
इन दोनों ही वाकयों ने मुझे अपना पुराना शगल याद दिला दिया। राह चलते, भीड़भाड़ में, रैलियों में, ट्रेन की यात्राओं में मैं क्या चेहरे मिलाया करता था! अगर अपरिचित का चेहरा अपने किसी परिचित से मिलता-जुलता हुआ तो बस गिनने लगता था कि दोनों की क्या-क्या अदाएं मिलती-जुलती हैं। ऐसे अपरिचितों से कभी बात करने की हिम्मत तो नहीं हुई, लेकिन मुझे लगता था कि जब चेहरा एक जैसा है तो चरित्र भी एक जैसा होगा। यहां तक कि मन ही मन चेहरों की भी श्रेणियां बना रखी थीं। यह तो शक्ल से ही संघी लगता है या यह यकीनन कोई नक्सल क्रांतिकारी होगा।
मज़ा तो तब आया था जब 1980 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला ग्राउंड में इंडियन पीपुल्स फ्रंट के स्थापना सम्मेलन के दौरान मैं और मेरे एक सहपाठी घूम-घूमकर कंबल ओढ़कर जहां-तहां कनफुसकी करते चेहरों को निहारते रहे और आपस में धीरे से कहते कि ये ज़रूर कोई अंडरग्राउंड नक्सली होगा।

चेहरे मैं इंसानों से ही नहीं, जानवरों से भी मिलाया करता था। जैसे मुझे हमेशा से लगता था कि विजय माल्या का चेहरा घोड़ों से मिलता है। बाद में पता चला कि माल्या साहब घोड़ों के बड़े शौकीन हैं। इसी तरह मेरे साथ एक चौधरी जी पढ़ते थे। मैंने उनसे एक दिन पूछा कि क्या तुम्हारे घर के आसपास गधे रहते थे। बोले – हां। मैंने कहा कि तभी तुम्हारे चेहरे में गधे की आकृति अंकित हो गई है। मेरे ऑफिस में भी एक महिला हैं। काफी बुद्धिमान हैं। उनके चेहरे-मोहरे में भी मुझे गधे की आकृति झलकती है। लेकिन वे इतनी संभ्रांत हैं कि उनसे उनकी बचपन की रिहाइश के बारे में पूछने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।
इसी तरह चश्मा लगाए मनमोहन सिंह के चेहरे को आप गौर से देखिए तो उसमें आपको लक्ष्मी की सवारी उल्लू के दर्शन हो जाएंगे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के चेहरे में मुझे हमेशा भेड़िया नज़र आता था, जबकि नरसिंह राव के चेहरे में एक चिम्पांजी। सोचता हूं कि लेखक-उपन्यासकार जब किसी चरित्र के साथ कोई चेहरा नत्थी करते होंगे तो शायद इसी तरह के सामान्यीकरण का सहारा लेते होंगे। चलिए, उपन्यासकार बनूं या न बनूं, अभी तो यही सोचकर दिल को तसल्ली दे लेता हूं कि उपन्यासकारों की कुछ फितरत तो अपुन के अंदर भी है।
13 comments:
हास्य अलग कर दें; तो भी यह तो तय है कि चेहरा अन्दर की बात चेहरे पर बताता है - यह अन्दर की बात कभी चेहरे वाले के अन्दर की होती है तो कभी देखने वाले के अन्दर की!
लेख तो सीरियस टाईप का था क्या?
हम तो उत्तरार्ध के भाग को मारे हँसी के पूरा पढ़ ही न सके कि कहीँ यही लत लग गयी तो? और गधे, उल्लू, वगैरह से आस-पास के लोगों का... ना बाबा..
और फ़िर कभी भी अजायबघर जाना तो दूभर हो जायेगा!
