कैसी मायूसी या तवज्जो! ये तो सरासर झूठ है
क्या दिल्ली का कोई भी ब्लॉगर, सृजन शिल्पी के अलावा, कह सकता है कि 17 नवंबर को 11 बजे दिन से लेकर 24 नंवबर की शाम 4 बजे तक दिल्ली में रहने के दौरान मैं उनसे मिला या उन्हें फोन किया? मैं तो सालों से टलते आ रहे अपने जिन तीन-चार निजी कामों के सिलसिले में दिल्ली गया था, वो ही पूरा हफ्ता खा गए। फिर भी एक काम रह ही गया। हां, मेरी इच्छा ज़रूर थी कि दिल्ली के ब्लॉगर बंधुओं से एक साथ बैठकर कुछ गलचौर की जाए। लेकिन यह कहना कि ‘मुंबई से आए अनिल रघुराज को नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद दिल्ली में किसी ने खास तवज्जो नहीं दी’ मेरे ख्याल से सरासर गलत और निराधार है। फिर भी दिल्ली के विनीत जी ने जनसत्ता के साप्ताहिक कॉलम ब्लॉग-लिखी का जिक्र करते हुए मेरी मायूसी और चिंता की बात लिखी है और मेरे साथ सहानुभूति भी जताई है।
मैं विनीत जी की भावना की पूरी कद्र करता हूं और उन्हें अपने साथ सहानुभूति जताने के लिए धन्यवाद भी देता हूं। लेकिन मुझे लगता है कि वे जनसत्ता के कॉलम में लिखी बात को शायद गलत समझ गए। मैंने कल दिल्ली के अपने एक मित्र से बीते रविवार (9 दिसंबर 2007) की ब्लॉग-लिखी को फोन पर पढ़वाकर पूरा सुना। यह कॉलम मोहल्ला वाले अविनाश लिखते हैं। इसमें मेरी पोस्ट ‘हम ब्लॉगर साहित्य से बहिष्कृत हैं’ का जिक्र है। उसकी कुछ पंक्तियां उद्धृत भी की गई हैं। साहित्य की मुख्यधारा की उलझन, साहित्य के आभिजात्यीकरण और हिंदी ब्लॉगिंग की विकास की बात है। लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि दिल्ली के ब्लॉग बंधुओं ने नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद अनिल रघुराज को खास तवज्जो नहीं दी। अब अगर दिल्ली के विनीत जी, अविनाश जी और बाकी ब्लॉगर बंधुओं के दिल में कोई बात हो तो मैं कुछ नहीं कह सकता।
वैसे, सत्ता के केंद्र में बैठे ब्लॉगर मित्र मुझ जैसे नाचीज़ को तवज्जो दें या न दें, ये पूरी तरह उन पर निर्भर है। लेकिन नहीं भी देंगे तो कम से कम मुझे कोई मायूसी नहीं होगी। मैं तो भीड़ में गुम होकर सुकून पानेवाला आदमी हूं। लिखना मेरे लिए खुद को अन्वेषित करने का माध्यम है, बाहरी परिवेश के साथ अपने बदलते रिश्ते को समझने का ज़रिया है। न तो मुझे किसी प्रशस्ति की दरकार है और न ही किसी पहचान की। मुझे अंदर से यह भी अहसास है कि साहित्य की मुख्यधारा मेरे लिए वर्जित क्षेत्र जैसी है। मुझे कोई गफलत नहीं है कि मैं हिंदी साहित्य की वर्तमान धारा का हिस्सा हूं। मैं तो अपने जैसे लाखों लोगों की अंदर और बाहर की रोज़-ब-रोज़ की उलझनों को सुलझाने के सूत्र खोज रहा हूं, इसीलिए लिख रहा हूं।
