
सोचिए, आप तो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे, आपने सारी फड़ जमा रखी थी, धंधा चौकस चल रहा था। अचानक किसी दिन स्वामिभान को लगी कोई गहरी ठेस आपसे नौकरी छुड़वा देती है। ये भी हो सकता है कि देश या विदेश में किसी अच्छे ऑफर के लिए आप पुरानी नौकरी को सम्मानजनक तरीके से सलाम कर देते हैं। या फिर जिंदगी में कोई ऐसी गहरी चोट लगती है कि आपको सारा कुछ निस्सार लगने लगता है। आप धंधे से विमुख हो जाते हैं। जमी-जमाई फड़ बिखर जाती है। फिर एक दिन आप लौटते हैं तो पाते हैं कि आप कनवेयर बेल्ट से नीचे छूट गए हैं। तेज़ रफ्तार से भागती बेल्ट न तो आप के लिए रुकती है और न ही आप में इतना दम होता है, आपके पास इतना जुगाड़ होता है कि आप लपक कर उस पर चढ़ जाएं।
सोचिए, आप स्टेशन पर खड़े हैं। गाड़ी आती है खचाखच भरी हुई। आपके पास रिजर्वेशन नहीं है। रिजर्व बोगी में आप घुसने के अधिकारी नहीं है। जनरल डब्बे में घुसने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि उसमें तो गेट तक लोग लटके हुए हैं। गाड़ी छूट जाती है। शाम हो चुकी है। रात होने को है। स्टेशन मास्टर बताता है कि अगली गाड़ी 14 घंटे बाद आएगी। अब तो अगली जगह साल भर बाद निकलेगी। आप इंतज़ार करने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं? अगली गाड़ी, फिर अगली गाड़ी और फिर अगली की अगली गाड़ी। सभी गाड़ियां पहले स्टेशनों से ही भरी आती है। आप वहीं स्टेशन पर खड़े रह जाते हैं। सालोंसाल। जिंदगी की सांझ आ जाती है। उम्र ढल जाती है। शरीर, दिमाग और दिल की ताकत चुक जाती है। आस टूट जाती है। आप डूब जाते हैं गहरे अवसाद में। सभी भाग रहे हैं, खुद को सुरक्षित कर रहे हैं। आपका हाथ थामनेवाला कोई नहीं। अपने भी पराए हो जाते हैं, ताना कसने लगते हैं।

कभी कनवेयर बेल्ट से उतरकर ज़रा इन लोगों से पूछिए कि वो सब कुछ होते हुए भी कैसे खाली हाथ हो गए, बेकाम हो गए। फिर याद करिए मशहूर शायर मजाज़ की ये लाइनें और महसूस करिए लूप से बाहर छूट गए शख्स का ग़म, उसका दर्द, उसकी खीझ...
इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
7 comments:
क्या विरली बातें.. क्या विरला अंदाज़..
ऐसी ऐसी बाते लिख कर आप तो जीने नहीं देंगे..
रोज इसी चिंता में जी रहे हैं भाई। मनोहर नायक और मंगलेश डबराल जैसे बड़े पत्रकारों को नौकरी छूटे डेढ़ साल से ज्यादा हो गया, कोई काम नहीं मिला। अपने इर्द-गिर्द किसी को हाइपर टेंशन, किसी को हार्ट अटैक तो किसी को ब्रेन स्ट्रोक पड़ने की खबरें रोज ही सुनने को मिल रही हैं। किसको संबोधित कर रहे हैं आप, किसे पड़ी है जो इसके बारे में सोचे...जबतक खुद उसपर न आ पड़े।
लूप के बाहर का मेंटल वार्प ? सोचने वाली बात है ।
मुझे डराने के लिए ये सब लिख रहे हैं?
डर लगने लगा है सर ... छूट जाने का ... पीछे रह जाने का ... लेकिन फिर सोचता हूं हम कनवेयर बेल्ट पर चढ़ नहीं सकते तो क्या, दूसरा बना तो सकते हैं ... सबकुछ तो कुछ था ही नहीं छिनने का डर कैसा ... इतना पता है कि दो जून की रोटी कमा सकता हूं। अंत में आशावादिता के घोड़े पर सवार कुछ पंक्तियां मुझे भी याद आ रही हैं कि ...
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ...
अनुराग की बातों से सहमत होते हुए मुझे भी कुछ पंक्तियां याद आ रही है जो संबल का काम कर सकती हैं- वो पथ क्या, पथिक कुशलता क्या जिस पथ पर बिखरे शूल न हों। नाविक की कुशल परीक्षा क्या जब धरायें प्रतिकूल न हो।
आपके लेखन की दीवानगी के बावजूद हम डर गये.
एकदम निराला अंदाज रहा भाई.
Post a Comment