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Showing posts from September, 2007

मौत की लंबी खुमारी

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सुबह से ही आकाश की हालत खराब है। नींद पर नींद आए जा रही है। उठ रहा है, सो रहा है। रात दस बजे का सोया सुबह नौ बजे उठा। लेकिन ग्यारह घंटे की पूरी नींद के बावजूद उठने के पंद्रह मिनट बाद फिर सो गया। इसके बाद उठा करीब सवा ग्यारह बजे। लेकिन मुंह-हाथ धोने और नहाने के बाद भी उसे नींद के झोंके आते रहे। बस चाय पी और सो गया। दो बजे उठकर खाना खाया और फिर सो गया। आकाश को समझ में नहीं आ रहा था कि यह हफ्ते भर लगातार बारह-बारह, चौदह-चौदह घंटे काम करने का नतीजा है या मौत की उस लंबी खुमारी का जो एक अरसे से उस पर सवार थी। मौत की खुमारी बड़ी खतरनाक होती है, आपको संज्ञा-शून्य कर देती है। इसमें डूबे हुए शख्स को मौत की नींद कब धर दबोचेगी, उसे पता ही नहीं चलता। आखिर खुमारी और नींद में फासला ही कितना होता है। कब आप झीने से परदे के उस पार पहुंच गए, पता ही नहीं चलता। आकाश की ये खुमारी कब से शुरू हुई, खुमारी के चलते उसे कुछ भी याद नहीं। याददाश्त भी बहुत मद्धिम पड़ गई है। लेकिन लगता है कि इसकी शुरुआत साल 1982 की गरमियों में उस दिन से हफ्ता-दस दिन पहले हुई थी, जब उसने कुछ लाइनें एक कागज पर लिखी थीं। वह कागज तो पत्त

जब करने बैठा उम्र का हिसाब-किताब

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आकाश आज अपनी उम्र का हिसाब-किताब करने बैठा है। कितना चला, कितना बैठा? कितना सोया, कितना जागा? कितना उठा, कितना गिरा? कितना खोया, कितना पाया? अभी कल ही तो उसने अपना 46वां जन्मदिन मनाया है। 28 सितंबर। वह तारीख जब भगत सिंह का जन्मदिन था, लता मंगेशकर का था, कपूर खानदान के नए वारिस रणबीर कपूर का था और उसका भी। हो सकता है इस तारीख में औरों के लिए बहुत कुछ खास हो। लेकिन उसके लिए यह एक मामूली तारीख है। बस, समय की रस्सी पर बांधी गई एक गांठ। हां, अनंत से लटकी इस रस्सी पर आकाश को कहां तक चढ़ना है, उसे नहीं मालूम। चढ़ना है तो चढ़ रहा है क्योंकि नीचे उतरने के लिए रस्सी हमेशा अंगुल भर ही बची रहती है। सच कहूं तो आकाश को यह भी अहसास नहीं है कि 46 साल की उम्र के मायने क्या होते हैं। छोटा था तो 46 की उम्र बहुत बड़ी उम्र हुआ करती थी। 50 से सिर्फ चार साल कम। यानी बज्र बुढ़ापे से एकदम करीब। लेकिन आज तो उसे लगता है कि उसकी उम्र कहीं 20 साल पहले अटक कर रह गई है। रस्सी आपस में ऐसा उलझ गयी है कि नई गांठ लग ही नहीं रही। उम्र से इम्यून हो जाने का वक्त शायद तब आया था जब वह 22 साल का था और यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूर

महापुरुष नहीं होते हैं शहीद

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भगत सिंह ज़िंदा होते तो आज सौ साल के बूढ़े होते। कहीं खटिया पर बैठकर खांस रहे होते। आंखों से दिखना कम हो गया होता। आवाज़ कांपने लग गई होती। शादी-वादी की होती तो दो-चार बच्चे तीमारदारी में लगे होते, नहीं तो कोई पूछनेवाला नहीं होता। जुगाड़ किया होता तो पंजाब और केंद्र सरकार से स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन पा रहे होते। एक आम आदमी होते, जिनका हालचाल लेने कभी-कभार खास लोग उनके पास पहुंच जाते। लेकिन वैसा नहीं होता, जैसा आज हो रहा है कि पुश्तैनी गांव में जश्न मनाया जाता, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिक्का जारी करते और नवांशहर का नाम बदलकर शहीद भगत सिंह शहर कर दिया जाता। भगत सिंह के जिंदा रहने पर उनकी हालत की यह कल्पना मैं हवा में नहीं कर रहा। मैंने देखी है पुराने क्रांतिकारियों की हालत। मैंने देखी है गोरखपुर के उस रामबली पांडे की हालत, जिन्होंने सिंगापुर से लेकर बर्मा और भारत तक में अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी थी। उनकी पत्नी को सिंगापुर में क्रांतिकारी होने के नाते फांसी लगा दी गई। हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तब भी पांडे जी अवाम की बेहतरी के लिए लड़ते रहे। पहले सीपीआई छोड़कर सीपीएम में गए, फिर बुढ़ापे

विचारों और गुरुत्वाकर्षण में है तो कोई रिश्ता!

