गिनी कहती है, सदियों से वैसी ही है विषमता
गिनी बड़ी छलिया है। उसका रूप तो है, मगर वह दिखती नहीं। लेकिन दुनिया भर के नीति-नियामकों के लिए वह बड़े काम की चीज़ है क्योंकि यह वो पैमाना है जिसके किसी भी देश में अमीरी और गरीबी के बीच की खाईं की गहराई नापी जाती है। इसके दो रूप हैं गिनी कोफिसिएंट और गिनी इंडेक्स। इनमें फर्क बस इतना है कि कोफिसिएंट को प्रतिशत में दर्शा दें तो वो इंडेक्स बन जाता है। अगर किसी देश का गिनी इंडेक्स एक है तो मतलब हुआ कि वहां गरीबी-अमीरी में कोई खाईं है ही नहीं और अगर यह 100 है तो मतलब देश में गरीबी-अमीरी में जबरदस्त खाईं है।
आज सुबह मैंने मिंट अखबार में एक लेख पढ़ा तो यह जानकर दंग रह गया कि भारत में मुगलकाल से लेकर अब तक गिनी इंडेक्स का आंकड़ा कमोवेश एक जैसा रहा है। मुगल साम्राज्य का पतन हुआ। अंग्रेज आए और चले गए। देश का विभाजन हुआ, आज़ादी मिली। नेहरू का समाजवाद लागू रहा। आर्थिक उदारीकरण की लहर चली। भारत की गिनती दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में होने लगी। लेकिन इस दौरान हम विषमता के मामले में जहां के तहां ठहरे रहे। वाकई गिनी इंडेक्स का आंकड़ा बेहद चौंकानेवाला है।
कोई सवाल उठा सकता है कि मुगलकाल में विषमता के आंकडे कैसे जुटाए जा सकते हैं? लेकिन लेख में तीन अर्थशास्त्रियों – ब्रैंको मिलानोविच, जेफ्री जी. विलियमसन और पीटर एच. लिनडर्ट के नए शोधपत्र Measuring Ancient Inequality को आधार बनाया गया है जिन्होंने अर्थशास्त्री आंगुस मैडिसन के मूल आंकड़ों का इस्तेमाल किया है। इस शोधपत्र के मुताबिक मुगलकाल में सन् 1750 के आसपास नवाब और ज़मीदार आबादी का एक फीसदी हिस्सा थे, जबकि उनके पास देश की कुल संपत्ति का 15 फीसदी हिस्सा था। इस आधार पर उस दौरान गिनी इंडेक्स 43.7 था।
1947 में आज़ादी के ठीक पहले ब्रिटिश भारत में गिनी इंडेक्स 48.9 था। उस समय ब्रिटिश अधिकारियों और व्यापारियों की संख्या आबादी की महज 0.06 फीसदी थी, जबकि उनके कब्ज़े में देश की कुल आमदनी का 5 फीसदी हिस्सा था। उस समय भारतीय कुलीनों और कारोबारियों की संख्या आबादी में 0.94 फीसदी थी, जिनके पास देश की 9 फीसदी संपदा थी। इस तरह ब्रिटिश भारत में एक फीसदी सबसे अमीर लोग देश की 15 फीसदी संपत्ति पर काबिज़ थे। गौर कीजिए, यही आंकड़ा 1750 में मुगलकाल के दौरान भी था।
आज़ादी के बाद देश में पहले नेशनल सैंपल सर्वे साल 1951 में हुआ। उसके मुताबिक छह सालों में ही गिनी इंडेक्स तेजी से घटकर 36 पर आ गया था। शायद अंग्रेज़ों के चले जाने का यह सीधा असर रहा हो। उसके बाद के पचास सालों तक गरीबी-अमीरी की खाईं को नापने वाला यह सूचकांक 36 से 38 के बीच झूलता रहा। 1997 में यह गिनी इंडेक्स 37.8 था जो 2005 तक गिरकर 36.8 पर आ गया। अर्थशास्त्री इसका मतलब बताते हैं कि उदारीकरण के दौर में देश में आर्थिक विषमता घट गई है।
इन आंकड़ों की भाषा में गरीबी-अमीरी की खाईं को समझना हमारे-आप जैसे ले-मैन के लिए थोड़ा मुश्किल है। लेकिन नीति-नियामकों के लिए इन्हीं आंकड़ों की अहमियत है। वैसे, ट्रेन में सफर के दौरान जब मैं देखता हूं कि दिल्ली और मुंबई से अपने ‘वतन’ लौटने वाले मजदूर अब जनरल कोच के बजाय रिजर्वेशन में चल रहे हैं और सुराही के पानी के बजाय बोतलबंद पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं, तब ज़रूर मुझे लगता है कि आम भारतीय की औसत कमाई और क्रय-शक्ति पहले से बढ़ी है। हालांकि आंकड़े भी कहते हैं और यह सच भी है कि देश में अमीरों-गरीबों की खाईं सदियों से जस की तस पड़ी हुई है।