चलते-चलते यह भी साफ कर दूं कि लोगों से मिलना मुझे अच्छा लगता है। उनके व्यक्तित्व को परत-दर-परत जानने का कुतूहल मेरे अंदर भरा पड़ा है। लेकिन दिल्ली के कई ब्लॉगर हैं जिन्हें मैं इतना जानता हूं कि अब उनसे नया कुछ जानने का कुतूहल ही नहीं बचा। फिर कुछ और ब्लॉगर हैं जो इतने सांचाबद्ध हो चुके हैं कि उनके अंदर झांक पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। लेकिन ताज़गी और नयेपन से भरे दिल्ली के कई ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे मैं मिलना चाहता हूं, जिनको मैं जानना-समझना चाहता हूं। इनमें एक हैं संजय तिवारी जी, जिनसे मेरी मिलने की जबरदस्त इच्छा थी। मैंने सोचा था कि शनिवार 24 नवंबर को निकलने से पहले उनसे फोन करके ज़रूर आधे-एक घंटे के लिए मिल लूंगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। चलिए फिर कभी सही। समय जरूर भागा जा रहा है। लेकिन जिंदगी अभी काफी लंबी है और समय अनंत है।
वैसे, सत्ता के केंद्र में बैठे ब्लॉगर मित्र मुझ जैसे नाचीज़ को तवज्जो दें या न दें, ये पूरी तरह उन पर निर्भर है। लेकिन नहीं भी देंगे तो कम से कम मुझे कोई मायूसी नहीं होगी। मैं तो भीड़ में गुम होकर सुकून पानेवाला आदमी हूं। लिखना मेरे लिए खुद को अन्वेषित करने का माध्यम है, बाहरी परिवेश के साथ अपने बदलते रिश्ते को समझने का ज़रिया है। न तो मुझे किसी प्रशस्ति की दरकार है और न ही किसी पहचान की। मुझे अंदर से यह भी अहसास है कि साहित्य की मुख्यधारा मेरे लिए वर्जित क्षेत्र जैसी है। मुझे कोई गफलत नहीं है कि मैं हिंदी साहित्य की वर्तमान धारा का हिस्सा हूं। मैं तो अपने जैसे लाखों लोगों की अंदर और बाहर की रोज़-ब-रोज़ की उलझनों को सुलझाने के सूत्र खोज रहा हूं, इसीलिए लिख रहा हूं।
चलते-चलते यह भी साफ कर दूं कि लोगों से मिलना मुझे अच्छा लगता है। उनके व्यक्तित्व को परत-दर-परत जानने का कुतूहल मेरे अंदर भरा पड़ा है। लेकिन दिल्ली के कई ब्लॉगर हैं जिन्हें मैं इतना जानता हूं कि अब उनसे नया कुछ जानने का कुतूहल ही नहीं बचा। फिर कुछ और ब्लॉगर हैं जो इतने सांचाबद्ध हो चुके हैं कि उनके अंदर झांक पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। लेकिन ताज़गी और नयेपन से भरे दिल्ली के कई ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे मैं मिलना चाहता हूं, जिनको मैं जानना-समझना चाहता हूं। इनमें एक हैं संजय तिवारी जी, जिनसे मेरी मिलने की जबरदस्त इच्छा थी। मैंने सोचा था कि शनिवार 24 नवंबर को निकलने से पहले उनसे फोन करके ज़रूर आधे-एक घंटे के लिए मिल लूंगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। चलिए फिर कभी सही। समय जरूर भागा जा रहा है। लेकिन जिंदगी अभी काफी लंबी है और समय अनंत है।
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जब भी कोई नयी हवा चलती है, पुराना मौसम बीमारियों के इशारे करता है। दो मौसमों के बीच में मन-मिजाज की खुश्की अलसाती है। हिंदी ब्लॉगिंग को भी तिरछी नजर से देखने वाले हैं। हिंदी की जो भी जैसी भी मुख्यधारा है, ये मानने के लिए तैयार नहीं है कि ब्लॉगिये कुछ बेहतर रच सकते हैं। पिछले दिनों हंस के दफ्तर में यूं ही तफरीह करते हुए पहुंचा (जैसा कि आमतौर पर हिंदी के नवजात-अभिजात वहां पहुंचते हैं) तो यादव जी को घेरे हुए हिंदी के चंद कवि-पत्रकार थे। उन्हें अपने बीच एक ब्लॉगिये का आना खलल जैसा लगा होगा और पूरी साफगोई से इसका आभास उन्होंने होने भी दिया। ऐसी चर्चा शुरू हुई कि