माया ही सच है, भगवान तो बस एक पूर्वाग्रह है
हमारा भगवान हमें हिंसा से नहीं रोकता, व्यभिचार से नहीं रोकता, भ्रष्टाचार से नहीं रोकता। हां, कानून हमें ऐसा करने से ज़रूर रोकता है। लेकिन हम कानून की कम और भगवान की ज्यादा परवाह करते हैं। जिनको ज़रूरत नहीं, वो भी भगवान के दरबार में मत्था नंवाते हैं और जिसे दुनिया-समाज ने तंग कर रखा है, वह तो माने ही बैठे हैं कि भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं। यहां मैं इस पर बात नहीं कर रहा कि भगवान का वजूद है या नहीं। ये सब तो ऊपरवालों का काम है और वे ही इस पर बहस के अधिकारी भी हैं। मैं तो बस यह सवाल उठाना चाहता हूं कि क्या भगवान, आस्था या नैतिकता जैसी मान्यताओं से हकीकत और हमारे बीच का फासला बढ़ता है या मिटता है? प्रकृति से लड़ने की हमारी आदिम ताकत कमज़ोर होती है या बढ़ती है?
कहते हैं आस्था से क्या फर्क पड़ता है? एक कोने में पड़ी रहने दो। लेकिन हम इसे कोने में नहीं पड़े रहने दे सकते क्योंकि यह सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा तंग करती है। सोकर उठे तो सोमवार को हे शंभू-कैलाशपति, मंगलवार को जय हनुमान, बुधवार को ऊँ रांग राहवे नम:, गुरुवार को बृं बृहस्पतये नम: ... शुक्र के लिए भी कुछ न कुछ होगा, मुझे पता नहीं। फिर शनि कुपित न हो जाएं, इसके लिए क्या-क्या मशक्कत नहीं करता इंसान। रविवार को ऊँ सूर्याय नम:, आदित्याय नम:, भास्कराय नम : ... हर दिन का कोई न कोई देवता और वह नाराज़ न हो जाए, बराबर इसका डर। अनिश्चितता को नांथने के लिए यहां तक तो ठीक है कि हम सिक्का उछालें, ऐसी तमाम बातें सोचें कि नीचे वो वाला चौकीदार मिल गया, रास्ते में चितकबरी गाय दिख गई, बस पांच मिनट में आ गई तो काम हो जाएगा। लेकिन इसके आगे की आस्थाएं अच्छी-खासी आंखवाले को भी मोटे कांच का चश्मा पहना देती हैं।
ये भी कहते हैं कि दया, करुणा, सेवा, त्याग, ईमानदारी और नैतिकता जैसी पवित्र व श्रेष्ठ भावनाएं ही ईश्वर हैं। लेकिन ये श्रेष्ठ भावनाएं समाज की देन और ज़रूरत हैं। शुरू में तो इंसान था और प्रकृति थी। प्रकृति को वह बिना किसी पूर्वाग्रह के देखता है। समाज बना तो वह भी बाहरी प्रकृति में शामिल हो गया। बाहरी प्रकृति से लड़ाई तो विज्ञान सुलझाता गया, लेकिन समाज को वह ठीक से न देख सके, इसके लिए उस पर इंसानों द्वारा ही बनाए गए तमाम पूर्वाग्रह लाद दिए गए। कोई एक भ्रम टूटा तो जल्दी से उसे घिस-घिसकर नया भ्रम तैयार कर दिया गया। महावीर और बुद्ध जैसे तर्कवादी को भी भगवान बना दिया गया। और, अब श्रेष्ठ भावनाओं को ही ईश्वर मानने की बात करके दरअसल हम अच्छी-खासी आंखवाले को कॉन्टैक्ट लेंस पहनाने लगे हैं।
