हर जीत पर बदला लेती है प्रकृति


इंसान और प्रकृति में क्या रिश्ता है? क्या विकास की कोई सीमा है? हम प्रकृति पर किस हद तक विजय हासिल कर सकते हैं? ये सवाल ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते संकट के बीच बड़े प्रासंगिक हो गए हैं। आज भले ही दुनिया भर में समाजवाद और साम्यवाद के पतन के बाद से मार्क्स-एंगेल्स के विचारों को हिकारत की निगाह से देखा जा रहा हो, लेकिन इन मनीषियों ने वर्ग-संघर्ष और सामाजिक रिश्तों की नहीं, प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों पर भी गंभीरता से सोचा और लिखा था। ऐसा ही एक लेख फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1876 में लिखा था। वैसे तो यह पूरा लेख पठनीय है, लेकिन मुझे इसका नीचे से पांचवां और छठां पैराग्राफ बेहद प्रासंगिक लगा। आप भी चंद मिनट निकालकर इस पर एक नज़र डाल सकते हैं।
हमें प्रकृति पर इंसान की जीत से गदगद नहीं होना चाहिए क्योंकि हर जीत के एवज में प्रकृति हम से बदला लेती है। यह सच है कि हर जीत पहले स्तर पर हमारी उम्मीद के अनुरूप नतीजे देती है, लेकिन दूसरे और तीसरे स्तर पर एकदम भिन्न किस्म के ऐसे अनपेक्षित प्रभाव देखने को मिलते हैं जो अक्सर पहले स्तर के नतीजे को निरस्त कर देते हैं।
जिन लोगों ने मेसोपोटामिया, ग्रीस, एशिया माइनर और दूसरी जगहों पर खेती की ज़मीन हासिल करने के लिए जंगलों को नष्ट कर दिया, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जंगलों के साथ नमी को सोखने के प्राकृतिक साधन भी खत्म कर वे अपने इन्हीं देशों की वर्तमान दुर्दशा की बुनियाद रख रहे हैं।
जब आल्प्स के पहाड़ों पर बसे इटालियन लोगों ने दक्षिणी ढलानों के चीड़ के जंगलों का इस्तेमाल कर डाला, तब उन्हें ज़रा-सा भी भान नहीं रहा होगा कि वे अपने इलाके में डेयरी उद्योग की जडों में मट्ठा डाल रहे हैं। उन्हें यह भी नहीं पता रहा होगा कि अपने पहाड़ों को साल के अधिकांश महीनों के लिए झरनों के पानी से महरूम रख रहे हैं और इस तरह बारिश के मौसम में मैदानी इलाकों में मूसलाधार बारिश को न्यौता दे रहे हैं।
जिन लोगों ने यूरोप में आलू की खेती को हर तरफ फैलाया, उन्हें यह नहीं पता था कि वे जमीन के भीतर उगनेवाली इस सब्जी के साथ-साथ टीबी जैसा कंठमाला (scrofula) का रोग भी फैला रहे हैं।
इस तरह कदम-कदम पर हमें सबक मिला है कि हम प्रकृति पर किसी भी सूरत में वैसा शासन नहीं कर सकते, जैसा कोई विजेता पराजित मुल्क के बाशिंदों पर करता है, जिस तरह प्रकृति से बाहर खड़ा कोई शख्स कर सकता है। हम अपने हाड़-मांस और दिलो-दिमाग के साथ इसी प्रकृति का हिस्सा हैं। हमारा वजूद प्रकृति के ही बीच है, उसके बाहर नहीं। उस पर हमारी हर विजय में यह तथ्य निहित है कि प्रकृति के नियमों को समझने और उनको सही तरीके से लागू करने में इंसान दूसरे सभी जीवों से बेहतर स्थिति में हैं।
दरअसल, वक्त बीतने के साथ हम प्रकृति के तमाम नियमों की और भी बेहतर समझ हासिल करते जा रहे हैं और प्रकृति के पारंपरिक तौर-तरीकों में दखल के तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों से भी वाकिफ हो रहे हैं। खास तौर पर, इस (19वीं) शताब्दी में प्राकृतिक विज्ञान में हुई जबरदस्त प्रगति के चलते हम सच को समझने की ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं। और इस तरह उसे नियंत्रित करने की भी बेहतर स्थिति में हैं। साथ ही यह भी समझने लगे हैं कि इससे हमारी रोज़मर्रा की उत्पादन गतिविधियों पर क्या स्वाभाविक असर हो सकते हैं।
मानव सभ्यता जितनी प्रगति करती जाएगी, उतना ही इंसान को भान ही नहीं, बल्कि ज्ञान भी होता जाएगा कि वह प्रकृति के साथ एका में ही उसकी भलाई है। साथ ही बुद्धि और पदार्थ, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के बीच विरोध का निरर्थक और अप्राकृतिक विचार उतना ही असंभव होता जाएगा।

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प्रकृति से पंगा नहीं लेना चाहिये - सही है. पर इस विचार को कार्यरूप कैसे दें - समझ नहीं आता. कभी लगता है विचार करना ही नेचर से छेड़-छाड़ है!

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