वाह-वाह, उद्योग में टॉप, खेती में फ्लॉप?
मेरे लिए ये तथ्य वाकई चौंकानेवाला है कि जो महाराष्ट्र उद्योगों के मामले में देश में बराबर टॉप पर रहता है, कभी-कभार गुजरात उससे आगे बढ़ जाता है तो खबर बन जाती है, वही महाराष्ट्र सिंचाई सुविधाओं में राष्ट्रीय औसत के आधे के बराबर भी नहीं है। सिंचाई सुविधाओं का राष्ट्रीय औसत 39 फीसदी है, जबकि महाराष्ट्र के 16.4 फीसदी इलाके ही सिंचित हैं, बाकी 83.6 फीसदी इलाकों की सिंचाई ऊपरवाले के भरोसे है। पंजाब सिंचाई सुविधाओं में 95 फीसदी के साथ देश में सबसे ऊपर है, जबकि हरियाणा दूसरे नंबर है 75 फीसदी के साथ। यहां तक कि तमिलनाडु जैसे गरीब राज्य तक में 48 फीसदी कृषि क्षेत्रफल सिंचित है।
सिंचाई के मामले में महाराष्ट्र की इस दुर्दशा के आंकड़े खुद कृषि मंत्री शरद पवार ने पेश किए हैं। पवार साहब कद्दावर मराठी नेता हैं और राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। इसलिए उनके आंकड़ों में तथ्यगत गलतियां होने की कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे तो अभी तक यही पता था कि उद्योग और कृषि में एक दूसरे को आगे बढ़ाने का रिश्ता है। उद्योग बढ़ता है तो कृषि उत्पादों की मांग भी बढ़ती है। नतीजतन, कृषि की बुनियादी सुविधाओं में निवेश बढ़ता है और कृषि भी धीरे-धीरे औद्योगिकीकरण की राह पर चल निकलती है। लेकिन यहां तो मामला उल्टा है।
क्यों है? इसे हमारे प्रधानमंत्री, पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को बताना चाहिए क्योंकि उन्हीं के सामने ये सारी बातें रखी गई थीं। लेकिन वो तो मुंबई आए। सरकारी अमले ने उनके सामने अच्छी-अच्छी बातें कीं। उन्होंने भी राष्ट्रीय विकास परिषद में तय किए गए कृषि लक्ष्यों की बात की। महाराष्ट्र में कृषि की खूबियों और कमियों पर लिखित भाषण दिया। विदर्भ के किसानों के लिए घोषित अपने पैकेज पर सफाई सुनी और चले गए।
हां, प्रधानमंत्री को इस बात का दुख ज़रूर है कि जिस महाराष्ट्र में 33 फीसदी कृषि भूमि पर कपास की खेती होती है, वहां कपास का केवल 17 फीसदी उत्पादन हो रहा है। लेकिन उन्हें इस हकीकत पर गौर करने का जरूरी नहीं लगा कि ज्यादा उत्पादन के चक्कर में महाराष्ट्र, खासकर विदर्भ इलाके के किसानों ने अभी तक उर्वरकों का इस कदर एकांगी इस्तेमाल किया है कि आज उनकी जमीनें बंजर होने की स्थिति में जा पहुंची हैं। ऊपर से सिंचाई सुविधाओं के अभाव से निकलने की कोई जरिया फिलहाल उनके पास नहीं है।
वैसे, सिंचाई के मामले में महाराष्ट्र में भयंकर विषमता है। कृषि मंत्री शरद पवार के लोकसभा क्षेत्र बारामती वाले पश्चिमी महाराष्ट्र में खूब सिंचाई सुविधाएं हैं, कोंकण में जमकर बारिश होती है, जबकि विदर्भ, खानदेश और मराठवाड़ा पानी के लिए तरसते रहते हैं, वहीं सिंचाई सुविधाओं की कमी की मार सबसे ज्यादा पड़ती है। प्रधानमंत्री के साथ समीक्षा बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार ने कृषि में सिंचाई सुविधाओं का रोना रोया तो मौजूदा मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख कैसे चुप रहते। उन्होंने प्रधानमंत्री के माध्यम से केंद्र सरकार से फरियाद कर डाली कि राज्य को अधूरी पड़ी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 37,000 करोड़ रुपए की ज़रूरत है।
ये रुपए कहां से आएंगे? हर राज्य हजारों करोड़ मांग रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए मांगे हैं। अब महाराष्ट्र को केवल सिंचाई के लिए 37,000 करोड़ रुपए चाहिए! वैसे, महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से ही हर साल 96,000 करोड़ रुपए का टैक्स केंद्र सरकार को मिलता है। क्या इसमें से महज एक साल के लिए 37,000 करोड़ रुपए महाराष्ट्र की भलाई के वास्ते नहीं निकाले जा सकते?
