Posts

Showing posts from 2007

नए साल में इस गुनाह से बचाना मेरे मौला

Image
अभी-अभी एक मनोहारी धुन कानों में बजी। एक सुंदर एहसास मन के ऊपर से निकल गया। एक मुलायम-सी सुंदर अनुभूति लहराती हुई पास से गुजरी। किसी कोमल भाव का पंख पलकों की बरौनियों को सहलाता हुआ उड़ गया। रंग-बिरंगी तितलियां छोटी-बड़ी, खूबसूरत परिंदे छोटे-बड़े-मझोले। तेज़ी से तय-ताल में उड़ते झुंड के झुंड। चारो तरफ मंडराती लगातार बहती हुई रंग-बिरंगी छवियां जैसे रिमझिम फुहारों में उड़ते अनंत इंद्रधनुष। इस पल हैं, अगले पल फ्रेम से बाहर, दिल-दिमाग आंखों से ओझल। सेकंड भी नहीं लगे और उड़ गईं छवियां। जितनी देर में झुकी पलक ऊपर उठी, आंख खुली, बस इत्ते में ही छवियां-आकृतियां गायब हो गईं। यहां-वहां, जहां-तहां, नीचे से ऊपर, दिग-दिगंत हर तरफ निहारा, ढूंढा। कहीं नहीं दिखतीं। बस, रह गए तो गालों और बालों पर लगे तितलियों के रंग, फूलों के पराग कण, कपड़ों से उलझे खूबसूरत परिंदों के इक्का-दुक्का पंख। सब अपने निशान छोड़कर चले गए। और, जो चला गया, वह कहां लौटकर आता है उसी रूप में? वक्त के साथ सारे के सारे झुंड उड़ गए। एक रिक्तता का एहसास पीछे छोड़कर। उन्हें दर्ज न करने के अपराध बोध की फांस में जकड़कर रह गए हम। लेकिन हे स

मोदी ही महात्मा गांधी के असली वारिस हैं

Image
सारे के सारे मोदी-मुदित ब्लॉगिए कल से ही मंद-मंद मुस्करा रहे हैं। कोई लगातार मोदी-पुराण लिख रहा है तो कोई नतीजे आने से पहले तक मोदी के खिलाफ लिखनेवालों से पंगा ले रहा है। कोई कह रहा है रात गई, बात गई। मोदी की ऐतिहासिक जीत के साथ ही उस पर आई प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण हो रहे हैं। नमो के खिलाफ भी लिखा जा रहा है, लेकिन उसमें पहले जैसी तल्खी नहीं है। दिक्कत ये भी है जो तल्खी से लिख सकते थे वे अभी लव स्टोरी लिखने में व्यस्त हैं। मैं अभी तक इस मसले पर नहीं लिख सका, इसके लिए अंदर ही अंदर अजीब-सा अपराध बोध महसूस कर रहा था। इसलिए न-न करते हुए भी लिखने बैठ गया। पहली बात। मैं अपनी सीमित जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि व्यक्तिगत जीवन में मोहनदास कर्मचंद गांधी जितने पाक-साफ थे, नरेंद्र दामोदरदास मोदी उतने ही पाक-साफ हैं। गुजराती होने के अलावा इन दोनों में एक और समानता है। जिस तरह गांधी ने पूरी आज़ादी की लड़ाई के दौरान हमेशा संगठन और संस्थाओं की अनदेखी की, कभी भी निचले स्तर के संगठनों को नहीं बनने दिया, उसी तरह मोदी ने भी सरकारी संस्थाओं की ही नहीं, बीजेपी और संघ तक की अनदेखी की है। जिस तरह जनता

तुम किसकी चाकरी करते हो, कमलनाथ!

Image
यह सवाल मैं किसी और से नहीं, छिंदवाड़ा के एमपी और वाणिज्य व उद्योग मंत्री कमलनाथ से पूछना चाहता हूं। इसकी वजह यह है कि एक खबर के मुताबिक कमलनाथ ने 15-20 दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि अमेरिकी मोटरसाइकिल Harley Davidson पर आयात शुल्क 60 फीसदी से घटा दिया जाए। 105 साल पुराने Harley Davidson को अमेरिका का नास्टैल्जिया बाइक ब्रांड माना जाता है। इसकी सबसे कम पावर वाली बाइक 883 सीसी की है, जबकि सबसे ज्यादा पावर वाली बाइक 1450 सीसी की है। कंपनी दो सालों से जुगाड़ में लगी है कि उसे किसी तरह अपना माल भारतीय बाज़ार में खपाने की सहूलियत मिल जाए। हमारे वाणिज्य मंत्री कंपनी की इसी सहूलियत के लिए प्रधानमंत्री से गुजारिश कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि Harley Davidson की सबसे सस्ती बाइक की कीमत 6600 डॉलर है, जबकि अगले साल लांच होनेवाली बाइक की कीमत 17,600 डॉलर से ज्यादा है। 60 फीसदी ड्यूटी लगने के बाद भारत में इनकी कीमत 4 लाख से 12 लाख रुपए तक हो जाएगी। इसलिए कंपनी लगातार लॉबीइंग कर रही है कि ड्यूटी कम से कम कर दी जाए। कंपनी भारत में इन मोटरसाइकिलों को बनाने की सुविधा लगा

न होता मैं तो क्या होता? कुछ नहीं होता...