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सुनीता विलियम्स इस समय भारत में हैं और शायद आज हैदराबाद में 58वीं इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉटिकल कांग्रेस (आईएसी) के खत्म होने के बाद वापस लौट जाएंगी। वैसे तो उनसे मेरा मिलना संभव नहीं है। लेकिन अगर मिल पाता तो मैं उनसे एक ही सवाल पूछता कि जब आप 195 दिन अंतरिक्ष में थीं, तब शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में आपके मन के कैसे विचार आते थे, आते भी थे कि नहीं? कहीं उस दौरान आप विचारशून्य तो नहीं हो गई थीं? असल में एक दिन यूं ही मेरे दिमाग में यह बात आ गई कि हमारे विचार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ही एक रूप हैं। स्कूल में पढ़े गए ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत से इस विचार को बल मिला और मुझे लगा कि जहां गुरुत्वाकर्षण बल नहीं होगा, वहां विचार और विचारवान जीव पैदा ही नहीं हो सकते। जिस तरह चिड़िया अपने पंख न फड़फड़ाए या हेलिकॉप्टर अपने पंख न घुमाए तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ेगा, उसी तरह इंसान विचार न करे तो वह धरती में समा जाएगा, मिट्टी बन जाएगा। वैसे मुझे पता है कि यह अपने-आप में बेहद छिछला और खोखला विचार है क्योंकि अगर ऐसा होता तो धरती के सभी जीव विचारवान होते, जानवर, पेड़-पौधों और इंसान के मानस में कोई फर्क ह

चीन और भारत बराबर भ्रष्ट हैं

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चीन विकास के बहुत सारे पैमानों पर भारत से आगे हो सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पैमाने पर दोनों दुनिया में इस साल 72वें नंबर पर हैं। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट में यह बात कही गई है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख हुग्युत्ते लाबेले के मुताबिक उनका करप्शन परसेप्शंस इंडेक्स (सीपीआई) असली भ्रष्टाचार का पैमाना नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि दुनिया के विशेषज्ञ किसी देश को कितना भ्रष्ट मानते हैं। इन विशेषज्ञों का चयन कैसे किया जाता है, इसके बारे में ट्रासपैरेंसी इंटरनेशनल की साइट कुछ नहीं बताती। इस बार 180 देशों का सीपीआई निकाला गया और इसमें न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क और फिनलैंड 10 में 9.4 अंकों के साथ सबसे ऊपर हैं, जबकि सोमालिया और म्यांमार 1.4 अंक के साथ आखिरी पायदान पर हैं। इनके ठीक ऊपर 1.5 अंक के साथ अमेरिकी आधिपत्य वाले इराक का नंबर आता है। भारत और चीन के 3.5 अंक हैं। इतने ही अंकों से साथ इसी पायदान पर सूरीनाम, मेक्सिको, पेरू और ब्राजील भी मौजूद हैं। भारतीय महाद्वीप में हमसे ज्यादा भ्रष्ट क्रमश: श्रीलंका (3.2), नेपाल (2.5), पाकिस्तान (2.4) और बांग्लादेश (2.0) हैं। लेकिन श

मैंने देखी आस्तीन के अजगर की मणि, कल ही

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आस्तीन के सांप के बारे में आपने ही नहीं, मैंने भी खूब सुना है। आस्तीन के सांपों से मुझे भी आप जैसी ही नफरत है। लेकिन कल मैंने आस्तीन का अजगर देखा और यकीन मानिए, दंग रह गया। मैंने उसकी मणि को छूकर-परखकर देखा और पाया कि आस्तीन के इस अजगर में छिपा हुआ है एक उभरता हुआ प्रतिभाशाली लेखक। माफ कीजिएगा। इस नए ब्लॉगर से आपका परिचय कराने के लिए इस पोस्ट में चौकानेवाला शीर्षक लगाकर मैं आपको यहां तक खींच कर लाया हूं। क्या करता मैं? इस ब्लॉगर ने अपना नाम ही आस्तीन का अजगर रखा है और इसके बारे में मैं और कुछ जानता ही नहीं। इसके प्रोफाइल से पता ही नहीं लगता कि इसका असली नाम क्या है, इसकी उम्र क्या है, रहता कहां है। और इसने अपने नए-नवेले ब्लॉग का नाम भी रखा है – अखाड़े का उदास मुगदर। मैंने धड़ाधड़ इस ब्लॉग की सभी पोस्ट पढ़ डाली और तभी पता चला कि इनके लेखन में कितना दम है, इनकी सोच में कितनी ताज़गी है। कुछ बानगी पेश है। पहले जिये का कोई अगला पल नहीं होता की कुछ लाइनें देख लीजिए। "कभी गौतम बुद्ध ने पीछे मुड़कर अपने दुनियादार अतीत को देखा होगा भी तो शायद किसी दृष्टांत के साथ ही. जो गैरजरूरी था, अस्वीक

मची है उन्माद की लूट

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आज मुंबई की सड़कों पर टीम इंडिया के स्वागत पर जैसा उन्माद दिखा और फिर पवार मार्का नेताओं ने जिस तरह इसे भुनाने की कोशिश की, उस पर मेरी पत्नी से रहा नहीं गया और उन्होंने लिख डाली ये पोस्ट। आप भी गौर फरमाइए। शायद आपको इसमें अपनी भी भावनाओं और सवालों की झलक मिल जाए। क्रिकेट खेल था। धर्म कब से बन गया? खेल, उत्साह था। उन्माद कब से बन गया। ******** खिलाड़िय़ों के लिए खेल उन्माद हो तो समझ में आता है। एक आदमी के लिए खेल, खेल ही रहता तो अच्छा होता। खुश होता, जीत की खुशिय़ां मनाता और दूसरे दिन काम पर लग जाता। ********** मैं एक आम आदमी हूं। सड़कों पर उतरकर भेड़ हो गया, भीड़ का हिस्सा हो गय़ा। भीड़ बनकर मैंने सोचना बंद कर दिय़ा। कि मेरी गाढ़ी कमाई से कटा टैक्स कहां जा रहा है। कि मेरी कामवाली बाई के पास एक छाता तक नहीं और मैंने उसे सौ रुपए की मदद तक नहीं की। यहां, रैपिड एक्शन फोर्स, नेताओं की सफेद वर्दी, करोडों के इंत़जामात, रुके हुए ट्रैफिक से रुका हुआ व्य़ापार...सबकी क़ीमत मैं सहर्ष उठाऊंगा। खुशिय़ां जो मनानी है। उन्माद के सिवा अब कोई खुशी भाती नहीं। *********** मैं एक य़ुवा लड़की हूं। कितनी खुश हुई wow

