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Showing posts from July, 2008

याद आ गया द ग्रेट डिक्टेटर का वो सीन

आज अखबारों में छोटी-सी खबर छपी थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से मिले। प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को सार्क सम्मेलन के लिए अपनी आगामी कोलंबो यात्रा के बारे में जानकारी दी। राष्ट्रपति भवन की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक इसके साथ ही उन्होंने बेंगलुरू और अहमदाबाद में हुए आतंकवादी हमलों के मद्देनज़र राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर तफ्सील से चर्चा की। लेकिन प्रतिभा ताई और मनमोहन सिंह की जो छवि मेरे दिमाग में बनी है, उससे मुझे बरबस चार्ली चैपलिन की फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर का वो सीन याद आ गया जिसमें हिटलर मुसोलिनी से मिलता है। इस सीन को देखकर आप भी अंदाज़ा लगाइए कि हमारी प्रतिभा ताई और डॉक्टर साहब के बीच असल में कैसी और क्या बात हुई होगी।

गुजरात के एक मुस्लिम पुलिसवाले का मृत्यु-पूर्व बयान

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‘उन सभी के घर जाना और मेरी तरफ से उनके घरवालों से माफी मांग लेना’ कुछ साल पहले की बात है। गुजरात का एक मुस्लिम पुलिस अफसर कैंसर से पीड़ित अपने साथी दूसरे मुस्लिम पुलिस अफसर को देखने गया। उस अफसर की हालत बिगड़ चुकी थी। वो दो-चार दिन का ही मेहमान था। उसने इस पुलिस अफसर के पास आते ही उसका हाथ पकड़ लिया। मिन्नत करते हुए उससे बोला, “मेरे पास बहुत कम वक्त बचा है। मैंने ज़िंदगी में बहुत गलत काम किए हैं। हमने कुछ बेगुनाहों को आतंकवादी बताकर मारा है। तुम उनके घरवालों से ज़रूर मिलना और मेरी तरफ से उनसे माफी मांग लेना।” कैंसर से पीड़ित वह पुलिस अफसर चंद दिनों में मर गया। लेकिन उसकी बातें उसके साथी पुलिस अफसर के मन को मथती रहीं। ये आज टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर का पहला पैराग्राफ है। इसके बाद खबर में बताया गया है कि गुजरात पुलिस के उन तमाम मुस्लिम अफसरों का आज यही हाल है जो पिछले छह साल से चलाए जा रहे आतंकवाद-विरोधी ऑपरेशन में शामिल रहे हैं। इस ऑपरेशन के तहत फर्जी मुठभेड़ों में न जाने कितने बेगुनाहों को मौत के घाट उतारा गया और न जाने कितनों को परेशान किया गया। इसी का नतीजा है कि पहले मुस्लिम आ

गुरमुख सिंह के पुत्तर मोहना को हिंदी नहीं आती?

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प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कल आतंकी हमलों के शिकार लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने अहमदाबाद गए तो सारे बयान अंग्रेज़ी में दिए। मेरे मन में सवाल उठा कि क्या पश्चिम पंजाब के गाह गांव में जन्मे गुरमुख सिंह और अमृत कौर के इस पुत्तर मोहना को हिंदी नहीं आती? पंजाबी तो आती ही है, फिर हिंदी कैसे नहीं आती होगी? कभी-कभार तो मनमोहन हिंदी में भी बोलते हुए पाए गए हैं! फिर अहमदाबाद में अंग्रेज़ी में बोलकर वो किसे संबोधित कर रहे थे? कम से कम गुजरात या देश के बाकी अवाम को तो नहीं। हो सकता हो दक्षिण भारत के लोगों को बता रहे हों। लेकिन टेलिविजन और फिल्मों के प्रभाव से तो अब दक्षिण के लोग भी अच्छी-खासी हिंदी समझने लगे हैं। हो सकता है कि मनमोहन साथ गई अपनी आका सोनिया गांधी को बता रहे हों। लेकिन सोनिया गांधी भी अब हिंदी समझने ही नहीं, बोलने भी लगी हैं!!! असल में मुझे लगता है कि सवाल हिंदी भाषा का नहीं है। सवाल है प्रतिबद्धता का, प्राथमिकता का। मनमोहन सिंह की कोई प्रतिबद्धता भारतीय अवाम के प्रति नहीं है। राज्यसभा से चुनकर आया और सोनिया की कृपा से प्रधानमंत्री बन गया यह शख्स अवाम से सीधे रिश्तों की ऊष्मा से

कहीं एक मासूम नाज़ुक-सी लड़की...