Image
इधर काफी दिनों से मन एकदम बुझा-बुझा हुआ है। न कुछ लिखने का दिल करता है, न पढ़ने का। सिर को जब तक हाथ से पकड़े रहो, तभी तक सीधा रहता है। टेक हटते ही मुर्दे के सिर की मानिंद इधर-उधर लुढ़क जाता है। ऐसा नहीं कि दिमाग में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, विचार और भाव नहीं आते, लेकिन वे इस तरह डूब जाते हैं जैसे उस कहानी में गन्ने के रस में पूड़ियां डूब जाती थीं। हुआ यह कि दो यादव भाई जबरदस्त भोजनभट्ट थे। बड़ा भाई शादीशुदा था, जबकि छोटे के लिए अभी देख-नहरू चक्कर लगा रहे थे। बड़ा भाई ससुराल गया तो छोटा भी पीछे लग गया। ससुराल वाले उनके खाने की ख्याति से भलीभांति वाकिफ थे। अभी की तरह यही कोई दिसंबर-जनवरी का महीना था। गन्ना कटकर घरों में आने लगा था। तो, घर में भीतर-बाहर बात करने के बाद ससुराल वालों ने तय किया कि पहले दोनों भाइयों को जमकर गन्ने का रस पिलाया जाएगा और उसके बाद पूड़ी वगैरह खिलाई जाएगी। गन्ने के रस से पेट भर जाता है तो दोनों भाई पूड़ी ज्यादा नहीं खा पाएंगे। गन्ने का रस पेश किया गया तो दोनों भाई कई बाल्टी रस डकार गए। फिर खाने बैठे। पूड़ियां आती गईं, दोनों निगलते गए। करीब सौ पूड़िया खाने के ब

शंकर का दर्शन मिटेगा, गीता किताब भर बचेगी

Image
किसी राष्ट्र की सोच और संस्कृति बहुत धीरे-धीरे बदलती है। राजनीति तो पांच-दस साल में ही उलट की पुलट हो सकती है, लेकिन सोच और संस्कृति के लिए पचास-सौ साल भी कुछ नहीं होते। लेकिन कभी-कभी यह अचानक इतनी तेज़ी से बदलने लगती है जैसे कहीं से कोई भूचाल आ गया हो। मुझे लगता है कि हम लोग द्रुत परिवर्तन के इसी दौर के साक्षी हैं। शायद 25 से 45-50 साल की हमारी पीढ़ी वो आखिरी पीढ़ी होगी जो ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या जैसे दार्शनिक सूत्रों को गुनती है। इसके बाद की पीढ़ी के लिए तो रामायण, महाभारत, उपनिषद और गीता-पुराण बस रोचक कहानियों के स्रोत होंगे। जिस तरह लोग बुद्ध की जातक कथाएं पढ़ते हैं, सीत-बसंत की कहानी पढ़ते हैं, अगिया-वैताल की कथा सुनते हैं, वैसे ही इन पोथियों को भी बांचेंगे-पढ़ेंगे। गांवों में 85 फीसदी का आंकड़ा बनानेवाली दलित व पिछड़ी आबादी के लिए गीता, महाभारत, उपनिषद या रामायण कभी भी प्रेरणा के स्रोत नहीं रहे। कबीर या रैदास जैसे संत ही उनका सहारा रहे। बाकी 15 फीसदी सवर्णों को ज़िंदगी ने इतना झिंझोड़कर रख दिया है कि वे संभवत: पुरानी पीढ़ी के साथ इन ग्रंथों का भी क्रियाकर्म कर देंगे। नगरों-महानग

दिमाग बंदकर सुनना हमारी राष्ट्रीय आदत है

Image
सोचिए, कितनी अजीब बात है कि हम किसी को सुनने से पहले ही अपनी सहमति-असहमति तय किए रहते हैं। हम किसी को या तो उससे सहमत होने के लिए सुनते हैं या उसे नकारने के लिए। उसकी बातों के तर्क से हमारा कोई वास्ता नहीं होता। हां तय कर लिया तो सामनेवाले की बस उन्हीं बातों को नोटिस करेंगे जो हमारी मान्यता की पुष्टि करती हों और नहीं तय कर लिया तो बस मीनमेख ही निकालेंगे। असल में हम ज्यादातर सुनते नहीं, सुनने का स्वांग भर करते हैं और कहां खूंटा गड़ेगा, इसका फैसला पहले से किए रहते हैं। घर में यही होता है, बाहर भी यही होता है। हम संस्कृति में यही करते हैं, राजनीति में भी यही करते हैं; और अर्थनीति में तो माने बैठे रहते हैं कि सरकार जो भी कर रही है या आगे करेगी, सब गलत है क्योंकि सब कुछ आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के इशारे पर हो रहा है। यह अलग बात है कि आज आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के सामने खुद को बचाने के लाले पड़े हुए हैं। आईटी सेक्टर में अगर लाखों नौकरियों के अवसर बन रहे हैं तो कहेंगे कि सब बुलबुला है, इसके फटने का इंतज़ार कीजिए। किसी भी नीति को उसकी मेरिट या कमी के आधार पर नहीं परखते। माने बैठे रहते हैं कि हर नीत