इससे घटता कुछ नहीं है। बस हमारे और सच के बीच कभी आभासी तो कभी पारदर्शी कांच की दीवार खड़ी हो जाती है। हम सच तक पहुंच पाएं, इससे पहले ही उस दीवार से टकराकर वापस लौट आते हैं। हम कर्मप्रधान विश्व करि राखा, मानते हुए भरसक कर्म जरूर करते हैं, लेकिन फिर भगवान और आस्थाओं से सच के नुकीले किनारों को गोल बनाकर असहाय हो जाते हैं। यही असहायता उठाकर फिर हमें भगवान की गोंद में फेंक देती है और कोई यह कहनेवाला नहीं मिलता कि का चुप साधि रहा बलवाना।
मजे की बात यह है कि हम क्रांति और राजनीतिक बदलाव जैसा बड़ा ठोस सामाजिक काम करने जा रहे होते हैं तब भी त्याग और बलिदान जैसी ‘पवित्र व श्रेष्ठ’ भावनाएं हमारे दिमाग में, आंखों के पीछे ऐसा धुआं भर देती हैं कि जिस समाज को हम बदलने चले हैं, वह समाज ही हमें दिखना बंद हो जाता है। हमें जो दिखता है, वह बस इतना कि हम बड़े महान और पवित्र काम के लिए अपना सर्वस्व होम करने जा रहे हैं। हम भले ही नास्तिक हों, लेकिन अपने भीतर कहीं न कहीं मान बैठते हैं कि हमारा जन्म इसी उद्देश्य के लिए हुआ था और हम तो अदृश्य शक्तियों के काम को पूरा करने के निमित्त मात्र हैं। जारी...
कहते हैं आस्था से क्या फर्क पड़ता है? एक कोने में पड़ी रहने दो। लेकिन हम इसे कोने में नहीं पड़े रहने दे सकते क्योंकि यह सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा तंग करती है। सोकर उठे तो सोमवार को हे शंभू-कैलाशपति, मंगलवार को जय हनुमान, बुधवार को ऊँ रांग राहवे नम:, गुरुवार को बृं बृहस्पतये नम: ... शुक्र के लिए भी कुछ न कुछ होगा, मुझे पता नहीं। फिर शनि कुपित न हो जाएं, इसके लिए क्या-क्या मशक्कत नहीं करता इंसान। रविवार को ऊँ सूर्याय नम:, आदित्याय नम:, भास्कराय नम : ... हर दिन का कोई न कोई देवता और वह नाराज़ न हो जाए, बराबर इसका डर। अनिश्चितता को नांथने के लिए यहां तक तो ठीक है कि हम सिक्का उछालें, ऐसी तमाम बातें सोचें कि नीचे वो वाला चौकीदार मिल गया, रास्ते में चितकबरी गाय दिख गई, बस पांच मिनट में आ गई तो काम हो जाएगा। लेकिन इसके आगे की आस्थाएं अच्छी-खासी आंखवाले को भी मोटे कांच का चश्मा पहना देती हैं।
ये भी कहते हैं कि दया, करुणा, सेवा, त्याग, ईमानदारी और नैतिकता जैसी पवित्र व श्रेष्ठ भावनाएं ही ईश्वर हैं। लेकिन ये श्रेष्ठ भावनाएं समाज की देन और ज़रूरत हैं। शुरू में तो इंसान था और प्रकृति थी। प्रकृति को वह बिना किसी पूर्वाग्रह के देखता है। समाज बना तो वह भी बाहरी प्रकृति में शामिल हो गया। बाहरी प्रकृति से लड़ाई तो विज्ञान सुलझाता गया, लेकिन समाज को वह ठीक से न देख सके, इसके लिए उस पर इंसानों द्वारा ही बनाए गए तमाम पूर्वाग्रह लाद दिए गए। कोई एक भ्रम टूटा तो जल्दी से उसे घिस-घिसकर नया भ्रम तैयार कर दिया गया। महावीर और बुद्ध जैसे तर्कवादी को भी भगवान बना दिया गया। और, अब श्रेष्ठ भावनाओं को ही ईश्वर मानने की बात करके दरअसल हम अच्छी-खासी आंखवाले को कॉन्टैक्ट लेंस पहनाने लगे हैं।
