फाइलें जब बन गई थीं हठी विक्रमादित्य
मानस की ज़िंदगी का वो सबसे बुरा दौर था। चोटी पर पहुंचने के बाद तलहटी का कॉन्ट्रास्ट। वह सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचकर लौटा ही था कि लोगों ने उसे नज़रों से गिरा दिया। ये सारा कुछ किया उन्होंने जिसे वह दोस्त और गाइड मानता था। इन लोगों ने उस पर ऐसा इल्जाम लगाया जिससे दूर-दूर तक उसका कोई वास्ता ही न था। अचानक उसे कातिल ठहरा दिया गया। कानून ने उसे कातिल नहीं माना तो उसके लिए भी इन्हीं लोगों ने कहा कि उन्होंने ही उसे घूस देकर बचाया है। दूसरी तरफ इन्हीं सबने दिल्ली ही नहीं, मुंबई से लेकर कोलकाता तक लोगों को फोन करके उसके ‘अधम’ होने का यकीन दिलाया।
मानस ने खुद को टटोला कि कहीं वह सचमुच तो परोक्ष रूप से दोषी नहीं है। उसने पाया कि उसने खुद को सालों से लहरों के हवाले छोड़ रखा था। लहरों के थपेड़े जहां ले गए, वहां जा पहुंचा। हां, बराबर यही कोशिश की कि उसके नीचे कोई न दबे, किसी को उससे तकलीफ न हो। उसने कहीं से भी खुद को दोषी नहीं पाया। वह क्या करता? अज्ञातवास में चला गया। सब से खुद को जान-बूझकर काट लिया। उसने अपनी ज़िंदगी के ग्यारह साल यूं नोचकर बाहर निकाले जैसे कोई जंगल में भटकने के दौरान पैरों में घुस गई जोंक को खींचकर बाहर निकालता है।
इसी दौरान उसने अपनी डायरी में लिखा, “इन लोगों ने मेरे मेंटल स्पेस में जो जगह घेर रखी है, उन सभी फाइलों को मैं डिलीट करना चाहता हूं। इसलिए यह जानते हुए भी कि ये लोग मेरे हितैषी नहीं है, मैं इनसे एकाध बार बात करना चाहता हूं ताकि उनके बारे में कोई भ्रम न रह जाए, रत्ती भर भी मोह न रह जाए। समस्या उनकी नहीं, ज़रूरत मेरी है क्योंकि मुझे अपने अंदर का स्पेस खाली करना है।” फिर उसने यही किया। अपनी मेमोरी से उन लोगों और उस दौर से जुड़ी सारी फाइलें डिलीट कर दीं। बिना एक बार भी सोचे कि शायद इनकी कभी ज़रूरत पड़ जाए। ये अलग बात है कि ये फाइलें इतनी जिद्दी थीं कि डिलीट होने के बाद भी किसी वाइरस की तरह बार-बार परेशान करने आ जाती थीं। हठी विक्रमादित्य बन गई थी ये फाइलें। बार-बार शव को कंधे पर लिए चली आती थीं।
उसने दृढ़ निश्चय कर डाला कि अब ज़िंदगी नए सिरे से शुरू की जाएगी। नए दोस्त बनेंगे तो बनाए जाएंगे। नहीं तो किसी की ज़रूरत नहीं है। भाड़ में जाएं ऐसे दोस्त जो लिफाफा देखकर मजमून भांपते हैं, खोलकर नहीं देखते कि असल में लिफाफे के अंदर क्या है। उसने धीरे-धीरे सधे कदमों से चलना शुरू कर दिया, भले ही उसके कदम ज़हर या घनघोर नशे से उबरे शख्स की तरफ काफी दूर तक लड़खड़ाते रहे।
