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Showing posts from May, 2008

चेहरों की चमकीली चकाचौंध में अंधा है बाज़ार

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वरना क्या वजह है कि आईपीएल में शामिल आठ टीमों की मूल्य-तालिका में सबसे निचले पायदान पर मौजूद टीम राजस्थान रॉयल्स आज 22 अंकों के साथ आईपीएल 2008 की अंकतालिका में सबसे ऊपर है और उसका +0.632 का रन-रेट भी सबसे ज्यादा है। राजस्थान रॉयल्स की कीमत थी 6.70 करोड़ डॉलर, जबकि मुंबई इंडियंस 11.19 करोड़ डॉलर की कीमत के साथ सबसे महंगी टीम थी। बाज़ार ने इसके बाद बैंगलोर की रॉयल चैलेंजर्स की कीमत 11.16 करोड़ डॉलर और हैदराबाद की डेक्कन चार्जर्स की कीमत 10.71 करोड़ डॉलर आंकी थी। लेकिन आईपीएल की ये तीनों सबसे महंगी टीमें टूर्नामेंट से बाहर निकल चुकी हैं। बाज़ार का नज़रिया सही निकला है तो सिर्फ कोलकाता की नाइट राइडर्स के बारे में जिसकी कीमत आंकी गई थी 7.51 करोड़ डॉलर। कीमत के मामले में वो नीचे से दूसरे नंबर पर थी और सेमीफाइनल तक नहीं पहुंच पाई। लेकिन यह कोई प्रोफेशनल नहीं, बल्कि सौरव गांगुली के प्रति गुटबाज़ी और पूर्वाग्रह से भरे नज़रिये का नतीजा था। सबसे सस्ती टीम उपलब्धि में सबसे ऊपर। उसके बाद तीसरे नंबर की सस्ती (कीमत 7.60 करोड़ डॉलर) 20 अंकों के साथ दूसरे स्थान पर। फिर चेन्नई सुपरकिंग्स (कीमत 9.10 कर

खबर की बात करते हो, न तीन में, न तेरह में!!!

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लोकतंत्र का चौथा खंभा, जागरूक प्रहरी, राष्ट्र की चेतना का निर्धारक, सूचनाओं से सुसज्जित नागर समाज का निर्माता। इन शाश्वत ‘शास्त्र-सम्मत’ मानकों पर कब तक मीडिया को तौला जाता रहेगा? कब तक छाती पीटी जाती रहेगी कि हाय-हाय! मीडिया से न्यूज़ गायब हो गई, खबर गायब हो गई, सामाजिक सरोकार गायब हो गए? किसने तय कर दी है न्यूज़ की ‘धार्मिक परिभाषा’ कि कर्नाटक के चुनाव खबर हैं, गोवा का राजनीतिक संकट खबर है, नाभिकीय संधि खबर है और अश्लील हरकतें करनेवाले टीचर की पिटाई, बेवफा बीवी का कत्ल, आरुषि का कत्ल, प्रेम-त्रिकोण में हत्याएं खबर नहीं है? राजनीतिक टूटन खबर है और पारिवारिक रिश्तों की टूटन खबर नहीं है? इधर खबरों की शुचिता पर बोलने का सिलसिला चला है। कथाकार राजेंद्र यादव का पुराना लेख छापकर इरविन वालेस के उपन्यास ऑलमाइटी का जिक्र किया जा रहा है तो हिंदी की हकलाती खबरों के सबसे बड़े ब्रांड पुण्य प्रसून वाजपेयी कह रहे हैं कि चैनलों के न्यूज़-रूम में खबरों को खारिज़ करने पर आम सहमति बन चुकी है। जैसे, हर जगह दु:शासन बैठे हैं और द्रौपदी (खबर) के चीरहरण पर उतारू हैं। न खबर समय और समाज से ऊपर की चीज़ है और न

भाइयों के फोटो बहनों के साथ क्यों चले जाते हैं?

