धरती नहीं रोती, मगर कलपता है इंसान
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अपने यहां लोकतंत्र के नाम पर संसद, विधानसभाओं, शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव होते हैं। बहुमत-अल्पमत का ऐसा हिसाब-किताब है कि कुल 40 फीसदी वोट पाकर भी किसी पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ सकता है और 33 फीसदी के पासिंग नंबर पाकर भी कोई पार्टी सरकार बना सकती है। कई बार आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बातें चलीं, जन-प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की चर्चाएं भी उठीं, लेकिन हमारे लोकतंत्र को ऐसे सुझाव आज तक हजम नहीं हुए। लोकतंत्र का मतलब महज चुनाव नहीं होते, बल्कि निर्णय लेने में सक्रिय और सार्थक भागीदारी ही सच्चा लोकतंत्र ला सकती है।
हम तो ऐसा समाज चाहते हैं जो मानव के संपूर्ण विकास को सुनिश्चित करे, जिसमें हर किसी को अपने व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास का अधिकार हो, जिसमें हर कोई अपनी सृजनात्मक क्षमता का अधिकतम संभव विकास कर सके और एक लोकतांत्रिक समाज के हित में अपनी क्षमता के अनुरूप हरसंभव योगदान दे सके। मुझे लगता है कि ऐसा होना चाहिए। लेकिन क्या होना चाहिए और क्या है, अभी इसमें भारी फासला है। हमारी सृजनात्मक संभावना का पूरा विकास नहीं हो रहा है। हमारी क्षमताओं के मामूली अंश का इस्तेमाल हो पा रहा है, जबकि बाकी हिस्सा हमारे भीतर घमासान मचाता रहता है।
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सवाल ये है कि लोग अपनी क्षमता और संभावनाओं का विकास कैसे करें? कैसे इंसान का संपूर्ण विकास हो सकता है। जवाब है कि सार्वजनिक मामलों के प्रबंधन पर नियंत्रण, उसके निर्माण और उस पर अमल में लोगों की भागीदारी ही वो तरीका है जिसके किसी का व्यक्तिगत और सामूहिक विकास संभव है। सक्रिय, सचेत और संयुक्त भागीदारी से ही हर मानव की सृजनात्मक क्षमताओं का विकास हो सकता है।
लेकिन समाज के साथ-साथ अपने में भी बदलाव लाना जरूरी है। हमें राजनीतिक ताकत के इस्तेमाल के लिए खुद को अभी से तैयार करना होगा। हालात को बदलना है तो खुद को भी बदलना होगा। ये दोनों प्रकियाएं एक साथ चलती हैं, थोड़ा इधर-उधर हो सकता है। मगर पहले ये और बाद में वो की बात, नहीं चल सकती।
Comments
जनसंख्या का रोना पहली जमात के लोग रो रहे हैं.
बाबा की बात बताते हैं. राजस्थान के अलवर के निवासी. ज्यादा उम्र नहीं है, कोई 55 साल के हैं. किसान हैं. अलवर की पुनर्जिवित नदी अरवरी के सांसद हैं. दिल्ली आये थे, एक सेमिनार में यह बताने कि पानी का क्या मोल है. उन्होंने एक बात कही थी. आदमी ज्यादा हो गये हैं क्यों रोते हो. बोलो न सबको कि हर आदमी एक पेड़ लगाए. जितने ज्यादा आदमी उतने ज्यादा पेड़.
जीवन के बारे, प्रकृति और मनुष्य के बारे में एक सोच यह भी है.
शुक्रिया