
सोचता हूं कि मेरा ब्लॉग पढ़नेवाला मेरे सामने बैठा होता, तब भी क्या मैं उसे इसी अंदाज में भाषण पिलाता। शायद नहीं, क्योंकि उसके चेहरे के भाव बता देते कि मैं क्यों बकवास किए जा रहा हूं। तब मैं शायद इतनी लिबर्टी नहीं ले पाता। उससे बात करता, कोई आधी-अधूरी घुट्टी नहीं पिलाता। लेकिन आज तो बात करनी ही शायद सबसे ज्यादा मुश्किल हो गई है। जिससे आप बात करते हो, खुद उसके पास सुनाने को बहुत होता है, दिखाने को बहुत होता है। श्रोता कोई नहीं, सारे वक्ता ही वक्ता हैं।
यहीं पर गांधी जी की सुनी-सुनाई बात याद आ गई। वह कहा करते थे – बोलो कम, सुनो ज्यादा, पढ़ो ज्यादा और सोचो उससे भी ज्यादा। सोचता हूं, ब्लॉग पर कैसे इसे लागू कर सकता हूं। अगर सिर्फ सोचता रहूंगा तो कुछ लिख नहीं पाऊंगा क्योंकि सोच तो खटाखट पटरियां बदलती रहती है। चिनगारी की तरह फुदकती और उड़न-तश्तरी की तरह गायब हो जाती है। उसे थामकर साध पाना बड़ा मुश्किल होता है। सुनूं ज्यादा, मतलब ज्यादा से ज्यादा ब्लॉग पढूं। तो, यह संभव नहीं है। अपनी ही पोस्ट बिला नागा चढ़ा दूं, इसी के लिए समय निकालना पड़ता है। ऊपर से दूसरे ब्लॉगों को पढ़ने बैठ गया तो हो गया कल्याण।

क्या इस समय हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में जो लेखक है, वही पाठक हैं? इसका मतलब कि ज्यादा पाठक पाने हैं तो पहले ज्यादा से ज्यादा लेखक होने पड़ेंगे। सभी ब्लॉगर एक दूसरे को पढेंगे, टिप्पणियां पाने के लिए टिप्पणी करेंगे। क्या गजब की समानता होगी! आदर्श स्थिति में सभी हिंदी ब्लॉगों के पाठकों की संख्या बराबर होगी!! लेकिन सांप अपनी ही पूंछ को निगलता रहे, ऐसा कैसे और कब तक चलता रह सकता है?
कभी-कभार दोस्तों के फोन वगैरह से पता चलता है कि हिंदी ब्लॉगों के ऐसे भी पाठक है जो खुद ब्लॉगर नहीं हैं। ऐसे लोग इसे वैकल्पिक मीडिया के रूप में देख रहे हैं। ऐसा मीडिया जो व्यावसायिक या राजनीतिक हितों से नहीं संचालित होगा। ऐसा मीडिया जो बस सूचनाएं और विचार फेंकेगा नहीं, उनको शेयर करेगा। पराया नहीं, अपना-सा होगा, सगा-सा होगा। भाषण नहीं देगा, बातें करेगा पूरे दुनिया-जहान की, जिसमें अंदर का भाव संसार होगा तो बाहर का उलझा संसार भी। जहा हर गुत्थी को सुलझाने की ईमानदार कोशिश होगी। न तो लफ्फाजी होगी और न ही प्रवचन।
वैसे, हम खुद क्या चाहते हैं, इसे समझ लें तो शायद यही दूसरों को, अपने पाठकों को समझने की कुंजी साबित हो जाए। (आ गया न प्रवचन पर!!!) हमारे लिए कंपनियों की तरह सर्वे कराना तो संभव नहीं है कि उपभोक्ता की मांग क्या है, उसका टेस्ट क्या है, वह हमसे चाहता क्या है?
4 comments:
बोलो कम, सुनो ज्यादा, पढ़ो ज्यादा और सोचो उससे भी ज्यादा.. इसके आगे बस इतना और जोड़ दें.. लिखो सबसे ज़्यादा.. समस्या का हल हो जाएगा..:)
आपका भाषण/प्रवचन भी रुचिकर लगता है। आप लिखते रहें, हम पढ़ते रहेंगे।
अनिलभाई, बात तो पते की लिखी है आपने। ब्लॉग में लिखते समय मामला तो इकतरफ़ा ही रहता है,ये ज़रूर है कि आपकी प्रोग्रामिग कैसी है, विषय क्या चुनते है, इस पर भी निर्भर करता है,जैसे ये जो आपने लिखा है..वो बातें मेरे अन्दर भी घुमड़ रही थीं और मैं बरबस टिप्पणी करने बैठ गया.. बहुत से ब्लॉग के साथ ऐसा नहीं हो पता..पर सब बातें ही तो हैं आप चाहे भाषण कह लें.. कुछ दिल के करीब होती हैं तो आपको भी कुछ सूझता है आप भी जवाब देने को तत्पर हो जाते है.. पर ये सबके साथ नही हो पाता..पर ये ज़रूर कहुंगा कि ब्लॉग में कुछ कचरा भी तो है उससे आप अपने को जोड़ नही पाते...पर ब्लॉग का एक तो फ़ायदा मिला कि जो अपने जानने वाले लोग थे, बीसियों साल बाद भी बदलते समय मे उनकी सोच कैसी है? ये तो पता चलता ही है और दूसरों के ब्लॉग पर जाकर हम अपने विचारों से मिलते जुलते मित्र तलाशते हैंया अपने विचारों को सम्म्रिद्ध बनाते है, ये ब्लॉग की खूबी है।
ब्लॉग को अगर हम orkut का बौद्धिक रुपांतर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। दिल बहलाने को ये ख्याल अच्छा है गालिब कि कोई हमारी लिखी को पढ़ रहा है। मगजमारी कर रहा है शब्दों के उस जाल में उलझा जिसे हमने बुना है। लेकिन अगर दूसरे नजरिए से देखें तो ये एक निकास मार्ग भी है अपने अंदर की भड़ास को निकालने का। भई वाह हम रचनात्मक कल्पनात्मक सृजनात्मक लोग हैं इसलिए गाली भी कुछ इस अंदाज में देंगे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।
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