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कल आभा जी ने अपनी एक पुरानी कविता पोस्ट की थी – भाई की फोटो। कविता क्या थी दिल को छू लेनेवाला एक किस्सा था। मुझे समझ में नहीं आता कि हमारे यहां (पूर्वी उत्तर प्रदेश में) ये किस्सा घर का घर का क्यों है? मेरी भी छुटपन की फोटो बहन अपने साथ ले गई थी। मां बराबर खोजती रही। कोनों-अतरों से लेकर पुराने बक्सों की परतों तक। कहीं नहीं मिली। फिर मैं एक बार दीदी के यहां गया तो उसका एलबम देखने लगा। उसमें वो फोटो मिल गई। फिर क्या था? मैंने दीदी के एलबम से वो फोटो उड़ा ली। कई महीने बाद दीदी का फोन आया कि अनिल तुम अपने बचपन वाली फोटो तो नहीं ले गए हो? मैंने सच कबूल कर लिया। लेकिन तब तक मैं पुरानी फोटो की चार बड़ी प्रतियां बनवा चुका था। एक मां-बाप को भेजी, एक भाई को और एक दीदी को। दीदी से उड़ाई गई वही फोटो चस्पा कर रहा हूं। {बीच में कुर्सी पर हम हैं मिठ्ठू मियां, मेरे दाएं हाथ पर नीचे बैठे हैं बड़े भाई जो बॉटनी के प्रोफेसर हैं और बायीं तरफ हैं बड़ी दीदी जो अभी बड़ी डॉक्टर हैं} सोचता हूं, ऐसा क्यों होता है कि खास घटना आम हो जाती है, एक का अनुभव बहुतों का अनुभव बन जाता है। एक अंतराल के बाद भंवरें क्यों खुद

अंधविश्वास अब बन गए हैं ब्रेकिंग न्यूज़

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पिछले कई महीनों से हिंदी न्यूज़ चैनलों ने लगता है अंधविश्वास फैलाने की सुपारी ले रखी है। ज़ी ने जब लंका में अशोक वाटिका ‘खोज’ निकाली तो सभी चैनल इस ‘खोज’ के पीछे भाग निकले। उसके बाद तो चैनलों को परशुराम का धनुष मिल गया। उन्होंने शिव को सच साबित कर दिया। एक चैनल ने गांव से दो भूतों की लाइव करवेज की। लोग देखते रहे। आखिर में कुछ ने दोबारा वह चैनल न देखने की कसमें खाईं क्योंकि आधे घंटे के शो के अंत में दिखाया गया कि दोनों भूत बहुरूपिया थे। मुझे समझ में नहीं आता कि क्या देश का कानून में इस तरह खुलेआम अंधविश्वास फैलाने की छूट देता है? तीसरा खंभा और अदालत शायद इसका बेहतर जवाब दे सकें। फिलहाल एक चैनल ने रावण की वायुसेना और हवाई अड्डों पर ब्रेकिंग न्यूज़ पेश की है। चौंकानेवाली बात ये है कि यह सारा कुछ शोधकर्ताओं के हवाले कहा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि श्रीलंका सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया है। बानगी पेश कर रहा हूं। आप भी गौर फरमाएं और थोड़ा-सा रो लें हमारे चैनलों की हालत पर... रावण के पास थे 5 हवाई अड्डे! सीता को सताने यहीं से उड़ा रावण हरण के बाद यहीं लायी गईं सीता मैया वारियपोला नाम के

गिद्धों-भेड़ियों से भरा है समाज, बच्चों को बचा लो

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आरुषी पर लिखते हुए मैंने साफ कहा था कि “असली कहानी हमारे समाज में बच्चों के साथ होनेवाले सेक्सुअल एब्यूज़ और उसको लेकर मां-बाप के अंधेपन की कहानी है।” लेकिन ज्यादातर लोगों ने इस पर गौर नहीं किया। उन्हें लगा जैसे मैं आरुषी के चरित्र पर कोई लांछन लगा रहा हूं। किसी ने विनम्रता से कहा कि यह पोस्ट अच्छी नहीं लगी तो किसी ने कहा यह ‘निष्कर्ष’ निकालना सही नहीं। तो, मेरा यही कहना है कि आरुषी के मामले में मैंने कोई निष्कर्ष नहीं निकाला है। यह कयास ही था। लेकिन इस कयास के तीन आधार थे। एक, डॉ. तलवार अपने बेटी का कमरा बाहर से लॉक करके चाभी अपने तकिए के नीचे क्यों रखते थे? दो, आरुषी और हेमराज दोनों का कत्ल एक साथ क्यों किया? और तीन, आरुषी का उद्वेलित मानस जो उसकी कॉपी के कुछ वाक्य प्रयोगों से झलकता है। इसके बावजूद यह विशुद्ध कयास और अनुमान ही था। कल को यह सही भी निकले तब भी मैं कहीं से भी आरुषी को दोषी नहीं मानता। अरे, कोई बच्ची कैसे गलत हो सकती है जब उसे ठीक-ठीक यह भी नहीं पता कि वह क्या कर रही है? लेकिन इस कयास ने एक ऐसे पहलू को सामने लाने का मौका दिया है, जिसे हम नजरअंदाज़ करते रहे हैं और कर रहे