अपमानित हॉकी टीम भूख हड़ताल करेगी

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भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी है। लेकिन हमें इससे क्या, हम तो क्रिकेट के दीवाने हैं! और हमारी इस दीवानगी को बीसीसीआई ही नहीं, देश के नेता तक भुनाने में लग गए हैं। सबसे आगे हैं बीसीसीआई के अध्यक्ष और कृषि मंत्री शरद पवार। इसके बाद आते हैं उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल और फिर आती हैं महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक की राज्य सरकारें। लेकिन भारतीय हॉकी इससे खुद को इतना अपमानित महसूस कर रही है कि राष्ट्रीय हॉकी कोच जोक्विम कार्वाल्हो, मैनेजर आर के शेट्टी और टीम के चार खिलाड़ियों विक्रम कांत, वी आर रघुनाथ, एस वी सुनील और इग्नास तिरकी ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के घर के आगे भूख हड़ताल करने का फैसला किया है। उनकी शिकायत यह है कि अभी ढाई हफ्ते पहले ही भारतीय हॉकी टीम ने एशिया कप बेहद शानदार अंदाज में जीता है। टीम ने इस टूर्नामेंट में 57 गोल किए जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। लेकिन देश के इस राष्ट्रीय खेल के लिए महज जुबानी शाबासी दी गई, जबकि 20/20 विश्व कप जीतनेवाली क्रिकेट टीम पर करोड़ों न्योछावर किए जा रहे हैं। कर्नाटक सरकार की हालत ये है कि उसने हॉकी टीम को जीतने की बधाई तक नहीं दी है, जबकि क

राम-राम! गजब गड्डम-गड्ड, पलट गई बीजेपी

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रामसेतु के मुद्दे पर बीजेपी पलट गई है। बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने बयान दिया है कि उनकी पार्टी सेतु-सुंदरम परियोजना के खिलाफ नहीं है। उसे तो एतराज इस परियोजना के केवल ‘एलाइनमेंट’ पर है। वेंकैया नायडू ने कहा, “कोई भी इस परियोजना के खिलाफ कैसे हो सकता है। कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने जिस तरह की टिप्पणियां की हैं, हम उससे आहत हुए हैं।” सेतु-सुंदरम परियोजना घाटे का सौदा सेतु-सुंदरम परियोजना के लिए कर्ज का इंतज़ाम करनेवाले एक्सिस बैंक (पूर्व नाम, यूटीआई बैंक) के प्रमुख अधिकारी आशीष कुमार सिंह का कहना है कि इस परियोजना की लागत इतनी बढ़ गई है कि अब उसे कभी पूरा ही नहीं किया जा सकता। साल 2004 में जब इस परियोजना का खाका बनाया गया था, तब इसकी अनुमानित लागत 2427 करोड़ रुपए थी, जिसमें से 971 करोड़ रुपए सरकार की इक्विटी के रूप में लगने थे और बाकी 1456 करोड़ रुपए कर्ज से जुटाए जाने थे। साल 2005 में ही इसकी लागत बढ़कर 3500 करोड़ रुपए हो चुकी है और तब से लगातार बढ़ती जा रही है। इस बढ़ी लागत के चलते अब इसे बनाना पूरी तरह घाटे का सौदा बन चुका है। इसलिए इसके लिए कोई भी कर्ज देने को तैयार नह

पाकिस्तान की हार पर इतनी बल्ले-बल्ले?

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दिल पर हाथ रखकर बताइए कि अगर ट्वेंटी-ट्वेंटी के फाइनल में भारत ने पाकिस्तान के बजाय ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, इंग्लैंड, बांग्लादेश या श्रीलंका को हराया होता, तब भी क्या आप इतना ही बल्ले-बल्ले करते? यकीनन नहीं। क्यों? क्योंकि 60 साल पहले हुए बंटवारे का घाव हर भारतीय के अवचेतन में अब भी टीसता है। ऊपर से दंगों की राजनीति और चार युद्धों ने इस घाव को कभी भरने नहीं दिया है। फिर, इस विभाजक राजनीति को बराबर हवा देता है पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। अगर पाकिस्तान को खेल के मैदान में हराने का यह जुनून दोनों तरफ के दिलों में पैठी नफरत के शमन (purging act) का काम करता तो मुझे अच्छा लगता। लेकिन आपत्ति इस बात पर है कि यह जुनून भयंकर युद्धोन्माद की ज़मीन तैयार करता है। ऐसे में एक भावुक हिंदुस्तानी की तरफ से मेरा यह सवाल है और अपील भी कि क्या इतिहास की भयानक भूल को सुधारा नहीं जा सकता? क्या जर्मनी, ऑस्ट्रिया, कोरिया, यमन या वियतनाम की तरह भारत-पाकिस्तान कभी एक नहीं हो सकते? क्या यूरोपीय संघ की तरह कोई भारतीय महासंघ नहीं बन सकता? लेकिन जानकार लोग कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है और हमें अखंड भारत या भारतीय

