जीवन में मरती जाति राजनीति में ज़िंदा क्यों है?
रोज़मर्रा के जीवन में जातियां मर रही हैं। इस प्रत्यक्ष सच को साबित करने के लिए किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं। न ही इसे देखने-समझने के लिए दस सिर और बीस आंखों की दरकार है। इसके लिए बस एक अदद दिमाग और एक जोड़ी आंखें ही काफी हैं। लेकिन आम भारतीय जनजीवन से अलग-थलग पड़ी सत्ता की संरचनाओं में, न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और राजनीति में जातिगत गोलबंदियां कमज़ोर होने के बजाय मजबूत हो रही हैं, इस सच से भी कोई इनकार नहीं कर सकता। यह अलग बात है कि यहां जातियां अपने सार में नहीं, केवल रूप में मौजूद हैं।
जाति के एक साथ मरने और ज़िंदा रहने के विरोधाभास को हम सामंती/पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के अमूर्त व वायवी सूत्रीकरण से नहीं समझ सकते। न ही किसी ‘परमज्ञानी’ की तरह जाति के मिटने पर ऐसा कह सकते हैं कि, “कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सामंतवाद की कोई चाल है क्योंकि सामंतवाद में खुद को ढाल लेने की जबरदस्त क्षमता है।” दिक्कत यह है कि हमारे जनवादी विद्वान लोग जब जाति पर बहस करते हैं तो उनका अंदाज़ वैसा ही होता है जैसे वो इतिहास में हुए किसी अन्याय का बदला ले रहे हों। सवर्णों की दुर्दशा पर चटखारे लेने में उन्हें वैसा ही आनंद आता है, जैसे हिंदू कट्टरवादियों को बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर आता है।
हम अपने देश की जाति की मौजूदा स्थिति को सत्ता तंत्र के साथ व्यापक अवाम के अलगाव के संदर्भ में ही समझ सकते हैं। सरकार दावा करती है कि हमारा यहां कानून का राज है और कोई कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन यह दावा ज्यादा से ज्यादा 20 फीसदी सच और कम से कम 80 फीसदी झूठ है। संविधान कहता है कि जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन संविधान-प्रदत्त सुविधाओं का फायदा उठाने के लिए ज्यादातर जाति और धर्म ही काम आता है। जिले में अगर कोई यादव डीएम या एसपी होता है तो यादव लोगों का काम आसानी से हो जाता है। ब्राह्मण, ठाकुर या दलित के आने पर भी यही स्थिति होती है। कानून नियम कायदे किताबों से नहीं, अधिकारी और नेता की जुबान से चलते हैं।
असल में, हमारे लोकतंत्र ने पुलिस से लेकर अदालत और नौकरशाही का जो तंत्र पेश किया है, वहां चलता है पैसा, पहुंच और प्रभाव। सारा तंत्र गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। लोग इस हकीकत से बखूबी परिचित हैं। इसका प्रमाण है ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की ताज़ा रिपोर्ट, जिसके मुताबिक 90 फीसदी से ज्यादा भारतीय पुलिस, राजनीतिक पार्टियों और न्यायपालिका को थोड़ा या बहुत ज्यादा भ्रष्ट मानते हैं। वो नहीं मानते कि भारत में कानून का राज है। ज़ाहिर है, इन हालाता में लोगों को औपचारिक संस्थागत ढांचे से बाहर निकलकर प्रभाव हासिल करने की जरूरत पड़ती है।