आरुशी का आज जन्मदिन है, मरी कहां ज़िंदा है वह

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नौ दिन पहले जो आरुषी मार दी गई, आज उसका जन्मदिन है। 24 मई, 1994 को जन्मी आरुषी आज होती तो पूरे 14 साल की हो गई होती। मां-बाप की इकलौती संतान थी। नाना-नानी की इकलौती नतिनी थी। सबकी प्यारी थी, राजदुलारी थी। लेकिन बाप ने अपनी ही राजदुलारी की हत्या कर दी। क्यों कर दी? पुलिस की थ्योरी है कि आरुषी के पिता डॉ. राजेश तलवार के अपने ही साथ काम करनेवाली डॉ. अनीता दुर्रानी से अवैध संबंध थे। आरुषी इसको लेकर अपने पिता से नाराज़ रहती है और ऐतराज़ भी जताती थी। यहां तक कि वह घर के नौकर के साथ इसको लेकर बात किया करती थी। ध्यान दें, घर में कुल चार सदस्य थे। बाप राजेश तलवार, मां नूपुर तलवार, बेटी आरुषी और नौकर हेमराज। इनमें दो सदस्य आरुषी और हेमराज मर चुके हैं तो वे पुलिस को बता नहीं सकते कि उनके बीच क्या बातें हुआ करती थीं। और, आरुषी बाप के अवैध रिश्तों के बारे में हेमराज से की गई बात अपने मां या बाप को नहीं बता सकती थी। बाकी बचे दो लोगों में से मां नूपुर तलवार ने चुप्पी साध रखी है और बाप राजेश तलवार अपने को निर्दोष बता रहा है तो वह पुलिस को हत्या का ‘मोटिव’ नहीं बता सकता। फिर पुलिस को कैसे पता चला कि आर

उर्दू एक कोठे की तवायफ है, मज़ा सब लेते हैं...

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गीत चतुर्वेदी ने भाषा की राजनीति पर एक जबरदस्त लेख लिखा है। इधर एक नई अंग्रेजी पत्रिका Covert में भी मशहूर बवालिया लेखक खुशवंत सिंह ने उर्दू की हालत को इतनी गहराई से बयां किया है कि उसे पेश करने से खुद को नहीं रोक पा रहा। हो सकता है इससे पत्रिका के कॉपीराइट का उल्लंघन हो। लेकिन कॉपीराइट जाए भाड़ में। हमें तो सच जानने का हक है और इस पत्रिका ने आज छपे अपने विज्ञापन में लिखा भी है - We hope to tease the truth out of the wrinkles of secrecy and restore the breath of life to news. तो पढ़िए उर्दू के हाल पर खुशवंत सिंह क्या कहते हैं.... उर्दू का मुकद्दर दो पड़ोसी मुल्कों में एक के बाद एक, दो दिनों में तय किया गया। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में, जब इसने खुद को एक संप्रभु, स्वतंत्र मुस्लिम गणतंत्र घोषित कर दिया। अगले दिन 15 अगस्त को भारत में, जब इसने खुद को एक संप्रभु, पंथ-निरपेक्ष (और बाद में समाजवादी) राष्ट्र घोषित किया। पाकिस्तान ने उर्दू को तमाम इलाकों में बोली जानेवाली भाषाओं – पंजाबी, पश्तो, बलूच, सरायकी और सिंधी से ऊपर अपनी राष्ट्रीय भाषा के बतौर स्वीकार किया। भारत ने क्षेत्रीय भाषाओं

तुम तोप हो, तमंचे हो! तो हुआ करो, हमसे क्या?