मिसफिट लोगों का जमावड़ा है ब्लॉगिंग में

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कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता बाज़ार में अपनी कीमत खोजने निकले ज्यादातर लोगों को भी मुकम्मल जहां नहीं मिलता, सही और वाजिब कीमत नहीं मिलती। मिलती भी है तो उस काबिलियत की नहीं जो उनके पास है। जिसने जिंदगी भर साइंस पढ़ा, फिजिक्स में एमएससी टॉप किया, उसे असम के करीमगंज ज़िले का डीएम बना दिया जाता है। जिसने इलेक्ट्रॉनिक्स में आईआईटी किया, उसे कायमगंज का एसपी बना दिया जाता है। किसी कवि को रेलवे में डायरेक्टर-फाइनेंस बनना पड़ता है तो किसी फुटबॉल खिलाड़ी को हस्तशिल्प विभाग में ज्वाइंट सेक्रेटरी की कुर्सी संभालनी पड़ती है। ऊपर से सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में कम से कम 3.50 करोड़ बेरोज़गार हैं जिनको बाज़ार दो कौड़ी का नहीं समझता। जिनको कीमत मिली है, वो भी फ्रस्टेटेड हैं और जिनको अपनी कोई कीमत नहीं मिल रही, वो भी विकट फ्रस्टेशन के शिकार हैं। हमारे इसी हिंदीभाषी समाज के करीब हज़ार-पंद्रह सौ लोग आज ब्लॉग के ज़रिए अपना मूल्य आंकने निकल पड़े हैं। इनमें से कुछ सरकारी अफसर है, कुछ प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां करते हैं, बहुत से पत्रकार हैं और बहुत से स्ट्रगलर

क्या आप राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मानेंगे?

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आप मानें या न मानें। कांग्रेस ने तो इसकी तैयारी कर ली है। आज ही राहुल गांधी को पार्टी का महासचिव बना दिया गया। अभी राहुल की उम्र 37 साल है और इतिहास की बात करें तो उनके पिता राजीव गांधी 40 साल की उम्र में देश के प्रधानमंत्री बन गए थे। यानी, पूरे आसार हैं कि अगर 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला तो सारे कांग्रेसी 39 साल के राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चाटुकारिता की सारें हदें पार कर जाएंगे। वैसे, राहुल गांधी और उनके पिता में कई समानताएं नज़र आ रही हैं। राजीव गांधी ने मई 1981 में जब राजनीति में प्रवेश किया था, तब उनकी भी उम्र 37 साल थी। एक महीने बाद वो अमेठी से एमपी चुन लिए गए। दो साल बाद 1983 में राजीव गांधी को कांग्रेस का महासचिव बना दिया गया। लेकिन राहुल और राजीव में समानता यहीं आकर ठहर जाती है क्योंकि जिन हालात में राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था, वे अपवाद थे और अपवादों को नियम नहीं माना जा सकता। ऑपरेशन ब्लू स्टार का पाप 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया था। फिर हुए थे दिल्ली और सारे देश में सिख विरोधी दंगे। इ

चलो आज निकालते हैं अपना मूल्य

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आज निकला हूं मैं अपना मूल्य निकालने। आध्यात्मिक अर्थों में नहीं, विशुद्ध सांसारिक अर्थों में। खुद को तो हम हमेशा मां की नज़र से ही देखते हैं। जिस तरह मां की नज़रों में काना बेटा भी पूरे गांव-जवार का सबसे खूबसूरत बेटा होता है, उसी तरह हम अपने प्रति मोहासिक्त होते हैं। घर-परिवार और दोस्तों के बीच, जब तक आप उपयोगी हैं, तब तक आप अ-मूल्य होते हैं। इनके लिए आप बस आप ही होते हैं। आपका कोई स्थानापन्न नहीं होता। आप का विनिमय नहीं हो सकता। लेकिन जब आप उपयोगी नहीं रहते तो अमूमन पलक झपकते ही दो कौड़ी के हो जाते हैं। ये अलग बात है कि प्यार के रिश्तों में फायदा नुकसान नहीं देखा जाता, वहां किसी रिटर्न की अपेक्षा नहीं होती, इसलिए वहां कीमत की बात ही नहीं आती। असली मूल्यांकन तब शुरू होता है जब आप अपने और अपनों की परिधि से बाहर निकलते हैं। आपका असली मूल्य भी वही होता है जो दूसरे आंकते हैं। खुद की नज़र में तो हम कोहिनूर हीरे से कम नहीं होते। लेकिन आज बाज़ार में खुद को बेचने निकले ज्यादातर लोगों की शिकायत है कि लोग उनकी काबिलियत की कदर नहीं करते। वो जितना कर सकते हैं, उन्हें उसका मौका नहीं दिया जा रहा। सब

हमारी तो अपनी ज़मीन है, तुम्हारा क्या है?

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मैं आज यह जानकर अचंभे और शर्म से गड़ गया कि दुनिया में सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोलने और जानने वाले भारत में हैं। दस-बारह साल पहले अमेरिका को ये सम्मान हासिल था। लेकिन आज भारत में करीब 35 करोड अंग्रेज़ी बोलने, समझने और सीखनेवाले लोग हैं। यह संख्या ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की कुल अंग्रेजी बोलनेवाली आबादी से ज्यादा है। दिलचस्प बात ये है कि भारत में अंग्रेज़ी का इतना तेज़ प्रचार पिछले 20-25 सालों में हुआ है क्योंकि अस्सी के दशक में यहां अंग्रेजी बोलनेवालों की संख्या आबादी की महज 4-5 फीसदी हुआ करती थी। यानी, यह कहना ठीक नहीं है कि अंग्रेज़ चले गए, मगर अपनी औलादें यहीं छोड़ गए क्योंकि हमने किसी औपनिवेशिक हैंगओवर के चलते नहीं, अपनी मर्जी से अंग्रेजी को अंगीकार किया है। लेकिन इसके बावजूद, जो लोग देश में अंग्रेजी के इस बढ़ते दबदबे और चलन को लेतर चिंतित रहते हैं, मुझे उनका डर अतिरंजित लगता है क्योंकि अंग्रेजी कितनी भी बढ़ जाए, वह किसी और मुल्क में पैदा हुई है। इसलिए अंग्रेजी का भारतीयकरण तो हो सकता है। उसका अलग भारतीय संस्करण बन सकता है। लेकिन हम अपने दम पर उस भाषा की मूल संरचना

