जानते हैं लूप से बाहर छूटने का गम!?!
हर तरफ न दिखनेवाले कनवेयर बेल्ट हैं। सटासट चले जा रहे हैं। एक दूसरे के ऊपर, एक दूसरे के बीच से। कोई बेल्ट एक दूसरे से टकराती नहीं, काटती नहीं। इन पर खड़े, बैठे या विराजे लोग सर्र-सर्र निकले जा रहे हैं। आप अगर कहीं नीचे छूट गए हैं, इनके बाहर पड़े हैं तो पुकारते रहिए, कोई नहीं सुननेवाला। जब तक आप अपनी बात कहते हैं, तब तक कनवेयर बेल्ट सुननेवाले को लेकर उड़ चुकी होती है। लगता है जैसे अनगिनत मैरी-गो राउंड चल रहे हों और आप उनके बीच फंसे तमाशबीन बनकर रह गए हों। ये बेल्ट, ये मैरी-गो राउंड कभी थमेंगे नहीं। अगर आपको इन पर चढ़ना है तो दौड़कर, कूदकर, लपककर किसी का हाथ या पहुंचा पकड़ लेना होगा। नहीं तो अनंत समय तक आशावाद के छलावे में चौंधियाते रहिए और फिर किसी दिन निराशावाद की गर्त आपको दबोच लेगी, जिसकी पकड़ से आपको निकालनेवाला कोई नहीं होगा।
सोचिए, आप तो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे, आपने सारी फड़ जमा रखी थी, धंधा चौकस चल रहा था। अचानक किसी दिन स्वामिभान को लगी कोई गहरी ठेस आपसे नौकरी छुड़वा देती है। ये भी हो सकता है कि देश या विदेश में किसी अच्छे ऑफर के लिए आप पुरानी नौकरी को सम्मानजनक तरीके से सलाम कर देते हैं। या फिर जिंदगी में कोई ऐसी गहरी चोट लगती है कि आपको सारा कुछ निस्सार लगने लगता है। आप धंधे से विमुख हो जाते हैं। जमी-जमाई फड़ बिखर जाती है। फिर एक दिन आप लौटते हैं तो पाते हैं कि आप कनवेयर बेल्ट से नीचे छूट गए हैं। तेज़ रफ्तार से भागती बेल्ट न तो आप के लिए रुकती है और न ही आप में इतना दम होता है, आपके पास इतना जुगाड़ होता है कि आप लपक कर उस पर चढ़ जाएं।
सोचिए, आप स्टेशन पर खड़े हैं। गाड़ी आती है खचाखच भरी हुई। आपके पास रिजर्वेशन नहीं है। रिजर्व बोगी में आप घुसने के अधिकारी नहीं है। जनरल डब्बे में घुसने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि उसमें तो गेट तक लोग लटके हुए हैं। गाड़ी छूट जाती है। शाम हो चुकी है। रात होने को है। स्टेशन मास्टर बताता है कि अगली गाड़ी 14 घंटे बाद आएगी। अब तो अगली जगह साल भर बाद निकलेगी। आप इंतज़ार करने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं? अगली गाड़ी, फिर अगली गाड़ी और फिर अगली की अगली गाड़ी। सभी गाड़ियां पहले स्टेशनों से ही भरी आती है। आप वहीं स्टेशन पर खड़े रह जाते हैं। सालोंसाल। जिंदगी की सांझ आ जाती है। उम्र ढल जाती है। शरीर, दिमाग और दिल की ताकत चुक जाती है। आस टूट जाती है। आप डूब जाते हैं गहरे अवसाद में। सभी भाग रहे हैं, खुद को सुरक्षित कर रहे हैं। आपका हाथ थामनेवाला कोई नहीं। अपने भी पराए हो जाते हैं, ताना कसने लगते हैं।
सोचिए, आप गंगा में नहाने गए। भीड़ कम थी। किनारे दूर-दूर तक रेत का साम्राज्य था। आप अपने गहने, पैसे और घड़ी जैसे तमाम कीमती सामान रेत का गढ्ढा खोदकर उसमें छिपा देते हैं। जगह की पहचान रहे, इसलिए उसके ऊपर बड़ा-सा शिवलिंग बना देते हैं। स्नान का पुण्य कमाने गंगा की धार में गहरे उतर जाते हैं। तैरना आता है तो धारा के बीच दूर तक चले जाते हैं। लौटकर आते हैं तो देखते क्या है संगम के तट पर हज़ारों का हुजूम है। बहुत-से नहाने को आतुर हैं और बहुत-से पुण्य कमाकर लौट आए हैं। लेकिन यह क्या! हुजूम के बीच रेत के घनेरों ढेर हैं। सभी की आकृति बड़े से शिवलिंग की है। आप जमींदोज होकर अपना शिवलिंग तलाशते हैं, वह शिवलिंग जिसमें आपके कीमती असबाब दफ्न हैं। हज़ारों शिवलिंग की आकृतियों में आप वाला शिवलिंग नहीं मिलता। आप इतनी बुद्धिमानी के बावजूद नहाते-नहाते कंगाल बन गए।
कभी कनवेयर बेल्ट से उतरकर ज़रा इन लोगों से पूछिए कि वो सब कुछ होते हुए भी कैसे खाली हाथ हो गए, बेकाम हो गए। फिर याद करिए मशहूर शायर मजाज़ की ये लाइनें और महसूस करिए लूप से बाहर छूट गए शख्स का ग़म, उसका दर्द, उसकी खीझ...
इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
सोचिए, आप तो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे, आपने सारी फड़ जमा रखी थी, धंधा चौकस चल रहा था। अचानक किसी दिन स्वामिभान को लगी कोई गहरी ठेस आपसे नौकरी छुड़वा देती है। ये भी हो सकता है कि देश या विदेश में किसी अच्छे ऑफर के लिए आप पुरानी नौकरी को सम्मानजनक तरीके से सलाम कर देते हैं। या फिर जिंदगी में कोई ऐसी गहरी चोट लगती है कि आपको सारा कुछ निस्सार लगने लगता है। आप धंधे से विमुख हो जाते हैं। जमी-जमाई फड़ बिखर जाती है। फिर एक दिन आप लौटते हैं तो पाते हैं कि आप कनवेयर बेल्ट से नीचे छूट गए हैं। तेज़ रफ्तार से भागती बेल्ट न तो आप के लिए रुकती है और न ही आप में इतना दम होता है, आपके पास इतना जुगाड़ होता है कि आप लपक कर उस पर चढ़ जाएं।
सोचिए, आप स्टेशन पर खड़े हैं। गाड़ी आती है खचाखच भरी हुई। आपके पास रिजर्वेशन नहीं है। रिजर्व बोगी में आप घुसने के अधिकारी नहीं है। जनरल डब्बे में घुसने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि उसमें तो गेट तक लोग लटके हुए हैं। गाड़ी छूट जाती है। शाम हो चुकी है। रात होने को है। स्टेशन मास्टर बताता है कि अगली गाड़ी 14 घंटे बाद आएगी। अब तो अगली जगह साल भर बाद निकलेगी। आप इंतज़ार करने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं? अगली गाड़ी, फिर अगली गाड़ी और फिर अगली की अगली गाड़ी। सभी गाड़ियां पहले स्टेशनों से ही भरी आती है। आप वहीं स्टेशन पर खड़े रह जाते हैं। सालोंसाल। जिंदगी की सांझ आ जाती है। उम्र ढल जाती है। शरीर, दिमाग और दिल की ताकत चुक जाती है। आस टूट जाती है। आप डूब जाते हैं गहरे अवसाद में। सभी भाग रहे हैं, खुद को सुरक्षित कर रहे हैं। आपका हाथ थामनेवाला कोई नहीं। अपने भी पराए हो जाते हैं, ताना कसने लगते हैं।
सोचिए, आप गंगा में नहाने गए। भीड़ कम थी। किनारे दूर-दूर तक रेत का साम्राज्य था। आप अपने गहने, पैसे और घड़ी जैसे तमाम कीमती सामान रेत का गढ्ढा खोदकर उसमें छिपा देते हैं। जगह की पहचान रहे, इसलिए उसके ऊपर बड़ा-सा शिवलिंग बना देते हैं। स्नान का पुण्य कमाने गंगा की धार में गहरे उतर जाते हैं। तैरना आता है तो धारा के बीच दूर तक चले जाते हैं। लौटकर आते हैं तो देखते क्या है संगम के तट पर हज़ारों का हुजूम है। बहुत-से नहाने को आतुर हैं और बहुत-से पुण्य कमाकर लौट आए हैं। लेकिन यह क्या! हुजूम के बीच रेत के घनेरों ढेर हैं। सभी की आकृति बड़े से शिवलिंग की है। आप जमींदोज होकर अपना शिवलिंग तलाशते हैं, वह शिवलिंग जिसमें आपके कीमती असबाब दफ्न हैं। हज़ारों शिवलिंग की आकृतियों में आप वाला शिवलिंग नहीं मिलता। आप इतनी बुद्धिमानी के बावजूद नहाते-नहाते कंगाल बन गए।
कभी कनवेयर बेल्ट से उतरकर ज़रा इन लोगों से पूछिए कि वो सब कुछ होते हुए भी कैसे खाली हाथ हो गए, बेकाम हो गए। फिर याद करिए मशहूर शायर मजाज़ की ये लाइनें और महसूस करिए लूप से बाहर छूट गए शख्स का ग़म, उसका दर्द, उसकी खीझ...
इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
Comments
ऐसी ऐसी बाते लिख कर आप तो जीने नहीं देंगे..
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ...
एकदम निराला अंदाज रहा भाई.