बात इलाहाबाद के दिनों की है। पढ़ने में, देखने में, सुनने में... सब में अच्छे थे तो लड़कियों को ठेंगे पर रखते थे। लेकिन युवावस्था में साथी की तलाश किसे नहीं होती। मुझे भी थी। तो मैंने भी कहीं से मोहम्मद रफी का ये गाना सुना कि कहीं एक मासूम नाज़ुक-सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर सांवली-सी... बस क्या था संगिनी का सपना ऐसी ही छवि के इर्दगिर्द बुनता गया। दिक्कत बस इतनी रही कि इलाहाबाद में रहते हुए न तो ऐसी कोई लड़की मिली और मिली भी तो भायी नहीं। तो चलिए शनिवार का दिन है, थोड़ी फुरसत का दिन। आप भी सुन लीजिए वो मनोहारी गीत... वीडियो पर मत जाइएगा जो मुझे भी खास जमा नहीं...

किताब पढ़ी तो नूई बनी, जिंदगी पढ़ी तो मायावती

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इन दोनों चेहरों को ज़रा गौर से देखिए। दोनों में गजब की समानता है। एक हैं बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सीको की सीईओ इंदिरा नूई और दूसरी हैं उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती। इंदिरा नूई का जन्म 28 अक्टूबर 1955 को चेन्नई में हुआ था, जबकि मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को दिल्ली में। इंदिरा नूई ने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स में बीएससी करने के बाद आईआईएम कोलकाता से फाइनेंस व मार्केटिंग में एमबीए किया। बाद में उन्होंने येल यूनिवर्सिटी से पब्लिक व प्राइवेट मैनेजमेंट में भी स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। मायावती ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के कालिंदी कॉलेज से बीए किया, बीएड की डिग्री मेरठ यूनिवर्सिटी से जुड़े गाज़ियाबाद के बीएमएलजी कॉलेज से ली और दिल्ली यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया। वो अपनी किताबी पढ़ाई के दम पर आईएएस बनना चाहती थीं। लेकिन कांशीराम ने कहा कि तुम आ ईएएस बनने के लिए नहीं, आईएएस लोगों पर हुक्म चलाने के लिए पैदा हुई हो। इसके बाद मायावती ने किताबी ज्ञान को दरकिनार कर ज़िंदगी की पढ़ाई शुरू कर दी। उन्होंने राजनीति की डगर चुनी और आज उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं।

दिखे नोट करोड़ के, मगर अदृश्य हैं करोड़ों की पुर्जियां

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पक्ष-विपक्ष के 28 सांसदों के पाला बदलने के पीछे जिस अंडरग्राउंड राजनीति ने अपना खेला खेला है, उसके हाथ बहुत दूर तक पहुंचे हुए हैं। सीएनएन-आईबीएन अगर स्टिंग ऑपरेशन का ब्योरा अपने चैनल पर दिखा देता तो बीजेपी के तीन सांसदों अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा के आरोपों की असलियत सामने आ जाती है। लेकिन जानते ही है कि मीडिया आज लोकतंत्र का नहीं, सत्ता का चौथा खंभा बन चुका है तो सीएनएन-आईबीएन की दिलचस्पी शायद असलियत को सामने लाने के बजाय सत्ता से अपना चौथाई हिस्सा लेने में ज्यादा हो। वैसे, अगर एक करोड़ के इन नोटों की असलियत सामने आ भी जाए, तब भी करोड़ों की उन पुर्जियों की हकीकत छिपी रहेगी जिनके जरिए सांसदों की खरीद-फरोख्त का असली खेल हुआ होगा। इस खेल की तरफ इशारा किया था इकनॉमिक टाइम्स ने ठीक विश्वास मत के दिन 22 जुलाई को अपने अंग्रेज़ी अखबार के पहले पेज़ पर छपी एक खबर में, जिसका शीर्षक था - Suitcase to chit: Cos, parties get smarter, Discover Ingenious Ways For Kickbacks ... इसमें बताया गया है कि अब नरसिंह राव के ज़माने के झारखंड मुक्ति मोर्चा मामले की तरह बैक खाते में पैसे नहीं

