क्या आप राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मानेंगे?

आप मानें या न मानें। कांग्रेस ने तो इसकी तैयारी कर ली है। आज ही राहुल गांधी को पार्टी का महासचिव बना दिया गया। अभी राहुल की उम्र 37 साल है और इतिहास की बात करें तो उनके पिता राजीव गांधी 40 साल की उम्र में देश के प्रधानमंत्री बन गए थे। यानी, पूरे आसार हैं कि अगर 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला तो सारे कांग्रेसी 39 साल के राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चाटुकारिता की सारें हदें पार कर जाएंगे।
वैसे, राहुल गांधी और उनके पिता में कई समानताएं नज़र आ रही हैं। राजीव गांधी ने मई 1981 में जब राजनीति में प्रवेश किया था, तब उनकी भी उम्र 37 साल थी। एक महीने बाद वो अमेठी से एमपी चुन लिए गए। दो साल बाद 1983 में राजीव गांधी को कांग्रेस का महासचिव बना दिया गया। लेकिन राहुल और राजीव में समानता यहीं आकर ठहर जाती है क्योंकि जिन हालात में राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था, वे अपवाद थे और अपवादों को नियम नहीं माना जा सकता।
ऑपरेशन ब्लू स्टार का पाप 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया था। फिर हुए थे दिल्ली और सारे देश में सिख विरोधी दंगे। इसी बीच कांग्रेसियों ने राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री चुन लिया। सिख विरोधी दंगों पर राजीव गांधी के इस बयान को आज भी लोग याद करते हैं कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। खैर, पूरे देश में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चली सहानुभूति की लहर में राजीव गांधी ने अब तक का सबसे बड़ा बहुमत हासिल किया और दिसंबर में बाकायदा प्रधानमंत्री चुन लिए गए।
कांग्रेस आज फिर गांधी परिवार के वारिस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की तरफ बढ़ रही है। लेकिन पूत ने अपने पांव पालने में ही दिखा दिए हैं। इसी साल मार्च में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी के उस बयान को याद करना चाहिए कि अगर गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद नहीं ढहाई गई होती। लेकिन राहुल गांधी ने देश को यह नहीं बताया कि उनके पिता राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं होते तो न तो बाबरी मस्जिद का ताला खुलता और न ही हिंदूवादियों को राम का मुद्दा मिलता।
आज फिर रामसेतु के बहाने में राजनीति में राम के नाम की वापसी हो चुकी है। कांग्रेस में हमेशा की तरह कद्दावर नेताओं का अभाव है। मनमोहन सिंह भले ही प्रधानमंत्री हों, लेकिन शायद ही कोई कांग्रेसी नेता उन्हें अपना नेता मानता है। यह तो सोनियां गांधी की कृपा है कि मनमोहन सिंह को कुर्सी मिली और वे अब भी उस पर विराजमान हैं। वरना, दलाली की संस्कृति में पली-बढ़ी कांग्रेस गांधी परिवार से आगे देख ही नहीं पाती। अर्जुन सिंह से लेकर एन डी तिवारी जैसे लोगों को वापस गांधी परिवार की छतरी में लौटना पड़ा था। इसलिए कोई भी कांग्रेसी इस छतरी से अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता।
आज किसी भी कांग्रेसी में सोनिया गांधी या राहुल गांधी की कमियों के बारे में एक शब्द भी बोलने की हिम्मत नहीं है। राहुल गांधी की राजनीतिक काबिलियत उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में साफ हो चुकी है। उनके पास गांधी के परिवार के होने के अलावा कोई और राजनीतिक-सांगठनिक कौशल नहीं है। वैसे, सोनिया गांधी गजब की कलाकार हैं। पहले प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराकर भारतीय अवाम की नज़रों में त्याग की प्रतिमूर्ति बनीं। फिर धीरे से राहुल गांधी को आगे कर दिया और अब दिखावटी नानुकुर करने के बाद अपने लाडले को प्रधानमंत्री बनाने की फिराक में हैं। अगर देश को इस दुर्भाग्य से बचाना है तो हमें यही पुरजोर कोशिश करनी चाहिए कि अगले आम चुनावों में कांग्रेस को किसी भी सूरत में बहुमत ही न मिले।

Comments

ePandit said…
बहुत अच्छा लिखा अनिल जी। पता नहीं भारत को गांधी ठप्पे से कब छुटकारा मिलेगा।
Udan Tashtari said…
विकल्प में किस के बारे में सोचा है??
यदि जनता का बहुमत राहुल गांधी के पक्ष में रहा तो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री क्यों नहीं माना जायेगा? जरुर माना जायेगा। लेकिन अभी राहुल गांधी में अनुभव की कमी है।
Basera said…
क्या राहुल गाँधी को हिन्दी आती है? (लिखनी)
चेहरा तो फोटोजीनिक है. उसी भर से काम चल जाता हो तो राहुल भी चलेंगे. देवगौड़ा जी को चला चुके हैं - तो कोई भी चल सकता है!
mamta said…
आपने अपने लेख की पहली लाइन मे ही सब लिख दिया है।
ये पुराने नेता सिर्फ कुर्सी के लिए कुछ भी कर सकते है।
ydn
Anonymous said…
This comment has been removed by a blog administrator.
आपकी यह पोस्ट आज के (०६ जून, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

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