ब्लॉगिंग कोई सृजन का मसला नहीं, सुच्चा तकनीक की गली हो। हम तो ब्लॉगिंग के बीच भी ऐसी अस्पृश्यता के आदी हैं, लेकिन अनिल रघुराज नहीं हैं। वे मुंबई में रहते हैं, टीवी पत्रकार हैं। उनका ब्लॉग डायरी ऑफ एन इंडियन अंतर्जाल पर विचारोत्तेजनाओं की पटकथाएं बांचता है। पिछले दिनों दिल्ली आये और ब्लॉगिंग में अपनी सक्रियता का प्रमाणपत्र लेने कुछ साहित्यिक परिचितों के पास पहुंचे, तो आटे का कुल भाव उनके सामने था।
एक लेखक पत्रकार ने अनिल रघुराज से कहा, जो लोग साहित्य में कुछ नहीं कर पाये या नहीं कर सकते, वही लोग अब ब्लॉगिंग कर रहे हैं। इससे दुखी अनिल मुंबई लौटते तक हीनता ग्रंथि से भर गये और कई दिनों तक श्रेष्ठताबोध के तर्क तलाशते रहे। वे एक लंबी दुख-कथा लिखते हैं। उनमें से कुछ पाद टिप्पणियां यहां प्रस्तुत है-
1. साहित्यकारों की दुनिया से जो जितना दूर है और ज़िंदगी से जितना करीब है, वह उतना ही अच्छा साहित्य लिख सकता है।
2. ब्लॉगिंग की दुनिया उनके लिए है, जिनको कोई अभाव सालता है, निस्संगता काट खाने को दौड़ती है और जो अपने होने का सामाजिक विस्तार चाहते हैं।
3. ब्लॉंगिंग उनके लिए कतई नहीं हो सकती है जो एकतरफा प्रवचन करना चाहते हैं।
और अंत में अनिल रघुराज थोड़ा खुश होते हैं और पूरे आत्मविश्वास से नारा लगाते हैं - साहित्य का अाभिजात्यीकरण मुर्दाबाद, साहित्य और जीवन का लोकतंत्रीकरण जिंदाबाद, हिंदी ब्लॉगिंग जिंदाबाद!!!
मैं अनिल से सहमत-असहमत होने के लिए इस प्रसंग की चर्चा नहीं कर रहा हूं। क्योंकि अंतत: अपने को अभिव्यक्त करना ही लेखन और ब्लॉगिंग की मूल संवेदना है। फर्क सिर्फ तकनीक का है और यहां इस तरह की व्याख्याएं वैसी ही हैं, जैसे अपने अपने भगवान की महानता को लेकर मजहबी लकीरें खींचना। यही विडंबना भी है। हिंदी का मन बड़े पटल पर अपनी अपनी जगह हासिल करने को लेकर ऐसी ही ईर्ष्या और राजनीति के आलेख लिखता रहा है। जाहिर है इस भाषा में उदारता के लिए जगह कम है। एक साल की हिंदी ब्लॉगिंग में चूंकि घटनाओं और विचारोत्तेजनाओं की रफ्तार अभिव्यक्ति की पारंपरिक रफ्तार से तेज है- इसलिए अगर वहां से कोई अपने महत्व की दलीलें पेश करता है- तो इसे स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए।
तो बेहतर है, इसी विमर्श के झरोखे से हिंदी ब्लॉगिंग के हालिया परिदृश्य की कुछ बानगी लेते है। अरविंद कुमार ने हिंदी के लिए एक थिसॉरस रचा और ये लगभग ऐतिहासिक योगदान है। वे चौकन्नी नजर से ब्लॉगिंग को देखते रहे और बया नाम की एक पत्रिका में उन्होंने एक आलेख भी लिखा। अब उन्होंने अपना ब्लॉग भी शुरू किया है। उनके ब्लॉग का नाम है, अरविंद कोशनाम यानी कोशनामा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम। हिंदी साहित्य की मुख्यधारा शब्दों के संधान, उनकी व्याख्या जैसे कामों को भी इस दलील की आड़ में दोयम मानता है कि इस काम में सृजन नहीं, श्रम की ज़रूरत होती है। लेकिन अरविंद कुमार इस काम को श्रम से कहीं आगे सृजन की कतार में खड़ा करते हैं।