सारे जयचंद एनडीए के, बीएसपी-लेफ्ट का कोई नहीं

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अमर सिंह अगर उन्हें राजनीति की वैश्याएं कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे क्योंकि वैश्याओं का कोई रहस्य दलालों से नहीं छिपा होता। उनमें तो चोली-दामन का साथ है। लेकिन हम मुलायम सिंह और सुब्रतो राय से लेकर बड़े भाई और छोटे भाई तक को ‘माल-मलाई’ सप्लाई करनेवाले अमर सिंह के पेशाई और भाषाई संस्कार तक नहीं गिर सकते। इसलिए हम विपक्ष के उन भितरघातियों को जयचंद कह रहे हैं। विपक्ष के ऐसे जयचंदों की संख्या 21 रही है। इनमें से सबसे ज्यादा नौ सांसद बीजेपी के हैं। पार्टी ने फिलहाल सरकार का साथ देनेवाले अपने आठ सांसदों को निष्कासित कर दिया है। इनके नाम हैं: बृजभूषण शरण सिंह (बलरामपुर), मंजूनाथ (धारवाड़), चंद्रभान सिंह (दमोह), एच टी सांग्लियाना (बैंगलोर उत्तर), मनोरमा (उडुपी), हरिभाऊ राठोड़ (जलगांव), बाबूभाई कटारा (दोहाड) और सोमाभाई पटेल (सुरेंद्रनगर)... वैसे, हरिभाऊ राठोड़ कह रहे हैं कि वो दोपहर एक बजे लोकसभा से निकले तो उनका ब्लग शुगर लेवल इतना गिर गया कि उन्हें आईसीयू में भर्ती करना पड़ा और वे वहां से रात के 9 बजे ही निकल पाए। चिकमगलूर के बीजेपी सांसद डी सी श्रीकांतप्पा अपनी बीमारी के चलते लोकसभा नहीं प

अक्ल मगर लेफ्ट को नहीं आती

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सीपीएम ने लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया है। यह फैसला पार्टी के पोलित ब्यूरो ने किया है। सोमनाथ पर आरोप है कि उन्होंने पार्टी अनुशासन तोड़ा है। सवाल उठता है कि जब लोकसभा अध्यक्ष की हैसियत से सोमनाथ को पार्टी व्हिप से बाहर रखा गया था तो आखिर उन्होंने कौन-सा अनुशासन तोड़ डाला। पढ़ने-लिखने और सोचने-समझने वाला आम भारतीय सीपीएम के इस फैसले से ज़रूर आहत होगा क्योंकि सोमनाथ के बारे में उसकी यही राय बनी है कि उन्होने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा को बचाने का काम किया है। सीपीएम चाहती तो सोमनाथ की इस छवि का इस्तेमाल कर मध्यवर्ग में अपनी स्वीकृति बढ़ा सकती थी। लेकिन सीपीएम की अक्ल पर तो जैसे पत्थर पड़ा हुआ है। वैसे भी सोमनाथ दादा राजनीति से संन्यास लेने का मन बना चुके हैं। वे कह चुके हैं कि अगला लोकसभा चुनाव वे नहीं लड़ेंगे। साथ ही उन्होंने संसद में विश्वास मत से पहले ही श्रीनिकेतन-शांतिनिकेतन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एसएसडीए) के चेयरमैन पद से भी इस्तीफा भेज दिया था। यह पद उन्हें पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने सौंप रखा था। एसएसडीए का गठन सोमनाथ की ही पहल पर 1989 म