कभी दोस्त बन के मिला करो

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हम बहुत सारी चीजों को ही नहीं, बहुत सारे लोगों को भी टेकन-फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं। खासकर उन लोगों को जो हम से बेहद करीब होते हैं जैसे बीवी-बच्चे। ये लोग हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं उसी तरह जैसे हमारे हाथ-पांव, हमारी आंख-नाक, हमारे कान जिनके होने को हम पूरी तरह भुलाए रहते हैं जब तक इनमें से किसी को चोट नहीं लग जाती। इनके न होने का दर्द उनसे पूछा जाना चाहिए जो फिजिकली चैलेंज्ड हैं। इसी तरह जिन बीवी-बच्चों को हम घर की मुर्गी दाल बराबर समझते हैं, जो हमारे लिए भौतिक ही नहीं, मानसिक सुकून का इंतज़ाम करते हैं, उनके होने की कीमत हमें उनसे पूछनी चाहिए जो इनसे वंचित हैं, 35-40 के हो जाने के बावजूद छड़े बनकर जिंदगी काट रहे हैं। एक दिक्कत हम पांरपरिक भारतीयों के साथ और भी है कि हम औरों पर तो जमकर खर्च कर देते हैं, लेकिन जहां कहीं खुद पर खर्च करने की बात आती है, वहीं हम पूरी कंजूसी पर उतर आते हैं। मितव्ययी, अपने को कष्ट में रखनेवाला व्यक्ति बड़ा सदगुणी माना जाता है अपने यहां। गांधीजी की महानता की और भी तमाम वजहें रही होंगी, लेकिन एक वजह यह भी थी कि वे सर्दी, गरमी और बरसात, हर मौसम में एक

इतिहास नहीं, हमारे लिए तो मिथक ही सच

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इतिहास के प्रोफेसरों के लिए राम-कृष्ण भले ही काल्पनिक चरित्र हों, लेकिन मेरे जैसे आम भारतीय के लिए राम और कृष्ण किसी भी चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, अकबर, औरंगजेब या बहादुर शाह जफर से ज्यादा प्रासंगिक हैं। राम अयोध्या में जन्मे हों या न हों, कृष्ण द्वारकाधीश रहे हों या न हों, लेकिन हमारे लिए ये किसी भी ऐतिहासिक हस्ती से कहीं ज्यादा मतलब के हैं। गौतम बुद्ध, महावीर, कबीर तो इतिहास के वास्तविक चरित्र रहे हैं, जिनके जन्म से लेकर मरने तक के साल का पता है, लेकिन हमारे लिए इनकी ऐतिहासिक नहीं, बल्कि मिथकीय अहमियत ज्यादा है। रामचरित मानस की चौपाइयां, गीता के श्लोक, बुद्ध की जातक कथाएं और कबीर-रहीम के दोहे हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी को सजाते-संवारते हैं। हमारे लिए इतिहास तो स्कूल-कॉलेज और विश्व विद्यालय में पढ़ाया जानेवाला एक उबाऊ विषय भर है जिसे हम पास होने के लिए रटते रहे हैं। वह कहीं से हमारे भीतर कोई इतिहास बोध नहीं पैदा करता। ऐसा नहीं होता कि इतिहास पढ़कर हम अपनी पूरी सभ्यता की निरंतरता से परिचित हो जाएं। इतिहास का पढ़ा-पढ़ाया कुछ सालों बाद जेहन से कपूर की तरह काफूर हो जाता है। बस मोटामोटी जानकार

हर जीत पर बदला लेती है प्रकृति

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इंसान और प्रकृति में क्या रिश्ता है? क्या विकास की कोई सीमा है? हम प्रकृति पर किस हद तक विजय हासिल कर सकते हैं? ये सवाल ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते संकट के बीच बड़े प्रासंगिक हो गए हैं। आज भले ही दुनिया भर में समाजवाद और साम्यवाद के पतन के बाद से मार्क्स-एंगेल्स के विचारों को हिकारत की निगाह से देखा जा रहा हो, लेकिन इन मनीषियों ने वर्ग-संघर्ष और सामाजिक रिश्तों की नहीं, प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों पर भी गंभीरता से सोचा और लिखा था। ऐसा ही एक लेख फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1876 में लिखा था। वैसे तो यह पूरा लेख पठनीय है, लेकिन मुझे इसका नीचे से पांचवां और छठां पैराग्राफ बेहद प्रासंगिक लगा। आप भी चंद मिनट निकालकर इस पर एक नज़र डाल सकते हैं। हमें प्रकृति पर इंसान की जीत से गदगद नहीं होना चाहिए क्योंकि हर जीत के एवज में प्रकृति हम से बदला लेती है। यह सच है कि हर जीत पहले स्तर पर हमारी उम्मीद के अनुरूप नतीजे देती है, लेकिन दूसरे और तीसरे स्तर पर एकदम भिन्न किस्म के ऐसे अनपेक्षित प्रभाव देखने को मिलते हैं जो अक्सर पहले स्तर के नतीजे को निरस्त कर देते हैं। जिन लोगों ने मेसोपोटामिया, ग्रीस, एशिया माइनर औ

शादी की मियाद बस सात साल हो!