नहीं, राजीव भाई। लेख कहीं से भी सीरियस टाइप का नहीं था। मैंने तो अंदर बैठे उस शांत शरारती बच्चे की कुछ फितरत दिखाई जो शायद हम सभी के अंदर थोड़ी-बहुत मौजूद है।
बहुत सही ।
अपुन का भी यही शौक़ रहा है भाई ।
कितने कितने 'जानवरों' को जीन्स टी शर्ट पहने शहर में घूमते देखा है अपुन ने ।
इसी तरह कितने कितने इंसानों के हमशक्ल दूसरे शहरों में पाए जाते हैं ।
कभी पीठ की ओर से देखो और पास जाकर कंधे पर हाथ रखो तो सामने वाला मुड़ जाता है
और अपन चक्कर में पड़ जाते हैं कि अरे ये तो वो नहीं है, जो हमने सोच रखा है ।
मैं फिर आया. जब रघुराज जी ने प्रधान मंत्रियों की बात की है तो अपने मन की भी जोड़ दूं - गुजराल बकरा लगते हैं और देवगौड़ा काइयां सूदखोर.
आपकी तरह यह शौक अपन को भी रहा है.लेकिन जिस गहराई से आप देखते हैं वैसा अपन नहीं देखते. आप उपन्यासकार बन ही जाइये अब.
कैरीकेचर्स बढिया बनेंगे ।
अच्छा! तो यह बात है . तभी हमारी शक्ल डॉयचे वेले के उज्ज्वल भट्टाचार्य से मिला रहे थे . देखनी पड़ेगी उनकी तस्वीर .
इस फ़ील्ड में आपके साथ-साथ ज्ञान जी का रडार भी सही सिग्नल पकड़ रहा है .(संदर्भ:उनकी टिप्पणी)
फुरसतिया जी की सिर्फ फोटो ही देखी है ,आपकी रपट ( मीट वाली) और दिल्ली की रपट (मीट वाली) में. किंतु लगता है कि अब मिलना पडेगा, क्योंकि आपके मुताबिक उनका चेहरा/ हाव-भाव/ आदि वीरेन्द्र सेंगर से मिलता है. 1987 से परिचय रहा है वीरेन्द्र सेंगर से. राजनीति और बाद में जब पत्रकारिता से जुडा रहा, तो रोज़ ही भेंट होती रहती थी.2002 से ,जब से पूर्णकालिक अध्यापन में आ गया, मिल नही सका हूं.
वैसे बच्पन में मुझे शौक था ,एक जैसी शकलें ढूंढने का.
हां, जौर्ज बुश की शक्ल में कोई जानवर नज़र आया क्या ?
aur...soniya gandhi me^ bhee kuchh DhoonDhiye ?
बहुत बढ़िय विषय ढंढा रघु भाई..मज़ा आया पढ़कर
आपका चेहरा हमें फिल्म एक्टर महिपाल की याद दिलाता है। आधा है चंद्रमा.....
यह बीमारी मुझे भी है, मुझे भी हर चेहरे को बिगाड़कर देखने की आदत है. मेरे दफ़्तर में एक दुबली लड़की काम करती है जो मुझे बकरी जैसी लगती है, एक साहब की दोनों आँखे सूजी रहती हैं और वे मुझे हमेशा मेढ़क की याद दिलाते हैं. लेकिन एक बेईमानी हमेशा हो जाती है, आईने में अपना चेहरा देखता हूँ तो कोई जानवर नज़र नहीं आता. आप लोग ग़ौर से देखें तो बता सकते हैं, कुत्ता, गधा...या कुछ और...
अनिल भाई
ये क्या बीमारी लगवा दी? अब जो सामने दिख रहा है उसी में कुछ और नजर आ रहा है. :)
एक तो बिल्कुल बंदर दिखा अभी अभी.
अब देखो शाम को क्या होता है, जब घर जाकर शीशा देखूंगा. हम्म!!
मेरी भी आदत रही है चेहरे मिलाने की, अक्सर लोगों के चेहरे फिल्मी कलाकारों से मिलाने की। कई बार तो लोगों को बताने की तीव्र इच्छा होती है कि आप का चेहरा अमुक अभिनेता/अभिनेत्री से मिलता है।
Post a Comment