देश नौ जयचंदों के नाम जानना चाहता है

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झारखंड मुक्ति मोर्चा के पांच, नेशनल कांफ्रेंस के दो और नगा पीपुल्स फ्रंट के एक सांसद को मिलाकर सरकार के पक्ष में कुल 263 ही सांसद थे। कोकराझार (असम), बाहरी मणिपुर और लद्दाख के तीन निर्दलीय सांसदों को भी मिला दें तो ये संख्या 266 तक पहुंचती है। फिर भी उसने 275 का आंकड़ा कैसे हासिल कर लिया? राष्ट्रीय लोकदल के तीन और जेडी-एस के दो सांसदों को मिलाकर विपक्ष के पास 264 सांसद थे, लेकिन उसका आंकड़ा घटकर 256 कैसे रह गया? कौन से विपक्षी सांसद हैं जिन्होंने क्रॉस वोटिंग की है? 541 में से छह सांसदों ने पहले ही विश्वास मत से अनुपस्थित रहने की अर्जी दे दी थी, जिसमें तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, बीजेपी के हरीभाऊ राठोड़, शिवसेना के तुकाराम रेंगे पाटिल और मिजो नेशनल फ्रंट के एक सांसद शामिल हैं। इसके अलावा सदन में मौजूदगी के बावजूद किन चार सांसदों में मतदान में हिस्सा नहीं लिया? वैसे, बताते हैं इनमें से दो सांसद बीजेपी के हैं। दस सांसदों के हाथ खींच लेने के बाद लोकसभा में मौजूद सांसदों की संख्या 531 रह गई, जिनसे से 275 का साथ मिलने से यूपीए सरकार बच गई। लेकिन वो कौन से नौ सांसद हैं, जिन्होंने विपक्ष

क्रिया की प्रतिक्रिया का नतीजा हैं दादा सोमनाथ

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लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता एन सी चटर्जी अखिल भारतीय हिंदू महासभा के सदस्य थे। यह वो पार्टी है जिससे जनसंघ और आज की भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ है। क्या बात है, पिता घनघोर संघी और बेटा घनघोर कम्युनिस्ट!!! सोचिए, सोमनाथ छोटे रहे होंगे तो घर का क्या माहौल रहा होगा। खैर, सोमनाथ ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज और ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है तो पिता के विचारों का साया उन पर ज्यादा नहीं पड़ने पाया। या हो सकता है कि आज अगर वो कम्युनिस्ट हैं तो इसकी मूल वजह पिता के कट्टर हिंदूवादी विचारों की प्रतिक्रिया हो। वैसे, 2003 में सोमनाथ चटर्जी उस संसदीय समिति के सदस्य थे, जिसने संसद के सेंट्रल हॉल में वीर सावरकर की तस्वीर लगाने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी थी। सोमनाथ अब इसे अपनी गलती मान चुके हैं, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि ये उनके अवचेतन पर पड़े पिता के असर का नतीजा था? राजनीति में आने से पहले सोमनाथ कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। 1968 में सीपीएम के सदस्य बने। तब से लगातार वहीं खूंटा गाड़े हुए हैं। 25 जुलाई 1929 को जन्मे सोमनाथ देश की आज़ादी के वक्त 18 साल के हो चुके

डील के 1-2-3 विज्ञापन के दो नंबर में ही है दम

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कल देश के तमाम अखबारों में पेट्रोलियम मंत्रालय की तरफ से एक विज्ञापन छपवाया गया जिसका शीर्षक है The 1-2-3 of the Nuclear Deal...ऊपर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हाथ हिला रहे हैं और नीचे 1-2-3 क्रमांक पर तीन बातें कही गई हैं। पहली और आखिरी बात तो बेहूदा है। हां, दो नबंर के तर्क में थोड़ा दम लगता है। इसमें कहा गया है कि “The nuclear deal ends the technological isolation we have suffered since Pokharan. It will lift the world’s sanctions against us, allow our scientists to take their honoured place in the international community and grant us the status of a recognized nuclear power that will not sign the NPT but is respected as a non-proliferator. The deal restores our sovereign honour.” सच बात है कि न्यूक्लियर डील 1974 में हुए पहले पोखरन परीक्षण के बाद भारत पर लगी बंदिशों को अंतिम तौर पर खत्म करने में मददगार हो सकती है। न्यूक्लियर तकनीक में अलग-थलग पड़ा देश दुनिया की मुख्यधारा में आ सकता है। विदेशों से न्यूक्लियर तकनीक ही नहीं, यूरेनियम भी आयात करने में सहूलियत हो जाएगी। कहा जा रहा है कि