लोगों को लोकतंत्र और संविधान की बौद्धिक बातों से नहीं, अपने काम से मतलब है। बौद्धिक लफ्फाज़ी का ज़िम्मा एनजीओ के कार्यकर्ताओं और लेफ्ट ने संभाल रखा है, जिनके पास व्यापक जनाधार नहीं है। बाकी राजनेता जनाधार पाने के लिए जाति का बेहद अवसरवादी इस्तेमाल कर रहे हैं। हालत ये है कि आज तमाम ठाकुर और ब्राह्मण सत्ता-सुख के लिए मायावती के चरण-वंदना कर रहे हैं। भ्रष्टाचार तो आज कोई मसला ही नहीं रहा। देश का सबसे दबा-कुचला समुदाय भी कहता है कि बहन जी ने भले ही करोड़ों का भ्रष्टाचार किया हो, लेकिन हैं तो हमारी अपनी जाति की, फिर बाकी नेता कोई दूध के धुले तो हैं नहीं! बात भी सच है कि जब हर दल के पास अपराधी हैं, बाहुबली है, भ्रष्टाचारी हैं, थैलीशाह हैं तब जाति ही तो निर्णायक होगी।
सीधी-सी बात है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार ने मरती जाति को संजीवनी देकर राजनीति के शरीर में स्थापित कर दिया है। जीवन की कठोर चट्टान से टकराकर जाति का अहंकार चूर-चूर हुआ जा रहा है; तिलक, तराजू और तलवार के धुर्रे उड़ रहे हैं, लेकिन निहित स्वार्थों के चलते कुछ लोग जाति-व्यवस्था को ज़िंदा दिखाने की वर्जिश में जुटे हैं क्योंकि जाति आज सत्ता का सबसे मुफीद शार्टकट है। अगर आप सचमुच जातियों को खत्म करना चाहते हैं तो सरकारी संस्थाओं से भ्रष्टाचार को खत्म करवा दीजिए, जाति का सारा प्रपंच उसी दिन भर-भराकर गिर जाएगा क्योंकि इस दशानन की जान भ्रष्टाचार की नाभि में छिपी बैठी है।
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जाति के एक साथ मरने और ज़िंदा रहने के विरोधाभास को हम सामंती/पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के अमूर्त व वायवी सूत्रीकरण से नहीं समझ सकते। न ही किसी ‘परमज्ञानी’ की तरह जाति के मिटने पर ऐसा कह सकते हैं कि, “कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सामंतवाद की कोई चाल है क्योंकि सामंतवाद में खुद को ढाल लेने की जबरदस्त क्षमता है।” दिक्कत यह है कि हमारे जनवादी विद्वान लोग जब जाति पर बहस करते हैं तो उनका अंदाज़ वैसा ही होता है जैसे वो इतिहास में हुए किसी अन्याय का बदला ले रहे हों। सवर्णों की दुर्दशा पर चटखारे लेने में उन्हें वैसा ही आनंद आता है, जैसे हिंदू कट्टरवादियों को बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर आता है।
हम अपने देश की जाति की मौजूदा स्थिति को सत्ता तंत्र के साथ व्यापक अवाम के अलगाव के संदर्भ में ही समझ सकते हैं। सरकार दावा करती है कि हमारा यहां कानून का राज है और कोई कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन यह दावा ज्यादा से ज्यादा 20 फीसदी सच और कम से कम 80 फीसदी झूठ है। संविधान कहता है कि जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन संविधान-प्रदत्त सुविधाओं का फायदा उठाने के लिए ज्यादातर जाति और धर्म ही काम आता है। जिले में अगर कोई यादव डीएम या एसपी होता है तो यादव लोगों का काम आसानी से हो जाता है। ब्राह्मण, ठाकुर या दलित के आने पर भी यही स्थिति होती है। कानून नियम कायदे किताबों से नहीं, अधिकारी और नेता की जुबान से चलते हैं।
