महामहिम की नसीहत

अगले मंगलवार, 24 जुलाई को राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति भवन से विदा ले लेंगे। उन्होंने अभी कुछ दिन पहले ही हैदराबाद में एक भाषण दिया था, जिसे बाद में उन्होंने ई-मेल के जरिए लाखों लोगों को भेजा और उसे दूसरों को फॉरवर्ड करने को भी कहा। काका कलाम के उसी संदेश का हिंदी अनुवाद मामूली संपादन के साथ पेश कर रहा हूं। बहुतों को उनकी बातें एकदम वाजिब लग सकती हैं, लेकिन उनकी नसीहत इस नाचीज़ के गले नहीं उतरती। क्यों, ये बाद में, पहले महामहिम की नसीहत...
क्या आपके पास अपने देश के लिए 10 मिनट है? अगर हां, तो इसे पढ़ें, वरना जैसी आपकी मर्जी।
आप कहते हैं कि हमारी सरकार अक्षम है। आप कहते हैं कि हमारे कानून काफी पुराने पड़ चुके हैं। आप कहते हैं कि नगरपालिकाएं कचरा नहीं उठाती हैं। आप कहते हैं कि फोन काम नहीं करते, रेलवे मजाक बन गई है, एयरलाइन की हालत दुनिया में सबसे खराब है, चिट्ठियां कभी अपने पते पर नहीं पहुंचतीं। आप कहते हैं कि देश का सत्यानाश हो चुका है। आप कहते हैं और कहते ही रहते हैं। लेकिन आप इस बारे में करते क्या हैं?
मान लीजिए कि आप सिंगापुर जाते हैं। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आप दुनिया की बेहतरीन सुविधाओं से रूबरू होते हैं। सिंगापुर में आप सिंगरेट के टुकड़े सड़क पर नहीं फेंकते। आप वहां मुंबई के माहिम कॉजवे या पेडर रोड जैसी ऑर्चर्ड रोड पर शाम को 5 से 8 बजे के बीच ड्राइव करते हैं तो 5 सिंगापुरी डॉलर (करीब 60 रुपए) अदा करते हैं। आप दुबई में रमजान के दौरान सार्वजनिक जगहों पर खाने की हिमाकत नहीं करते। आप जेद्दा में सिर को कपड़े से ढंके बिना निकलने की जुर्रत नहीं करते। आप लंदन में टेलिफोन एक्सचेंज के कर्मचारी को हर महीने 10 पौंड (650 रुपए) घूस इस काम के लिए नहीं दे सकते कि वह आपके एसटीडी और आईएसडी चार्जेज किसी दूसरे के बिल में डाल दे। आप वॉशिंग्टन में 88 किमी/घंटा से ज्यादा की स्पीड से ड्राइव नहीं करेंगे और फिर ट्रैफिक पुलिस से ये नहीं कहते कि जानता है मैं कौन हूं। ये ले सौ का पत्ता और फूट ले। आप ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीचों पर नारियल पानी पीने के बाद उसका खोल कचरे के डिब्बे के अलावा कहीं और नहीं फेंकते।
आप टोक्यो की सड़कों पर पान की पीक क्यों नहीं थूकते? आप बोस्टन में दलालों के जरिए फर्जी सर्टीफिकेट क्यों नहीं खरीदते? आप दूसरे देशों के विदेशी सिस्टम का पालन कर सकते है, उनका आदर कर सकते हैं, लेकिन अपने देश में ऐसा नहीं करते। भारत की धरती पर पहुंचते ही आप कागज या सिगरेट के टुकड़े कहीं भी सड़क पर फेंक देते हैं। अगर आप किसी गैर मुल्क में ज़िम्मेदार नागरिक बन सकते हैं तो अपने मुल्क भारत में आपको क्या हो जाता है?
हम चुनावों में वोट देकर सरकार चुनते हैं और फिर सभी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ लेते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार हमारे लिए सब कुछ करे, जबकि खुद हमारा योगदान पूरी तरह नकारात्मक होता है। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार सफाई करे, पर खुद सड़क पर पड़ा कागज का एक टुकड़ा भी उठाकर कचरापेटी में नहीं डालते। हम उम्मीद करते हैं कि रेलवे साफ बाथरूम मुहैया कराए, लेकिन खुद बाथरूम के सही इस्तेमाल का तरीका सीखने की जहमत नहीं उठाते। हम इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया से चाहते हैं कि वो सबसे अच्छा खाना और साफ-सफाई की सुविधा दे, लेकिन ज़रा-सा मौका मिलते ही हम गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते।
हम दहेज और बच्चियों की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक समस्याओं पर गरमागरम बहस करते हैं, लेकिन अपने घरों पर इसका ठीक उल्टा करते हैं। और बहाना क्या होता है? यही कि पूरा सिस्टम बदलना होगा। मैं अपने बेटे के लिए दहेज न लूं तो क्या फर्क पड़ जाएगा। ...तो ये सिस्टम आखिर कौन बदलेगा?
फिर, सिस्टम बनता किससे है? बेहद सुविधाजनक तरीके से हम मान लेते है इसमें हमारे पड़ोसी, हमारा मोहल्ला, दूसरे शहर, दूसरे समुदाय और सरकार आते हैं। लेकिन यकीनन, हम खुद नहीं आते। जब सिस्टम में वाकई सकारात्मक योगदान की बात आती है तो हम खुद को अपने परिवार के साथ सुरक्षित खोल में बंद कर लेते हैं। हम या तो उम्मीद पाले रहते हैं कि कोई मिस्टर क्लीन आएगा जो हाथ घुमाकर सारी समस्याओं को हल कर देगा या हम देश ही छोड़कर भाग खड़े होते हैं।
काहिल कायरों की तरह हम डरकर अमेरिका चले जाते है और उनके सिस्टम की तारीफ करते हैं। न्यूयॉर्क असुरक्षित हो जाता है तो इंग्लैंड का रुख कर लेते हैं। इंग्लैंड में बेरोज़गारी बढ़ती है तो हम अगली फ्लाइट पकड़ कर खाड़ी के देशों में पहुंच जाते हैं। जब खाड़ी में युद्ध छिड़ जाता है तो हम भारत सरकार से मांग करते हैं कि वह हमें सुरक्षित बाहर निकाले। हर कोई देश को गाली देता है। कोई सिस्टम को सही करने के बारे में नहीं सोचता। हमारा विवेक आज पैसों का गुलाम हो गया है।
प्यारे भारतवासियों, जे एफ कैनेडी ने जो बात अमेरिकियों से कही थी, वैसी ही बात मैं आपसे कहना चाहूंगा, ‘पूछो कि तुम देश के लिए क्या कर सकते हो और वह करो जिससे भारत को आज के अमेरिका या दूसरे पश्चिमी देशों जैसा बनाया जा सके।’
शुक्रिया...
डॉ. अब्दुल कलाम