सो जाओ, चालू है बिजली दिखाकर देश का सौदा

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कांग्रेस का नारा है – एटॉमिक डील होने दो, देशवासियों को चैन की नींद सोने दो। उसका कहना है कि डील के बाद इतनी परमाणु बिजली बनने लगेगी कि कहीं कोई कटौती नहीं होगी, किसी की नींद नहीं खराब होगी। वैसे, हमारे परमाणु ऊर्जा विभाग के मुताबिक (Tables पर क्लिक करें, Table 10 देखें) साल 2002 में देश के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का हिस्सा 3.01 फीसदी था, जिसके 2022 में 10, 2032 में 13, 2042 में 18 और 2052 में 26 फीसदी हो जाने का अनुमान है। लेकिन सोनिया के सपूत राहुल गांधी अमेठी में जाकर बताते हैं कि यह कहना गलत है कि हमारी बिजली ज़रूरतों का 3 फीसदी हिस्सा ही परमाणु ऊर्जा से पूरा होता है। अगर ये (भारत-अमेरिका) डील हो गई तो हमारी 70 फीसदी ज़रूरतें परमाणु बिजली से पूरी हो सकती हैं। राहुल कहते हैं कि देश का ठीक ढंग से सोचनेवाला हर व्यक्ति डील के पक्ष में है। इनमें बीजेपी से लेकर दूसरी पार्टियों के युवा राजनेता शामिल हैं। अब या तो हम सभी गलत तरीके से सोचने के आदी हो गए हैं या हमारे परमाणु ऊर्जा विभाग में सारे के सारे गधे बैठे हुए हैं या राहुल गांधी ने अतिशयोक्ति में मध्यकाल के दरबारी कवियों को

गरल सरकार के गले, अमृत तो मिलेगा अवाम को

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मंथन कैसा भी हो, होता है बड़े काम का, क्योंकि यह परत-परत लहरों के पीछे छिपे अमृत और ज़हर को अलगा कर सामने ला देता है। हफ्ते-दस दिन से हमारी राजनीति में मचे मंथन से भी यही हो रहा है। सोचिए! लिख लोढ़ा, पढ पत्थर टाइप हमारे तमाम सांसदों को तय करना पड़ रहा है कि वे अमेरिका के साथ परमाणु संधि के साथ हैं या नहीं। उन्हें समझना पड़ रहा है कि यूरेनियम के विखंडन से कितनी बिजली बन सकती है और उससे अगले 25-30 सालों में हमारी बिजली ज़रूरत का कितना हिस्सा पूरा हो पाएगा। हमें लेफ्ट का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जिस अहम दस्तावेज को सरदार मनमोहन सिंह जबरिया गोपनीय बनाने में जुटे हुए थे, उसे अब सारी दुनिया के सामने लाना पड़ा है। दस्तावेज उपलब्ध हो जाने के बाद पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग आज एक इनफॉर्म्ड बहस कर पा रहा है तो यह कांग्रेस या बीजेपी के चलते नहीं, बल्कि लेफ्ट के ही चलते संभव हो पाया है। इसलिए शहरों-कस्बों में औसत ज़िंदगी जी रहे मध्यवर्ग को समझना चाहिए कि लेफ्ट जड़सूत्रवादी हो सकता है, लेकिन लोक, लोकतंत्र और राष्ट्रविरोधी नहीं। जो लोग उसकी नीयत पर शक करते हैं, असल में वही लोग हैं जो 1942 से लेकर आज तक राष्ट

तो, न्यूक्लियर कचरा कहीं भी फेंक दिया जाएगा?

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भारत के साथ हुए सेफगार्ड्स करार के मसौदे पर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी का गवर्निंग बोर्ड पहली अगस्त को विचार करेगा। इससे पहले शुक्रवार, 18 जुलाई 2008 को भारत व अमेरिका समेत 35 देशों के प्रतिनिधियों से बने इस गवर्निंग बोर्ड को भारत की तरफ से ब्रीफ किया जाएगा ताकि मसौदे पर उठे संदेहों को मिटाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को करार के मसौदे की दो बातों पर ऐतराज है। एक, इसमें कहा गया है कि “India may take corrective measures to ensure uninterrupted operation of its civilian nuclear reactors in the event of disruption of foreign fuel supplies.” लेकिन ये corrective measures क्या होंगे? दो, मसौदे के अंत में वो सूची खाली छोड़ दी गई है जिसमें उन रिएक्टरों का ब्यौरा दिया जाना था जो आईएईए की निगरानी में आएंगे। दुनिया की परमाणु अप्रसार लॉबी को लगता है कि भारत इन दोनों ही नुक्तों का बेजा इस्तेमाल कर सकता है। देश के भीतर भी विपक्ष इस मुद्दे पर लेफ्ट-राइट कर रहा है। लेफ्ट यूपीए सरकार को ही गिराने पर आमादा है। उसका कहना है कि कांग्रेस का हाथ आम आदमी नहीं, बल्कि अमेरिका के साथ है। मनमोहन सिंह ए