ब्लॉग ने खोले हैं अनंत अभिव्यक्तियों के द्वार

Image
" एक बड़ा ही अजीब दृश्य है कि कई सुंदरतम अनुभूतियां विविध नर-नारियों के मन में गुप्त रह जाती हैं। ...और वे अनुभूतियां ऐसी होती हैं जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व साहित्य तैयार हो सकता है। साधारण मनुष्य जिसके पास कलम का ज़ोर या वाणी की प्रतिभा नहीं है, इस विषय में बहुत अधिक दुर्भाग्यशाली है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग रुका हुआ है।" गजानन माधव मुक्तिबोध ने 65 साल पहले छपे अपने एक लेख में यह बात कही थी। लेकिन आज इंटरनेट और हिंदी ब्लॉगिंग ने ‘साधारण मनुष्य’ के इस दुर्भाग्य को खत्म कर दिया है। उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग खोल दिया है। और, अब सचमुच ऐसी-ऐसी अनुभूतियां सामने आ रही हैं और आगे आएंगी कि मुक्तिबोध के शब्दों में, “जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व साहित्य तैयार हो सकता है।” मैं तो इस समय ब्लॉगिंग और साहित्य पर छिड़ी बहस को लेकर यही कहना चाहता हूं। ऐसा नहीं है कि पहले आम लोग लिखते नहीं थे। डायरी लिखते थे। कविताएं और कहानियां लिखते थे। कुछ जिद्दी लोग उपन्यास भी लिखते थे। लेकिन उन्हें पढ़नेवाले गिने-चुने थे। आज जहां हिंदी साहित्य में जब कोई किताब 600 प्रतियां बिकने पर

आईआईटी-आईआईएम तक में मची है खलबली

Image
जबरदस्त संक्रमण का दौर है। भयंकर मंथन चल रहा है। लोग विचलित हैं कि सब कुछ दुरुस्त क्यों नहीं हो रहा। सर्वे भवंति सुखिन: सर्वे संतु निरामया की स्थिति क्यों नहीं आ रही? आस्था का संकट क्यों है, मूल्य क्यों मिट रहे हैं, परंपराएं विकृत क्यों हो जा रही है? हमारे लोकतंत्र में इतनी खोट क्यों है? इतना भ्रष्टाचार क्यों है? ये मंथन हर आम संवेदनशील हिंदुस्तानी के मन में चल रहा है। यहां तक कि जिनके सामने सुरक्षित भविष्य के सबसे शानदार अवसर है, वो भी इन सवालों से बेचैन होकर कॉरपोरेट करियर को लात मार रहे हैं। जी हां, आईआईटी और आईआईएम के कैम्पस तक में समाज को बेहतर बनाने की पहल हो रही है और जिसको जितना समझ में आ रहा है, वह उतना कर रहा है। जैसे, आईआईएम कोलकाता के अरीब खान को ही ले लीजिए। इसी साल अप्रैल में उनका ग्रेजुएशन पूरा हुआ है; और उन्होंने किसी देशी-विदेशी कंपनी में जाने के बजाय एक वेबसाइट बना डाली, जिसका नाम रखा है पर्दाफाश डॉट कॉम। इनका मिशन है कि आम आदमी अपने अधिकारों के वाकिफ हो और सिस्टम से दो-दो हाथ करने को तैयार हो जाए। आज पर्दाफाश के पास पूरी टीम है। इसके खास सदस्यों में शामिल हैं आईआईटी

तर्क से निकली आधुनिकता फंसी है संकट में

Image
हर शब्द के पीछे एक धारणा होती है और हर धारणा का एक इतिहास होता है। हां, इतना ज़रूर है कि ग्लोबीकरण के इस दौर में धारणाओं का भूगोल देशों की हदें पार कर गया है। अक्सर हम शब्दों का इस्तेमाल किए चले जाते हैं, लेकिन उनका ऐतिहासिक अर्थ नहीं जानते। ऐसा ही एक आम शब्द है आधुनिकता। कुछ दिनों पहले मुझे ब्राजील के लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता Frei Betto का एक छोटा-सा लेख पढ़ने को मिल गया, जिससे मुझे आधुनिकता को जानने-समझने में मदद मिली है। अगस्त 2004 में लिखा गया यह लेख शायद आपके भी काम का हो। पेश है उसका अनुवाद... पिछली चार सदियों चला आ रहा आधुनिकता का युग अब संकट में है। इस युग की शुरुआत 17वीं सदी में यूरोप के सांस्कृतिक आंदोलन पुनर्जागरण (Renaissance), अमेरिका व ब्राज़ील की खोज और मध्यकाल व सामंती युग के खात्मे के बाद पूंजीवाद के आगमन से हुई थी। अब तो इक्कीसवीं सदी में कुछ ऐसा आ गया है जिसे हम मोटे तौर पर उत्तर-आधुनिकता कहते हैं। इससे हमारे अब तक के संदर्भ और प्रतिमान निश्चित तौर पर बदल जाएंगे। मध्य युग में सभी संस्कृतियां देवी-देवता के इर्दगिर्द चक्कर काटती थी। इन सबके केंद्र में भगवान था। जबकि

कैसी मायूसी या तवज्जो! ये तो सरासर झूठ है

Image
क्या दिल्ली का कोई भी ब्लॉगर, सृजन शिल्पी के अलावा, कह सकता है कि 17 नवंबर को 11 बजे दिन से लेकर 24 नंवबर की शाम 4 बजे तक दिल्ली में रहने के दौरान मैं उनसे मिला या उन्हें फोन किया? मैं तो सालों से टलते आ रहे अपने जिन तीन-चार निजी कामों के सिलसिले में दिल्ली गया था, वो ही पूरा हफ्ता खा गए। फिर भी एक काम रह ही गया। हां, मेरी इच्छा ज़रूर थी कि दिल्ली के ब्लॉगर बंधुओं से एक साथ बैठकर कुछ गलचौर की जाए। लेकिन यह कहना कि ‘मुंबई से आए अनिल रघुराज को नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद दिल्ली में किसी ने खास तवज्जो नहीं दी’ मेरे ख्याल से सरासर गलत और निराधार है। फिर भी दिल्ली के विनीत जी ने जनसत्ता के साप्ताहिक कॉलम ब्लॉग-लिखी का जिक्र करते हुए मेरी मायूसी और चिंता की बात लिखी है और मेरे साथ सहानुभूति भी जताई है। मैं विनीत जी की भावना की पूरी कद्र करता हूं और उन्हें अपने साथ सहानुभूति जताने के लिए धन्यवाद भी देता हूं। लेकिन मुझे लगता है कि वे जनसत्ता के कॉलम में लिखी बात को शायद गलत समझ गए। मैंने कल दिल्ली के अपने एक मित्र से बीते रविवार (9 दिसंबर 2007) की ब्लॉग-लिखी को फोन पर पढ़वाकर पूरा सुना। यह कॉ

