भक्तजनों! श्रद्धा का ये विसर्जन?
आज एक बार फिर इनका ब्लॉग हथियाने का मौका मिल गया है।
आखिरकार कल की तस्वीरें विचलित कर ही गईं। एक ही बात मन में बार-बार उठ रही है और चिल्ला-चिल्लाकर पूछने का मन हो रहा है, “हाय रे भक्तगण! गणपति बप्पा का क्या हाल कर डाला ये।”
और जब भगवान जी का ये हाल है तो हम मनुष्य जनों का क्या होगा! कौन-सी चीज़ें हम इस्तेमाल करते हैं! कितनी अप्राकृतिक!
भक्तजनों के ही अंदाज़ में सोचें तो क्या यह विसर्जन ‘पूर्ण’ और ‘सही’ है? क्या घट जाता यदि हम माटी के इको बप्पा ही बनाते। पूर्ण विसर्जन कर पुण्य तो कमा पाते।
पर्यावरण (चोंचला कहा तो बेलन उठाऊंगी) के बारे में हम कुछ सोच लें, सुन लें, अपनी ज़िम्मेदारी समझ लें तो हम सबके लाडले गणेश जी का ये हाल न हो।
मुंबई भर में कई छोटे-छोटे संगठनों को जानते हैं हम जो सालोंसाल से लोगों को इको मूर्तियां बनाना सिखा रहे हैं। कोशिश कर रहे हैं सही स्पिरिट में उत्सव मनाए जाने की।
पर क्या ‘लाखों में खेलनेवाले गणेश पंडालों’ के कान पर जूं तक रेंगती है?
कौन मेरे साथ यह प्रण लेने को तैयार है कि इस बार गणपति उत्सव मनाएंगे तो खूब धूमधाम से, लेकिन सिर्फ उन्हीं के दर्शन करने जाएंगे जो इको/ग्रीन गणपति हों।
...कितनी अजीब बात है कि हम हर साल जिस गणपति बप्पा को पूरी श्रद्धा और भक्ति से स्थापित करते हैं, उन्हें यूं फेंक आते हैं जैसे उनसे हमारा कोई वास्ता ही न हो। हम रहें, हमारी भक्ति रहे, बाकी गणपति कहीं भी जाएं, पर्यावरण कहीं भी जाएं, हम सोचने की जहमत तक नहीं करते। ऊपर से कहते रहते हैं – गणपति बप्पा मोरया, पुरचा वरशी लौकर या। इसी सोच की चोट से आहत मेरी धर्मपत्नी ने आज फिर मेरा ब्लॉग हथिया लिया और लिख डाली ये पोस्ट।
आखिरकार कल की तस्वीरें विचलित कर ही गईं। एक ही बात मन में बार-बार उठ रही है और चिल्ला-चिल्लाकर पूछने का मन हो रहा है, “हाय रे भक्तगण! गणपति बप्पा का क्या हाल कर डाला ये।”
और जब भगवान जी का ये हाल है तो हम मनुष्य जनों का क्या होगा! कौन-सी चीज़ें हम इस्तेमाल करते हैं! कितनी अप्राकृतिक!
भक्तजनों के ही अंदाज़ में सोचें तो क्या यह विसर्जन ‘पूर्ण’ और ‘सही’ है? क्या घट जाता यदि हम माटी के इको बप्पा ही बनाते। पूर्ण विसर्जन कर पुण्य तो कमा पाते।
पर्यावरण (चोंचला कहा तो बेलन उठाऊंगी) के बारे में हम कुछ सोच लें, सुन लें, अपनी ज़िम्मेदारी समझ लें तो हम सबके लाडले गणेश जी का ये हाल न हो।
मुंबई भर में कई छोटे-छोटे संगठनों को जानते हैं हम जो सालोंसाल से लोगों को इको मूर्तियां बनाना सिखा रहे हैं। कोशिश कर रहे हैं सही स्पिरिट में उत्सव मनाए जाने की।
पर क्या ‘लाखों में खेलनेवाले गणेश पंडालों’ के कान पर जूं तक रेंगती है?
कौन मेरे साथ यह प्रण लेने को तैयार है कि इस बार गणपति उत्सव मनाएंगे तो खूब धूमधाम से, लेकिन सिर्फ उन्हीं के दर्शन करने जाएंगे जो इको/ग्रीन गणपति हों।
...कितनी अजीब बात है कि हम हर साल जिस गणपति बप्पा को पूरी श्रद्धा और भक्ति से स्थापित करते हैं, उन्हें यूं फेंक आते हैं जैसे उनसे हमारा कोई वास्ता ही न हो। हम रहें, हमारी भक्ति रहे, बाकी गणपति कहीं भी जाएं, पर्यावरण कहीं भी जाएं, हम सोचने की जहमत तक नहीं करते। ऊपर से कहते रहते हैं – गणपति बप्पा मोरया, पुरचा वरशी लौकर या। इसी सोच की चोट से आहत मेरी धर्मपत्नी ने आज फिर मेरा ब्लॉग हथिया लिया और लिख डाली ये पोस्ट।
Comments
बल्कि आप नया ब्लाग ही क्यों न बना डालें.
शायद ये लोग आपके बेलन से ही सुधरें
बदलाव शायद तब देखने को मिले जब ये सोच आए कि रहना है इंसान के साथ, भगवान् के साथ नहीं. और अगर भगवान् में सचमुच का विश्वास और श्रद्धा है तो ये भी मानने की जरूरत है कि जिस वातावरण को दूषित कर रहे हैं, वह भगवान् का ही बनाया हुआ है और उसे बिगाड़ने का इंसान को अधिकार नहीं है.
अगर आप ऐसा वादा करें तो हम भी आपके साथ इको फ्रेंडली वाले अभियान में नारा लगाने का प्रण लेते हैं.
यदि इनका ब्लोग हथियाऊंगी तो आप ही लोग सबसे पहले भागेंगे!!
मेरे ब्लोग 'designflute'में (design ka blog-english )आपका स्वागत है.
शिव कुमार जी,
एकदम सही कहा आपने. पर्यावरण को भगवान समान दर्जा देंगे तभी कुछ हो पाएगा.
अनुरागजी,
सच में "समझदार भक्तों" का "कल्याण" भगवानजी ही कर सकते हैं!
.......इनकी अर्द्धांगिनी.