असल में, हमारे लोकतंत्र ने पुलिस से लेकर अदालत और नौकरशाही का जो तंत्र पेश किया है, वहां चलता है पैसा, पहुंच और प्रभाव। सारा तंत्र गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। लोग इस हकीकत से बखूबी परिचित हैं। इसका प्रमाण है ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की ताज़ा रिपोर्ट, जिसके मुताबिक 90 फीसदी से ज्यादा भारतीय पुलिस, राजनीतिक पार्टियों और न्यायपालिका को थोड़ा या बहुत ज्यादा भ्रष्ट मानते हैं। वो नहीं मानते कि भारत में कानून का राज है। ज़ाहिर है, इन हालाता में लोगों को औपचारिक संस्थागत ढांचे से बाहर निकलकर प्रभाव हासिल करने की जरूरत पड़ती है।
लोगों को लोकतंत्र और संविधान की बौद्धिक बातों से नहीं, अपने काम से मतलब है। बौद्धिक लफ्फाज़ी का ज़िम्मा एनजीओ के कार्यकर्ताओं और लेफ्ट ने संभाल रखा है, जिनके पास व्यापक जनाधार नहीं है। बाकी राजनेता जनाधार पाने के लिए जाति का बेहद अवसरवादी इस्तेमाल कर रहे हैं। हालत ये है कि आज तमाम ठाकुर और ब्राह्मण सत्ता-सुख के लिए मायावती के चरण-वंदना कर रहे हैं। भ्रष्टाचार तो आज कोई मसला ही नहीं रहा। देश का सबसे दबा-कुचला समुदाय भी कहता है कि बहन जी ने भले ही करोड़ों का भ्रष्टाचार किया हो, लेकिन हैं तो हमारी अपनी जाति की, फिर बाकी नेता कोई दूध के धुले तो हैं नहीं! बात भी सच है कि जब हर दल के पास अपराधी हैं, बाहुबली है, भ्रष्टाचारी हैं, थैलीशाह हैं तब जाति ही तो निर्णायक होगी।
सीधी-सी बात है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार ने मरती जाति को संजीवनी देकर राजनीति के शरीर में स्थापित कर दिया है। जीवन की कठोर चट्टान से टकराकर जाति का अहंकार चूर-चूर हुआ जा रहा है; तिलक, तराजू और तलवार के धुर्रे उड़ रहे हैं, लेकिन निहित स्वार्थों के चलते कुछ लोग जाति-व्यवस्था को ज़िंदा दिखाने की वर्जिश में जुटे हैं क्योंकि जाति आज सत्ता का सबसे मुफीद शार्टकट है। अगर आप सचमुच जातियों को खत्म करना चाहते हैं तो सरकारी संस्थाओं से भ्रष्टाचार को खत्म करवा दीजिए, जाति का सारा प्रपंच उसी दिन भर-भराकर गिर जाएगा क्योंकि इस दशानन की जान भ्रष्टाचार की नाभि में छिपी बैठी है।
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आखिर सवर्णों को गरियाने से क्या मिलेगा
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"बौद्धिक लफ्फाज़ी का ज़िम्मा एनजीओ के कार्यकर्ताओं और लेफ्ट ने संभाल रखा है,"
"सीधी-सी बात है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार ने मरती जाति को संजीवनी देकर राजनीति के शरीर में स्थापित कर दिया है। "
बहुत ही विचारोत्तेजक लेख है आपका सर.
गहरी बात बहुत इतनी सरलता से वर्णन की आपने की मेरी भी समझ मे आ गई.
मैं एकदम सहमत हूँ आपसे कि अगर आप सचमुच जातियों को खत्म करना चाहते हैं तो सरकारी संस्थाओं से भ्रष्टाचार को खत्म करवा दीजिए, जाति का सारा प्रपंच उसी दिन भर-भराकर गिर जाएगा क्योंकि इस दशानन की जान भ्रष्टाचार की नाभि में छिपी बैठी है।
जाति मिटाना नेगेटिव कॉन्सेप्ट है। आप सौहार्द लाने की बात करें। हजारों साल से जातियां एक दूसरे का गला काट कर ही नहीं जिन्दा हैं। जाति का अश्लील प्रयोग प्रजातन्त्र के वर्तमान स्वरूप की देन है जहां लोग परिपक्व नहीं है और एक आदमी एक वोट लागू कर दिया गया है।