अहा! अद्भुत आनंद है भीड़ की सुरक्षा में

Image
भीड़ से घिरे रहने में किसको आनंद नहीं आता। नेता टाइप लोगों को चेले-चापटों की भीड़ चाहिए होती है। आसपास दस-पांच लोग न रहें तो उन्हें मज़ा नहीं आता। भीड़ जितनी बढ़ती जाती है, उनके भाषण में उतना ओज आता जाता है। लेकिन इनसे इतर बाकी असंख्य लोगों को भीड़ का हल्ला नहीं, उसका एकांत बेहद सुकून देता है। घर में या दफ्तर में तो आप हमेशा सतर्क रहते हैं, सचेत रहते हैं। हमेशा बचाव की मुद्रा में ही रहते हैं। कछुए का कवच बराबर आप पर चढ़ा रहता है। आप उतना ही हाथ-पैर, आंख-मुंह बाहर निकालते हैं जितना बेहद ज़रूरी होता है। बाकी आपका 90-95 फीसदी वजूद खोल के भीतर छिपा रहता है। लेकिन भीड़ के भीतर पहुंचते ही आप उसी तरह खुल जाते हैं जैसे कछुआ पानी के भीतर पहुंचते ही मस्त अदा से तैरने लगता है। भीड़ की यह सुरक्षा अपने गांव, कस्बे या मोहल्ले में नहीं मिल पाती। जहां भी जान-पहचान वाले लोग होते हैं, आप अपनी पहचान के साथ बंधे होते हैं। मास्टर साहब है, बाबूजी है, पत्रकार हैं, अफसर हैं, फलाने के पापा है, फलनवां के बेटे हैं, बड़के लम्बरदार के नाती हैं। इसीलिए इन जगहों पर कभी आप खुल नहीं पाते, अपने में नहीं आ पाते। जी खोलक

गिनी कहती है, सदियों से वैसी ही है विषमता

Image
गिनी बड़ी छलिया है। उसका रूप तो है, मगर वह दिखती नहीं। लेकिन दुनिया भर के नीति-नियामकों के लिए वह बड़े काम की चीज़ है क्योंकि यह वो पैमाना है जिसके किसी भी देश में अमीरी और गरीबी के बीच की खाईं की गहराई नापी जाती है। इसके दो रूप हैं गिनी कोफिसिएंट और गिनी इंडेक्स। इनमें फर्क बस इतना है कि कोफिसिएंट को प्रतिशत में दर्शा दें तो वो इंडेक्स बन जाता है। अगर किसी देश का गिनी इंडेक्स एक है तो मतलब हुआ कि वहां गरीबी-अमीरी में कोई खाईं है ही नहीं और अगर यह 100 है तो मतलब देश में गरीबी-अमीरी में जबरदस्त खाईं है। आज सुबह मैंने मिंट अखबार में एक लेख पढ़ा तो यह जानकर दंग रह गया कि भारत में मुगलकाल से लेकर अब तक गिनी इंडेक्स का आंकड़ा कमोवेश एक जैसा रहा है। मुगल साम्राज्य का पतन हुआ। अंग्रेज आए और चले गए। देश का विभाजन हुआ, आज़ादी मिली। नेहरू का समाजवाद लागू रहा। आर्थिक उदारीकरण की लहर चली। भारत की गिनती दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में होने लगी। लेकिन इस दौरान हम विषमता के मामले में जहां के तहां ठहरे रहे। वाकई गिनी इंडेक्स का आंकड़ा बेहद चौंकानेवाला है। कोई सवाल उठा सकता है कि मुगलकाल में विषमता के

पागल बोलते हैं तो गरियाने क्यों लगते हैं?

Image
उसे अभी तक मैंने बोलते हुए नहीं देखा था। ऑफिस आते-जाते फुटपाथ पर वह रोज़ ही दिख जाता है। जटा-जूट जैसे बाल, बेतरतीब दाढ़ी, गंदे बास मारते कपड़े। अभी तक जब भी देखा तब या तो सोया हुआ रहता या बैठकर अपने-आप से बड़-बड़ कर रहा होता था। लेकिन कल ऑफिस से जल्दी निकलकर लोकल ट्रेन पकड़ने स्टेशन की तरफ जा रहा था तो देखा कि वह खड़ा होकर हाथ हिला-हिलाकर गालियां दे रहा है, वह भी मां-बहन की। कोई उसकी गालियों पर गौर नहीं कर रहा था। लोग एक आंख उठाकर देखते और आगे बढ़ जाते। मैंने भी ऐसा ही किया। लेकिन चलते-चलते सोचने लगा कि सालों से अपना संतुलन खो चुका यह अधेड़ शख्स किसे और क्यों गालियां दे रहा है? इसके मन में कौन-सी छवि अटक कर रह गई है जिसके लिए इसके मुंह से मां-बहन की गालियां निकल रही हैं? एक और वाकया याद आ गया। लोकल ट्रेन में एक शराबी बूढ़ा गेट के पास किनारे खड़ा सामने देखकर गालियां दे रहा था। बीच के स्टेशन पर एक विद्यार्थी जोड़ा आकर किनारे खड़ा हो गया। बूढ़े को होश नहीं था, लेकिन वह ऊपर नीचे देखकर गालियां दिए जा रहा था। अचानक दो-तीन मिनट बाद क्या हुआ कि लड़के ने ताबड़तोड़ उसे लात-घूसों से मारना शुरू कर