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न गांव के, न गिरांव के। न अपने कस्बे के, न जिला-जवार के। न भाई, न बंधु। फिर भी तुम लोगों के इतने करीब कैसे हो जाते हो कि तुम्हारे लिए वे कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। तुम्हारा सानिध्य पाने के लिए, तुम्हारा स्पर्श पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह कैसे हो जाता है कि एक हिंदुस्तानी परिवार की नौजवान लड़की सरेआम मंच पर कैमरों के आगे सोनू निगम को इतना कसकर चूमती है कि खून निकल आता है? अपने यहां खूबसूरत नौजवान छोरों की कोई कमी है क्या? फिर सोनू निगम ही क्यों? इसलिए कि वो आज एक सिलेब्रिटी बन चुका है। क्या आप पांचवीं पास से तेज़ हैं, में लोगबाग इसीलिए गदगद हो जाते हैं कि उन्होंने शाहरुख को छुआ, इतने करीब से देखा, उससे बात की, उसके साथ नाचे। क्या यह खुद सिलेब्रिटी बनने का क्रेज है जो इन्हें अपने रोल मॉडल के प्रति आसक्त कर देता है या बरसात में दीवार पर उग आई हनुमान या गणेश के प्रतिमा के दर्शन के लिए टूट पड़ने की मानसिकता है? अगर यह खुद सिलेब्रिटी बनने की लालसा का हिस्सा है तो बड़ी अच्छी और सकारात्मक बात है। हर किसी को बड़े से बड़ा बनने के सपने देखने चाहिए और उसके लिए हरसंभव कोशिश भी

हमें कौए की नहीं, उल्लू जैसी दृष्टि की दरकार है

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इसलिए नहीं कि उल्लू रात के अंधेरे में देखता है और हम चारों तरफ अंधकार से घिरे हैं, बल्कि इसलिए कि कौए की आंखें सिर के दो तरफ होती हैं और वह एक बार में एक ही तरफ देख पाता है, इसलिए हमेशा ‘काक-चेष्ठा’ में गर्दन हिलाता रहता है। जबकि उल्लू की आंखें चेहरे पर सीधी रेखा में होती हैं। वह कौए की तरह किसी चीज़ को एक आंख से नहीं, बल्कि दोनों आंखों से बराबर देखता है। अपनी गर्दन पूरा 180 अंश पीछे भी मोड़ सकता है। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम दोनों आंखों से देख सकने की क्षमता के बावजूद कौए के मानिंद बने हुए हैं। एक बार में किसी चीज का एक ही पहलू देखते हैं। स्थिरता को देखते हैं तो गति को नहीं, अंश को देखते हैं तो समग्र को नहीं, जंगल को देखते हैं तो पेड़ को नहीं, व्यक्ति को देखते हैं तो समाज को नहीं। चंद दिनों पहले ही मैंने नेतृत्व के बारे में केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के एक गुरु का लेख पढ़ा, जिसमें लिखा गया था कि मार्क्सवाद व्यक्तिगत नेतृत्व में यकीन नहीं करता। मार्क्सवाद मानता है कि आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन अपनी मस्त चाल से जा रहे हाथी की तरह हैं। जिस तरह हाथी के शरीर पर चढ़ी चींटी नहीं कह सकती कि

मंगल को मंदिर, शुक्र को मस्जिद, अल्ला-हो-अकबर

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ये कौन-से अल्ला के बंदे हैं जो केवल फसाद फैलाने के लिए कोहराम मचा रहे हैं? जयपुर में कल शाम का धमाका मंदिरों के आसपास हुआ, कल मंगलवार था। 7 मार्च 2006 को भी मंगलवार था, जब बनारस के संकटमोचन मंदिर में विस्फोट हुए थे। 14 अप्रैल 2006 को दिल्ली की जामा मस्जिद में धमाके हुए तो उस दिन शुक्रवार था। मालेगांव की नूरानी मस्जिद के बाहर 8 सितंबर 2006 को बम फटे तो लोग जुमे (शुक्रवार) की नमाज पढ़कर बाहर निकल रहे थे। हैदराबाद की मक्का मस्जिद में 18 मई 2007 को हुए धमाकों का दिन भी शुक्रवार ही था। साफ है कि मंगलवार को मंदिरों और शुक्रवार को मस्जिदों के आसपास हमले करके आतंकवादी धर्म में आस्था रखनेवालों को शिकार बना रहे हैं। और, कमाल की बात है कि ये आतंकवादी खुद इस्लाम धर्म के कट्टर अनुयायी हैं, जेहादी हैं। कमाल की बात यह भी है कि इनके चंगुल में कम पढ़े-लिखे और मदरसों से निकले मुस्लिम नौजवान ही नहीं आ रहे, बल्कि इंजीनियर से लेकर डॉक्टर जैसे अति-शिक्षित नौजवान भी इनके ‘पाक’ मकसद के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या किसी मध्य-युगीन धर्म के लिए आज के युग में कोई राजनीतिक स्पेस बचा रह गया ह