इससे घटता कुछ नहीं है। बस हमारे और सच के बीच कभी आभासी तो कभी पारदर्शी कांच की दीवार खड़ी हो जाती है। हम सच तक पहुंच पाएं, इससे पहले ही उस दीवार से टकराकर वापस लौट आते हैं। हम कर्मप्रधान विश्व करि राखा, मानते हुए भरसक कर्म जरूर करते हैं, लेकिन फिर भगवान और आस्थाओं से सच के नुकीले किनारों को गोल बनाकर असहाय हो जाते हैं। यही असहायता उठाकर फिर हमें भगवान की गोंद में फेंक देती है और कोई यह कहनेवाला नहीं मिलता कि का चुप साधि रहा बलवाना।
मजे की बात यह है कि हम क्रांति और राजनीतिक बदलाव जैसा बड़ा ठोस सामाजिक काम करने जा रहे होते हैं तब भी त्याग और बलिदान जैसी ‘पवित्र व श्रेष्ठ’ भावनाएं हमारे दिमाग में, आंखों के पीछे ऐसा धुआं भर देती हैं कि जिस समाज को हम बदलने चले हैं, वह समाज ही हमें दिखना बंद हो जाता है। हमें जो दिखता है, वह बस इतना कि हम बड़े महान और पवित्र काम के लिए अपना सर्वस्व होम करने जा रहे हैं। हम भले ही नास्तिक हों, लेकिन अपने भीतर कहीं न कहीं मान बैठते हैं कि हमारा जन्म इसी उद्देश्य के लिए हुआ था और हम तो अदृश्य शक्तियों के काम को पूरा करने के निमित्त मात्र हैं। जारी...
Comments
दोनों ही दो अलग-अलग सवाल हैं. आस्था कोई मान्यता नहीं है. आस्था जब तक मान्यता है तब तक वह समस्या पैदा करती है. आस्था जब आस्था हो जाती है इस सवाल का जवाब मिल जाता है कि फासला बढ़ता है या मिटता है. कड़ाहे के गुण का स्वाद लेना है तो वहां तक तो जाना ही पड़ेगा जहां रस पक रहा है.
दूसरी प्रकृति से लड़ते हुए हम इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि हम ठीक से न भगवान को जानते हैं, न आस्था को, न प्रकृति को और न ही अपने आप को. हम कुछ पूर्वाग्रहों को जानते हैं और उसी को सत्य के रूप में स्थापित करने की जिद पर अड़े रहते हैं.
कहीं कुछ अलग-विलग नहीं है. सब एक है. वही स्पंदन है चारों ओर, कोई छूकर तो देखे.
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निर्भर करता है कि ये टर्म्स कैसे डिफाइन की जाती हैं। कई डेफिनीशन ही मेलीशियस होती हैं।
बहुत सारगर्भित लेख लिखा है आपने. दिल प्रसन्न हो गया.
नीरज
एक बात और - अब हर आदमी जा कर अपराध, व्यभिचार वगैरह नहीं ना करता है, याने कुछ तो रोकता है इंसान को हैवान बनने से | यदि वो संस्कार है और भगवान यदि संस्कारों की जड़ में कहीं है तो एक तरह से (कुछ लोगों को ही सही) भगवान् बुरे काम से रोकता तो है - चूंकी आगे जारी रहेगा - अगली किश्त का इंतज़ार
[ हिन्दी लेखन के इस स्वरूप से पिछले (लगभग) महीने भर से अवगत हुआ, अपने एक मित्र के द्वारा जिनके पसंदीदा पन्नों में आपकी डायरी भी एक है | पढ़ना बहुत अच्छा लगता है - अधिकतर संवाद मृतप्राय संवेदनाओं को फ़िर थोड़ा सा जीवन देते हैं और - माफ़ कीजियेगा - थोड़े बहुत प्याज जैसे चिन्हाते हैं - बहुरूपिये - तीखे, फिर आँखें गीली करते है, और आँखें मलने के बाद थोड़ा और साफ, थोड़ा अलग दिखता है, उसके बाद अगली परत खुलती है | यथाक्रम दस्तक जारी रहेगी - साभार ]
लगता है कि यह एक सशक्त लेखन परम्परा बना जायगी. इंतजार है अगली कडी का !!