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परेशान मत होइए। यह अभी तक महज एक सुझाव है और वो भी किसी भारतीय का नहीं, बल्कि जर्मनी के बवेरिया प्रांत की राजनेता गैब्रिएल पॉली का। गैब्रिएल अपने प्रांत में क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) के प्रमुख पद की प्रत्याशी हैं। यह चुनाव अगले हफ्ते होना है। सीएसयू जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स (सीडीयू) से जुड़ी हुई पार्टी है। गैब्रिएल पॉली का कहना है कि ज्यादातर शादियां बस इसीलिए चलती रहती हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि वे इस रिश्ते में सुरक्षित हैं। इस नज़रिये की बुनियाद ही गलत है और शादियों की मियाद सात साल तय कर दी जानी चाहिए। मियां-बीवी अगर राजी-खुशी तैयार हों तभी इसे आगे बढ़ाना चाहिए नहीं तो इस रिश्ते को खुद-ब-खुद खत्म मान लिया जाना चाहिए। गैब्रिएल ने खुद अपनी ही पार्टी पर परंपरागत रूढ़िवादी पारिवारिक मूल्यों को प्रश्रय देने का आरोप लगाया है। गैब्रिएल ने इसी साल 26 जून को अपना 50वां जन्मदिन मनाया है और अब तक दो बार उनका तलाक हो चुका है। आपको बता दें कि गैब्रिएल कुछ-कुछ हमारे सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसी नेता हैं। अक्सर कुछ न कुछ ऐसा करती रहती हैं जिस पर बवाल मचता रहता है।

अनागत का भय, आस्था और वर्जनाएं

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लालबाग का राजा। यही कहते हैं मुंबई के लालबाग इलाके में स्थापित होनेवाले गणपति को। गजानन, लंबोदर, मंगलमूर्ति जैसे कई नाम मैंने गणपति के सुने थे। मैंने एक बार रघुराज की जगह अपना लेखकीय नाम मंगलमूर्ति भी रखने को सोचा था। लेकिन आस्थावान लोग मुझे क्षमा करेंगे, जब मैंने दो साल पहले लालबाग का राजा सुना तो मुझे लगा किसी इलाके के दादा की बात हो रही है, मुंबई के किसी गुंडे मवाली की बात हो रही है। संयोग से कल उस इलाके में जाने का मौका मिला तो आस्था का ऐसा ज्वार नज़र आया कि यकीन मानिए, मैं अंदर से हिल गया, आक्रांत-सा हो गया। वैसे, एक बार मुहर्रम के जुलूस में हाय-हसन, हाय-हसन कहकर छाती पीटते लोगों को देखकर भी मैं इसी तरह सिहरा था। लालबाग में हर तरफ श्रद्धालुओं का हुजूम। सैकड़ों कतार में तो सैकड़ों कतार से बाहर। सभी लालबाग के राजा के दर्शन को बेताब। महिलाएं बच्चों के साथ लाइन में लगी हैं। उनके पति भी आसपास मौजूद हैं। नौजवान लड़के-लड़कियां भी हैं। गली मे, सड़क पर कचरा बिखरा है। पानी बरसने से कीचड़ हो गई है। लेकिन बूढ़े बुजुर्ग ही नहीं, जींस-टीशर्ट पहने जवान लड़कियां और लड़के नंगे पांव सड़क पर चले आ र

ट्रस्ट हैं तो स्विस खातों की क्या जरूरत?

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क्या आपको पता है कि देश में धर्म, शिक्षा, कल्याण, खेल-कूद जैसे तमाम कामों के लिए बने सार्वजनिक ट्रस्ट जिस कानून से संचालित होते हैं, वह कानून कब का है? इंडियन ट्रस्ट एक्ट नाम के इस कानून को अंग्रेजों ने 1882 में बनाया था और वही अब भी लागू है। आज़ाद भारत के हमारे कानून-निर्माताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि इस एक्ट की धारा 20-एफ में ट्रस्टों के निवेश के संदर्भ में आज भी ब्रिटेन के शाही परिवार, उस समय के गवर्नर जनरल और रंगून और कराची जैसे शहरों के स्थानीय निकायों की तरफ से जारी प्रतिभूतियों का उल्लेख किया गया है। लेकिन केंद्र सरकार अब इस कानून में आमूलचूल बदलाव लाने पर विचार कर रही है। औपनिवेशिक दासता की उसकी खुमारी क्यों टूटी, इसकी वजह बड़ी दिलचस्प है। पिछले कुछ सालों से देश में हाई नेटवर्थ वाले व्यक्तियों (एचएनआई) की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। साल 2003 के अंत तक देश में 61,000 एचएनआई थे। साल 2006 में ही ये संख्या 20.5 फीसदी बढ़कर एक लाख तक जा पहुंची और अभी इसमें 15-20 फीसदी की गति से वृद्धि हो रही है। एचएनआई का मतलब उस व्यक्ति से है जिसके पास 10 लाख डॉलर यानी 4 करोड़ रुपए से ज्यादा

सॉरी, आप तो मर चुके हैं

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अगर मैं परपीड़क यानी सैडिस्ट होता तो वाकई अब तक मर चुका होता। यह रहस्य मुझे तब पता चला जब मैं कल जापानी टॉय कंपनी के नए उत्पाद ‘क्लॉक ऑफ लाइफ’ के बारे में ज्यादा जानने के लिए गूगल पर सर्च कर रहा था। सर्च में जब मैंने Clock of Life डाला तो deathclock.com नाम की एक साइट का लिंक मिल गया। क्लिक किया तो जन्म की तारीख, साल, बॉडी-मास इंडेक्स और स्मोकर/नॉन-स्मोकर का खाना भरने के बाद एक और खाना था, जिसमें मुझे बताना था कि मैं सामान्य हूं, आशावादी हूं, निराशावादी हूं या परपीड़क हूं। सिगरेट तीन साल पहले छोड़ चुका हूं तो ज़ाहिर है नॉन-स्मोकर भरा। बीएमआई 25 से कम है। यकीनन समीर भाई का बीएमआई 25 से ज्यादा होगा। इतना सारा भरने के बाद असली खेल शुरू हुआ। मैंने पहले भरा कि मैं सामान्य हूं तो डेथ क्लॉक ने बताया कि मैं अभी 28 साल और जिऊंगा। जब मैंने आशावादी का विकल्प चुना तो मेरी उम्र इसके ऊपर 24 साल और बढ़ गई। अब मैंने खुद को निराशावादी घोषित किया तो पता चला कि महज दस साल और मेरे पास हैं। लेकिन जैसे ही मैंने खुद को परपीड़क बताया तो डेथ क्लॉक ने कहा, “I am sorry but your time has expired. Have a nice day”