Comments

Yunus Khan said…
कलाम साहब मुझे देश के सबसे सुलझे राष्‍ट्रपति लगते हैं । आज ही टी.वी.पर देखा, पत्रकार कुर्सियों पर विराजमान थे और महामहिम कलाम साहब मंच पर फर्श पर बेतकल्‍लुफी से बैठे उनसे चर्चा कर रहे थे । अद्भुत । अनोखा । अद्वितीय । ये आलेख तो सबको मेल करना चाहिये । और प्रार्थना करना चाहिये कि सब अमल करें ।
Sanjay Tiwari said…
अनिल जी इस पत्र में कुछ बातों से सहमत लेकिन कुछ से असहमत. असहमति के तर्क बहुत लंबे हैं, यहां सिर्फ इतना कहूंगा कि कलाम साहब की हर बात को अहोभाव से न देखा जाए.
Udan Tashtari said…
अनिल भाई

आपकी लेखनी का मैं हमेशा से मुरीद हूँ, शायद बेहतर शब्द होगा गुलाम हूँ. कुछ भी विरोध में नहीं कह सकता.

बस यही कहना चाहता हूँ कि कलाम साहब व्यक्ति के रुप में पूजनीय हैं. उनके विचार पूजनीय हैं मगर न जाने क्यूँ जब अमल करने की बात आई राष्ट्रपति के तौर पर, तो सभी सिद्ध व्यक्तियों की तरह वो मुझे कुछ जंजीरों में जकड़े से लगे और यह सिद्ध करते नजर आये कि कह देना सरल है, अमल करना मुश्किल...न जाने आप अगली कड़ी में क्या कहने जा रहे हैं. मगर अगर मैने ज्यादा कह दिया हो तो पहले ही क्षमा मांग लेता हूँ. अल्प बुद्धी हूं और अपनी समझानुसार लिख दिया. :)

मुझे तो उनके पूरे कार्यकाल में अफजल की फांसी रोके जाने के सिवाय कोई भी उल्लेखनीय बात समाचारों में तो नजर नहीं आई, मेरी सूचना का आधार समाचार ही हैं और यह तो हर आम नागरिक की नजर में गलत था. बस एक डिसिजन और वो भी आपत्तीजनक...अब सोनिया जी की बात मत उठाईयेगा...वो प्रेशर पालिटिक्स थी..सोचे समझे षडयंत्र क तहत. :) उसे ज्ञानी POA यानि पॉलिटिक्स ऑफ एडजेस्टमेंट भी कहते हैं. :) जैसे नरसिंह राव के समय POP चला करती थी..पॉलिटिक्स ऑफ पोस्टपोनमेन्ट...याद आया??? हर चीज सो कर टाल दो, अपने आप समस्या हल हो जायेगी.

भाई, आपके विचारोतेजकलेख के लिये साधुवाद. मेरे व्यवहार के खिलाफ आपकी चाहत में लंबी टिपाणी हो गई. प्यार से लेना. :) यही आशा है कि नाराज नहीं होए मुझसे वरना टीप डिलिट कर देना.
कलाम साहब के सवाल और हमारी समझ के बीच का फर्क पूछता है कि पहले मुर्गी या पहले अंडा। ज़िम्मेदारी एक दूसरे पर डालने की बात है और कुछ नहीं।

पर आपके तर्कों का इंतज़ार रहेगा।

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