मोदी के जलजले से जलकर डर गई बीजेपी

Image
आज वडोदरा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वही बात कह दी जो सुबह से ही बीजेपी की तरफ से आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने की खबर पढ़ने के बाद मेरे मन में चल रही थी। अराजनीतिक कहे जानेवाले प्रधानमंत्री ने इस मौके पर बेहद राजनीतिक बात कही है कि, “मोदी से खतरा था, इसलिए बीजेपी ने आडवाणी की ताजपोशी कर दी।” यह सच है कि बीजेपी में लालकृष्ण आडवाणी का वरदहस्त नरेंद्र मोदी के ऊपर है और मोदी आडवाणी के काफी करीब हैं। लेकिन यह भी सच है कि इस बार गुजरात का चुनाव जीतते ही मोदी भारतीय जनता पार्टी और आडवाणी के लिए भस्मासुर बन जाएंगे। मोदी ने अपने छह साल के शासन में जिस तरह तमाम संवैधानिक संस्थाओं को दो कौड़ी का बना दिया, उसे देखते हुए उनके सामने पार्टी या संघ परिवार की कोई औकात नहीं है। गुजरात में बीजेपी में छायी बगावत की सबसे बड़ी वजह यही है। वैसे, इधर राजनीति में अजीब-सी बात हो रही है। बीजेपी आलाकमान और संघ परिवार अंदर-अंदर मना रहा है कि मोदी यह चुनाव हार जाएं, जबकि कांग्रेस चाहती है कि मोदी यह चुनाव ज़रूर जीतें। वरना क्या कारण है कि मौत के सौदागर पर सही इल्जाम लगाने के बाद सोनिया गांधी कहन

ब्लॉगर मिलन में वो बात तो रह ही गई

Image
समीरलाल से यह बात शायद अभय ने पूछी थी या हो सकता है बोधि ने पूछी हो, ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा। खैर, जिसने भी जो भी पूछा, उसका सार यह था कि ब्लॉगिंग से आपने अभी तक क्या पाया और क्या खोया है। समीरलाल ठहरे फक्कड़ आदमी। वैसे मोटे लोग आमतौर पर फक्कड़ और हंसोड़ होते हैं। तो, मोटे समीरलाल ने कहा कि खोने की सूरत में तो आप सबको पता चल ही जाएगा। फिर गंभीर होते हुए माहौल को भांपकर बोले कि सबसे बड़ा तो ‘पाया’ यह है कि हर शहर में दोस्त हो गए हैं। कहीं जाकर किसी से यह नहीं बताना पड़ता कि हम फलांने के दोस्त हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है। न परिचय देने की जरूरत, न पहचान का कोई संकट। कहीं भी पहुंच जाओ, ब्लॉगिए मिल ही जाते हैं जो खुद भी मिलने को आतुर रहते हैं। मुंबई में आरे कॉलोनी की घनी वादियों के बीच छोटा कश्मीर के पार्क में जब हम ग्यारह मुंबइया ब्लॉगर जुटे और घास पर गोला बनाकर बैठ गए तो अचानक मैं 25 साल पहले लौट गया। लगा, जैसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीनेट हॉल के सामनेवाले लॉन में बरगद के पेड़ के नीचे फिर से कोई स्टडी सर्किल शुरू होनेवाला हो। लेकिन जब शशि भाई के बैग से निकली बाटी खाने के

जीवन में मरती जाति राजनीति में ज़िंदा क्यों है?

Image
रोज़मर्रा के जीवन में जातियां मर रही हैं। इस प्रत्यक्ष सच को साबित करने के लिए किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं। न ही इसे देखने-समझने के लिए दस सिर और बीस आंखों की दरकार है। इसके लिए बस एक अदद दिमाग और एक जोड़ी आंखें ही काफी हैं। लेकिन आम भारतीय जनजीवन से अलग-थलग पड़ी सत्ता की संरचनाओं में, न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और राजनीति में जातिगत गोलबंदियां कमज़ोर होने के बजाय मजबूत हो रही हैं, इस सच से भी कोई इनकार नहीं कर सकता। यह अलग बात है कि यहां जातियां अपने सार में नहीं, केवल रूप में मौजूद हैं। जाति के एक साथ मरने और ज़िंदा रहने के विरोधाभास को हम सामंती/पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के अमूर्त व वायवी सूत्रीकरण से नहीं समझ सकते। न ही किसी ‘परमज्ञानी’ की तरह जाति के मिटने पर ऐसा कह सकते हैं कि, “कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सामंतवाद की कोई चाल है क्योंकि सामंतवाद में खुद को ढाल लेने की जबरदस्त क्षमता है।” दिक्कत यह है कि हमारे जनवादी विद्वान लोग जब जाति पर बहस करते हैं तो उनका अंदाज़ वैसा ही होता है जैसे वो इतिहास में हुए किसी अन्याय का बदला ले रहे हों। सवर्णों की दुर्दशा पर चटखारे लेने में उन्हें वैस