यह उसके लिए पुनर्जन्म का दौर था। सचमुच पुनर्जन्म का, मां की कोख से फिर से जन्म लेने का। सभी छोड़ गए थे। सभी दूर-दूर खड़े उस पर आरोपों के तीर चला रहे थे। साथ थे तो बस बूढ़े मां-बाप। सूरज ढलने पर वह घर नहीं लौटता था कि मां पिताजी को चौराहे तक दौड़ा देती थी कि जाओ देखकर आओ, हमारा लाल कहीं भटक तो नहीं गया। उसे कई महीनों तक अंधेरे में जाने से डर लगता रहा। वह शाम को भी सूनी छत पर जाता तो फौरन डरकर भाग आता था। मां-बाप अगल-बगल सोते थे। बीच में उसे सुलाते थे। जब वह पूरी तरह सो जाता था, तभी दोनों अपने ऊपर नींद को सवार होने देते थे। उसे सचमुच लगा था कि मां-बाप अपने सानिध्य से उसे दोबारा जीवन दे रहे हैं।
मानस के मानस की हालत तो पूछिए ही मत कैसी हो गई थी। वह सड़क चलते किसी को भी देखता तो सोचता यह शख्स मर गया तो कैसा लगेगा। उसे हर किसी में उसकी लाश नज़र आती। वह लोगों के चेहरे से ढंकी हड्डी की खोपड़ी तक पहुंच जाता जैसे उनकी आंखों में कोई एक्स-रे मशीन घुस गई हो। उसने कई बार यह भी महसूस किया कि वह मर चुका है। चादर से ढंकी उसकी लाश साफ चढ़ाई पर लिटाई गई है और वह उस पर मंडराते हुए उसे देख रहा है। मृत्यु के इस मीठे नशे का निर्लिप्त एहसास उसने अभी तक की छत्तीस साल की ज़िंदगी में कभी नहीं किया था।
खैर, वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहा। तीन साल के अज्ञातवास के बाद उसने शहर ही छोड़ दिया। जो तथाकथित दोस्त पीछे छूट गए, उनका हालचाल मिलता रहता है। लेकिन वह अब भी इतनी कड़वाहट से भरा हुआ है कि दिन-रात यही बडबड़ाता है, ‘वे अभी तक जिंदा कैसे हैं, मर क्यों नहीं गए? मरना तो छोड़ो वे हरामी लूले, लंगड़े या अपाहिज तक नहीं हुए हैं?’ उसे रहीम का यह दोहा गलत लगता है कि दुर्बल को न सताइए जाकि मोटी हाय, बिना जीभ के स्वास सौं लौह भसम होइ जाए। लेकिन उसे रहीम का ही वह दोहा सही लगता है कि रहिमन विपदा हूं भली, जो थोड़े दिन होय, हित-अनहित या जगत में जानि परत सब कोय।
मानस ने खुद को टटोला कि कहीं वह सचमुच तो परोक्ष रूप से दोषी नहीं है। उसने पाया कि उसने खुद को सालों से लहरों के हवाले छोड़ रखा था। लहरों के थपेड़े जहां ले गए, वहां जा पहुंचा। हां, बराबर यही कोशिश की कि उसके नीचे कोई न दबे, किसी को उससे तकलीफ न हो। उसने कहीं से भी खुद को दोषी नहीं पाया। वह क्या करता? अज्ञातवास में चला गया। सब से खुद को जान-बूझकर काट लिया। उसने अपनी ज़िंदगी के ग्यारह साल यूं नोचकर बाहर निकाले जैसे कोई जंगल में भटकने के दौरान पैरों में घुस गई जोंक को खींचकर बाहर निकालता है।
इसी दौरान उसने अपनी डायरी में लिखा, “इन लोगों ने मेरे मेंटल स्पेस में जो जगह घेर रखी है, उन सभी फाइलों को मैं डिलीट करना चाहता हूं। इसलिए यह जानते हुए भी कि ये लोग मेरे हितैषी नहीं है, मैं इनसे एकाध बार बात करना चाहता हूं ताकि उनके बारे में कोई भ्रम न रह जाए, रत्ती भर भी मोह न रह जाए। समस्या उनकी नहीं, ज़रूरत मेरी है क्योंकि मुझे अपने अंदर का स्पेस खाली करना है।” फिर उसने यही किया। अपनी मेमोरी से उन लोगों और उस दौर से जुड़ी सारी फाइलें डिलीट कर दीं। बिना एक बार भी सोचे कि शायद इनकी कभी ज़रूरत पड़ जाए। ये अलग बात है कि ये फाइलें इतनी जिद्दी थीं कि डिलीट होने के बाद भी किसी वाइरस की तरह बार-बार परेशान करने आ जाती थीं। हठी विक्रमादित्य बन गई थी ये फाइलें। बार-बार शव को कंधे पर लिए चली आती थीं।
