हमारी तो अपनी ज़मीन है, तुम्हारा क्या है?

मैं आज यह जानकर अचंभे और शर्म से गड़ गया कि दुनिया में सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोलने और जानने वाले भारत में हैं। दस-बारह साल पहले अमेरिका को ये सम्मान हासिल था। लेकिन आज भारत में करीब 35 करोड अंग्रेज़ी बोलने, समझने और सीखनेवाले लोग हैं। यह संख्या ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की कुल अंग्रेजी बोलनेवाली आबादी से ज्यादा है। दिलचस्प बात ये है कि भारत में अंग्रेज़ी का इतना तेज़ प्रचार पिछले 20-25 सालों में हुआ है क्योंकि अस्सी के दशक में यहां अंग्रेजी बोलनेवालों की संख्या आबादी की महज 4-5 फीसदी हुआ करती थी। यानी, यह कहना ठीक नहीं है कि अंग्रेज़ चले गए, मगर अपनी औलादें यहीं छोड़ गए क्योंकि हमने किसी औपनिवेशिक हैंगओवर के चलते नहीं, अपनी मर्जी से अंग्रेजी को अंगीकार किया है।
लेकिन इसके बावजूद, जो लोग देश में अंग्रेजी के इस बढ़ते दबदबे और चलन को लेतर चिंतित रहते हैं, मुझे उनका डर अतिरंजित लगता है क्योंकि अंग्रेजी कितनी भी बढ़ जाए, वह किसी और मुल्क में पैदा हुई है। इसलिए अंग्रेजी का भारतीयकरण तो हो सकता है। उसका अलग भारतीय संस्करण बन सकता है। लेकिन हम अपने दम पर उस भाषा की मूल संरचना में कोई तब्दीली नहीं कर सकते। वैसे, अंग्रेज़ी को अपनाने वाले भारतीय ताल ठोंककर कहते हैं कि जब लंदन और न्यूयॉर्क वाले अलग तरीके से अंग्रेज़ी बोल सकते हैं तो बलिया या बिहार वाला अपने अंदाज़ में अंग्रेज़ी क्यों नहीं बोल सकता। अरुंधति रॉय भी अपनी अंग्रेजी के बारे में ऐसी ही बात कह चुकी हैं।
फिर भी मुझे लगता है कि अंग्रेज़ी क्योंकि मूलत: ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड वालों की भाषा है, इसलिए वहां के लोग जितनी आसानी से इसमें उलटफेर कर सकते हैं, उतनी छूट किसी भी हिंदुस्तानी को कभी नहीं मिल सकती। हम कोई अंग्रेजी में कोई शब्द गढ़ेंगे तब भी अंग्रेजी की दुनिया उसे स्वीकार नहीं करेगी।
इसके विपरीत हिंदी के पास ब्रज, अवधी, भोजपुरी से लेकर मैथिली, मगही जैसे अपने आसपास की बोलियां हैं। वह चाहे तो पंजाबी, हरियाणवी, पश्तो, मराठी या गुजराती के शानदार शब्द हमेशा के लिए उधार ले सकती है। इसके ऊपर से देश की 14 अन्य भाषाओं और 844 बोलियों का खज़ाना उसके पास है। इतना व्यापक आधार होते हुए हिंदी कभी सूख ही नहीं सकती। भारत भूमि से इसे मिटाना नामुमकिन है। अंग्रेजी को यहां का एक तबका फौरी तौर पर सुविधा के लिए अपना सकता है, लेकिन वह हमेशा के लिए उसकी भाषा नहीं बन सकती। पराई भाषा किसी मुल्क की मूल भाषा को कभी भी नहीं मिटा सकती।
वैसे आज भी अंग्रेज़ी की स्थिति भारतीय भाषाओं की सम्मिलित ताकत के सामने कहीं नहीं टिकती। दुनिया में 105 करोड़ बोलनेवालों के साथ चीनी भाषा पहले नंबर पर है। इसके बाद 51 करोड़ बोलनेवालों के साथ अंग्रेज़ी का नंबर दूसरा है, जबकि इसमें से आधे से ज्यादा लोग भारत के हैं। फिर तीसरे नंबर पर 49 करोड़ लोगों के साथ हिंदी विराजमान है। सीना ठोंकने वाली बात यह भी है कि दुनिया की तीस सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषाओं में से नौ यानी एक-तिहाई भाषाएं भारत की हैं। अगर हिंदी में उर्दू बोलनेवालों की संख्या मिला दी जाए तो इनकी सम्मिलित ताकत 60 करोड़ के पास जा पहुंचती है।
इसलिए मेरा तो मानना है कि हिंदुस्तान में हिंदी की ज़मीन इतनी व्यापक है कि अंग्रेज़ी कभी भी उसका बाल बांका नहीं कर सकती। अंग्रेजी क्योंकि भारत की भाषा नहीं है, इसलिए वह लंबे दौर में सूख जाने के लिए अभिशप्त है। जब चीन की 90 फीसदी आबादी चीनी भाषा को अपना मान सकती है तो भारत में भी दक्षिण के राज्य इसको अपनाएंगे, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। वैसे भी हिंदी किसी एक जगह विशेष की भाषा नहीं है, इसकी तो उत्पत्ति ही हिंदुस्तान की लिंक भाषा के रूप में हुई थी, जिसके बढ़ने में अंग्रेज़ों के आने से खलल पड़ गया।

Comments

सच बड़ा हीं कड़वा होता है, आपने सच कहा है इसलिए आपको धन्यवाद,आपके विचार सुंदर है.
एक बात: मैं सोचता हूं; दोनो भाषाओं में कोई झग़ड़ा नहीं है.
दूसरी बात: बैलेंस शीट निकालूं तो जितना हिन्दी ने मुझे दिया है उतना ही लगभग अंग्रेजी ने भी.
दोनो भाषायें - या अन्य भाषायें भी उतनी प्रिय हैं.
ये अंग्रेजी बोलने जानने समझने वालों का आंकड़ा सच है क्या? लगता नहीं। वैसे भाषा के बारे में आपके शानदार विचार अच्छे लगे।
Udan Tashtari said…
विचार तो अच्छे है मगर आंकड़ों में संशय है. दोनों भाषाओं का अपना अपना स्थान है. आवश्यकता है हिन्दी को बढ़ाने की, न कि अंग्रेजी को हटाने की.
जब अपराधियों को नेता बनाते हमें शर्म नहीं आई तो इस बात में कैसी शर्म!
Anonymous said…
शर्म की बात नहीं, हम फायदा देखने वाले लोग है, अंग्रेजी से फायदा दिखेगा तो उसे अपनाएंगे. जब हिन्दी फायदा देगी तो उसे सिखेंगे.

जरूरत है हिन्दी को फायदे की भाषा बनाने की.

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