तस्वीर का फ्रेम अधूरा है कलाम साहब

यहां मैं मुंबई का एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा। मुंबई महानगरपालिका ने पिछले साल मुंबईवासियों के लिए एक बीमा करवाया। इसमें प्रावधान था कि मुंबई में जो कोई भी प्रॉपर्टी टैक्स भरता है, अगर वह या उसके परिवार का कोई सदस्य दुर्घटना का शिकार हो जाए तो उसे एक लाख रुपए तक का मुआवजा दिया जाएगा। इस स्कीम की मियाद अगले महीने अगस्त में खत्म हो रही है, लेकिन बीएमसी ने इस स्कीम के बारे में मुंबईवासियों को बताना ज़रूरी नहीं समझा। बीमा कंपनी को करोड़ों का प्रीमियम मिल गया और सरकारी अमले को लाखों का कमीशन। कलाम साहब, क्या इनकी गरदन पकड़ने की जरूरत नहीं है?
मुंबई का ही एक और उदाहरण। कुछ महीने पहले शहर में सफाई अभियान चलाया गया। जो भी सार्वजनिक जगहों पर थूकते या पेशाब करते पकड़े गए, उन्हें पकड़ कर थूक साफ करवाया गया, जुर्माना लगाया गया, अखबारों में फोटो छपवाए गए और टेलिविजन पर खबरे चलवाई गईं। लेकिन शहर प्रशासन यह तो बताए कि उसने कितने नए पेशाब घर बनवाए हैं या कहां-कहां कचरे के डिब्बे लगवाए हैं। रेलवे स्टेशन पर आप उतरें तो चिप्स का रैपर या कागज हाथ में लेकर टहलते रहते हैं, आपको कहीं कचरे का डिब्बा नहीं मिलता। बस स्टॉप, समुद्री तटों और दूसरी सार्वजनिक जगहों का भी यही हाल है। कलाम साहब, क्या सिंगापुर, टोक्यो और न्यूयॉर्क में भी आपको यही सूरते-हाल नज़र आता है?
हर आदमी अपना घर साफ रखता है। विदेश जाता है तो सड़क से लेकर सभी सार्वजनिक जगहों पर सफाई का पूरा ख्याल रखता है। लेकिन वही आदमी भारत की सड़कों पर उतरते ही कैसे बदल जाता है? ये कैसा विरोधाभास है! क्या भारत की मिट्टी, यहां की आबोहवा उसे गैर-जिम्मेदार बना देती है? सच ये है कि हमारे यहां नियम नहीं हैं और अगर हैं भी तो उन्हें लागू करने की व्यवस्था लचर है।
हम मानते हैं कि हमारे यहां लोगों में सिविक सेंस का विकास नहीं हुआ है। लेकिन ये भी तो देखना पड़ेगा कि ट्रैफिक पुलिस को अपनी औकात की धौंस दिखानेवाले लोग कौन-से हैं। ऐसे लोग विदेश में भी ट्रैफिक पुलिस को घूस खिला देते, लेकिन उन्हें पता होता है कि घूस देने के लिए ट्रैफिक नियम तोड़ने से कहीं ज्यादा सज़ा मिलेगी। आम आदमी तो जगह-जगह पान की पीक नहीं थूकता। ये काम वो करते हैं जिनका रुतबा समाज में है। तो रुतबेवालों को टाइट करो! उनको क्यों नसीहत दे रहे हो, जो पहले से डरे रहते हैं, हर नियम का पालन करते हैं। समय पर टैक्स-रिटर्न भरते हैं। खिड़की पर लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं।
इतिहास गवाह है कि सालों-साल के अनुशासन से लोगों की जड़ से जड़ आ

वैसे कलाम साहब, आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि निरपेक्ष सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती। आप व्यक्ति की जिन जिम्मेदारियों की बात कर रहे हैं, वे यकीनन सही हैं, लेकिन उस समाज में जब राजसत्ता का विलोप हो जाएगा, स्टेट-लेस सोसायटी बन जाएगी। उसी तरह जैसे यह नीति वाक्य कि मेहनत करे इंसान तो क्या चीज़ है मुश्किल, अवसरों की समानता देनेवाले किसी विकसित देश के लिए 100 % सच है, लेकिन भारत जैसे असमान अवसरों वाले देश के लिए यह महज एक अधूरा सच है।
पुनश्च : कृपया राष्ट्रपति कलाम के संदेश और इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद साइडबार में पेश सवाल का जवाब ज़रूर दें, ऐसी मेरी गुजारिश है। शुक्रिया...
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