उसने दृढ़ निश्चय कर डाला कि अब ज़िंदगी नए सिरे से शुरू की जाएगी। नए दोस्त बनेंगे तो बनाए जाएंगे। नहीं तो किसी की ज़रूरत नहीं है। भाड़ में जाएं ऐसे दोस्त जो लिफाफा देखकर मजमून भांपते हैं, खोलकर नहीं देखते कि असल में लिफाफे के अंदर क्या है। उसने धीरे-धीरे सधे कदमों से चलना शुरू कर दिया, भले ही उसके कदम ज़हर या घनघोर नशे से उबरे शख्स की तरफ काफी दूर तक लड़खड़ाते रहे।
यह उसके लिए पुनर्जन्म का दौर था। सचमुच पुनर्जन्म का, मां की कोख से फिर से जन्म लेने का। सभी छोड़ गए थे। सभी दूर-दूर खड़े उस पर आरोपों के तीर चला रहे थे। साथ थे तो बस बूढ़े मां-बाप। सूरज ढलने पर वह घर नहीं लौटता था कि मां पिताजी को चौराहे तक दौड़ा देती थी कि जाओ देखकर आओ, हमारा लाल कहीं भटक तो नहीं गया। उसे कई महीनों तक अंधेरे में जाने से डर लगता रहा। वह शाम को भी सूनी छत पर जाता तो फौरन डरकर भाग आता था। मां-बाप अगल-बगल सोते थे। बीच में उसे सुलाते थे। जब वह पूरी तरह सो जाता था, तभी दोनों अपने ऊपर नींद को सवार होने देते थे। उसे सचमुच लगा था कि मां-बाप अपने सानिध्य से उसे दोबारा जीवन दे रहे हैं।
मानस के मानस की हालत तो पूछिए ही मत कैसी हो गई थी। वह सड़क चलते किसी को भी देखता तो सोचता यह शख्स मर गया तो कैसा लगेगा। उसे हर किसी में उसकी लाश नज़र आती। वह लोगों के चेहरे से ढंकी हड्डी की खोपड़ी तक पहुंच जाता जैसे उनकी आंखों में कोई एक्स-रे मशीन घुस गई हो। उसने कई बार यह भी महसूस किया कि वह मर चुका है। चादर से ढंकी उसकी लाश साफ चढ़ाई पर लिटाई गई है और वह उस पर मंडराते हुए उसे देख रहा है। मृत्यु के इस मीठे नशे का निर्लिप्त एहसास उसने अभी तक की छत्तीस साल की ज़िंदगी में कभी नहीं किया था।
खैर, वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहा। तीन साल के अज्ञातवास के बाद उसने शहर ही छोड़ दिया। जो तथाकथित दोस्त पीछे छूट गए, उनका हालचाल मिलता रहता है। लेकिन वह अब भी इतनी कड़वाहट से भरा हुआ है कि दिन-रात यही बडबड़ाता है, ‘वे अभी तक जिंदा कैसे हैं, मर क्यों नहीं गए? मरना तो छोड़ो वे हरामी लूले, लंगड़े या अपाहिज तक नहीं हुए हैं?’ उसे रहीम का यह दोहा गलत लगता है कि दुर्बल को न सताइए जाकि मोटी हाय, बिना जीभ के स्वास सौं लौह भसम होइ जाए। लेकिन उसे रहीम का ही वह दोहा सही लगता है कि रहिमन विपदा हूं भली, जो थोड़े दिन होय, हित-अनहित या जगत में जानि परत सब कोय।
Comments
बराबर यही कोशिश की कि उसके नीचे कोई न दबे, किसी को उससे तकलीफ न हो। -बस!!! यहीं उससे गल्ती हो गई. तरक्कीशुदा लोगों के भी नियम होते हैं कि जिसके कंधे पर पैर रख उपर चढ़ो, उसका कंधा तोड़ दो वरना वो दूसरों को भी उपर चढ़ने में मदद करेंगे.
पुराने कदम निशां मिटाते चलो,
नये नये दोस्त बनाते चलो-
वाला गीत ही सफलता का कीर्तन माना गया है.