मेरे बिना तुम्हारा घर ठीक ही चल रहा है तो...

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मानस-मानसी। वह चांद तो वो चकोरी। सात साल पहले जिस तरह, जिन हालात में मिले, उसी समय उन्हें लग गया था कि वे एक दूजे के लिए हैं, made for each other… उन्होंने साथ-साथ बैठकर सोचा भी था कि बुढ़ापा आने तक उनकी शक्लें जब आपस में मिलने लगेंगी तो वे अलग-अलग कैसे दिखेंगे। खैर, इसकी परख तो अभी काफी दूर है। फिलहाल हाल यह है कि वह सोचता भी है तो वो जान लेती है। वो कुछ बोलने को होती तो वह वही बात पहले ही बोल देता है। झगड़े भी होते रहते हैं। लेकिन क्या बताऊं, इधर ऊर्मि और उर्मिलेश में कटा-कटी कुछ ज्यादा ही मची हुई है। उस दिन भी कोई मामूली-सी बात थी। तकरार हुई। थोड़ा रोना-धोना हुआ। फिर ऊर्मि अपने ज़रूरी काम से लखनऊ चली गई। दस दिन बाद वहां से फोन पर पूछा कि घर कैसे चल रहा है तो उर्मिलेश ने कहा – मजे में चल रहा है एकदम ठीक। आने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसके कहने का मतलब था कि आने की हड़बड़ी करने की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन ऊर्मि ने बात दिल पर ले ली। उसने फौरन एसएमएस किया – If your home is running fine without me, where is the need to come back? फिर तो एसएमएस से ही बात करने का सिलसिला चल निकला। उर्मिलेश ने लि

किसी गैर के हाथ की कठपुतलियां नहीं हैं हम

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हरिमोहन बड़े भाई की तरह डपट पड़े कि आपका इरादा क्या है? यशवंत बोल पड़े - ए महराज, सबेरे-सबेरे रोवाएंगे क्या? समीरलाल उडनतश्तरी से उड़ते हुए तसल्ली देकर चले गए कि आप तो नाहक ही भावुक हो गए। हम हैं न। फिर भी आते रहेंगे टिपियाने। नई पोस्ट नहीं मिलेगी तो भी पुरानी पर टिपिया जाएंगे। शिवकुमार मिश्र ने तो पूरी पोस्ट ही ठेल दी और ब्लॉगर हलकान ‘विद्रोही’ की ब्लॉग वसीयत लिख मारी। कई दिन बीत गए। समीरभाई ने फिर पुकारा – कहां गुम हो गए भाई! स्वदेशियों के अलावा कुछ परदेशियों ने भी ई-मेल पर शिकायत की कि मैं कुछ लिख क्यों नहीं रहा। फिर भी मैं अपनी तंद्रा में पड़ा रहा। ब्लॉग पर न अपना कुछ लिखा, न ही औरों का लिखा पढ़ा। 28 अप्रैल से 11 मई तक। इस तरह आज तेरहवीं हो गईं तो ख्याल आया कि चलो फिर से उठ बैठा जाए। दिक्कत यह है कि मैंने जिस असाध्य अटल समस्या को इंगित करने की कोशिश की थी, उसे कोई समझ नहीं सका। फिलहाल ब्लॉग की रूह तलाशते चंद्रभूषण ने तो पढ़कर ऐसा मुंह बिराया कि बोल पड़े - Oh Dear, this regular morbidity is soooooooo boooooooring! हां, संजय ने दार्शनिक अंदाज़ में ही सही, पर कुछ ऐसी बात कही जो