अंधेरे में झांकती आँखें

दस बाई दस का एक सीलन भरा कमरा। कोने में एक मेज और कुर्सी। मेज पर कि

हर साल दसियों हज़ार छात्र इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, गोरखपुर और दिल्ली के विश्वविद्यालयों का रुख करते हैं। नौकरी की आस में पहले बीए, फिर एमए, फिर एलएलबी या रिसर्च करते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं में अपनी उम्र के सुनहरे बरसों के पृष्ठ काले करते रहते हैं। भारत में जनसंख्या वृद्धि की औसत दर 2 % है जबकि बेरोजगारी की दर 12 % है। पुराने कल-कारखानों और दफ्तरों में नई नियुक्तियां लगभग बंद हैं, उल्टे छंटनी का क्रम भी जारी है। ऐसे में यह

स्वाधीनता के इतने सालों बाद भी एक स्वायत्त और आत्मनिर्भर चेतना का विकास अवरुद्ध है। आमतौर पर युवाओं में अफसर बनने के सपने गहरी पैठ बना चुके हैं। ह्वाइट कॉलर्ड इम्प्लॉयमेंट की ओर एकतरफा रुझान ने कई विडंबनाओं को जन्म दिया है। अंग्रेजी बोलना, आरामपरस्त जीवन की आकांक्षा और इस क्रम में अपनी ज़मीन से कटते जाना इसके स्वाभाविक नतीजे हैं।
आईएएस और पीसीएस के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने और विफल होने की कथा बार-बार दोहराई जाती है। कम्पटीशन का यह गोरखधंधा नौजवान को असमय ही बूढ़ा-झक्की और दंभी बना देता है। समय बीतने के साथ-साथ कुंठा का रूप कई बार आत्महत्या, आत्म-उत्पीड़न, अपराध, नशे और मूल्यहीनता में बदल जाता है। और अक्सर ही विफलताओं की यह अंतहीन कहानी उसे तन्हा और व्यक्ति-केंद्रित बनाकर छोड़ जाती है। ये दसियों हज़ार युवक, जो अपनी तरुणाई में अपार संभावनाएं संजोए हुए थे, अब ऊब और थकान की साक्षात प्रतिमूर्ति बनते जाते हैं।

प्रश्न उठता है कि बड़े पैमाने पर पैदा हो रही बेरोज़गारों की इस जमात को क्या किसी रचनात्मक दायरे में लाया जा सकेगा? क्या इन युवाओं में बढ़ता जाहिल व्यक्तिवाद और भविष्य की असुरक्षा इनमें इतनी शक्ति भी शेष छोड़ पाएगी कि राष्ट्र के निर्माण में ये अपनी भूमिका तय कर सकें?
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