कोशनामा में एक जगह अरविंद कुमार लिखते हैं, कोशों के पीछे सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्य भी होते हैं। मोनिअर-विलियम्स के जमाने में अंगरेज भारत पर राज करने के लिए हमारी संस्कृति और भाषाओं को पूरी तरह समझना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ऐसे कई कोश बनवाये। आज हम अंगरेजी सीख कर सारे संसार का ज्ञान पाना चाहते हैं तो हम अंगरेजी से हिंदी के कोश बना रहे हैं। हमारे समांतर कोश और उसके बाद के हमारे ही अन्य कोश हमारे देश की इसी इच्छा-आकांक्षा के प्रतीक हैं, प्रयास हैं।
अरविंद कुमार के साथ ही एक और सज्जन हैं, जो ब्लॉग पर शब्दों के साथ मुठभेड़ करते हैं। नाम है अजित वडनेकर। पत्रकार हैं, भोपाल में रहते हैं। उनके ब्लॉग पर आप शब्दावली डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम टाइप करके पहुंचेंगे, तो पता चलेगा कि एक शब्द के कई माने वहां आपसे मुखातिब हैं। इसी हफ्ते उन्होंने किरानी शब्द की कहानी लिखी है। अजित वडनेकर के मुताबिक पंसारी और परचून की कड़ी में अगर किरानी शब्द छूट जाए तो अधूरापन सा लगता है। हिंदी उर्दू में एक शब्द है किरानी। दोनों ज़बानों में इनके दो अलग-अलग मायने हैं। जाहिर सी बात है कि किरानी का एक अर्थ तो परचूनिया अथवा पंसारी ही हुआ। हिंदी उर्दू में इससे ही बना किराना शब्द भी है, जिसके मायने हुए परचून की दुकान। दिलचस्प बात ये कि पंसारी और परचून दोनों ही लफ्ज आज कारोबारी शब्दावली में अपना रुतबा खो चुके हैं, मगर किरानी शब्द का रुतबा बना हुआ है।
तो एक तरफ हिंदी ब्लॉगिंग में अभिव्यक्ति के आकाशीय वृत्त की सीढियां लोग तेजी से चढ रहे हैं, वहीं शब्दों के दरवाजे पर दस्तक पड़ रही है। और बड़ी बात ये कि दोनों तरह की सक्रियताएं हिंदी की पारंपरिक लेखन शैली से होड ले रही हैं। कुछ कुछ अनिल रघुराज के ही अंदाज में कि साहित्य का आभिजात्यीकरण मुर्दाबाद!
प्रिय अनिल, लिखते रहें! बहुत से हैं जो आपके कलम से बहते रस का नियमित पान करते हैं!
आपकी कलम से लिखे ये शब्द सीधे दिल मे उतर गए है. मैंने पहले भी आपके ही लेख पर लिखा है कि बहुदा अपने आपको आपके काफ़ी करीब पाता हूँ. आज फ़िर मेरे लिए ये प्रमाणित हो गया.और आपकी ही शब्दों मे ये बात जरुर दोहराना चाहूँगा.
"समय जरूर भागा जा रहा है। लेकिन जिंदगी अभी काफी लंबी है और समय अनंत है।"
आप किसी के मूल्यांकन के चक्कर में न पड़ें....मैं दावे से कह सकती हूँ कि जो आज ब्लॉग में लिखा जा रहा है साहित्य जगत के लोग उसे लेकर बहुत उलझन में हैं...सबकी निगाह है सब परेशान हैं...तमाम पत्रिकाओं में ब्लॉग चर्चा इसका सबूत है...
सहमती/असह्मती हो सकती है, पर बिना बुनियाद के सिर्फ conclusions न निकाले.
ब्लाग के बारे में ज्यादा क्या कहें। अभिव्यक्ति का यह माध्यम अभिव्यक्ति के नये आयाम छू रहा है। जो लोग यह कहकर इसे कमतर बताते हैं कि इसमें तात्कालिकता है, कलजयीपन नहीं है उनकेलिये परसाई जी काफ़ी पहले कह गये हैं- जो लेखन आज प्रासंगिक नहीं है वह कालजयी कैसे हो सकता है? आप लगे रहो जी। दनादन। हम आपके प्रसंशकों में हैं। सच्ची। :)
lekin ek baat achi rahi ki isi bahaana aapse mailbaaji ho gayee