा होने का मतलब क्या है? अगर इसका ताल्लुक महज पासपोर्ट से है तो चंद पन्नों के इस गुटके को पांच-दस साल बिताकर दुनिया के किसी भी देश से हासिल किया जा सकता

कितने कच्चे हैं खून के रिश्ते

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असल में सबीना मतीन से बारह साल तीन महीने बड़ी है। वह अब्बू और अम्मी की पहली संतान है, जबकि मतीन को पेट-पोंछन कहा जाता था क्योंकि वह अपने मां-बाप की पांचवीं और अंतिम संतान है। अम्मी और सबीना दोनों ही उसे छुटपन से बेहद प्यार करती थीं। लेकिन सबीना ने बकइयां-बकइयां चलने से लेकर उसे अपने पैरों पर दौड़ना तक सिखाया है। ककहरा सिखाया, दुनिया-जहान का ज्ञान कराया। अब्बू को अपने संगीत कार्यक्रमों, देश-विदेश के दौरों और रियाज़ से कभी फुरसत ही नहीं मिली कि नन्हें (मतीन) के सिर पर हाथ फेरते। यहीं से कुछ ऐसी अमिट दूरी बन गयी कि मतीन अब्बू की बातों को सिर्फ चुपचाप सुनता था, लेकिन हमेशा उनकी बातों का ठीक उल्टा करता था। संगीत न सीखना इसकी एक छोटी-सी मिसाल है। अब्बू कहते रहे, लेकिन उसने कभी भी संगीत की तरफ हल्का-सा भी रुझान नहीं दिखाया। दूसरी तरफ अम्मी और सबीना की हर बात का पलटकर जवाब देना मतीन की जैसे आदत बन गयी। लेकिन आज सबीना की बात का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। इसलिए उसने मुद्दे से हटे बगैर बात को हल्का करने की कोशिश की। - एक खुदा से मेरी सांस घुटती है। न उसकी कोई सूरत है, न कोई मूरत। लेकिन यहां तो

मियां, तुम होते कौन हो!

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सबीना जिस तरह इतिहास को खारिज कर रही थी, उससे लगता था कि इतिहास से कहीं उसको कोई गहरा व्यक्तिगत गुरेज हो, जैसे किसी इतिहास से उसका बहुत कुछ अपना छीन लिया हो। वह बोलती जा रही थी। - मैं तो कहती हूं कि बच्चों को तब तक इतिहास नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, जब तक वे समाज को देखने-समझने लायक न हो जाएं। बारहवीं से भले ही इतिहास को कोर्स में रख दिया जाए, लेकिन उससे पहले बच्चों के दिमाग को पूर्वाग्रह भरी बातों से धुंधला नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को सेक्स पढ़ा दो, मगर इतिहास मत पढ़ाओ। उन्हें आज की हकीकत से जूझना सिखाओ, ज़िंदगी का मुकाबला करना सिखाओ, आगे की चुनौतियों से वाकिफ कराओ। बीती बातें सिखाकर कमज़ोर मत बनाओ। पुरानी बातों को लेकर कोई करेगा क्या? तुमने तो साइंस पढ़ा है। दिमाग में न्यूरॉन्स मरते रहते हैं, नए नहीं बनते। स्टेम कोशिकाएं वही रहती हैं, लेकिन इंसान का बाहरी जिस्म, उसकी शरीर की सारी कोशिकाएं चौबीस घंटे में एकदम नई हो जाती हैं। तो...मन को नया करो, उसे अतीत की कंदराओं में निर्वासित कर देने का, गुम कर देने का क्या फायदा! - मगर चमड़ी का रंग-रूप तो आपके इतिहास-भूगोल और खानदान से तय होता है।

सात-सात-सात, कहां-कोई-साथ

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मतीन ने अपने कागज-पत्तर संभाल लिए। एक सूटकेस, हैंडबैग...बस यही वह अपने साथ लेकर जानेवाला था। बड़े जतन से खरीदी गई ज्यादातर किताबें तक उसने वहीं अपने कमरे में छोड़ दीं। उसे पता था कि इस घर और इस कमरे में लौटना अब कभी नहीं होगा। फिर भी, उसने बहुत कुछ यूं ही बिखरा छोड़ दिया जैसे कल ही उसे लौटकर आना हो। वैसे, उसे ये भी यकीनी तौर पर पता था कि उसके चले जाने के बाद उसके कमरे में अम्मी के सिवाय कोई और नहीं आएगा, कमरे को उसके पूरे मौजूदा विन्यास के साथ किसी गुजर गए अपने की याद की तरह आखीर-आखीर तक सहेज कर रखा जाएगा। यही कोई सुबह के चार-सवा चार बजे रहे होंगे, जब मतीन अपने कमरे से हमेशा-हमेशा के लिए नीचे उतरा। दिल्ली की गाड़ी सुबह आठ बजकर दस मिनट पर छूटती थी। लेकिन उससे घर में और ज्यादा नहीं रुका गया। नीचे उतरा तो अब्बू से लेकर अम्मी तक के कमरे की लाइट जली हुई थी। लेकिन कमरे में कोई नहीं था। अब्बू अम्मी को साथ लेकर कहीं चले गए थे। मतीन को लगा, ये अच्छा ही हुआ। नहीं तो बेवजह का रोनाधोना होता। वह वक्त से दो घंटे पहले हावड़ा स्टेशन पहुंच गया। पुराना सब कुछ छोड़ने से पहले वह दिल्ली जा रहा था, अपनी बहन

रात के तीसरे पहर रो उठा सितार

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उधर नोटिस छपते ही ये खबर अखबारों की सुर्खियां बन गई। उस्ताद के पास फोन पर फोन आने लगे। रिश्तेदारों से लेकर नेताओं और संगीतकार बिरादरी तक में कुतूहल फैल गया। पूरा तहलका मच गया। उस्ताद ने आखिरी कोशिश की और मतीन की अम्मी को उसे बुलाकर लाने को कहा। आपको बता दें कि अम्मी का नाम कभी मेहरुन्निशा खातून हुआ करता था। लेकिन शादी के बीते चालीस सालों में उनका नाम मतीन की अम्मी, असलम की बुआ और सईद की खाला ही बनकर रह गया है। उस्ताद किसी जमाने में उन्हें बेगम कहकर बुलाते थे। लेकिन मतीन के जन्म, यानी पिछले तेइस सालों से मतीन की अम्मी ही कहते रहे हैं। मेहरुन्निशा का कद यही कोई पांच फुट एक इंच था, उस्ताद से पूरे एक फुट छोटी। दूसरी बंगाली औरतों की तरह उस नन्हीं जान ने कभी पान नहीं खाया। हां, उस्ताद के लिए पनडब्बा ज़रूर रखती थी। बच्चों के अलावा किसी ने बगैर पल्लू के उनका चेहरा नहीं देखा। हमेशा उस्ताद के हुक्म की बांदी थी। लेकिन आज मतीन के पास वे उस्ताद के हुक्म से ज्यादा अपनी ममता से खिंची चली गईं। - नन्हकू, तू हमेशा मुझसे दूर रहा। कभी पढ़ाई के लिए तो कभी नौकरी के लिए। फिर भी दिल को तसल्ली रहती थी। लगता था