
महंगाई कितनी बढ़ गई है, यह तो जनता जाने। लेकिन सरकार
बता रही है कि मुद्रास्फीति और बढ़कर 21 जून 2008 को खत्म हुए हफ्ते में 11.63 फीसदी पर पहुंच गई है। 1995 में मनमोहन सिंह जब नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे, तब से अब तक के 13 सालों में मुद्रास्फीति का यह उच्चतम स्तर है। जानकार मानते हैं कि अगले कुछ हफ्तों में मुद्रास्फीति की दर 13 फीसदी तक पहुंच जाएगी। सरकार असहाय है। कहती है कि हम से जितना बन पड़ा, कर दिया। अब कुछ नहीं कर सकते क्योंकि सारी दुनिया में मुद्रास्फीति की दर ऊंची चल रही है। इस आयातित महंगाई से हम अकेले कैसे निपट सकते हैं? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 7 जुलाई से जी-8 की बैठक में हिस्सा लेने होक्काइडो (जापान) जा रहे हैं तो
यही हो सकता है कि जी-8 के सभी देशों – अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, इटली, जर्मनी और रूस की तरफ से मुद्रास्फीति पर कोई साझा बयान जारी करवा लिया जाए, चिंता ज़ाहिर करा दी जाए।
जी-8 के देश इस पहलू पर भी गौर करेंगे कि कच्चे तेल की कीमत 146 डॉलर प्रति बैरल पहुंचने के पीछे कहीं अमेरिकी मुद्रा डॉलर की कमजोरी तो नहीं है। लेकिन इससे पहले ही अमेरिकी संसद ने अपनी तमाम समितियों, उपसमितियों की 40 से ज्यादा बैठकों और 11 महीनों से चल रही जांच के बाद
घोषित कर दिया है कि कच्चे तेल से लेकर तमाम खाने-पीने की चीजों के भाव में आग लगने की बड़ी वजह सट्टेबाज़ी है। अमेरिका में आम निवेशकों के पैसे से बने mutual funds, pension funds, sovereign wealth funds और endowment funds ने जिंसों के फ्यूचर्स में जमकर पैसा लगाया है। कितना? इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां 2003 में जिंसों के ‘भावी’ बाज़ार में इनका निवेश 13 अरब डॉलर था, वहीं मार्च 2008 तक यह 260 अरब डॉलर तक पहुंच गया। पांच साल में बीस गुना!!! अमेरिकी कांग्रेस की इस रिपोर्ट के बाद हमारे वित्त मंत्री चिदंबरम को अपना यह ज्ञान दुरुस्त कर लेना चाहिए कि कच्चे तेल में लगी आग की खास वजह अमेरिका में मक्के से बायो-फ्यूल बनाया जाना है।
अमेरिकी कांग्रेस के इस नतीजे से साफ है कि हम जिसे आयातित महंगाई कह रहे हैं, वह असल में आयातित सट्टेबाज़ी है। लेकिन यह तो बस
अश्वत्थामा हतो जित्ती बात है,
नरोवा कुंजरोवा का खुलासा नहीं। डॉलर की कमज़ोरी की वजह पर जी-8 के देश होक्काइडो में चर्चा करेंगे। लेकिन अपने यहां
चर्चा चल निकली है कि मुद्रास्फीति की
असली वजह हमारे रिजर्व बैंक की तरफ से बाज़ार में ज्यादा रुपए का छोड़ा जाना है। बुनियादी बात है कि मुद्रा-की-स्फीति तब पैदा होती है जब मुद्रा तो बहुत सारी होती है और चीजें होती हैं बहुत कम। लेकिन आज चीजों की कमी नहीं है। दुनिया में कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ रहा है। इस साल भारत में ही नहीं, दुनिया भर में अनाजों की पैदावार बढ़ने का अनुमान है। बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए आपूर्ति की कमी कतई नहीं है। लेकिन हर देश