40 करोड़ बहिष्कृत हैं कल्याणकारी राज्य से

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हम भाग्यशाली हैं कि हम देश के संगठित क्षेत्र के मजदूर या कर्मचारी हैं। हम देश के उन ढाई करोड़ लोगों में शामिल हैं जिनको कैशलेस हेल्थ इंश्योरेंस, पीएफ और पेंशन जैसी सुविधाएं मिलती हैं। पेंशन न भी मिले तो हम हर साल दस हजार रुपए पेंशन फंड में लगाकर टैक्स बचा सकते हैं। हमारे काम की जगहों पर आग से लेकर आकस्मिक आपदाओं से बचने के इंतज़ाम हैं। बाकी 40 करोड़ मजदूर तो अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था उनकी कोई कद्र नहीं करती। इनमें शामिल हैं प्लंबर और मिस्त्री से लेकर कारपेंटर, घर की बाई से लेकर कचरा बीननेवाले बच्चे, बूढ़े और औरतें, गांवों में सड़क पाटने से लेकर नहरें खोदने और खेतों में काम करनेवाले मजदूर। आप यकीन करेंगे कि आजादी के साठ साल बाद भी देश के कुल श्रमिकों के 94 फीसदी असंगठित मजदूर हमारे कल्याणकारी राज्य से बहिष्कृत हैं? लगातार कई सालों से मचते हल्ले के बाद यूपीए सरकार ने इनकी सामाजिक सुरक्षा को अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शुमार तो कर लिया। लेकिन जब अमल की बात आई तो महज एक विधेयक लाकर खानापूरी कर ली। उसने संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन असंगठित क्षेत्र श्रमिक स

चेहरे मिलाना पुराना शगल है अपुन का

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रविवार को फुरसतिया जी को देखा तो कानपुर के दिल्ली निवासी पत्रकार वीरेंद्र सेंगर का चेहरा याद आ गया। चेहरे के भीतर का चेहरा एक जैसा। छोटी-छोटी बातों पर चुटकी लेने, फुलझड़ी छोड़ने का वही अंदाज़। कल लोकल ट्रेन से ऑफिस जा रहा था तो सीट पर आराम से बैठे एक सज्जन दिखे जो दस साल पहले अभय तिवारी जैसे रहे होंगे। चश्मा वैसा ही था। दाढ़ी थी। मैं सोचने लगा कि क्या ये सज्जन भी अभय की तरह निर्मल आनंद की प्राप्ति में लगे होंगे। अंतर बस इतना था कि वो अपने होंठ के दोनों सिरे निश्चित अंतराल पर ज़रा-सा ऊपर उठाते थे और दायां कंधा भी रह-रहकर थोड़ा उचकाते थे। इन दोनों ही वाकयों ने मुझे अपना पुराना शगल याद दिला दिया। राह चलते, भीड़भाड़ में, रैलियों में, ट्रेन की यात्राओं में मैं क्या चेहरे मिलाया करता था! अगर अपरिचित का चेहरा अपने किसी परिचित से मिलता-जुलता हुआ तो बस गिनने लगता था कि दोनों की क्या-क्या अदाएं मिलती-जुलती हैं। ऐसे अपरिचितों से कभी बात करने की हिम्मत तो नहीं हुई, लेकिन मुझे लगता था कि जब चेहरा एक जैसा है तो चरित्र भी एक जैसा होगा। यहां तक कि मन ही मन चेहरों की भी श्रेणियां बना रखी थीं। यह तो शक

पढ़ब-लिखब की ऐसी-तैसी...

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पढ़ाई में फिसड्डी, लेकिन पढ़े-लिखे अपराधियों में पूरे देश में अव्वल। जी हां, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का सच यही है। 57.36 फीसदी की साक्षरता दर के साथ यह देश के 30 राज्यों में 26वें नंबर पर है। लेकिन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट अपराधियों के मामले में उत्तर प्रदेश देश के हर राज्य से आगे है। ऐसे में मुझे बचपन की दो कहावतें याद आ जाती हैं। एक जिसे मेरा हमउम्र बाबूराम अक्सर दोहराया करता था कि पढ़ब-लिखब की ऐसी-तैसी, छोलब घास चराउब भैंसी। और दूसरी कहावत, जिसे हम बच्चे उलटकर बोला करते थे कि पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे खराब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब। आप ही बताइए कि जब एमए-बीए करने के बाद अपराधी ही बनना है तो मां-बाप का पैसा और अपना वक्त जाया करने से क्या फायदा? एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2005 में उत्तर प्रदेश के सज़ायाफ्ता मुजरिमों में से 1048 ग्रेजुएट हैं। इसके बाद 651 ग्रेजुएट मुजरिमों के साथ पंजाब दूसरे और 559 ग्रेजुएट मुजरिमों के साथ मध्य प्रदेश तीसरे नंबर पर है। पोस्ट ग्रेजुएट अपराधियों में भी उत्तर प्रदेश 187