जाने क्या होगा रामा रे, जाने क्या होगा मौला रे

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कमाल की बात है कि तीन दिन पहले विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने जिसे बेहद गोपनीय दस्तावेज बताया था, कहा था कि यह privileged confidential document है, उसे अब जगजाहिर कर दिया गया है। कांग्रेस के प्रवक्ता वीरप्पा मोइली अब इस दस्तावेज को de-restricted बता रहे हैं और भारत सरकार के निर्देश पर परमाणु ऊर्जा विभाग ने इसे सार्वजनिक कर दिया है, वो भी तीन दिन पहले 7 जुलाई 2008 की तारीख में। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने भी इस दस्तावेज को सार्वजनिक कर दिया है हालांकि 9 जुलाई 2008 की तारीख में। इन दोनों की प्रस्तुतियों में अंतर ये है कि हमारे परमाणु ऊर्जा विभाग का दस्तावेज 25 पेज का है, जबकि आईएईए का दस्तावेज 27 पेज का है। आईएईए के दस्वावेज के शुरुआती चार पन्नों में कानून की उलझी भाषा में एजेंसी का दृष्टिकोण रखा गया है और बाकी 23 पन्नों में भारतीय परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा जारी दस्तावेज को ड्राफ्ट के बतौर रख दिया है। दोनों में समानता ये है कि दस्तावेज के अंत में भारत सरकार और आईएईए में हुई सहमति के तहत भारत की जिन परमाणु सुविधाओं को सेफगार्ड्स के तहत रखा गया है, वह सूची खाली छोड़ दी गई ह

माई री, मैं कासे कहूं री अपने जिया की...

अक्सर ऐसा होता है कि मन की बातें मन ही में रह जाती हैं। दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आता जिनसे उन्हें बांटा जा सके। ऐसी ही मानसिकता को बयां करता एक गीत अरसे से मन में गूंजता रहा है। दस्तक फिल्म का ये गीत मुझे बहुत अच्छा लगता है, आपको भी यकीनन अच्छा लगता होगा क्योंकि ये है ही बहुत अच्छा। तो सुनिए, लता मंगेशकर का गाया ये गाना...

यूपीए सरकार को सांसत से बचाएगा लेफ्ट?

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लेफ्ट ने यूपीए सरकार से भले ही समर्थन वापस ले लिया हो, लेकिन वह कभी भी यूपीए सरकार को गिराकर एनडीए के आने का रास्ता साफ करने की तोहमत नहीं मोल ले सकता। इसलिए सूत्रों के मुताबिक पूरी उम्मीद है कि वह 21-22 जुलाई को बुलाए गए लोकसभा के विशेष सत्र की बहस में तो जमकर हिस्सा लेगा, लेकिन विश्वास मत पर वोटिंग से पहले बहिष्कार कर देगा और मतदान में हिस्सा नहीं लेगा। लेफ्ट के 59 और उनके सहयोगी केरल कांग्रेस (थॉमस) के दो सांसदों के बहिष्कार से लोकसभा में मतदान के लिए मौजूद सांसदों की संख्या घटकर 482 रह जाएगी। ऐसी सूरत में यूपीए अपने 224 सांसदों और समाजवादी पार्टी के 39 सदस्यों में से 36 का समर्थन हासिल करके 260 का आंकड़ा हासिल कर लेगी, जबकि 482 सांसदों में बहुमत के लिए उसे 242 सांसद ही चाहिए। सूत्रों का कहना है कि अगर किसी सूरत में सरकार गिर गई तो लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएंगे और आज महंगाई वगैरह के चलते जिस तरह यूपीए सरकार की साख गिरी हुई है, उसमें एनडीए के सत्ता में आने की राह आसान हो जाएगी। इसी के मद्देनज़र लेफ्ट ज़रा-सा भी जोखिम नहीं लेना चाहता। शायद लेफ्ट की इसी मजबूरी को ध्यान में रखते हु

आखिर कुछ तो है जिसकी परदादारी है!!!