आज़मगढ़ का कनवा दलित जो प्रोफेसर बन गया

Image
एक हरवाह (बंधुआ मजदूर) का बेटा आज दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है। जी, हां डॉ. तुलसीराम का जन्म आज़ादी के करीब दो साल बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के एक दलित परिवार में हुआ था। इस समय लखनऊ से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका तद्भव में ‘मु्र्दहिया’ शीर्षक से उनकी आत्मकथा छापी जा रही है। इसकी पहली किश्त पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शायद हमारे समय और ग्रामीण समाज का इससे अच्छा दस्तावेज़ कोई और नहीं हो सकता। बानगी के लिए इसके कुछ अंश पेश कर रहा हूं। पूरी किश्त आप तद्भव की साइट पर जाकर जरूर पढ़ें। मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी। मानव जाति का वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था। लगभग तेईस सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आये मिनांदर ने कहा कि आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे पढ़-लिख नहीं सकते। उसके समकालीनों ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, किन्तु आधुनिक भारतीय पंडों ने मिनांदर का खूब खंडन मंडन किया। हकीकत तो यह है कि आज भी करोड़ों भारतीय मिनांदर की कसौटी पर खरा

हम ब्लॉगर साहित्य से बहिष्कृत हैं क्या?

Image
जब से दिल्ली से लौटकर आया हूं, यह सवाल रह-रहकर मन में कील की तरह चुभ रहा है। लगता है कि जैसे हिंदी के हम ब्लॉगर कोई दलित हों, जिसे मंदिर के दरवाज़े से बाहर धकेल दिया गया हो। हुआ यह कि दिल्ली रहने के दौरान अपनी व्यस्तता के बीच से थोड़ा समय निकालकर मैं अपने एक परिचित साहित्कार-पत्रकार से मिलने उनके घर चला गया। वे एक न्यूज़ चैनल में न्यूज के एडिटर हैं। अब चूंकि वे भी ब्लॉगिंग करते हैं और एक नहीं, दो-दो ब्लॉग लिखते-लिखाते हैं, इसलिए न्यूज़ चैनलों की बात करने के बाद उनसे चलते-चलते मैंने हिंदी ब्लॉगिंग पर राय पूछ डाली तो उनका कहना था – जो लोग साहित्य में कुछ नहीं कर पाए या नहीं कर सकते, वही लोग अब ब्लॉगिंग कर रहे हैं। इनमें से गिने-चुने लोग ही काम का लिखते हैं, बाकी तो अखबार में छपने लायक भी नहीं लिखते। मैं यह सुनने के बाद इतना सकपका गया कि अपने ब्लॉग के बारे में उनकी राय पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। इसके बाद अगले दिन न्यूज़ चैनल के दफ्तर में दूसरे ब्लॉगर मिल गए। उनसे मैंने कहा कि आप थोड़ा कठिन और लंबा लिखते हैं। निर्वैयक्तिक-सा लिखते हैं। पढ़ने वाले को दिक्कत होती है और वह आपके लिखे से खुद

ताकि हम धर्म-प्रधान से तर्क-प्रधान देश बन जाएं

Image
आज भी ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या की बात बोलते जाना वैसा ही है, जैसा कि यह कहना कि सूरज धरती के चक्कर लगाता है। कितनी उल्टी बात स्थापित की गई है कि आत्मा सत्य है और शरीर मिथ्या है। जबकि हकीकत यह है कि जीवित शरीर ही पहला और अंतिम सत्य है क्योंकि भूत (संस्कार) और वर्तमान (माहौल) के मेल से जो चेतना बनती है, व्यक्तित्व बनता है, वह शरीर के मरते ही विलुप्त हो जाता है। जिसे हम आत्मा कहते हैं, मरने के बाद शरीर से निकलने वाली ज्योति कहते हैं, उसे हम करोड़ों-अरब जतन कर लें, शरीर से अलग, उसके बिना बना ही नहीं सकते। शरीर और आत्मा सामाजिक ऑर्गेनिक प्रक्रिया में एक साथ वजूद में आते हैं। दोनों को अलग-अलग नहीं बनाया जा सकता। मान लीजिए हम शरीर बना भी लें, लेकिन मानव जाति के हज़ारों सालों के स्थान विशेष के अनुभवों को सूक्ष्मीकृत करके हम उस शरीर में कैसे ट्रांसप्लांट करेंगे? आत्मा-परमात्मा क्या है? यह तो एक सिमिट्री, संतुलन बैठानेवाली चीज़ है। अपने बाहरी संसार और अनुभवों को संतुलित करने के लिए इंसान उसी तरह इनकी रचना अपने अवचेतन, अंदर की दुनिया में करता है, जैसे किसी पेंटिंग को असंतुलित पाकर हम उसके दूसरे ह

कल और आज : दिल्ली के दो जनवादी बुद्धिजीवी

Image
ये तस्वीरें महज तस्वीरें नहीं हैं। ये राजधानी दिल्ली में जनवादी बुद्धिजीवियों के कल और आज का प्रतीक हैं। पहली तस्वीर है आनंद स्वरूप वर्मा की और दूसरी तस्वीर है अविनाश की। दोनों के सांसारिक दर्शन, बौद्धिक सोच और प्रतिबद्धता में काफी समानता है। दोनों दिमागी तौर पर धुर क्रांतिकारी हैं। रंग इतना गाढ़ा है कि कोई और रंग चढ़ ही नहीं सकता। इसके अलावा दोनों में और भी बहुत सारी समानताएं हैं। Disclaimer: इस पोस्ट को चेहरे मिलाने के मेरे पुराने शगल से जोड़कर देखा जाए, व्यक्तिगत छिद्रान्वेषण के रूप में नहीं।