आज सुबह मैंने मिंट अखबार में एक लेख पढ़ा तो यह जानकर दंग रह गया कि भारत में मुगलकाल से लेकर अब तक गिनी इंडेक्स का आंकड़ा कमोवेश एक जैसा रहा है। मुगल साम्राज्य का पतन हुआ। अंग्रेज आए और चले गए। देश का विभाजन हुआ, आज़ादी मिली। नेहरू का समाजवाद लागू रहा। आर्थिक उदारीकरण की लहर चली। भारत की गिनती दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में होने लगी। लेकिन इस दौरान हम विषमता के मामले में जहां के तहां ठहरे रहे। वाकई गिनी इंडेक्स का आंकड़ा बेहद चौंकानेवाला है।
कोई सवाल उठा सकता है कि मुगलकाल में विषमता के आंकडे कैसे जुटाए जा सकते हैं? लेकिन लेख में तीन अर्थशास्त्रियों – ब्रैंको मिलानोविच, जेफ्री जी. विलियमसन और पीटर एच. लिनडर्ट के नए शोधपत्र Measuring Ancient Inequality को आधार बनाया गया है जिन्होंने अर्थशास्त्री आंगुस मैडिसन के मूल आंकड़ों का इस्तेमाल किया है। इस शोधपत्र के मुताबिक मुगलकाल में सन् 1750 के आसपास नवाब और ज़मीदार आबादी का एक फीसदी हिस्सा थे, जबकि उनके पास देश की कुल संपत्ति का 15 फीसदी हिस्सा था। इस आधार पर उस दौरान गिनी इंडेक्स 43.7 था।
1947 में आज़ादी के ठीक पहले ब्रिटिश भारत में गिनी इंडेक्स 48.9 था। उस समय ब्रिटिश अधिकारियों और व्यापारियों की संख्या आबादी की महज 0.06 फीसदी थी, जबकि उनके कब्ज़े में देश की कुल आमदनी का 5 फीसदी हिस्सा था। उस समय भारतीय कुलीनों और कारोबारियों की संख्या आबादी में 0.94 फीसदी थी, जिनके पास देश की 9 फीसदी संपदा थी। इस तरह ब्रिटिश भारत में एक फीसदी सबसे अमीर लोग देश की 15 फीसदी संपत्ति पर काबिज़ थे। गौर कीजिए, यही आंकड़ा 1750 में मुगलकाल के दौरान भी था।
आज़ादी के बाद देश में पहले नेशनल सैंपल सर्वे साल 1951 में हुआ। उसके मुताबिक छह सालों में ही गिनी इंडेक्स तेजी से घटकर 36 पर आ गया था। शायद अंग्रेज़ों के चले जाने का यह सीधा असर रहा हो। उसके बाद के पचास सालों तक गरीबी-अमीरी की खाईं को नापने वाला यह सूचकांक 36 से 38 के बीच झूलता रहा। 1997 में यह गिनी इंडेक्स 37.8 था जो 2005 तक गिरकर 36.8 पर आ गया। अर्थशास्त्री इसका मतलब बताते हैं कि उदारीकरण के दौर में देश में आर्थिक विषमता घट गई है।
इन आंकड़ों की भाषा में गरीबी-अमीरी की खाईं को समझना हमारे-आप जैसे ले-मैन के लिए थोड़ा मुश्किल है। लेकिन नीति-नियामकों के लिए इन्हीं आंकड़ों की अहमियत है। वैसे, ट्रेन में सफर के दौरान जब मैं देखता हूं कि दिल्ली और मुंबई से अपने ‘वतन’ लौटने वाले मजदूर अब जनरल कोच के बजाय रिजर्वेशन में चल रहे हैं और सुराही के पानी के बजाय बोतलबंद पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं, तब ज़रूर मुझे लगता है कि आम भारतीय की औसत कमाई और क्रय-शक्ति पहले से बढ़ी है। हालांकि आंकड़े भी कहते हैं और यह सच भी है कि देश में अमीरों-गरीबों की खाईं सदियों से जस की तस पड़ी हुई है।
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लेकिन आखिरी लाईन से सहमत होना थोड़ा मुश्किल है. क्रयशक्ति बढ़ी है या खर्च करने की मानसिकता में बदलाव आया है. छोटे-छोटे पैरामीटर सबसे सशक्त संकेत होते हैं लेकिन जिन संकेतों के भरोसे हम आंकलन करते हैं क्या उनके भरोसे आंकलन को ठीक माना जा सकता है? पूंजी का जैसा ध्रुवीकरण हो रहा है उससे तो गिनी इंडेक्स में उछाल आना चाहिए. आश्चर्य इस बात का कोई संकेत नहीं है जबकि भारत सरकार खुद कह रही है कि जीडीपी में कंपनियों का रेशियो तेजी से बढ़ रहा है. अगर जीडीपी में कंपनियों का रेशियो तेजी से बढ़ रहा है तो विषमता भी उसी तेजी से फैल रही होगी यह जाहिर सी बात है.