फाइलें जब बन गई थीं हठी विक्रमादित्य

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मानस की ज़िंदगी का वो सबसे बुरा दौर था। चोटी पर पहुंचने के बाद तलहटी का कॉन्ट्रास्ट। वह सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचकर लौटा ही था कि लोगों ने उसे नज़रों से गिरा दिया। ये सारा कुछ किया उन्होंने जिसे वह दोस्त और गाइड मानता था। इन लोगों ने उस पर ऐसा इल्जाम लगाया जिससे दूर-दूर तक उसका कोई वास्ता ही न था। अचानक उसे कातिल ठहरा दिया गया। कानून ने उसे कातिल नहीं माना तो उसके लिए भी इन्हीं लोगों ने कहा कि उन्होंने ही उसे घूस देकर बचाया है। दूसरी तरफ इन्हीं सबने दिल्ली ही नहीं, मुंबई से लेकर कोलकाता तक लोगों को फोन करके उसके ‘अधम’ होने का यकीन दिलाया। मानस ने खुद को टटोला कि कहीं वह सचमुच तो परोक्ष रूप से दोषी नहीं है। उसने पाया कि उसने खुद को सालों से लहरों के हवाले छोड़ रखा था। लहरों के थपेड़े जहां ले गए, वहां जा पहुंचा। हां, बराबर यही कोशिश की कि उसके नीचे कोई न दबे, किसी को उससे तकलीफ न हो। उसने कहीं से भी खुद को दोषी नहीं पाया। वह क्या करता? अज्ञातवास में चला गया। सब से खुद को जान-बूझकर काट लिया। उसने अपनी ज़िंदगी के ग्यारह साल यूं नोचकर बाहर निकाले जैसे कोई जंगल में भटकने के

कितना चौकस है आपका मोबाइल?

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इसे आप आसानी से चेक कर सकते हैं। पहले अपने मोबाइल पर *#06# लिखें। इससे आपके मोबाइल का आईएमईआई (international mobile equipment identity) नंबर उसकी स्क्रीन पर आ जाएगा। अब देखें कि इस नंबर का 7वां और 8वां अंक क्या है। इसी से पता चलेगा कि आपका मोबाइल सेट कितना दुरुस्त है। 1. अगर ये अंक 02 या 20 हैं तो आपका मोबाइल संयुक्त अरब अमीरात में असेम्बल किया गया है और यह बेहद घटिया क्वालिटी का है। 2. अगर ये अंक 08 या 80 हैं तो आपका मोबाइल जर्मनी में बनाया गया है और इसकी क्वालिटी ठीकठाक है। 3. अगर ये अंक 01 या 10 हैं तो आपका मोबाइल फिनलैंड में बनाया गया है और इसकी क्वालिटी काफी अच्छी है। 4. अगर 7वां और 8वां अंक 00 हैं तो आपका मोबाइल मूल फैक्टरी में बनाया गया है और इसकी क्वालिटी सर्वोत्तम है। 5. और, अगर ये अंक 13 का बनता है तो समझ लीजिए इसे अज़रबैजान में असेम्बल किया गया है और इसकी क्वालिटी बेहद घटिया है और यह आपके स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है। मेरे मोबाइल का 7वां और 8वां अंक 01 है। इसलिए मैं तो निश्चिंत हो गया हूं। अब चेक करने की बारी है आपकी। दो मिनट लगा डालिए। मैंने भी एक साथी का मेल मिलने के बाद

9/11 स्वांग था? ग्रीनस्पैन के खुलासे का निहितार्थ

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अमेरिका में इन दिनों जबरदस्त चर्चा है कि 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुआ हमला प्रायोजित था। यह हमला पूरी तरह बुश प्रशासन द्वारा नियोजित था। पेंटागन को कोई नुकसान नहीं होने दिया गया क्योकि वहां जहाज नहीं मिसाइल दागा गया था और जहां पर यह मिसाइल दागा गया था, पेंटागन का वह हिस्सा पहले ही खाली कराया जा चुका था। यहां तक संदेह किया जा रहा है कि लादेन और बुश प्रशासन में इस हमले के लिए पूरी मिलीभगत थी। इस मिलीभगत से जिस दिन वाकई पूरे प्रमाणों के साथ परदा उठेगा, उस दिन पूरी दुनिया में तहलका मच जाएगा। ऐसे तहलके का ट्रेलर अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन एलन ग्रीनस्पैन ने आज जारी की गई अपनी किताब ‘The Age of Turbulence’ में दिखा दिया है। ग्रीनस्पैन अमेरिका की मौद्रिक नीतियों के पितामह रहे हैं। वो 1987 से 2006 तक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन थे और बुश से लेकर इस दौर के हर राष्ट्रपति ने उनकी तारीफ की है। ग्रीनस्पैन ने इस किताब में लिखा है, “मुझे दुख है कि जो बात हर कोई जानता है उसे स्वीकार करना राजनीतिक रूप से असुविधाजनक है : इराक युद्ध की मुख्य वजह तेल है।” अ

हिचकते क्यों हैं, जमकर लिखिए

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हिंदी ब्लॉगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। हज़ार तक जा पहुंची है। हो सकता है दो साल में बीस हज़ार तक जा पहुंचे। देश में इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के साथ यकीनन इसमें इज़ाफा होगा। लेकिन मैं देख रहा हूं कि दिग्गज से दिग्गज लिक्खाड़ भी कुछ समय के बाद चुक जाते हैं। फिर जैसे कोई कुत्ता सूखी हुई हड्डी को चबाकर अपने ही मुंह के खून के स्वाद का मज़ा लेने लगता है, वैसे ही इनमें से तमाम लोग या तो आपस में एक दूसरे की छीछालेदर करते हैं या कोई दबी-कुचली भड़ास निकालने लगते हैं। लगता है कि इनके पास लिखने को कुछ है नहीं। विषयों का यह अकाल वाकई मुझे समझ में नहीं आता। हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं। मान लीजिए हम अपने अंदर ही उलझे हैं तो यकीनन बाहर के संसार को साफ-साफ नहीं देख पाएंगे। लेकिन अंदर की दुनिया में भी तो लगातार खटराम मचा रहता है। पुरानी सोच निरंतर नई जीवन स्थितियों से टकराती रहती है। संस्कार पीछा नहीं छोड़ते। नई चीजों के साथ तालमेल न बिठा पाने से खीझ होती रहती है। रिश्तों की भयानक टूटन से हम और हमारा दौर गुज़र रहा है। हमने ब्लॉग बनाया है तो यही साबित कर