माया ही सच है, भगवान तो बस एक पूर्वाग्रह है

Image
हमारा भगवान हमें हिंसा से नहीं रोकता, व्यभिचार से नहीं रोकता, भ्रष्टाचार से नहीं रोकता। हां, कानून हमें ऐसा करने से ज़रूर रोकता है। लेकिन हम कानून की कम और भगवान की ज्यादा परवाह करते हैं। जिनको ज़रूरत नहीं, वो भी भगवान के दरबार में मत्था नंवाते हैं और जिसे दुनिया-समाज ने तंग कर रखा है, वह तो माने ही बैठे हैं कि भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं। यहां मैं इस पर बात नहीं कर रहा कि भगवान का वजूद है या नहीं। ये सब तो ऊपरवालों का काम है और वे ही इस पर बहस के अधिकारी भी हैं। मैं तो बस यह सवाल उठाना चाहता हूं कि क्या भगवान, आस्था या नैतिकता जैसी मान्यताओं से हकीकत और हमारे बीच का फासला बढ़ता है या मिटता है? प्रकृति से लड़ने की हमारी आदिम ताकत कमज़ोर होती है या बढ़ती है? कहते हैं आस्था से क्या फर्क पड़ता है? एक कोने में पड़ी रहने दो। लेकिन हम इसे कोने में नहीं पड़े रहने दे सकते क्योंकि यह सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा तंग करती है। सोकर उठे तो सोमवार को हे शंभू-कैलाशपति, मंगलवार को जय हनुमान, बुधवार को ऊँ रांग राहवे नम:, गुरुवार को बृं बृहस्पतये नम: ... शुक्र के लिए भी कुछ न कुछ होगा, मुझे पता

अंधा जा पहुंचा अप्सरा का नाच देखने!

Image
आज मुझे दिल्ली वालों से जलन हो रही है, क्योंकि जिस समय मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं, ठीक उसी समय दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर में एक अद्भुत प्रेम कहानी पर बने नाटक ‘Bombay Black’ का मंचन हो रहा है, वह भी हिंदी में। करीब दो घंटे के इस नाटक का निर्देशन अनहिता ने किया है। वैसे, दिल्ली वाले इसे कल शाम भी सात बजे देख सकते हैं। लेकिन मैं बेचारा मुंबई से वहां नहीं पहुंच सकता। इस नाटक की पृष्ठभूमि मुंबई की है। इसे लिखा है अनोश ईरानी ने। यह एक अंधे और एक नर्तकी की प्रेम कहानी है। कहानी में प्रेम का हर आवेग है, उफान है। धोखा है, बदला है। मुंबई के मुख्य इलाके कोलाबा में पद्मा नाम की एक कड़क किस्म की महिला है, जो अपनी बेटी अप्सरा का मनमोहित करनेवाला नाच दिखाने के लिए लोगों से अच्छी-खासी रकम लेती है। अप्सरा बेइंतिहा खूबसूरत है और उसका नाच जो भी देखता है, उस पर लट्टू हो जाता है। एक दिन कमल का नाम का रहस्यमय अंधा व्यक्ति पद्मा के पास पहुंचता है और कहता कि वह उसकी बेटी अप्सरा का नाच अकेले में देखना चाहता है। सोचिए, अंधा नाच देखना चाहता है! कमल का रहस्य धीरे-धीरे खुलता है तो पता चलता है कि उसका मां-बेटी

मस्त रहो, सब कुछ जानना ज़रूरी नहीं

Image
कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ जान लें। दुनिया की अनंत सैर पर निकल जाएं। पुरानी सभ्यताओं के अवशेष देखें, नए का निर्माण देखें। घूम-घूमकर और पढ़कर राजनीति भी जान लें, अर्थनीति भी। साइंस, साहित्य, खगोलशास्त्र से लेकर इतिहास-भूगोल समेत दुनिया की कोई भी चीज़ ऐसी न हो जिनकी जानकारी हमें न हो। यानी, पूरे एनसाइक्लोपीडिया बन जाए। फिर लगा कि तब किसी कंप्यूटर की फाइल और हम में अंतर क्या रह जाएगा? इसी दौरान पुरानी डायरी पलटते-पलटते मुझे किसी विचारक की चंद लाइनें लिखी हुई नज़र आ गईं: न सब कुछ देखना-पढ़ना उचित है, न अनिवार्य। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। ...हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं। एक हाथ नीचे भी मारते हैं। ...इस तरह हम अपनी ज़िंदगी को अपने ही हाथों काटते रहते हैं। हम अपनी ज़िंदगी को दोनों तरफ फैलाए रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते। ...हम सब कन्फ्यूज्ड हैं क्योंकि हम अनर्गल, असंगत चुनाव करते रहते हैं। अनेक तरह की नांव पर सवार हो जाते हैं। फिर जीवन टूटता है, जीवन नष्ट होता है और हम कहीं नहीं पहुंच पाते। मैं सोचने लगा कि फिर रास्ता क्या है? मुझे एक पुराने स