सिंचाई के मामले में महाराष्ट्र की इस दुर्दशा के आंकड़े खुद कृषि मंत्री शरद पवार ने पेश किए हैं। पवार साहब कद्दावर मराठी नेता हैं और राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। इसलिए उनके आंकड़ों में तथ्यगत गलतियां होने की कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे तो अभी तक यही पता था कि उद्योग और कृषि में एक दूसरे को आगे बढ़ाने का रिश्ता है। उद्योग बढ़ता है तो कृषि उत्पादों की मांग भी बढ़ती है। नतीजतन, कृषि की बुनियादी सुविधाओं में निवेश बढ़ता है और कृषि भी धीरे-धीरे औद्योगिकीकरण की राह पर चल निकलती है। लेकिन यहां तो मामला उल्टा है।
क्यों है? इसे हमारे प्रधानमंत्री, पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को बताना चाहिए क्योंकि उन्हीं के सामने ये सारी बातें रखी गई थीं। लेकिन वो तो मुंबई आए। सरकारी अमले ने उनके सामने अच्छी-अच्छी बातें कीं। उन्होंने भी राष्ट्रीय विकास परिषद में तय किए गए कृषि लक्ष्यों की बात की। महाराष्ट्र में कृषि की खूबियों और कमियों पर लिखित भाषण दिया। विदर्भ के किसानों के लिए घोषित अपने पैकेज पर सफाई सुनी और चले गए।
हां, प्रधानमंत्री को इस बात का दुख ज़रूर है कि जिस महाराष्ट्र में 33 फीसदी कृषि भूमि पर कपास की खेती होती है, वहां कपास का केवल 17 फीसदी उत्पादन हो रहा है। लेकिन उन्हें इस हकीकत पर गौर करने का जरूरी नहीं लगा कि ज्यादा उत्पादन के चक्कर में महाराष्ट्र, खासकर विदर्भ इलाके के किसानों ने अभी तक उर्वरकों का इस कदर एकांगी इस्तेमाल किया है कि आज उनकी जमीनें बंजर होने की स्थिति में जा पहुंची हैं। ऊपर से सिंचाई सुविधाओं के अभाव से निकलने की कोई जरिया फिलहाल उनके पास नहीं है।
वैसे, सिंचाई के मामले में महाराष्ट्र में भयंकर विषमता है। कृषि मंत्री शरद पवार के लोकसभा क्षेत्र बारामती वाले पश्चिमी महाराष्ट्र में खूब सिंचाई सुविधाएं हैं, कोंकण में जमकर बारिश होती है, जबकि विदर्भ, खानदेश और मराठवाड़ा पानी के लिए तरसते रहते हैं, वहीं सिंचाई सुविधाओं की कमी की मार सबसे ज्यादा पड़ती है। प्रधानमंत्री के साथ समीक्षा बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार ने कृषि में सिंचाई सुविधाओं का रोना रोया तो मौजूदा मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख कैसे चुप रहते। उन्होंने प्रधानमंत्री के माध्यम से केंद्र सरकार से फरियाद कर डाली कि राज्य को अधूरी पड़ी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 37,000 करोड़ रुपए की ज़रूरत है।
ये रुपए कहां से आएंगे? हर राज्य हजारों करोड़ मांग रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए मांगे हैं। अब महाराष्ट्र को केवल सिंचाई के लिए 37,000 करोड़ रुपए चाहिए! वैसे, महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से ही हर साल 96,000 करोड़ रुपए का टैक्स केंद्र सरकार को मिलता है। क्या इसमें से महज एक साल के लिए 37,000 करोड़ रुपए महाराष्ट्र की भलाई के वास्ते नहीं निकाले जा सकते?
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