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इतनी मामूली-सी बात पर सरकार को दांव पर लगा देना समझ में नहीं आता। लेफ्ट ने सरकार से मांग की थी कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के प्रतिनिधियों के साथ उसने भारत-विषयक जिन सुरक्षा उपायों पर सहमति हासिल की है, उसका पूरा लिखित प्रारूप उन्हें दिखा दिया जाए। लेफ्ट ने आज प्रणब मुखर्जी को भेजी गई चिट्ठी में लिखा है, “16 नवंबर 2007 को यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति की छठी बैठक में तय हुआ था कि सरकार आईएईए के साथ वार्ता जारी रखेगी और बातचीत का जो भी नतीजा निकलेगा, उसे अंतिम रूप देने से पहले समिति के सामने विचार करने के लिए पेश करेगी।... लेकिन सहमति हो जाने के बाद भी अभी तक उसका प्रारूप समिति के सामने नहीं रखा गया है।” प्रणब मुखर्जी ने इसका दो-टूक जवाब देते हुए कहा है कि सरकार आईएईए के साथ हुई सहमति का प्रारूप लेफ्ट को नहीं दिखा सकती क्योंकि यह भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के बीच हुए करार का एक ‘privileged’ गोपनीय दस्तावेज है। ध्यातव्य है कि यह दस्तावेज जब सरकार ने खुद को समर्थन दे रही लेफ्ट पार्टियों को नहीं दिखाया है तो संसद में रखने का सवाल ही नहीं उठता। यह दस्तावेज भा

कैद में है बुलबुल, सय्याद मुस्कुराए...

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देश में सच्ची संघीय प्रणाली होनी चाहिए। हमने हमेशा राज्यों को ज्यादा ताकत देने की वकालत की है। लेकिन जब हम ऐसा कहते हैं तो हम पर अलगाववादी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। आज राज्यों में बनाई जानेवाली लिंकरोड तक का अनुमानित खर्च नई दिल्ली में पास किया जाता है। लघु सिंचाई परियोजनाओं के लिए रकम नई दिल्ली से आती है। अगर राज्यों को सीधे रकम दे दी जाए तो वे उसे अपनी प्राथमिकता के हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं। हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं, जबकि केंद्र हमें किसी और काम के लिए पैसा देता है। इस तरह धन की बरबादी होती है। ये कहना है पंजाब के मुख्यमंत्री और शिरोमणि अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल का। उनके इस बयान में 1973 में पास किए गए और बाद में खालिस्तान आंदोलन का आधार बने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की साफ झलक मिलती है। उस प्रस्ताव में कहा गया था.... C. The Central Government should confine its authority only to defense, foreign affairs, general communications and currency and rest of the subjects should be handed over to the States and in this case particularly to Punjab. The Punjab should have t

वो नोट से नहाते हैं महंगाई बढ़ाते हैं

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महंगाई कितनी बढ़ गई है, यह तो जनता जाने। लेकिन सरकार बता रही है कि मुद्रास्फीति और बढ़कर 21 जून 2008 को खत्म हुए हफ्ते में 11.63 फीसदी पर पहुंच गई है। 1995 में मनमोहन सिंह जब नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे, तब से अब तक के 13 सालों में मुद्रास्फीति का यह उच्चतम स्तर है। जानकार मानते हैं कि अगले कुछ हफ्तों में मुद्रास्फीति की दर 13 फीसदी तक पहुंच जाएगी। सरकार असहाय है। कहती है कि हम से जितना बन पड़ा, कर दिया। अब कुछ नहीं कर सकते क्योंकि सारी दुनिया में मुद्रास्फीति की दर ऊंची चल रही है। इस आयातित महंगाई से हम अकेले कैसे निपट सकते हैं? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 7 जुलाई से जी-8 की बैठक में हिस्सा लेने होक्काइडो (जापान) जा रहे हैं तो यही हो सकता है कि जी-8 के सभी देशों – अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, इटली, जर्मनी और रूस की तरफ से मुद्रास्फीति पर कोई साझा बयान जारी करवा लिया जाए, चिंता ज़ाहिर करा दी जाए। जी-8 के देश इस पहलू पर भी गौर करेंगे कि कच्चे तेल की कीमत 146 डॉलर प्रति बैरल पहुंचने के पीछे कहीं अमेरिकी मुद्रा डॉलर की कमजोरी तो नहीं है। लेकिन इससे पहले ही अमेरिकी संसद न