हँसो हँसो, जल्दी हँसो, कोई देख रहा है

Image
स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए हमारे कोर्स बनाने वाले वाकई धन्य हैं। उन्हें यकीन है कि वो अब भी इमरजेंसी जैसे माहौल में रह रहे हैं और सरकार के खिलाफ लगनेवाली कोई सामग्री कोर्स में शामिल कर लेंगे तो उनकी मिट्टी पलीद कर दी जाएगी। इसलिए वो राजनीतिक कविता पर भी बड़ा निरामिष-सा, तटस्थ-सा मुलम्मा लगा देते हैं। नहीं तो क्या तुक है कि दिल्ली में 12वीं के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल रघुवीर सहाय की इस कविता की भूमिका में लिखा गया है कि कवि यहां हँसने की सलाह दे रहा है क्योंकि हँसना स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है। तो चलिए आप भी थोड़ा ‘हँस’ लीजिए और पढ़िए यह कविता... हँसो कि तुम पर निगाह रखी जा रही है हँसो, मगर अपने पर मत हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो, वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं है और मारे जाओगे हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर एक अपनापे की हँसी हँसते हो जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर तुम बोल सकते हो अ

एक भ्रम जिसे पीएम ने चूर-चूर कर दिया

Image
लोग यह नहीं समझते कि प्रति व्यक्ति आधार पर हम (भारत) प्राकृतिक संसाधनों के मामले में अच्छी स्थिति में नहीं हैं। और अगर हमें इस कमी को दूर करना है तो हमें दुनिया का एक प्रमुख व्यापारिक देश बनना होगा, जिसके लिए हमें विश्व का एक प्रमुख मैन्यूफैक्चरिंग देश भी बनना होगा। देश में प्राकृतिक संसाधनों का यह आकलन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। उन्होंने कल वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की किताब - India’s century: The Age of Entrepreneurship in the world’s biggest democracy के विमोचन के मौके पर यह आकलन पेश किया। आज सुबह इस खबर को पढ़ने के बाद ही मैं बड़ा कन्फ्यूज़ हो गया हूं क्योंकि अभी तक मैं तो यही मान रहा था कि प्रकृति हमारे देश पर बड़ी मेहरबान रही है। उपजाऊ ज़मीन से लेकर खनिज़ों और जलवायु की विविधता के बारे में हम पूरी दुनिया में काफी बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन जब मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री ने यह बात कही है तो यकीनन इसे सच ही होना चाहिए। मैं अभी तक की अपनी जानकारी पर पछता रहा हूं। आपकी क्या हालत है? मनमोहन सिंह की काट के लिए आपके पास तथ्य हों तो ज़रूर पेश करें। मैं भी खोज में लगा हूं।

तुष्टीकरण मुस्लिम अल्पमत का या बहुमत का?

Image
तसलीमा नसरीन का नंदीग्राम से कोई लेनादेना नहीं है, लेकिन कुछ बेतुकी वजहों से उन्हें कई महीनों से नंदीग्राम में चल रहे विरोध की काट के लिए कोलकाता से बाहर भेज दिया गया। आज़ादी के बाद से ही भारत में चल रही तुष्टीकरण की राजनीति का यह एक ताज़ा उदाहरण है। तसलीमा को बाहर भेजकर पश्चिम बंगाल की सरकार ने लगता है कि मुसलमानों की मांगों के आगे ‘घुटने टेक’ दिए, लेकिन उसने एक ऐसे मसले पर कार्रवाई करने का फैसला किया जिसकी कोई सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता मुसलमानों के बहुमत के लिए नहीं है। उसका यह कदम औसत मुसलमान से कहीं ज्यादा मुस्लिम-विरोधी पार्टियों को खुश करता है। यह उन मुसलमान नेताओं और संगठनों को भी खुश कर सकता है, जो अपने निहित राजनीतिक मकसद के लिए तसलीमा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। ये मुस्लिम नेता अब अपनी जीत का दावा कर सकते हैं और हो सकता है कि वे अब इसी तरह के किसी और सांकेतिक मु्द्दे की तलाश में जुट गए हों। कोलकाता में जो हिंसा तसलीमा नसरीन को निकाले जाने का सबब बन गई, वह हुई थी बुधवार 21 नवंबर को अखिल भारतीय अल्पसंख्यक फोरम (एआईएमएफ) नाम के छोटे से संगठन के विरोध प्रदर्शन के दौरान। इसके ना

राम बोलने से बन क्या जाएगा?

Image
लगता है इनका ब्लॉग हथियाना मेरा धर्म बन गया है. लिखना तो इन्हें ही था पर मैं आ गई हूँ मेहमान ब्लॉगर बनकर. इसलिए कि मुझे इस विषय पर ज़ोर-शोर से लिखना है. ' ट्रेन पर सवा र धा र्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे' में जो लिखा गया वह इसलिए कि एक सार्थक बहस हो सके. कि धर्म आज भी कर्म-कांड और नाम-जाप ही है आम आदमी के लिए, यह समझा जा सके. कि ‘ऐसा ही होता आया है’ के इतिहास से निकलकर धर्म आज के सवालों और सही-गलत के संदर्भों में परिभाषित है? कि हम लकीर ही पीटते रहेंगे. परिवार के एक बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा खाने से पहले थाली के चारों ओर पानी छिड़कना (मेरे हिसाब से गोल लकीर खींचना) और खाते वक्त खाने की भरपूर कमियां निकालना- यह आम बात होगी- मेरा निजी अनुभव है. इसलिए कहना चाहती हूं कि इनकी तरह ज्यादातर लोगों को लकीर ही याद रहती है. लकीर खींचना ही इनका धर्म है. लकीर से जुडी कोई प्रार्थना, कोई भावना इन्हें याद नहीं रहती. कृतज्ञता, संतुष्टि और धन्यवाद ज्ञापन कहाँ खो जाते हैं पता नहीं. आज हिन्दू धर्म की मूल भावना को, इसके लचीलेपन को याद करना चाहती हूं. कि धर्म जड़ न बना रहे. 2-3 साल पहले मेरी दीदी को ल