का केंद्रीय बैंक नोटों की धारा बहा रहा है। साल 2001 की मंदी के बाद अमेरिका ने सालों तक ब्याज दरों को 1 फीसदी पर बनाए रखा। इससे अमेरिकी ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत पर उतारू हो गए। मांग को पूरा करने के लिए अमेरिका ने आयात बढ़ा दिया। अमेरिका ने चीन से सस्ते उत्पादों और भारत से सस्ती सेवाओं की आउटसोर्सिंग की। बाहर से सस्ती चीजें आती रहीं तो डॉलर के ज्यादा प्रवाह के बावजूद अमेरिका में मुद्रास्फीति भी नीची बनी रही।
लेकिन इससे भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों के खजाने में आनेवाले डॉलर बढ़ते गए। इस सिलसिले को बनाए रखने के लिए ज़रूरी था कि निर्यात को महंगा न होने दिया जाए, जिसके लिए स्थानीय मुद्रा को मजबूत होने से रोकना ज़रूरी था। इसलिए इन देशों के केंद्रीय बैंक बाज़ार से डॉलर खरीदकर अपनी मुद्रा झोंकते गए। मुद्रा प्रसार बढ़ता गया। भारत की बात करें तो साल 2007 की शुरुआत में जब मुद्रास्फीति के बढ़ने की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, उसके बाद रिजर्व बैंक ने रुपए को डॉलर के सापेक्ष महंगा होने से रोकने के लिए बाज़ार से 110 अरब डॉलर खरीदे हैं। मुद्रा प्रसार की गति इससे 31 फीसदी की खतरनाक हद तक जा पहुंची। अर्थव्यवस्था में नोटों की बाढ़ आ गई। ऐसे में जैसे ही दुनिया में तेल और दूसरे जिंसों की कीमतें चढ़ीं, देश को मुद्रास्फीति के झटके लगने लगे।
तकलीफदेह बात ये है कि आम लोग जब महंगाई की मार झेलने लगे, तब रिजर्व बैंक ने उनके घाव पर मरहम लगाने के बजाय नमक छिड़कने का काम किया। उसने मौद्रिक नीति का शास्त्रीय तरीका अपनाया। नोटों के प्रवाह को थामने के लिए उसने अपने पास बैंकों के ज्यादा पैसे (सीआरआर) रख लिए और लोगों के पास पैसे न पहुंचें, इसके लिए ब्याज की दरें (रेपो दर) बढ़ाने की बुनियाद तैयार कर दी। आज ब्याज दरें इतनी बढ़ गई हैं कि लोग कर्ज लेने से तौबा करने लगे हैं। और जिन्होंने पहले से कर्ज ले रखे हैं, वो त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। और, ये सब आम आदमी को बचाने के नाम पर हो रहा है। सवाल उठता है कि जिन नौकरीपेशा लोगों ने 15-20 लाख कर्ज लेकर अपने आशियाने का सपना पूरा किया है, क्या वे आम आदमी की श्रेणी में नहीं आते?
हमारा रिजर्व बैंक 1993-95 के बीच भी ऐसी हरकत से मुद्रास्फीति बढ़ा चुका है। लेकिन 15 साल बाद भी वो वही हरकत कर रहा है जिससे साफ है कि उसने इतिहास से सबक नहीं सीखा। सवाल उठता है कि क्या निर्यातकों को परोक्ष रूप से सब्सिडी देना इतना ज़रूरी है कि करोडों देशवासियों पर मुद्रास्फीति का काला नाग फेंक दिया जाए? मुद्रास्फीति से घरेलू उद्योग और अर्थव्यवस्था का भी नुकसान होता है। तो, हमारा रिजर्व बैंक घरेलू अर्थव्यवस्था के बजाय निर्यातकों के प्रति ज्यादा क्यों समर्पित है? इस सवाल का जवाब रिजर्व बैंक को ही नहीं, सरकार को भी देना पड़ेगा क्योंकि अपने यहां अभी तक रिजर्व बैंक स्वायत्त नहीं है, वह मदारी (सरकार = वित्त मंत्री) के इशारों पर नाचनेवाला महज एक जमूरा है।